शहीदों के सरताज: श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी की जीवन-गाथा (शोध पत्र)
(तेरा कीआ मीठा लागै॥ हरि नामु पदारथु नानकु माँगै)॥
भूमिका
‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की ज्योति, सिख धर्म में शहादत की परंपरा की नींव रखने वाले प्रथम शहीद, शहीदों के सरताज, महान शांति के पुंज, गुरबाणी के बोहिथा (ज्ञाता/सागर), सिख धर्म के पांचवें गुरु ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ एक महान कवि, लेखक, देशभक्त, समाज सुधारक, लोकनायक, परोपकारी और ब्रह्मज्ञानी ऐसी अनेक प्रतिभा से संपन्न गुरु हुए हैं। आप का जीवन शक्ति, शील, सहजता, पराक्रम और ज्ञान का मनोहारी चित्रण था, सिख धर्म में गुरु जी के इस कार्यकाल को गुरमत का मध्यान्ह माना जाता है। आप ने शहादत का जाम पीते समय अपने शीश पर डाली गई गर्म रेत की तपस को सहजता से सहन किया, उबलती हुई देग (उबलते हुए पानी का बड़ा बर्तन) में उन्हें बैठाया गया और तो और तपते हुए तवे पर आपने बैठकर, उस अकाल पुरख के भाणे को मीठा मानकर, स्वयं शहादत प्राप्त कर ली परंतु अपने धर्म के उसूलों पर आंच तक नहीं आने दी थी। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में अंकित है–
तेरा कीआ मीठा लागै॥ हरि नामु पदारथु नानकु माँगै॥
(अंग क्रमांक 394)
अर्थात हे प्रभु-परमेश्वर तेरे द्वारा किया हुआ प्रत्येक कार्य मुझे मीठा लगता है। है नानक! तुझसे तेरा यह भक्त हरिनाम रूपी पदार्थ की दात मांगता है।
जीवन परिचय
श्री गुरु अर्जुन देव जी का प्रकाश 15 अप्रैल सन् 1563 ई. को गोइंदवाल साहिब में माता भानी जी के पवित्र गर्भ से हुआ। आप ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ के सुपुत्र एवं ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ के नाती थे। ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने आपको ‘दोहिता बाणी का बोहिथा’ अर्थात बाणी का ज्ञाता, कहकर आशीर्वाद प्रदान किया था। बाल्यावस्था में ही आप में आध्यात्मिक सौंदर्य, विनम्रता और सेवा भावना परिलक्षित होने लगी थी। 11 वर्ष की आयु तक आपने गोइंदवाल साहिब में निवास किया, तत्पश्चात श्री अमृतसर साहिब (गुरु का चक) आ गए, जहाँ आगे चलकर ‘गुरु के महल’ में आपका निवास रहा।
पारिवारिक जीवन
ग्राम मऊ तहसील फिल्लौर के भाई संगत राय जी की सुपुत्री माता गंगा जी आपकी जीवन संगिनी बनीं। उनके गर्भ से महाबली योद्धा और संत-सिपाही स्वरूप में ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ का जन्म हुआ, जिन्होंने आगे चलकर खालसा परंपरा की बुनियाद को और अधिक सुदृढ़ किया।
व्यक्तिगत संघर्ष, आध्यात्मिक दृष्टिकोण और सामाजिक सेवाएं
श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी की अपने बड़े भाई पृथ्वी चँद से गृह कलह थी, पृथ्वी चँद ने येन-केन-प्रकारेण गुरु गद्दी को प्राप्त करने हेतु सभी प्रकार के नकारात्मक कार्यों को आप के विरुद्ध अंजाम दिये थे। भाई पृथ्वी चँद ने आप से सब कुछ लूट लिया था, एक समय ऐसा भी आया कि 3 दिनों तक लंगर (भोजन प्रसादी) मस्ताना रहा। जगत माता और आप की सुपत्नी ने सारा घर खोज के बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे घर में बचे हुए बेसन की दो रोटियां (प्रशादे) तैयार कर परोस दी और जब दो सुखे प्रशादे (रोटी) गुरु पातशाह जी के समक्ष परोसी तो माता गंगा जी की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगी थी।
उस समय में ब्रह्म ज्ञान के प्रतीक गुरु ‘श्री अर्जुन देव साहिब जी’ ने अपनी पत्नी को संबोधित करते हुए वचन किये, जिसे ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में इस तरह अंकित किया गया है–
