इंसानियत की ज़मीर के रखवाले: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी (शोध पत्र)
(श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के 350वें शहीदी वर्ष पर्व पर विशेष)
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
1. प्रस्तावना
सिख धर्म को आज समस्त विश्व में सबसे आधुनिक, जीवंत और मानवतावादी धर्म के रूप में स्वीकार किया गया है। गुरु पंथ खालसा से संबंधित सिखों ने सेवा, सिमरन, त्याग, इंसानियत और देशभक्ति के अद्वितीय मूल्यों को आत्मसात कर एक ऐसी प्रभावशाली उपस्थिति विश्व पटल पर स्थापित की है, जिसने मानवीय गरिमा को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया है।
वर्तमान वर्ष 2025 ई. इस दृष्टि से विशेष ऐतिहासिक महत्व रखता है क्योंकि यह ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के 350वें शहीदी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि हाल ही में 2021 ई. में संपूर्ण संगत द्वारा गुरु जी का 400वां प्रकाश पर्व वर्ष श्रद्धा, स्मृति और जन-जागरण के साथ मनाया गया। इस वर्ष मनाए जाने वाले शहीदी वर्ष की यह स्मृति आगे चलकर विश्व मानवता के लिए एक प्रेरक संदर्भ बनकर उभरेगी।
2. ऐतिहासिक संदर्भ एवं भ्रमणशीलता
जहाँ प्रथम पातशाही ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने चार उदासियों के माध्यम से लगभग 36000 मील की पदयात्रा कर धर्म और करुणा का संदेश प्रसारित किया, वहीं नवम पातशाह ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने भी मानवता के कल्याण हेतु सिख इतिहास में सबसे अधिक भ्रमण किया।
गुरुवाणी इस तथ्य को इस प्रकार अंकित करती है—
जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरु सो थानु सुहावा राम राजै॥
(अंग क्रमांक 450)
अर्थात जिस स्थान पर सतगुरु जी के चरण पड़ते हैं, वह स्थान अकाल पुरख की कृपा से स्वर्ग के समान पावन हो जाता है।
3. प्रकाश पर्व एवं जन्म
चौथी पातशाही ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की वाणी में सिख गुरुओं के प्रकाश स्थल और उनके दर्शन मात्र से उपजे आत्मिक उत्थान का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-
सा धरती भई हरिआवली जिथै मेरा सतिगुरु बैठा आइ॥
से जंत भए हरीआवले जिनी मेरा सतिगुरु देखिआ जाइ॥
धनु धंनु पिता धनु धंनु कुलु धनु धनु सु जननी जिनि गुरू जणिआ माइ॥
(अंग क्रमांक 310)
यह वाणी संकेत देती है उस दिव्य दिवस की ओर, जब 1 अप्रैल सन् 1621 ई. रविवार, 5 बैसाख संवत 1678 ई. को अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) में नवम पातशाही ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ का प्रकाश हुआ।
गुरमत साहित्य में इसे सृजनात्मक रूप में इस प्रकार निरूपित किया गया है—
प्रकट भए गुरु तेग बहादुर सकल सृष्टि पर ढापी चादर॥
4. बाल्यकाल एवं नामकरण
गुरु जी के जन्म के समय, उनके पिता छठे गुरु ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ ने उन्हें गोद में उठाकर भाव-विभोर होकर भाई बिधि चंद जी से कहा-
“यह बालक असाधारण है। भविष्य में यह ‘दिन का रक्षक’ होगा, संकटों का नाश करेगा, और निर्भय होकर अत्याचारियों का उन्मूलन करेगा।”
इस भाव को गुरबाणी में इस प्रकार से अभिव्यक्त किया गया है-
दिन रथ संकट हरै॥ एह निरभै जर तुरक उखेरी॥
तदुपरांत, छठे गुरु साहिब जी ने उनका नाम “तेग बहादुर” रखा। यह नाम फारसी भाषा से प्रेरित है। गुरुवाणी में इस भाव को इस प्रकार अभिव्यक्त किया गया है-
जा तुधु भावै तेज वगावहि सिर मुंडी कटि जावहि॥
