सिखों की पारंपरिक युद्ध-कला : गतका (शोध पत्र)
असि क्रिपान खंडों खड़ग तुपक तबर अरु तीर॥
सैफ सरोही सैहथी यहै हमारे पीर॥
(ससत्र नाम माला)
‘गुरु पंथ खालसा’ की धार्मिक युद्ध-कला ‘गतका’ की समस्त विश्व में एक विशिष्ट पहचान है। इस कला ने युद्ध-कौशल के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो उपलब्धियाँ प्राप्त की हैं, वह अद्वितीय हैं।
इतिहास और आरंभ
आज के युग में विश्व भर में असंख्य कलाओं और युद्ध-कौशल की विधाओं को देखा जा सकता है, उन्हीं में से एक विशेष नाम है—‘गतका’।
‘गतका’ शब्द मूलतः एक विशेष प्रकार की बेंत या लठ्ठ (सोटी / सलोत्तर) ) को कहा जाता है, परन्तु सिख धर्म में इसे शस्त्र विद्या अथवा शस्त्र-कला के व्यापक रूप से जोड़ा गया है। जब हम शस्त्रों या युद्ध-कला की चर्चा करते हैं, तो हमारी कल्पना में तुरंत मार-काट, युद्ध और रणभूमि का दृश्य उभर आता है। निश्चित रूप से, शस्त्र-विद्या युद्ध के समय काम आने वाली विद्या है परन्तु शांति के समय या उत्सव के अवसरों पर इसे मनोरंजन तथा सांस्कृतिक धरोहर के संरक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
सिख धर्म में शस्त्र-कला की नींव स्वयं पंचम पातशाह ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ ने रखी थी, परंतु इस विधा को अपनाकर इसका विस्तार छठे गुरु ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ ने अपने कार्यकाल में किया। गुरु साहिबान ने ‘भक्ति और शक्ति’ के प्रतीक श्री अकाल तख़्त साहिब जी की स्थापना कर इस कला को आध्यात्मिकता से जोड़ने का अभूतपूर्व कार्य किया|
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि पूर्व समय में ‘गतका’ के अत्यंत उच्च कोटि के खिलाड़ी हुआ करते थे। वे इतनी तीव्रता से वार करते थे कि कौए जैसे चपल पक्षी को चारपाई के नीचे बंद कर, गतके की पाँच फुट लंबे लठ्ठ (सोटी / सलोत्तर) से ऐसा वार करते थे कि पक्षी बाहर निकल नहीं पाता था। परंतु दुर्भाग्यवश, आज के समय में ऐसे अद्वितीय खिलाड़ी देखने को नहीं मिलते। इसका मुख्य कारण उस्ताद और शागिर्द के बीच बढ़ता अविश्वास रहा है, जिसने इस पवित्र कला को लगभग समाप्ति की ओर धकेल दिया है।
एक और कारण यह भी रहा कि कई गतका उस्तादों ने अपने कुछ विशेष वारों प्रहारों को दूसरों से छिपा लिया, ताकि कोई शिष्य उनसे आगे न निकल सके। लेकिन इसमें दोष केवल उस्तादों का नहीं, बल्कि शिष्य भी बराबर के दोषी रहे हैं, जो न तो अपने उस्तादों के प्रति समर्पित हो सके और न ही उन पर विश्वास कायम कर सके। इस प्रकार अविश्वास के इस युग में यह महान कला पीढ़ी दर पीढ़ी सिकुड़ती चली गई और आज केवल सीमित दायरों में सिमट कर रह गई है।
एक और बड़ी विडंबना यह है कि कुछ विद्यार्थी थोड़ी-सी शिक्षा प्राप्त करते ही अहंकार, ईर्ष्या, लोभ और आत्मविश्वास की कमी के कारण स्वयं को उस्ताद मान बैठते हैं और अपना स्वतंत्र अखाड़ा या गतका समूह बना लेते हैं। वह जितना जानते हैं, उतना ही आगे सिखा पाते हैं। शेष बची कसर नशे की गिरफ्त में जकड़ी आज की युवा पीढ़ी पूरी कर रही है, जो अपने सांस्कृतिक और धार्मिक विरासत से निरंतर दूर होती जा रही है।