रुखो भोजन भूमि सैन सखी प्रिअ संगि सूखि बिहात।। (अंग क्रमांक 1306)
हे सखी! अपने पति-प्रभु के साथ रूखा-सूखा भोजन एवं भूमि पर शयन इत्यादि ही सुखमय है, यदि भाई पृथ्वी चँद सब कुछ लूट कर ले गये तो क्या हुआ? इन सभी दातों को देने वाला मेरा वाहिगुरु मेरे अंग-संग सहाय है। उस अकाल पुरख वाहिगुरु जी को तो कोई लूट नहीं सकता, वह तो मेरे पास हमेशा ही है। आप अत्यंत धीरजवान, क्षमा की मूर्ति और निर्मलता की प्रतिमा थे। प्रभु के प्रति प्यार आपके रोम-रोम में पुलकित होता था। आप ने अपनी बाणी में अंकित किया है–
इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता।।
हुणि कदि मिलीऐ प्रिअ तुधु भगवंता।। (अंग क्रमांक 96)
है अकाल पुरुख! यदि मैं तुझे एक क्षण भर भी नहीं मिलता तो मेरे लिए कलयुग उदय हो जाता है, हे मेरे प्रिय भगवंता! मैं तुझे अब कब मिलूंगा? यदि प्रभु-परमेश्वर का मिलाप हो तो सतयुग है और यदि बिछड़ना है तो कलयुग है!
गुरु अर्जुन देव जी को 31 अगस्त सन 1581 ई. को सिख धर्म के पंचम गुरु के रूप में सुशोभित किया गया। आपने न केवल धार्मिक परंपराओं को सुदृढ़ किया, बल्कि सामाजिक सरोकारों, लोकहितकारी प्रयासों एवं साहित्यिक साधना को अद्वितीय ऊंचाइयां प्रदान की।
आपके कार्यकाल में ‘गुरु का चक’ (वर्तमान में अमृतसर) का निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ। पीने के जल की समस्या से पीड़ित जनता के लिए आपने संतोखसर और अमृतसर सरोवर का निर्माण स्वयं अपने कर-कमलों से वर्ष 1590 ई. में तरनतारन नामक स्थान पर स्थापना कर, वहाँ कोढ़ियों के लिए चिकित्सालय स्थापित किया। करतारपुर और हरगोबिंदपुर शहरों का निर्माण भी आपके द्वारा ही हुआ।
आप के रोम-रोम में संगीत और कविता की ज्योति थी। आपने सिरंदा वाद्य का आविष्कार किया तथा कीर्तन में परमानंद प्राप्त किया। आपकी रचित वाणियों में सुखमनी साहिब, बावन अखरी, बारह माहा, गुणवंती ते दिन रैन, और विभिन्न रागों में छह वारें सम्मिलित हैं।
आपके काल में अकबर और जहाँगीर जैसे सम्राट सत्तासीन थे। आपने अपने अनुयायियों को आर्थिक रूप से सशक्त करने हेतु व्यापार, विशेषकर घोड़े के व्यापार के लिए प्रोत्साहित किया।
सेवा, साहित्य और श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी का संपादन
‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ द्वारा प्रारंभ की गई वाणी-संरचना की परंपरा को ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने एक अभूतपूर्व कार्य में परिणत किया। आपने ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’, ‘श्री गुरु अंगद देव साहिब जी’, ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ एवं ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की बाणियों के साथ-साथ समकालीन 15 संतों, 11 भटों और 3 गुरुसिखों की वाणियों को क्रमबद्ध ढंग से रामसर नामक स्थान पर संकलित किया।
यह ग्रंथ ‘श्री आदि ग्रंथ’ के रूप में हरिमंदिर साहिब में प्रतिष्ठित किया गया, जहाँ बाबा बुड्ढा जी को प्रथम ग्रंथी नियुक्त किया गया। इस संकलन की विशेषता यह थी कि प्रत्येक वाणी को राग, ताल, क्रम, और रचनाकार के नाम सहित अंकित किया गया, जिससे किसी भी मिलावट की संभावना समाप्त हो गई।
‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ न केवल सिख धर्म का आध्यात्मिक स्तंभ है, अपितु यह समस्त मानवता के लिए ज्ञान और सद्भाव का ग्रंथ है। इसके समक्ष हर मत, हर संप्रदाय के व्यक्ति श्रद्धा से शीश झुकाते हैं।
