कामागाटा मारू: सिखों के संघर्ष की अद्भुत-अनोखी दास्तान (शोध पत्र)
सवैया॥
देह सिवा बरु मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूं न टरो॥
न डरो अरि सो जब जाइ लरो निसचै करि अपुनी जीत करो॥
अरु सिख हौ आपने ही मन को इह लालच हउ गन तउ उचरो॥
न डरो अरि सो जब जाइ लरो निसचै करि अपुनी जीत करो॥
अरु सिख हौ आपने ही मन को इह लालच हउ गुन तउ उचरो॥
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरो॥
(चंडी चरित्र)
भूमिका
मानव का स्वभाव सदा से ही अपने जीवन को सुख-संपन्न बनाने की ओर उन्मुख रहा है। वह उत्तम साधनों, समृद्ध स्थानों और सुगम अवसरों की ओर आकृष्ट होकर, स्वयं के लिए और अपने परिवार के लिए बेहतर जीवन की तलाश करता रहा है। इसी प्रवृत्ति के अंतर्गत, स्वभावतः साहसी, श्रमशील और घुमक्कड़ प्रवृत्ति के पंजाबी; विशेषतः सिख समुदाय ने विश्व के कोने-कोने में प्रवास कर अपनी असाधारण मेहनत, लगन और कर्मनिष्ठा से सम्मानित स्थान अर्जित किया है।
बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में ही पंजाबी समुदाय ने कनाडा जैसे विकसित देश में निवास करना प्रारंभ कर दिया था। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि उस समय कई पंजाबी युवक ब्रिटिश सेना में सेवा करते थे और विभिन्न उपनिवेशों में नियुक्त होकर कनाडा जैसे देशों की जीवन-शैली, मौसम तथा सुख-सुविधाओं से परिचित हो जाते थे। जब वे सैनिक छुट्टी में पंजाब लौटते, तो वे अपने अनुभवों से ऐसा चित्र प्रस्तुत करते कि हर पंजाबी के मन में कनाडा जाकर बसने की उत्कंठा जाग्रत हो जाती थी।
ब्रिटिश साम्राज्य और प्रवास की राजनीतिक विडंबना
उस समय भारत और कनाडा दोनों ही ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन थे। यह अपेक्षा स्वाभाविक थी कि एक उपनिवेश का नागरिक, दूसरे उपनिवेश में जाकर स्वतंत्रतापूर्वक बस सकेगा। जनता में यह धारणा दृढ़ थी कि चूंकि दोनों देशों में अंग्रेजी हुकूमत है, अतः किसी प्रकार की बाधा नहीं होनी चाहिए। साथ ही, कनाडा की जनसंख्या अपेक्षाकृत कम थी और उद्योग-धंधों में काम के अवसर अधिक। किन्तु जब प्रवासी भारतीयों, विशेषतः सिखों की संख्या बढ़ने लगी, तब कनाडा में श्वेत वर्चस्ववादी भावना का उभार होने लगा। वहाँ के गोरे नागरिक यह स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि एशियाई, विशेषतः भारतीय मूल के लोग, वहाँ सम्मान पूर्वक रह सकें। अतः कनाडाई प्रशासन ने एक के बाद एक कठोर और भेदभावपूर्ण प्रवासन नियम लागू करने आरंभ कर दिए, जिनका उद्देश्य भारतीयों के प्रवेश को सीमित करना था।
नस्लभेद और वैधानिक अवरोध
कनाडा सरकार ने भारतीयों के विरुद्ध ऐसे कठोर अप्रवासन कानून बनाए, जिनका स्पष्ट उद्देश्य केवल श्वेत नागरिकों को ही देश में बसने देना था। इन कानूनों का भारतीय समाज ने तीव्र विरोध किया। कई कानूनी लड़ाइयाँ लड़ी गईं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि ऐसी पाबंदियाँ केवल भारतीयों पर थीं, जापानी, चीनी और अन्य एशियाई जातियों पर उतनी कठोरता नहीं दिखाई गई।