‘गतका’, जो कभी प्रत्येक सिख की आन-बान और सम्मान का प्रतीक था, जो हर धार्मिक आयोजन का अविभाज्य अंग होता था, वह ‘गतका’ अब धीरे-धीरे ‘गुरु पंथ खालसा’ से विलग होता जा रहा है।
वर्तमान समय में ‘गति’ की यह धारा फिर गति पकड़ रही है। इसके लिए ‘गतका फेडरेशन ऑफ इंडिया’ तथा ‘वर्ल्ड गतका फेडरेशन’ निरंतर प्रयासरत हैं। यह संस्थाएं इस कला के पारंपरिक स्वरूप को पुनर्जीवित करने और इसके गौरवशाली अतीत को पुनः स्थापित करने हेतु प्रतिबद्ध हैं।
गतका के विषय में लिखित, प्रमाणित जानकारी के अभाव के कारण ही आज कई गतका समूह इसके वारों (प्रहारों) की संख्या भिन्न-भिन्न बताते हैं—कोई 16, कोई 48, कोई 84, कोई 101, तो कोई इससे भी अधिक। वर्तमान समय में सिखों की इस शस्त्र विद्या में ‘गतका’ को एक विशिष्ट शस्त्र के रूप में स्वीकार किया गया है, जिसकी लंबाई मुट्ठ सहित 39 इंच और सिरे की मोटाई लगभग तीन चौथाई इंच होती है। इसका प्राचीन स्वरूप और प्रयोग की पद्धति आज पूर्णतः बदल चुकी है।
अज्ञानवश कई लोग ‘शस्त्र-विद्या’ को ही ‘गतका’ मान लेते हैं, जो कि एक बड़ी भ्रांति है। सिख धर्म के प्रसिद्ध विद्वान भाई काह्न सिंह नाभा जी ने ‘महान कोश’ में ‘गतका’ की व्याख्या करते हुए लिखा है—
“गतका युद्ध की शिक्षा के प्रथम चरण के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला एक डंडा, जिसकी लंबाई तीन हाथ होती है। इसके ऊपर चमड़े की परत चढ़ाई जाती है। दाहिने हाथ में गतका और बाएँ में फरी (ढाल) लेकर योद्धा अभ्यास करते हैं।”
उन्होंने जहाँ भी शस्त्रों का वर्णन किया, वहाँ ‘गतका’ का उल्लेख नहीं किया। यह तथ्य दर्शाता है कि गतका और शस्त्र दो भिन्न अवधारणाएँ हैं।
शस्त्र-विद्या, सिख कौम की ऐतिहासिक और अमूल्य विरासत है, जिसका उल्लेख अनेक ग्रंथों में मिलता है, परंतु ‘गतका’ का स्पष्ट उल्लेख अधिकतर विलुप्त रहता है। दशम पातशाह ‘श्री गुरु गोबिंद सिंह जी’ एक स्थान पर स्पष्ट रूप से फर्माते हैं—
ਪਵਨ ਪ੍ਰਕਾਰ ਦੋਇ ਜੋ ਜਾਨਹੁ ॥ ਪਟੇਬਾਜ ਇਕ ਸੁਰ ਪ੍ਰਮਾਨਹੁ ॥
पवन प्रकार दोइ जो जानहु ॥ पटेबाज इक सुर प्रमानहु। ॥
(अर्थ: जो युद्ध में वीरता दिखाए वह ‘सूरमा’ कहलाता है ओर जो केवल खेल दिखाने वाला ‘पटेबाज़’)।
गतका की कला को ही ‘पट्टेबाज़ी’ कहा गया है। इसे अनेक अन्य नामों जैसे— एक-अंगी, लकड़ीबाज़ी, मुदगरबाज़ी, फुलथेबाज़ी, खुतकेबाज़ी आदि नामों से भी जाना जाता है। इसकी सोटी (बेंत या लठ्ठ) को फारसी में ‘खुतका’, तुर्की में ‘कुतका’ तथा विभिन्न भाषाओं में डंडा, ठेंगा, लठ्ठ, मुदगर, सलोत्तर आदि कहा जाता है।
निश्चित ही शस्त्र-विद्या में युद्ध-कला सिखाई जाती है जबकि गतका के वार / प्रहार केवल खेल और प्रतियोगिता में अंकों हेतु सिखाए जाते हैं।
एक प्रमुख कारण जिसके चलते लोग ‘गतका’ को ही ‘शस्त्र-विद्या’ समझने लगे, वह यह था कि शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह जी के पश्चात अंग्रेज सरकार ने सिखों को कृपाण धारण करने, निर्माण एवं प्रयोग करने पर कई बार प्रतिबंध लगाए। उस समय कृपाण के स्थान पर सोटी (बेंत या लठ्ठ) से गतका के खेल का प्रचलन बढ़ गया। चूंकि सोटी (बेंत या लठ्ठ) जानलेवा नहीं होती, इसलिए यह खेल अधिक लोकप्रिय हो गया और कालांतर में शस्त्र-विद्या को ही ‘गतका’ कहा जाने लगा।
