श्री गुरु नानक देव साहिब जी और उनकी चार उदासी यात्राएँ

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श्री गुरु नानक देव साहिब जी और उनकी चार उदासी यात्राएँ

सारांश (Abstract):
यह शोध-पत्र सिख धर्म के संस्थापक एवं प्रथम गुरु, श्री गुरु नानक देव साहिब जी द्वारा जीवनकाल में की गई चार उदासी यात्राओं पर केंद्रित है। इन यात्राओं ने धार्मिक पुनर्जागरण का सूत्रपात किया और समाज में व्याप्त अंधविश्वास, जातिवाद तथा पाखंड के विरुद्ध आध्यात्मिक चेतना का संचार किया। इस शोध पत्र में चार उदासी यात्राओं का विशद वर्णन करते हुए उन स्थलों और सामाजिक परिस्थितियों का अवलोकन प्रस्तुत किया गया है, जहाँ-जहाँ गुरु साहिब जी ने दिव्य उपदेश प्रदान किए।

प्रस्तावना (Introduction)

सिख धर्म के प्रवर्तक, श्री गुरु नानक देव साहिब जी द्वारा की गई चार उदासी यात्राएँ भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक, सामाजिक एवं धार्मिक परिदृश्य के लिए मील का पत्थर सिद्ध हुईं। ‘उदासी’ का तात्पर्य है उपरामता या वैराग्य — सांसारिक सुखों, भौतिक संसाधनों और मोह-ममता का त्याग। गुरमत के अनुसार, उदासी वह आत्मिक यात्रा है, जिसमें साधक मोह-माया से मुक्त होकर, किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति हेतु देश-विदेश का भ्रमण करता है। इस प्रकार की यात्रा न केवल आत्मान्वेषण का साधन होती है, अपितु जनमानस के कल्याण हेतु संदेशवाहक भी बनती है।

गुरु साहिब जी ने इन यात्राओं के दौरान भूख-प्यास, विषम मौसम और सामाजिक कठिनाइयों का सामना करते हुए सत्य और प्रेम का संदेश प्रसारित किया। उनके व्यक्तित्व की विलक्षणता यह थी कि जहाँ भी गए, वहाँ की भाषा, बोली और वेशभूषा को आत्मसात कर सहज संवाद स्थापित किया। सिद्धों, योगियों और संतो ने उनके इस व्यवहार पर प्रश्न किए, जिनका उत्तर गुरुवाणी में इस प्रकार मिलता है:

“कवन तुमे किआ नाउ तुमारा कउनु मारगु कउनु सआओ।

साचु कहउ अरदासि हमारी हउ संत जना बलि जाओ।

कह बैसहु कह रहीऐ वाले कह आवहु कह जाओ।

नानकु बोलै सुणि बैरागी किआ तुमारा राहो।” 

(अंग क्रमांक 938)

जब सिद्धों ने गुरु साहिब से पूछा — “तुम कौन हो? तुम्हारा नाम क्या है? किस मार्ग के पथिक हो? जीवन का उद्देश्य क्या है?” तब उत्तर में गुरु साहिब ने फरमाया:

“गुरमुखि खोजत भए उदासी।

दरसन कै ताई भेख निवासी।

साच वखर के हम वणजारे।

नानक गुरमुखि उतरसि पारे।” 

(अंग क्रमांक 939)

गुरु साहिब ने स्पष्ट किया कि वे गुरमुखों की खोज में निकले हैं, ऐसे संतजन जो ‘सच्चे वणजारे’ बनकर सतनाम के वाणिज्य में प्रवृत्त हैं। उनके अनुसार, गुरुमुख ही संसार सागर से पार हो सकते हैं।

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य (Historical Background)

पंद्रहवीं शताब्दी का भारत सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक दृष्टि से अत्यंत विकट अवस्था में था। सामाजिक ताने-बाने को वर्ण व्यवस्था ने जकड़ रखा था। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कठोर विभाजन ने गहन भेदभाव को जन्म दिया था। स्त्रियों को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता था। मुस्लिम शासकों के अत्याचार और हिंदू समाज के आंतरिक दोषों ने आम जनमानस को निराशा और पराधीनता के गर्त में धकेल दिया था। धर्म के नाम पर पंडित, काजी और जोगी समाज को उलझा कर निजी स्वार्थ साध रहे थे।