(अंग क्रमांक 145)
‘तेग’ का अर्थ होता है खड़ग या कृपाण। तेग बहादुर अर्थात “वह जो तेजस्वी तलवारधारी होते हुए भी करुणामय हैं।”
देग तेग जग में दो चलें॥
“ਦੇਗ ਤੇਗ ਜਗ ਵਿੱਚ ਦੋ ਚਲੈ॥”
5. बाल लीलाएं
गुरु जी के बचपन में उन्हें अत्यधिक स्नेह मिला। उनकी बहन बीबी वीरो जी उन्हें विशेष स्नेह करती थीं। आश्चर्य का विषय यह है कि बालक तेग बहादुर ने कभी भी रोकर दूध नहीं माँगा। उनकी बाल लीलाओं ने परिवार और संगत के हृदय को आकृष्ट कर लिया था। एक दिन जब वे खेलते-खेलते ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ की गोद में जा बैठे, तो उन्होंने पीरी वाले गातरे (कृपाण को धारण करने वाला कपड़ा-पट्टा) को जोर से पकड़ लिया। जब गुरु जी ने उसे छुड़ाने का प्रयास किया, तो बालक तेग बहादुर ने उस पट्टे को और कसकर पकड़ लिया।
इस पर ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ ने भावुक होकर कहा—
“पुत्र जी, अभी समय नहीं आया है, जब समय आएगा तो आपको तेग चलना भी पड़ेगी और खाना भी पड़ेगी।
7. शिक्षा-दीक्षा एवं बहुआयामी प्रतिभा
एकांतप्रिय बालक ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ का जीवन आरम्भ से ही त्याग, करुणा और आध्यात्मिक सौम्यता का प्रारूप रहा। जब आप अपने अग्रज भ्राता भाई गुरदित्ता जी के विवाह-संस्कार में सम्मिलित हुए, तब आपने अपने दिव्य वस्त्रों और बहुमूल्य आभूषणों को एक निर्धन बालक को सहज भाव से अर्पित कर दिया था। यह दृश्य न केवल आपके करुणामय हृदय का साक्षी था, अपितु भविष्य के उस महान तपस्वी की झलक भी देता था, जो परोपकार और बलिदान की प्रतिमूर्ति बना।
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की प्रारंभिक शिक्षा श्री रमदास नामक स्थान पर बाबा बुड्ढा जी के संरक्षण में सम्पन्न हुई। आप ने वहाँ गुरमुखी, संस्कृत एवं फारसी भाषाओं का गहन अध्ययन किया तथा छः वर्षों तक गुरुवाणी का पठन-पाठन कर उसे कंठस्थ किया। इसी क्रम में पूज्य भाई गुरदास जी से भी आपने शिक्षा प्राप्त की, जिनसे आपने ब्रजभाषा के अतिरिक्त अन्य भाषाओं तथा साहित्यिक शैलियों का भी अभ्यास किया। उनके मार्गदर्शन में ही आपने घुड़सवारी, शस्त्र-विद्या तथा युद्ध-नीति का भी व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया और इन कलाओं में प्रवीणता अर्जित की।
संगीत की दृष्टि से भी ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अत्यंत प्रतिभाशाली थे। गुरु-परंपरा के विख्यात रबाबी भाई बाबक जी से आपने गुरमत संगीत का गहन अध्ययन किया। आपको मृदंग वादन में अद्भुत निपुणता प्राप्त थी तथा आपने गुरमत संगीत के 30 रागों का विधिवत अभ्यास किया। संगीत-साधना के इस उत्कर्ष में आपने ‘राग जै–जैवंती’ का आविष्कार कर उसे गुरमत संगीत में स्थान दिया, जो आपकी संगीतात्मक प्रखर प्रज्ञा और नवाचार का विलक्षण प्रमाण है।
8. वियोग, वैराग्य एवं जीवन-दृष्टि
बाल्यावस्था में ही ‘श्री तेग बहादुर साहिब जी’ ने करुण और वियोग की गंभीर श्रृंखला का सामना किया। पहले भ्राता बाबा अटल जी अकाल-चलाना कर गये; लगभग उसी समय दादी माता गंगा जी का भी स्वर्गवास हुआ। आठवें वर्ष में (13 जनवरी 1629 ई.) ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के ज्येष्ठ सुपुत्र बाबा श्री चंद जी ज्योति-जोत समा गये, 135 वर्ष से अधिक की आयु में बाल्य स्वरूप धारण रखने वाले इस महापुरुष से बाल तेग बहादुर का असीम स्नेह था और वह उनका विशेष आदर-सत्कार करते थे। दो वर्ष बाद, दसवें वर्ष में (17 नवंबर 1631 ई.) बाबा बुड्ढा जी के निर्वाण ने सिख संगत को विषाद में डुबो दिया; दरबार साहिब, अमृतसर के प्रथम हेड ग्रंथि रहे बाबा बुड्ढा जी सिख इतिहास में अप्रतिम सम्मान के पात्र थे। इन क्रमिक वियोग-प्रसंगों ने त्याग की मूर्ति बाल तेग बहादुर के मन में वैराग्य का बीज गहरा रोप दिया। आगे चलकर उनकी स्वयं-रचित वाणी उसी गहन वैराग-भाव से सिंचित हुई. एक ऐसी वाणी, जो विस्मय-बोध से ओतप्रोत होकर सांसारिक नश्वरता का साक्षात्कार कराती है-