इतिहास में स्पष्ट प्रमाण हैं कि जिस सोटी (बेंत या लठ्ठ) को शस्त्र-विद्या में एक नए रूप में अपनाया गया, उसी के समान अन्य धर्मों में भी युद्ध-कला में ऐसी लाठियों का प्रयोग किया जाता रहा है। आज ‘फेंसिंग’, ‘केंडो’ जैसी दर्जनों अंतरराष्ट्रीय युद्ध कलाएँ विश्व भर में मान्यता प्राप्त कर चुकी हैं।
भारत में भी पुरातन काल में गतका एक लोकप्रिय खेल था। सन् 1936 ई. में लाहौर विश्वविद्यालय के खेल निदेशक ‘सरदार के.एस. अकाली’ ने सबसे पहले गतका के नियम निर्धारित किए। स्वतंत्रता के बाद यह खेल सन 1978 ई. तक गुरु नानक देव विश्वविद्यालय और पंजाब के कॉलेजों में प्रचलित रहा। फिर अस्थिर राजनीतिक परिस्थितियों के कारण यह थोड़े समय के लिए रुक सा गया। यद्यपि पंजाबी विश्वविद्यालय द्वारा सन् 2003 ई. में पुनः पुराने नियमों के आधार पर प्रतियोगिताएं प्रारंभ की गईं। आज यह खेल पंजाब के अधिकांश कॉलेजों और दर्जनों विश्वविद्यालयों में लोकप्रिय है। सन् 2009 ई. से इसे पंजाब सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के खेल कैलेंडर में शामिल किया गया है। वर्तमान समय में युवा वर्ग में ‘गतका’ अत्यंत लोकप्रिय हैं। पंजाबी विश्वविद्यालय, स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया, और वर्ल्ड गतका फेडरेशन के प्रयासों से आज यह खेल राष्ट्रीय स्कूल खेलों का हिस्सा बन चुका है और इसके विद्यार्थी डिप्लोमा कोर्स भी कर रहे हैं।
सरदार सुखदेव सिंह ढींढसा (वर्ल्ड फेडरेशन), स. सुरिंदर पाल सिंह ओबेरॉय (एशियन फेडरेशन), सरदार हरचरण सिंह भुल्लर (प्रेसिडेंट, इंडिया फेडरेशन) तथा सरदार हरजीत सिंह ग्रेवाल (जनरल सेक्रेटरी) की अथक मेहनत के कारण यह खेल आज उल्लेखनीय उपलब्धियाँ प्राप्त कर रहा है।
वर्तमान समय में जब विश्व की प्रत्येक कौम अपने विशेष सांस्कृतिक खेलों को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर प्रस्तुत कर गौरव प्राप्त कर रही है, ऐसे में गतका भी ‘गुरु पंथ खालसा’ की सांस्कृतिक एवं धार्मिक पहचान बन सकता है।
खेलों के माध्यम से ही विश्व समुदाय विभिन्न संस्कृतियों और धर्मों को जानने के प्रति आकर्षित होता है, जिससे धार्मिक प्रचार-प्रसार को भी बल मिलता हैं। जैसे कि चीन का ‘शाओलिन टेंपल’ इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।
जब कोई खेल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार कर लिया जाता है, तो वह बिना भेदभाव के सभी समाजों द्वारा अपनाया जाता है और उसके मूल धर्म या समुदाय का गौरव भी बढ़ता है। यही बात ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने सिख धर्म की नींव रखते समय स्पष्ट की थी—
ना को बैरी, नही बिगाना; सगल संगि हम कउ बनि आई” ॥
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब, अंग 1299)
विद्या वह समुद्र है जिसमें से हर कोई कुछ प्राप्त कर सकता है और उसका कोई क्षय नहीं होता, बल्कि ज्ञान देने से ज्ञान बढ़ता ही है। खेल कोई व्यक्ति या धर्म विशेष की बपौती नहीं, बल्कि वह सामूहिक चेतना और स्वास्थ्य का साधन है। वर्तमान समय में भी अनेक राष्ट्र शत्रुता के बावजूद खेलों के ज़रिए आपसी संवाद के द्वार खोलते हैं, जैसे भारत और पाकिस्तान।
“निश्चित ही खेल सामाजिक एकता, प्रेम, और शारीरिक स्वास्थ्य की अमूल्य निधियाँ हैं”।