ऐसे संकटकाल में, श्री गुरु नानक देव साहिब जी ने चार उदासी यात्राओं के माध्यम से समाज को सत्य, सेवा, प्रेम और समानता का दिव्य संदेश प्रदान किया।

पहली उदासी यात्रा (First Udasi): पूर्व दिशा की ओर

समयावधि: 30 अगस्त सन 1497 ई. से 24 अक्टूबर सन 1509 ई. तक

यात्रा का प्रारंभ:
गुरु साहिब जी ने प्रथम उदासी यात्रा का प्रारंभ सुल्तानपुर से अपने परम सखा रबाबी भाई मरदाना जी के साथ की। यह यात्रा न केवल भौगोलिक सीमा का विस्तार थी, बल्कि आत्मिक जिज्ञासा और मानवता की सेवा का विराट संकल्प भी थी।

यात्रा का विस्तार:
गुरु साहिब सुल्तानपुर से प्रस्थान कर लाहौर, कंगनपुर, रोशन भीला, तलवंडी, सैयदपुर, सरसा, पिहोवा, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, और कोटद्वार होते हुए विभिन्न पवित्र स्थलों तक पहुंचे। उन्होंने अल्मोड़ा, नानकमत्ता, अयोध्या, प्रयागराज, बनारस, पटना, गया सहित अनेक स्थानों पर दिव्य उपदेश प्रदान किए।

गया से हजारीबाग, रांची, चाईबासा, केंदुझार होते हुए वे उड़िसा पहुँचे, जहाँ भुवनेश्वर और पुरी के जगन्नाथ मंदिर में उनके प्रवचन हुए। वहाँ से फरीदपुर, ढाका, चाँदपुर, सप्तद्वीप संघ समूह, अगरतला, इंफाल, कोहिमा, गुवाहाटी, पारो (भूटान), गंगटोक (सिक्किम) और काठमांडू (नेपाल) जैसे स्थलों पर गुरुवाणी के प्रकाश को प्रस्फुटित किया।

तिब्बत की राजधानी ल्हासा और चीन के शंघाई तथा अन्य क्षेत्रों में भी गुरु साहिब ने सुमिरन और सच्चे जीवन का उपदेश दिया। पाँच वर्षों तक चीन में रहकर उन्होंने आध्यात्मिक बीज बोए। वापसी में वे काठमांडू, बिरगनी, मोतिहारी, गोरखपुर, लखनऊ, आगरा, मथुरा, दिल्ली, पानीपत, करनाल, सुनाम, संगरूर होते हुए सुल्तानपुर लौटे।

यात्रा की विशेषताएँ:
यह प्रथम उदासी यात्रा लगभग 12 वर्षों तक चली और गुरु साहिब ने 36,000 मील की दूरी तय की। यह यात्रा केवल भौगोलिक अन्वेषण नहीं थी, अपितु मानव आत्मा के उत्थान की व्यापक साधना थी। उन्होंने अंधविश्वास, जातिगत भेदभाव, धार्मिक अंधता और सामाजिक असमानता के विरुद्ध गुरमत के प्रचार- प्रसार की अलख जगाई।

प्रथम उदासी यात्रा का महत्व

श्री गुरु नानक देव साहिब जी की प्रथम उदासी यात्रा ने निश्चित ही समस्त भारतवर्ष, तिब्बत और चीन तक में आध्यात्मिक क्रांति का शंखनाद किया। उनका संदेश सीमाओं से परे ही नहीं अपितु समस्त मानवता के लिए था। यह यात्रा त्याग, प्रेम, सेवा और सत्य की अनवरत साधना का अद्भुत उदाहरण है। इस यात्रा से प्रारंभ हुई चेतना ने आगे चलकर सिख धर्म के वैश्विक प्रचार-प्रसार की आधारशिला रखी।