कथनी और करनी के महाबली ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी ने ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के संपादन के पश्चात उसे अपने अधीन न रखते हुए, मानवता की भलाई हेतु हरमंदिर साहिब अमृतसर में सुशोभित किया। इस ऐतिहासिक क्षण पर आपने सिर नवाकर यह वाणी उच्चारित की:
बाणी गुरु गुरु है बाणी विचि बाणी अंम्रितु सारे॥
गुरुबाणी कहै सेवकु जनु मानै परतखि गुरु निसतारे॥ (अंग 982)
आपके विचार और कर्म में कोई द्वैत न था। भट्ट मथुरा की वाणी में आपके योगदान की महिमा इस प्रकार अंकित है:
जब लउ नही भाग लिलार उदै तब लउ भ्रमते फिरते बहु धायउ॥
कलि घोर समुद्र मै बूडत थे कबहू मिटि है नही रे पछुतायउ॥
ततु बिचारु यहै मथुरा जग तारन कउ अवतारु बनायउ॥
जपुउ जिन् अरजुन देव गुरुफिरि संकट जोनि गरभ न आयउ॥ (अंग 1409)
यासा-ए-सियासत और शहादत का वृतांत
जहाँगीर की शासकीय नीति ‘यासा-ए-सियासत’ के अंतर्गत ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ को शहादत की सजा सुनाई गई। यह कानून साधु-संतों को इस प्रकार मृत्यु दंड देने का प्रावधान रखता था कि उनका रक्त भूमि पर न गिरे। कारण यह विश्वास था कि यदि ऐसा हुआ, तो विद्रोह और प्राकृतिक विपत्तियां उत्पन्न होंगी।
आपको यह सजा इसलिए दी गई क्योंकि आपने ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में किसी विशेष शासक या मजहब की प्रशंसा न कर, उसे संपूर्ण मानवता के लिए “गुरु” के रूप में प्रतिष्ठित किया।
25 मई सन 1606 ई. (ज्येष्ठ सुदी चौथ) को तपती रेत, उबलती देग और गर्म तवे जैसी यातनाओं के बीच आपने परम भाणे को मीठा मानकर शहादत प्राप्त की। आपके शरीर पर छाले पड़े, मांस उखड़ा, पर आपकी आत्मा अडोल रही।
आपके इस अपूर्व समर्पण के कारण इतिहास ने आपको “शहीदों के सरताज” का गौरव दिया। इस विषय में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित है:
सबर अंदरि साबरी तनु एवै जालेनि॥
होनि नजीकि खुदाइ दै भेतु न किसै देनि॥ (अंग 1384)
उत्तराधिकार और प्रेरणा
गुरु जी को ज्ञात था कि धर्म की रक्षा हेतु उनका बलिदान अपरिहार्य है। इसलिए आपने अपने सुपुत्र ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ को 25 मई सन 1606 ई. को गुरु गद्दी पर विराजमान कर दिया, जो आगे चलकर ‘संत-सिपाही’ परंपरा के प्रतीक बने।
‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ की शहादत केवल ऐतिहासिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक मार्गदर्शन का शिखर है। यह बलिदान बताता है कि अत्याचार का प्रतिकार ‘सबर’ से भी किया जा सकता है।
निष्कर्ष
‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने धर्म, साहित्य, समाज और मानवता के लिए जो योगदान दिए, वे अनंत काल तक मानव सभ्यता को प्रेरणा देते रहेंगे। आपके जीवन से हमें यह सिखने को मिलता है कि सत्य, सेवा और सहिष्णुता का पथ कठिन अवश्य है, परन्तु वही सबसे ऊँचा है।
आपकी शहादत के स्मरण स्वरूप आज भी वैशाख में ठंडा जल, शरबत और कच्ची लस्सी बाँटी जाती है। यह सिख परंपरा में केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि समाज सेवा का सजीव उदाहरण है।
ऐसे महान ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ की शहादत को कोटिशः प्रणाम!
टिप्पणी:
- ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को सम्मान पूर्वक ‘अंग’ कहकर संबोधित किया गया है।
- गुरबाणी अनुवाद के लिए ‘Gurbani Searcher App’ को मानक माना गया है।
गुरबाणी पदों की जानकारी खोज-विचार टीम के प्रमुख सरदार गुरदयाल सिंह जी के योगदान से प्राप्त हुई है।