चिंता ता की कीजिऐ जो अनहोनी होइ।
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नहीं कोइ।
(अंग क्रमांक 1429)
9. युद्ध-कौशल और ‘तेग बहादुर’ की सार्थकता
मात्र 14 वर्ष की आयु में करतारपुर के युद्ध (मुग़ल सेना के विरुद्ध) में अद्भुत शौर्य दिखाया। इस वीरता के आधार पर तेग के धनी ‘तेग बहादुर’ नाम की सार्थकता सर्वमान्य हो गई।
10. गुरता-गद्दी एवं मक्खन शाह लुबाना का प्रमाण
दिनांक 11 अगस्त सन 1664 ईस्वी को ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को विधिवत रूप से गुरता गद्दी पर विराजमान किया गया। यह ऐतिहासिक अवसर सिख परंपरा की महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में आज भी स्मरणीय है। तथापि, उस कालखंड में गुरता गद्दी के उत्तराधिकार को लेकर कुछ मतभिन्नताएँ और विवाद उत्पन्न हुए, जिनसे संगत को असमंजस की स्थिति का सामना करना पड़ा। ऐसे जटिल समय में गुरु साहिब के परम भक्त, धर्मनिष्ठ व्यापारी और दूरदर्शी सेवक मक्खन शाह लुबाना ने अपने आध्यात्मिक विवेक और निष्ठा के बल पर संपूर्ण संगत के समक्ष स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत कर दिया कि सच्चे गुरु वही हैं जो ईश्वर की कृपा से अंतर्ज्ञान द्वारा भक्त की मुराद पहचान लेते हैं। उन्होंने न केवल ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के हक में संगत का मार्गदर्शन किया, अपितु धर्म की उस शाश्वत परंपरा को भी सुरक्षित रखा, जो गुरमत सिद्धांतों की आत्मा है।
11. लोक-कल्याणकारी यात्राएँ
22 नवंबर 1664 ई. को ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने बाबा-बकाला से लोक-कल्याण एवं धर्म-प्रचार की महायात्राओं का शुभारम्भ किया। आपने देश के विविध प्रांतों-विशेषतः सूबा पंजाब तथा हरियाणा का विस्तृत भ्रमण कर सिक्खी के अंकुर को पल्लवित-पुष्पित किया। बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड से होते हुए असम तक की पदयात्रा, तथा उड़ीसा, दिल्ली व हरियाणा की परिक्रमा के पश्चात गुरु साहिब जी पुनः पंजाब पधारे। इन समस्त यात्राओं का उद्देश्य केवल धर्म-प्रसार ही नहीं था, वरन् आध्यात्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक उन्नयन द्वारा मानव-कल्याण को साकार रूप देना भी था। यात्राओं के प्रसंग में आपने अंधविश्वास एवं रूढ़ियों का प्रखर खण्डन कर नवीन आदर्श स्थापित किए; असंख्य रोगियों को वैद्यक‐कौशल से आरोग्य-लाभ कराया कारण गुरु साहिब उत्कृष्ट आयुर्वेदाचार्य भी थे। जहाँ-जहाँ गुरु साहिब जी के चरण पड़े, वहाँ धर्मशालाएँ निर्मित करवाईं, स्वच्छ पेय-जल हेतु कुएँ खुदवाए और परोपकार के विविध आयाम स्पन्दित किए। वास्तु-शिल्प की विलक्षण दृष्टि से 19 जून 1665 ई. को ग्राम सहोटा के निकट ऊँचे टीले पर मोहरी-गड्ड (नींव-पत्थर) रखकर चक नानकी अर्थात् आज का श्री आनंदपुर साहिब नगर बसाया, जिसकी अभिनव नगर-रचना उस युग का अद्भुत वास्तुशिल्पीय चमत्कार सिद्ध हुई।
12. औरंगज़ेब का अत्याचार तथा कश्मीरी ब्राह्मणों की विनती