दूसरी उदासी यात्रा (Second Udasi): दक्षिण दिशा की ओर

समयावधि: 20 मार्च सन 1510 ई. से 25 मार्च सन 1515 ई. तक

परिचय:
प्रथम उदासी यात्रा के महान निष्कर्षों के उपरांत, श्री गुरु नानक देव साहिब जी ने दक्षिण भारत एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में धार्मिक चेतना के प्रचार हेतु दूसरी उदासी यात्रा आरंभ की। इस यात्रा में गुरु जी के साथ उनके चार समर्पित अनुयायी थे — भाई बाला जी, भाई मरदाना जी, भाई सैदो जी और भाई सींहो जी। जहाँ भाई मरदाना और भाई बाला गुरु जी की वाणी को रागों में बाँधकर गायन करते थे, वहीं भाई सैदो और भाई सींहो उस वाणी को लिपिबद्ध करने का कार्य करते थे।

यात्रा का विस्तृत विवरण

गुरु साहिब ने सुल्तानपुर से प्रस्थान कर लाहौर, तलवंडी, देपालपुर, पाकपटन और सिरसा होते हुए बीकानेर की ओर यात्रा की। वहाँ से वे जैसलमेर, जोधपुर और अजमेर पहुँचे। अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के निकट गुरु जी ने स्थानीय संतों एवं विद्वानों के साथ आध्यात्मिक संवाद स्थापित किया।

पुष्कर में, गुरु घाट, पंचकुंड, संतपुरा और ब्रह्मपुरा जैसे स्थलों पर पंडितों और योगियों के साथ संवाद करते हुए गुरु जी ने मानवता को एकमात्र अकाल पुरख की भक्ति का संदेश प्रदान किया।

चित्तौड़गढ़, उदयपुर और माउंट आबू में यात्रा करते हुए गुरु जी ने जैन साधुओं को बाह्य तपस्या की सीमाओं से परे आंतरिक साधना की ओर उन्मुख किया। पालनपुर, लखपत, भुज, मांडवी, नवलखी, जामनगर, द्वारका, पोरबंदर और जूनागढ़ के क्षेत्र भी उनके प्रवचन से आलोकित हुए।

सोमनाथ, पालीताना, भावनगर, साबरमती, बड़ौदा और सूरत होते हुए वे महाराष्ट्र में नासिक, ठाणे, पुणे, बारसी, पंढरपुर, सांगली, कोल्हापुर और गोवा पहुँचे। गोवा से आगे वे बेंगलुरु, मांडिया, मैसूर, कोझीकोड, कोयंबटूर, पलक्कड़, त्रिशूर, एर्नाकुलम और पल्लिपुरम होते हुए मदुरै पहुँचे।

मदुरै में गुरु जी ने वहाँ के पंडितों, सिद्धों और सन्यासियों को बाह्य आडंबरों से परे ईश्वर की निष्कलंक भक्ति की प्रेरणा दी।

श्रीलंका यात्रा

गुरु साहिब कन्याकुमारी से समुद्री मार्ग द्वारा श्रीलंका (उस समय का सिंहलद्वीप) पहुँचे। कोलंबो, कैंडी, नुवारा एलीया, कत्तरगामा, बाटीकलोआ, त्रिंकोमाली, अनुराधापुर और जाफना जैसे स्थानों पर गुरु जी ने आध्यात्मिक जागरण का कार्य किया।

श्रीलंका में गुरु जी ने चौदह सौ गाँवों का भ्रमण कर जनमानस के दुखों का निवारण किया और सत्य व सतनाम के पथ का उपदेश दिया। वहाँ के लोगों ने श्रद्धापूर्वक गुरु जी को ‘नानक बुद्ध’ के रूप में सम्मानित किया।

वापसी यात्रा

श्रीलंका से लौटते हुए गुरु जी तालेमन्नार, धानुषकोडी और रामेश्वरम पहुँचे। रामेश्वरम में अल्प प्रवास के उपरांत, वे रामनाथपुरम, मदुरै और नागापट्टिनम से समुद्र के रास्ते जकार्ता (जावा, इंडोनेशिया) पहुँचे। वहाँ से वे सिंगापुर और मलेशिया गए और पुनः नागापट्टिनम लौटे।