इन्हीं उद्देश्यों के साथ वर्ल्ड गतका फेडरेशन एवं गुरमत-आधारित संस्थाएं गतका को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहुंचाने के साथ-साथ पारंपरिक शस्त्र-विद्या के संरक्षण हेतु भी सतत प्रयासरत हैं। इन संस्थाओं के द्वारा ‘विरसा संभाल विंग’ की स्थापना कर, बाणी और बाणे के साथ-साथ सिख विरासत रूपी गतका को सही परिप्रेक्ष्य में सहेजने हेतु प्रतियोगिताएं आयोजित कर, इस अभूतपूर्व खेल का संवर्धन कर रहे हैं।
शस्त्र के साथ शास्त्र-विद्या
गुरु साहिबान ने शस्त्र धारण के साथ-साथ शस्त्र विद्या की शिक्षा भी अनिवार्य कर दी। समस्त सिख अमृत पान कर ‘सिंह’ / ‘सिंघ’ सजे और शस्त्रों व गतका का अभ्यास करके युद्ध-कला में निपुण हों, यही उनका ध्येय था।
परिभाषा एवं दर्शन
‘गतका’, सिखों की धर्म-युद्ध विद्या का अभिन्न अंग है। यह एक ऐसी युद्ध-कला है जो मानव मूल्यों की रक्षा, निर्भीक जीवन, और निस्वार्थ सेवा भावना का प्रशिक्षण देती है।
‘गतका’ शब्द के तीन अक्षरों—
- ‘ग’ से गति (चाल),
- ‘त’ से तालमेल (समन्वय),
- ‘क’ से काल (समय),
इनका संकेत है कि इस कला के अभ्यास में तीव्रता, शस्त्र के साथ शरीर का तालमेल, और वार / प्रहार अथवा बचाव के समय का सटीक उपयोग अत्यंत आवश्यक है।
‘गतका’ की सोटी (बेंत या लठ्ठ) की लंबाई तीन हाथ, मोटाई लगभग ¾ इंच, और वजन लगभग आधा किलोग्राम होता है। इसकी मूठ के ऊपरी हिस्से पर लगा बड़ा लकड़ी का घुंडी ‘परज’ कहलाता है, जिस पर फोम या कपड़ा लगाया जाता है ताकि हाथ को लकड़ी की रगड़ से क्षति न पहुँचे। इस पर चमड़े का आवरण (कवच) लगाया जाता है, और संपूर्ण सोटी (बेंत या लठ्ठ) पर ‘नवार’ का कपड़ा चढ़ाया जाता है, इस तरह से विशेष रूप से निर्मीत सोटी ‘गतका’ कहलाती है।
पैंतरा (गतकाई चालें)
गतका में सबसे मूलभूत तत्व है, पैंतरा! इसे ‘पैंतरा’ या ‘पाइता’ भी कहा जाता है। इसमें खिलाड़ी को ज़मीन पर पैरों की सटीक स्थिति और शस्त्र की दिशा में तेज़, संतुलित चाल के साथ वार / प्रहार या बचाव करना सिखाया जाता है। शरीर की गतियों और वेशभूषा का भी पैंतरे से घनिष्ठ संबंध होता है। निहंग सिखों द्वारा बोले जाने वाले जयकारे और उच्चारित वाणी भी पैंतरे का हिस्सा माने जाते हैं।
पैंतरों की प्रमुख श्रेणियाँ:
- आगे-पीछे का,
- दाएँ-बाएँ का,
- चढ़ाई-उतराई का,
- आधा पाँव, एक पाँव, डेढ़ पाँव, दो पाँव, ढाई पाँव, तीन पाँव,
- युद्ध पैंतरा,
- सलामी पैंतरे: शेर चाल, बाघ चाल, घोड़ा चाल, नाग चाल, डंड चाल, पहलवान चाल आदि।
‘घुरे’ नामक पैंतरा (चार पाँव वाला पैंतरा) को सबसे अधिक प्रभावशाली माना जाता है, क्योंकि सभी प्रकार के शस्त्रों के वार और बचाव इसी में सिद्ध होते हैं।
आचार संहिता व प्रशिक्षण विधि
गतका, सिख धर्म की पवित्र धार्मिक युद्ध-कला होने के कारण इसका अभ्यास केवल अमृतधारी, पंथक बाना धारण करने वाले विद्यार्थियों द्वारा किया जाना चाहिए। इस विषय पर श्री अकाल तख्त साहिब द्वारा 23 नवम्बर सन 2012 ई. को स्पष्ट आदेश जारी किया गया।
गतका आरंभ करने वाले को सिखाने से पहले यह कहा जाता है—
“शस्त्रों का प्रयोग सदैव निर्बल, असहाय, स्त्रियों, बच्चों, बुजुर्गों की रक्षा के लिए ही करना है।” विद्यार्थी (भुजंगी) अपने उस्ताद को दस्तार भेंट देकर आशीर्वाद लेते है और शस्त्रों के सामने ‘कड़ाह प्रसाद’ सजाकर ‘अरदास’ की जाती है।