उस काल में सत्तारूढ़ जालिम बादशाह औरंगजेब की कठोर हठधर्मिता इस स्तर की थी कि वह अपने मत के अतिरिक्त किसी अन्य धर्म का अस्तित्व सहन न करता। उसने समस्त प्रजा को इस्लाम स्वीकार करने का कठोर आदेश सुना दिया था अर्थात “इस्लाम अपनाओ, अथवा मृत्यु वरण करो।” उसकी दमनकारी नीति का पालन करने हेतु तलवार की धार पर लोगों का धर्म परिवर्तन किया जा रहा था, जिससे विविध धर्मावलंबियों का जीवन अत्यंत दुष्कर हो उठा। समूचे देश में उसके अत्याचार से त्राहि-त्राहि मच गई। ऐसी विकट परिस्थिति में कश्मीर के ब्राह्मण पंडित कृपाराम जी के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल के रूप में बाबा-बकाला नामक स्थान पर आकर गुरु जी से विनम्र याचना करने लगे कि जालिम औरंगजेब से उनकी रक्षा की जाए।
गुरु साहिब ने आश्वासन दिया कि “यदि कोई महापुरुष शहादत दे, तो हिंदू धर्म सुरक्षित रह सकता है।” तभी निकट खड़े बाल गोविंद राय (आयु: 9 वर्ष 6 मास) ने द्रवित स्वर में सूचित किया “पिताजी, आपसे बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है?” इस पर गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों के हाथों औरंगजेब को यह संदेश भिजवाया कि “यदि ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ इस्लाम स्वीकार कर लें, तो हम सब भी धर्म परिवर्तन कर लेंगे।”
औरंगज़ेब ने तत्काल गुरु जी की गिरफ्तारी का हुक्म जारी किया; किन्तु गुरु साहिब स्वयं कुछ चुनिंदा सेवक-साथियों सहित निडर होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए।
13. गिरफ्तारी, यातनाएँ और दिल्ली-प्रस्थान
औरंगज़ेब ने गुरु जी की गिरफ्तारी का आदेश दिया; गुरु जी स्वयं चुनिंदा सेवक-साथियों संग दिल्ली के लिए प्रस्थान कर गए। मुग़ल सैनिकों ने गुरु जी तथा साथियों- भाई सती दास जी, भाई मती दास जी, भाई दयाला जी को बंदी बना कर अमानुषिक यातनाएं दीं।
14. शहीद साथियों का अमर बलिदान।
9 नवंबर 1675 ई. को दिल्ली के चाँदनी चौक में, धर्मांतरण के दमन चक्र का सामना करते हुए, परम भक्त भाई सती दास जी ने इस्लाम स्वीकार करने से स्पष्ट इनकार किया। क्रूर मुगल सिपाहियों ने उन्हें रूई में लपेटकर जीवित अग्नि में झोंक दिया, परन्तु उन्होंने करुणामयी मुस्कराहट के साथ शहादत का जाम ग्रहण किया। अगले ही दिवस, 10 नवंबर 1675 ई., भाई मती दास जी को भी उसी धर्म-परित्याग की माँग ठुकराने के कारण स्तम्भ से बाँधकर आरों से देह के मध्य से चीरा गया; वह अंतिम क्षण तक निर्भीक भाव से जपुजी साहिब का पाठ करते रहे और हँसते-हँसते शहादत को स्वीकार किया। इसी दिन मुगल सैनिकों ने भाई दयाला जी को विशाल देग में जल उबालकर यातना पुर्वक शहीद कर दिया।
भाई सती दास जी और भाई मती दास जी सगे भ्राता थे, तथा उनके साथ भाई दयाला जी, ये तीनों ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के परम श्रद्दालु, निकटवर्ती सेवक और संगति-सहचर थे। उनका साहस पूर्ववर्ती पारिवारिक विरासत का प्रतीक था, इन दोनों भाइयों के परदादा, वीर सेनापति भाई परागा जी, छठे पातशाह ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ की फौज में अग्रणी रहे और मुग़ल अत्याचार के विरुद्ध मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद हुए थे। इस प्रकार, 9-10 नवंबर सन 1675 ई. की यह अमर बलिदान-गाथाएँ सिख इतिहास में आत्मोत्सर्ग, अटल आस्था एवं मानवीय गरिमा की चिरस्मरणीय मिसाल बन गईं, उन्होंने “धर्म की खातिर सिर दिया, सर न दिया” इस प्रकार से उन्होनें धर्म की परम्परा को शाश्वत सत्य में रूपांतरित किया।
15. दिल्ली दरबार की तीन शर्तें (11 नवंबर 1675 ई.)