नागापट्टिनम से कुंभकोणम की यात्रा में उन्होंने प्रमुख मंदिरों में जाकर बाह्य आडंबरों से परे सच्ची भक्ति का संदेश दिया।

दूसरी उदासी यात्रा का महत्व

गुरु जी की यह दूसरी उदासी यात्रा केवल स्थान-परिवर्तन नहीं थी; अपितु यह धर्म और मानवता के प्रति एक दिव्य क्रांति थी। हर पड़ाव पर उन्होंने न केवल उपदेश दिए, बल्कि अंध विश्वास की जड़ता में डूबे समाज को नवजीवन प्रदान किया। कट्टरता, भौतिकता और जातिगत भेदभाव के विरुद्ध उनका संदेश एक वटवृक्ष की भाँति फैला, जो आज भी जीवंत है।

तीसरी उदासी यात्रा (Third Udasi): उत्तर दिशा की ओर

समयावधि: 24 जून सन 1515 ई. से 20 सितंबर सन 1517 ई. तक

परिचय:
सुल्तानपुर में तीन माह के विश्राम उपरांत, गुरु साहिब ने उत्तर दिशा की ओर अपनी तीसरी उदासी यात्रा आरंभ की। इस यात्रा में भी उनके साथ भाई मरदाना और भाई बाला उपस्थित रहे।

यात्रा का विस्तार

गुरु साहिब ने सुल्तानपुर से गुरदासपुर, पठानकोट, चंबा और कांगड़ा होते हुए ज्वालामुखी मंदिर का रुख किया। यहाँ उनकी भेंट अर्जुन तपस्वी से हुई, जिन्हें गुरु जी ने गृहस्थ आश्रम में रहकर प्रभु भक्ति का संदेश दिया।

ज्वालामुखी से आगे बढ़कर गुरु जी मनाली, कुल्लू घाटी, मणिकरण, मंडी, रावलसर, बिलासपुर होते हुए कीरतपुर पहुँचे।

कीरतपुर में गुरु जी का संवाद प्रसिद्ध सूफी फकीर बुढण शाह से हुआ। बुढण शाह की श्रद्धा और गुरु साहिब के प्रति अटल विश्वास का भावी प्रसंग साहिबजादा बाबा गुरुदत्ता जी के माध्यम से साकार हुआ।

कीरतपुर के बाद नालागढ़, पिंजौर, जौहडसर और माहीसर में गुरु जी ने अनिष्ट प्रथाओं के उन्मूलन और सच्ची भक्ति के प्रसार हेतु उपदेश दिए। माहीसर में गुरु जी के द्वारा उत्पन्न मीठे जल का स्रोत आज भी माहीसर तालाब के रूप में स्मरणीय है।

हिमालय यात्रा

गुरु साहिब ने शिमला, कालपा, पूह, नाको, कौरिक और शिपिका ला दर्रा पार कर लाहौल-स्पीति की दुर्गम घाटियों में प्रवेश किया। वहाँ से वे थागा ला दर्रा पार कर यमुनोत्री, गंगोत्री, बद्रीनाथ, हेमकुंड, कैलाश पर्वत और सुमेर पर्वत तक पहुँचे।

मानसरोवर यात्रा के उपरांत गुरु साहिब बशहर किन्नौर होते हुए तिब्बत के जम्बू और ज्ञार्सा नगर पहुँचे।

कश्मीर यात्रा

तिब्बत से लौटते हुए गुरु जी ने लेह, पत्थर साहिब, खलसी, कारगिल, दराज, बांदीपुरा, वूलर झील और बारामुला की यात्रा की। श्रीनगर में शंकराचार्य पर्वत के निकट साधु-संतों और विद्वानों से संवाद करते हुए उन्होंने उपासना में बाह्याचार की निरर्थकता को उजागर किया।

हरमुख गंगा, सोनमर्ग और अमरनाथ की यात्राओं में गुरु साहिब ने मूर्ति पूजा और अंधविश्वास के विरुद्ध शुद्ध भक्ति का संदेश दिया। पहलगांव और मटन जैसे स्थलों पर भी गुरु जी ने आध्यात्मिक जागरण का कार्य किया।