यह स्पष्ट नस्लभेद था, जो भारतीयों की गरिमा और अधिकारों का घोर उल्लंघन था। इस पृष्ठभूमि में कामागाटा मारू की घटना घटित हुई, जिसने न केवल उस समय के साम्राज्यवादी ढांचे को चुनौती दी, बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम की नींव को और भी गहरा कर दिया।
कामागाटा मारू एक भाप से संचालित मालवाहक जहाज़ था, जिसका स्वामित्व जापान की प्रतिष्ठित शिपिंग कंपनी Shinyei Kisen Goshi Kaisya के पास था। इसका निर्माण वर्ष 1890 ईस्वी. में हुआ था। यह जहाज़ अपनी ऐतिहासिक यात्रा के दौरान हांगकांग से प्रस्थान कर, शंघाई (चीन), योकोहामा (जापान) होते हुए ब्रिटिश कोलंबिया (कनाडा) के वैंकूवर बंदरगाह तक पहुँचा था। उस कालखंड में हवाई यात्राएं प्रचलन में नहीं थीं; अतः समुद्री मार्ग ही प्रवास का एकमात्र साधन था।
इस ऐतिहासिक यात्रा में कुल 376 यात्री सवार थे, इनमें 340 सिख, 24 मुस्लिम एवं 12 हिंदू थे। ये सभी यात्री ब्रिटिश भारत के नागरिक थे, जिन्होंने अत्यंत कठिनाइयों का सामना करते हुए विदेश में अपनी नई ज़िंदगी आरंभ करने का स्वप्न संजोया था। परंतु दुर्भाग्यवश कनाडा सरकार ने इनमें से केवल 24 यात्रियों को देश में प्रवेश की अनुमति दी, शेष 352 यात्रियों को वापस भारत लौटने को बाध्य कर दिया गया।
उल्लेखनीय है कि उस समय संपूर्ण उत्तर अमेरिका में लगभग 2,000 भारतीय प्रवासी निवास करते थे। लेकिन गोरे नागरिकों की श्वेत श्रेष्ठता की भावना इस हद तक व्याप्त थी कि वे किसी भी एशियाई मूल के व्यक्ति को अपने देश में बसने देना नहीं चाहते थे। यही कारण रहा कि उन्होंने अप्रवासन (Immigration) कानून को जानबूझकर इतना जटिल बना दिया कि कोई भी भारतीय उन शर्तों को पूरा न कर सके।
इन कानूनों में से एक अत्यंत कठोर और कुख्यात कानून The Continuous Passage Act था, जिसके अंतर्गत यह आवश्यक था कि कोई भी भारतीय तभी ब्रिटिश कोलंबिया में प्रवेश कर सकता है जब वह बिना रुके सीधे वहाँ पहुँचे। किन्तु भारत से उस समय किसी भी जहाज़ की नॉन-स्टॉप डायरेक्ट टिकट उपलब्ध नहीं थी। इसके अतिरिक्त, यह शर्त भी रखी गई थी कि प्रत्येक भारतीय प्रवासी के पास कम-से-कम $200 कैश होना अनिवार्य था—जबकि उस समय एक साधारण भारतीय की दैनिक आय 10 सेंट के लगभग थी।
इतना ही नहीं, भारतीयों को वहाँ के नागरिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया। उन्हें मतदान का अधिकार नहीं था। सन 1860 ईस्वी. में पारित एक विधेयक के तहत उन्हें “बंधुआ श्रमिक” जैसी स्थिति में रखकर उनसे श्रम करवाया जाता था।
ऐसी दमनकारी परिस्थितियों के विरुद्ध जिस व्यक्ति ने मुखर और साहसिक चुनौती दी, वह थे सरदार गुरदित्त सिंह! पंजाब के जिला अमृतसर स्थित ग्राम सरहाली के निवासी। वे सिख समाज के प्रतिष्ठित, शिक्षित एवं दूरदर्शी व्यवसायी थे। उन्होंने न केवल The Continuous Passage Act का गहन अध्ययन किया, अपितु उसे तोड़ने का संकल्प लेकर एक ऐसा साहसिक निर्णय लिया, जो आने वाले समय में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की चेतना का अग्रदूत बना।