शस्त्र सजावट एवं अभ्यास
तख़्त, मंजी या ऊँची चौकी पर कपड़ा बिछाकर गतका, छोटी ढाल, कृपाण, बड़ी ढाल, चक्र, खंडा, खंजर, बरछा आदि शस्त्र ससम्मान सहित सजाए जाते हैं। मूल मंत्र, चौपाई साहिब का पाठ और अरदास करके अभ्यास शुरू किया जाता है। खिलाड़ी अभ्यास पूर्व दौड़, दंड-बैठक आदि से शरीर को सक्रिय करते है। अभ्यास के दौरान शस्त्र को सलामी देना पैंतरे के अनुरूप किया जाता है। इस अभ्यास के दौरान पारंपरिक छंद-पाठ और खालसाई बोले उच्चारित किए जाते हैं।
प्राप्तियाँ एवं योगदान
गतका की विधिवत शुरुआत ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ ने की। इस कला ने ऐसे वीर योद्धा तैयार किए, जिन्होंने ‘गुरु पंथ खालसा’ की शान को संसार भर में गौरवशाली किया।
उनमें से उल्लेखनीय नाम हैं:
- बाबा दीप सिंह जी
- जत्थेदार बाबा फूला सिंह जी अकाली
- सरदार हरि सिंह नलवा, जिन्होंने महाराजा रणजीत सिंह की सेना का नेतृत्व कर अद्वितीय पराक्रम दिखाया।
अन्य महत्वपूर्ण नाम हैं:
- बाबा चेत सिंह जी (बुड्ढा दल)
- बाबा सोहन सिंह जी (सुरसिंह)
- बाबा बिशन सिंह जी (बाबा बकाला)
- भाई राम सिंह जी (जेठूवाल)
- बाबा मसा सिंह जी (सभरावां)
- ज्ञानी सवरन सिंह जी (बिल्ला)
- भाई नायब सिंह जी (रोड़े) आदि।
आज भी इन संत-सैनिक परंपराओं के अखाड़े और दल सक्रिय रूप से ‘गतका’ को जीवित रखे हुए हैं।
‘शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी’ (SGPC) द्वारा ‘शिरोमणि गतका फेडरेशन ऑफ इंडिया’ की स्थापना की गई है, जिसके अंतर्गत कई पंथक अखाड़े भी सम्मिलित हैं। SGPC के शैक्षिक संस्थानों में गतका प्रशिक्षण अनिवार्य कर दिया गया है।
‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के गुरता गद्दी दिवस के 300 वर्षों पर, सचखंड श्री हजूर साहिब (नांदेड़) में SGPC ने गतका फेडरेशन के सहयोग से एक सफल अंतरराष्ट्रीय गतका प्रतियोगिता आयोजित की, जिसमें अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, मलेशिया की टीमें शामिल हुईं।
श्री आनंदपुर साहिब और श्री फतेहगढ़ साहिब में भी प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय स्तर के गतका प्रशिक्षण शिविर और प्रतियोगिताएं आयोजित होती हैं, जिनमें सिंह / सिंघ और बीबियाँ भाग लेकर गुरुओं की प्रसन्नता प्राप्त करते हैं। वर्तमान समय में आवश्यकता है एक निस्वार्थ और सामूहिक सोच की, जिससे यह खेल ‘गुरु पंथ खालसा’ की विरासती पहचान बनकर विश्व मंच पर सम्मान पूर्वक खड़ा हो सके और सिख कौम का गौरव और अधिक बढ़े।
गुरु साहिब की कृपा से यह धार्मिक युद्ध-कला ‘गतका’, सिख धर्म की अनमोल विरासत बनकर उच्च शिखरों तक पहुँचे| यही टीम खोज-विचार की कामना है।
साभार: उपरोक्त शोध पत्र डाॅ. मनजीत सिंह ‘गतका मास्टर’ जी द्वारा गुरुमुखी में रचित पुस्तक “गतका” (ISBN: 817205517) से प्रेरणा लेकर रचित किया गया है।
नोट:-1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है। लेख में प्रकाशित चित्र काल्पनिक है।
2. गुरबाणी का हिंदी अनुवाद गुरबाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
साभार- लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यों की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