तृतीय उदासी यात्रा का महत्व

गुरु नानक देव साहिब जी की तृतीय उदासी यात्रा मानवता के प्रति उनकी गहन करुणा और ईश्वर की निरंतर अनुभूति का अमर दस्तावेज़ हैं। उन्होंने उन स्थानों पर सत्य का प्रकाश फैलाया जहाँ अज्ञानता का अंधकार गहन था। उनकी यात्राएँ न केवल ऐतिहासिक महत्व रखती हैं, अपितु आज भी आत्मा की मुक्ति के मार्ग का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती हैं।

चौथी उदासी यात्रा (Fourth Udasi): पश्चिम दिशा की ओर

समयावधि: 27 मार्च सन 1518 ई. से 30 दिसंबर सन 1521 ई. तक

पूर्व, दक्षिण और उत्तर की दिशाओं में व्यापक उदासी यात्राएँ संपन्न करने के पश्चात्, श्री गुरु नानक देव साहिब जी ने अपने अंतिम पड़ाव के रूप में पश्चिम दिशा की ओर यात्रा का संकल्प लिया।
इस यात्रा का उद्देश्य “न को हिन्दू, न मुसलमान” के सार्वभौमिक सिद्धांत को स्थापित करना था, जिससे जाति-पाति, आडंबर, कर्मकांड और भेदभाव के बंधनों से मुक्ति दिलाई जा सके और मानवता को एक परमपिता परमात्मा के नाम से जोड़ा जा सके।

गुरु जी ने समाज को तीन अमूल्य सिद्धांत प्रदान किए:

  • वंड छको (आपस में बाँटकर खाओ)
  • नाम जपो (ईश्वर का स्मरण करो)

यात्रा का आरंभ

तीसरी उदासी यात्रा के पश्चात् गुरु जी सुल्तानपुर लौट आए थे और चौथी उदासी यात्रा से पूर्व, उन्होंने अपने परिवार और बच्चों को अपने शिष्य भाई अजित्ता जी की देखरेख में सौंपा तथा माता-पिता से मिलने तलवंडी पहुँचे। उस समय माता त्रिप्ता जी अस्वस्थ थीं। गुरु जी ने माता जी की सेवा की, किंतु प्रभु की लीला के अनुसार, 15 मार्च 1518 ई. को माता त्रिप्ता जी का देहावसान हो गया। इसके तीन दिन पश्चात् मेहता कालू जी भी परमधाम सिधार गए।

गुरु जी ने समस्त सांसारिक संपत्ति दान में देकर, जमीन अपने चाचा लालचंद जी को सौंप दी और 27 मार्च सन 1518 ई. को हाजी का वेश धारण कर (नील वस्त्र पहनकर) पश्चिम दिशा की यात्रा के लिए प्रस्थान किया। इस भावपूर्ण क्षण को भाई गुरदास जी ने अपनी वाणी में इस प्रकार अंकित किया है:

“नील वस्त्र ले कपड़े पहिरे तुरक पठाणी अमलु कीआ”

                                     (भाई गुरदास, वार 1, पौड़ी 26)

यात्रा का विस्तृत विवरण

गुरु जी ने तलवंडी से लाहौर, फिर पाकपटन, तुलंमा, मखदूमपुर और मुल्तान का मार्ग अपनाया। मुल्तान से उच्च शरीफ, फिर शिकारपुर (सिंध) और ठट्टा होते हुए लासबेला (बलूचिस्तान) पहुँचे।

यहाँ से गुरु जी ने कराची होते हुए शक्तिपीठ हिंगलाज माता के दर्शन किए। इसके पश्चात सोन मयानी बंदरगाह से समुद्री यात्रा द्वारा वे जैद्दा (सऊदी अरब) पहुँचे।

जैद्दा से गुरु जी मक्का, फिर मदीना पहुँचे, जहाँ उन्होंने सत्य के सन्देश का प्रचार किया। वहाँ से बगदाद (इराक) और आगे बढ़ते हुए जॉर्डन और मिश्र (काहिरा) पहुँचे।