उन्होंने जापानी जहाज़ कामागाटा मारू को 60,000 डॉलर की राशि पर भाड़े (लीज़) पर लेकर ‘गुरु नानक नेविगेशन कंपनी’ की स्थापना की। यह उल्लेखनीय है कि उस समय भारत में कोई भी स्वदेशी शिपिंग कंपनी नहीं थी और न ही कोई भारतीय जहाज़ का स्वामी था। सरदार गुरदित्त सिंह ने इस तकनीकी अड़चन को पार करते हुए वह जहाज़ किराये पर लिया, और अनेक भारतीय व्यवसायियों ने इस क्रांतिकारी पहल के समर्थन में इस नवगठित कंपनी के शेयर भी खरीदे।
इस यात्रा के ठीक दो दिन पूर्व, सरदार गुरदित्त सिंह को हांगकांग में गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर आरोप लगाया गया कि वे अवैध रूप से यात्रियों को टिकट बेच रहे हैं। वस्तुतः ब्रिटिश हुकूमत के दबाव में हांगकांग प्रशासन ने यह कार्रवाई की। कामागाटा मारू जहाज़ को भी होमगार्ड द्वारा जब्त कर लिया गया था। स्थानीय प्रशासन इंग्लैंड और कनाडा से आदेश प्राप्त करने की प्रतीक्षा में था।
जब अपेक्षित निर्देश प्राप्त नहीं हुए, तब 4 अप्रैल सन 1914 ई. को हांगकांग प्रशासन ने सरदार गुरदित्त सिंह को रिहा कर दिया और जहाज़ को अपनी यात्रा आरंभ करने की अनुमति दे दी। उसी दिन जहाज़ ने हांगकांग से प्रस्थान कर शंघाई की ओर कूच किया। वहीं से 111 नए यात्री सवार हुए। इसके पश्चात 14 अप्रैल को पोर्ट मौजी से 86 और यात्री, और योकोहामा (जापान) से 14 यात्री इस साहसिक यात्रा में शामिल हुए। इस प्रकार कुल 376 भारतीय देशप्रेम और आत्मसम्मान से भरे हृदय लेकर, समुद्र की लहरों को चीरते हुए कनाडा की ओर अग्रसर हुए।
जब जहाज़ शंघाई पहुँचा, तब जर्मन प्रेस ने ब्रिटिश मीडिया को यह सूचना दी कि “एक भारतीय जहाज़ वैंकूवर की ओर अग्रसर है, जिसमें सैकड़ों हिंदुस्तानी सवार हैं।” ब्रिटिश प्रेस ने इस समाचार को सनसनीखेज़ बनाते हुए प्रकाशित किया। समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ थीं—
“Boat Loads of Hindus on Way to Vancouver”
“Hindu Invasion of Canada”
इन भ्रामक और भड़काऊ प्रचारों के कारण वैंकूवर और संपूर्ण ब्रिटिश कोलंबिया में भय और घृणा का माहौल बन गया। स्थानीय गोरे नागरिकों और प्रशासन ने इस यात्रा का विरोध तीव्र कर दिया। वैंकूवर में प्रवासी भारतीय दो वर्गों में बँट गए, एक ओर वह थे जो इन यात्रियों का स्वागत कर रहे थे, दूसरी ओर वह श्वेत श्रेष्ठतावादी थे जो उन्हें किसी भी कीमत पर प्रवेश देने को तैयार नहीं थे।
इन विकट परिस्थितियों में वैंकूवर में बसे भारतीयों ने अपने हम वतन यात्रियों के सम्मान और अधिकारों की रक्षा हेतु संगठित होकर ‘खालसा दीवान संस्था’ के माध्यम से हर संभव सहायता प्रदान करने का बीड़ा उठाया।
वेंकूवर बंदरगाह पर टकराव और असहमति का विस्फोट
जब कामागाटा मारू जहाज़ 23 मई सन 1914 ई. को वैंकूवर के Burrard Inlet नामक गोदी में पहुँचा, तो स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों ने जहाज़ पर चढ़कर गहन निरीक्षण किया। उन्होंने पाया कि सभी 376 यात्री स्वस्थ एवं सकुशल हैं। किन्तु प्रशासन ने मात्र एक पंजाबी डॉक्टर को, जो वास्तव में उनका मुखबिर था, वैंकूवर नगर में प्रवेश की अनुमति दी।
यात्रा की समस्त शर्तों का पालन करने के उपरांत भी कनाडा प्रशासन ने इन यात्रियों को देश में प्रवेश देने से स्पष्टतः इंकार कर दिया। यह अन्यायपूर्ण निर्णय यात्रियों के बीच तीव्र आक्रोश और बेचैनी का कारण बना। स्थिति की गंभीरता को समझते हुए वैंकूवर में बसे भारतीय ‘खालसा दीवान संस्था’ के माध्यम से एकजुट हो गए और एक विधिसम्मत संघर्ष आरंभ किया। इंग्लैंड और भारत के वायसराय को तार भेजे गए, परंतु कहीं से भी न्याय का कोई संज्ञान नहीं लिया गया।
कनाडा प्रशासन ने अलग-अलग बंदरगाहों से सवार यात्रियों को आधार बनाकर उनके प्रवेश को रोकने के लिए बहाने गढ़े। उन्होंने ‘$200 कानून’ और ‘निरंतर यात्रा अधिनियम (Continuous Passage Act)’ का सहारा लेकर इस प्रवासियों को अवैध रूप देने का प्रयास किया। स्थानीय भारतीयों ने दक्ष विधिवेत्ताओं की सहायता से अदालत में मुकदमे दायर किए, किन्तु निर्णय लंबित रहा।
लगभग दो महीनों तक यह जहाज़ गोदी में खड़ा रहा, जहाँ यात्री अनिश्चितता और अवमानना के वातावरण में जीने को विवश थे। इस बीच पुलिस और यात्रियों के बीच कई बार झड़पें भी हुईं। प्रशासन ने ‘सी-लिंक’ नामक जहाज़ की सहायता से कामागाटा मारू को समुद्री सीमा से बाहर खींचने का प्रयास किया, लेकिन उसमें असफल रहा। स्थिति के विस्फोटक हो जाने पर प्रशासन ने एक तोपों से लैस युद्धपोत तैयार कर लिया था।
उधर, स्थानीय भारतीय समुदाय ने इस घोर अन्याय के विरोध में वैंकूवर को जलाने तक की रणनीति बना ली थी। यह टकराव एक भीषण रक्त-संघर्ष में परिवर्तित हो सकता था। इस विभीषिका को टालने के लिए प्रशासन, स्थानीय समुदाय और जहाज़ पर सवार यात्रियों के बीच बैठक हुई। परिस्थिति की गंभीरता को देखते हुए ‘सरदार गुरदित्त सिंह’ ने यात्रियों के हित में शांतिपूर्ण मार्ग को अपनाते हुए जहाज़ को पुनः भारत लौटाने का कठिन किंतु विवेकपूर्ण निर्णय लिया।
वापसी और क्रांति की अग्निशिखा
अंततः केवल 24 यात्रियों को ही प्रवेश की अनुमति मिली। शेष 352 यात्रियों को कनाडा सरकार ने बलपूर्वक वापसी के लिए बाध्य किया। वैंकूवर के भारतीयों ने यात्रियों की हर संभव सहायता की। यहाँ तक कि जहाज़ का $60,000 भाड़ा चुकाने हेतु चंदा एकत्र किया गया। यह उदाहरण उस सुदृढ़ पंजाबी भाईचारे और आत्मबलिदान की भावना का प्रमाण है, जो विश्व भर में पंजाबी संस्कृति की आत्मा है।
26 सितंबर सन 1914 ई. को कामागाटा मारू ने अपनी थकी, आहत किंतु संघर्षशील आत्मा के साथ भारत वापसी की यात्रा आरंभ की। रास्ते में हवाई टापू पर महान क्रांतिकारी ‘सरदार करतार सिंह जी सराभा’ ने यात्रियों को संबोधित कर स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला प्रज्वलित की। जापान में ‘बाबा सोहन सिंह जी भकना’, गदर पार्टी के अग्रणी नेता, ने भी यात्रियों से संवाद किया और उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान दिया।
बजबज घाट पर रक्त की धार