मिश्र से गुरु जी ने साउथ अफ्रीका का भ्रमण किया और फिर युगांडा पहुँचे। युगांडा से वे सीरिया और वहाँ से तुर्की की ओर बढ़े। इस्तांबुल होते हुए वे आज़रबाइजान (रूस) के सुराखानी मंदिर पहुँचे। यहाँ गुरु जी ने आत्मज्ञान का दिव्य संदेश प्रदान किया।

ईरान में, गुरु साहिब का मिलन सूफी संत शिराज से हुआ। शिराज ने गुरु जी का बड़े सम्मान से स्वागत करते हुए उन्हें एक बहुमूल्य हीरा भेंट किया। गुरु जी ने भेंट को एक पर्वत पर फेंक दिया, जो देखते ही देखते हीरों से भर गया। यह चमत्कार संत शिराज के अहंकार को भंग कर गया और उसने सच्ची आध्यात्मिकता का मार्ग स्वीकार किया।

गुरु साहिब तबरेज़, इस्फ़हान, तुर्किस्तान, बुखारा (उज्बेकिस्तान), ताशकंद, कंधार और काबुल होते हुए भारत लौटे।

काबुल से फरहा, जलालाबाद, हजारा होते हुए वे पेशावर पहुँचे। हसन अब्दाल में गुरु जी ने स्थानीय समुदाय के साथ विचार विमर्श किया। वहाँ से सियालकोट और फिर सैदपुर (ऐमनाबाद) पहुँचे।

ऐमनाबाद में गुरु जी को बाबर के हमले के कारण कुछ समय ठहरना पड़ा। अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी गुरु जी ने अपनी साधना और उपदेश यात्रा को स्थगित नहीं किया।

करतारपुर की ओर वापसी

अपनी इस चतुर्थ और अंतिम उदासी यात्रा का सफलतापूर्वक समापन करते हुए, 30 दिसंबर सन 1521 ई. को गुरु नानक देव साहिब जी ने करतारपुर आकर निवास स्थापित किया।

भाई गुरदास जी ने इस पावन क्षण का वर्णन अपनी वाणी में इस प्रकार किया:

“फिरि बाबा आया करतारपुरि, भेखु उदासी सगल उतारा।  

पहिरि संसारी कपड़े मंजी बैठि कीआ अवतारा।”

(भाई गुरदास, वार 1, पौड़ी 27)

यहाँ से गुरु जी ने गृहस्थ जीवन में रहते हुए प्रभु भक्ति, सेवा और सच्चे धर्म का निरंतर प्रचार किया।

निष्कर्ष

श्री गुरु नानक देव साहिब जी की चारों उदासी यात्राएँ न केवल उनकी आत्मिक यात्रा थीं, बल्कि संपूर्ण मानवता के लिए एक कालजयी संदेश भी थीं।
इन यात्राओं में उन्होंने सत्य, प्रेम, सेवा, समानता और परमात्मा की एकता का संदेश घर-घर पहुँचाया। जातिवाद, पाखंड और अंधविश्वास के घने अंधकार में उन्होंने ज्ञान और भक्ति का सूर्य उदित किया।

उनकी शिक्षाएँ आज भी संपूर्ण विश्व में प्रेरणा का अमूल्य स्रोत हैं, और उनका जीवन संसार के प्रत्येक प्राणी के लिए दिग्दर्शन की ज्योति है।

विशेष टिप्पणी

1. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के पृष्ठों को गुरुमुखी परंपरा में सम्मान पूर्वक “अंग” कहा जाता है।

3. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरबाणी सर्चर एप के मानक के अनुसार प्रस्तुत किया गया है।
4. गुरुवाणी पदों की जानकारी एवं विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम प्रमुख सेवादार) से प्राप्त की गई है।

उपरोक्त शोध पत्र ‘शोध समालोचन’ (ISSN 2348-5639) के अप्रैल से जून 2025 के खंड 12, अंक 2 में प्रकाशित हुआ है


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