कोलकाता के समीप बजबज घाट पर जब यह जहाज़ पहुँचा, तब ब्रिटिश प्रशासन ने हथियारबंद सैनिकों के साथ उस पर अधिकार कर लिया। यात्रियों को जबरन रेल में बैठाकर पंजाब भेजने का षड्यंत्र रचा गया। इनमें से कई यात्री कोलकाता में काम-धंधा करना और वहाँ के गुरुद्वारे में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बीड़ को स्थापित करना चाहते थे। यात्रियों ने प्रशासन के आदेश का विरोध किया। वाद-विवाद ने हिंसा का रूप ले लिया। ब्रिटिश सैनिकों ने अंधाधुंध गोलीबारी की, जिसमें 20 यात्री तत्काल शहीद हो गए और 29 गंभीर रूप से घायल हुए। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार यह संख्या 75 से अधिक थी। इन शहीदों का तत्काल वहीं अंतिम संस्कार कर दिया गया।
स्वतंत्रता आंदोलन की ज्वाला
इस त्रासदी के पश्चात ‘सरदार गुरदित्त सिंह’ और अन्य यात्री पंजाब पहुँचने में सफल हुए और स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा में शामिल हो गए। ब्रिटिश साम्राज्य इस घटना से थर्रा उठा। ब्रिटिश सेना में कार्यरत सिख जवानों ने अपने पदक वापस कर दिए। कनाडा में निवास करने वाले सिखों ने वैंकूवर के गुरुद्वारे में अपने ब्रिटिश सम्मान-पत्रों को आग के हवाले कर रोष प्रकट किया। ब्रिटिश अधिकारी हॉकिन्सन, जो यात्रियों से दुर्व्यवहार का प्रमुख सूत्रधार था, की हत्या ‘सरदार मेवा सिंह’ द्वारा कर दी गई। उन्हें फाँसी की सज़ा दी गई और वे विदेश की धरती पर प्रथम सिख शहीद के रूप में अमर हो गए।
इतिहास का उत्तरदायित्व और स्मृति
इस त्रासदी के लिए वर्ष 2008 ई. में कनाडा के प्रधानमंत्री ने औपचारिक माफ़ी माँगी। सन 2012 ई. में वैंकूवर बंदरगाह पर 376 यात्रियों के नामों सहित एक भव्य स्मारक का निर्माण ‘खालसा दीवान सोसाइटी’ द्वारा कराया गया। भारत सरकार नेषन 1952 ई. में कोलकाता के निकट बजबज घाट पर पंडित जवाहरलाल नेहरू के करकमलों से एक स्मृति स्थल की स्थापना की। वहाँ प्रतिवर्ष 29 सितंबर को श्रद्धांजलि समारोह आयोजित किया जाता है।
इस ऐतिहासिक घटना के अनुप्रमाणित गुरुवाणी का फर्मान है-
महला 5॥
आहर सभि करदा फिरै आहरु इकु न होइ॥
नानक जितु आहरि जगु उधरै विरला बूझै कोइ॥
(अंग क्रमांक 965)
“जो संकल्प मानवता की सेवा में समर्पित हो, वही आहार रुपी संकल्प जगत को उभारता है।”
उपसंहार
कामागाटा मारू कोई साधारण समुद्री यात्रा नहीं थी, वह आत्मसम्मान, स्वतंत्रता और सामूहिक चेतना का एक जीवंत दस्तावेज है। इसने पूरे विश्व में भारतीय चेतना को स्वर प्रदान किया। आज की युवा पीढ़ी के लिए यह घटना केवल इतिहास नहीं, बल्कि प्रेरणा, जागरूकता और सामाजिक उत्तरदायित्व का पाठ है।
हमने कभी मतदान के अधिकार हेतु रक्त बहाया था, वर्तमान समय में हम मतदान के अधिकार को हल्के में लेकर अपमानित कर रहे हैं। यह इतिहास हमें सतर्क करता है कि स्वतंत्रता कभी मुफ्त नहीं मिलती है, यह अनगिनत बलिदानों से अर्जित की जाती है।
स्मरणीय:
- ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में ‘अंग’ कहकर सम्मान पूर्वक संबोधित किया गया है।
- गुरबाणी अनुवाद हेतु ‘गुरबाणी सर्चर ऐप’ को प्रमाणिक स्रोत माना गया है।
- साभार:
1. इस लेख में उद्धृत गुरुवाणी पदों का संकलन व विवेचन सरदार गुरदयाल सिंह जी (टीम खोज-विचार) द्वारा किया गया।
2. हाल ही में प्रदर्शित पंजाबी फिल्म “नानक नाम जहाज है” इसी ऐतिहासिक घटना पर आधारित है।