चाँदनी चौक, दिल्ली में औरंगजेब के प्रतिनिधियों ने नौवें गुरु ‘श्री तेग बहादुर साहिब जी’ के सम्मुख तीन विकल्प रखे-
- कोई चमत्कार प्रस्तुत करें,
- इस्लाम धर्म स्वीकार करें,
- अन्यथा मृत्यु के लिए तैयार रहें।
समस्त देश की निगाहें गुरु जी के निर्णय पर टिकी थीं। उन्होंने इंसानियत की ज़मीर बचाने हेतु तीसरा मार्ग स्वैच्छिक शहादत को स्वीकार किया। सर्व-कला-सम्पन्न गुरु जी चाहें तो चमत्कार दिखा सकते थे; परंतु उन्होंने अपनी शहादत से अत्याचार-विरोध और धार्मिक स्वतंत्रता का शाश्वत संदेश रचा।
16. विश्व इतिहास में अनुपम उदाहरण
दूसरे धर्म की रक्षा के लिए स्वयं प्राण अर्पित करने का ऐसा अद्भुत उदाहरण विश्व-इतिहास में अद्वितीय है। गुरु जी ने अपनी शहादत की “चादर” से मानवीय अंतरात्मा को ढक लिया। जिसे एक कवि ने इस तरह से शब्दांकित किया है-
तेग बहादुर के चलत भयो जगत में शोक॥
है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक॥
धरती पर शोक, देव-लोक में जय-जयकार, निश्चित ही यह घटना शहादत और मानवाधिकार दोनों की महिमा का प्रतीक बन गई।
17. पावन धड़ का संस्कार: गुरुद्वारा रकाबगंज
गुरु जी के परम भक्त भाई लक्खी शाह बंजारे ने गुरु‐दर्शन के उपरान्त धड़ को सम्मान पूर्वक शहादत वाले स्थान से उठाकर, अपने घर को अग्नि‐समर्पित कर अन्तिम संस्कार किया। आज वह स्थल दिल्ली में विलोभनीय इमारत के रूप में गुरुद्वारा रकाबगंज गुरु साहिब जी की पावन स्मृति में सुशोभित है।
18. श्री आनंदपुर साहिब तक शीश की यात्रा
भाई जैता जी ने मुगल पहरे को छलते हुए गुरु जी का शीश श्री आनंदपुर साहिब पहुँचाया। वहाँ दशम पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ ने भाई जैता जी को संबोधित कर, आनन्दोल्लास से घोषणा की-
“रंगरेटा, गुरु का बेटा!”
यह सम्मान शहीद-परम्परा का गौरव-सूत्र बन गया।
19. गुरु-संदेश की आज्ञा: अमन व शांति
गुरु जी ने स्पष्ट कर दिया कि सत्ता का अहंकार और ज़ोर-ज़ुल्म चिरस्थायी नहीं।
केवल दया, धर्म और न्याय के मार्ग पर चलकर ही विश्व-शांति संभव है।
20. शहीदी-वर्ष को समर्पित काव्य-संवेदना
तिमिर घना होगा तमा लंबी होगी,
पर तमस से विहान रुका है क्या?
ज्ञान के विहान का विधान रुका है क्या?
इंसानियत की ज़मीर का पहरेदार रुका है क्या?
बाहुबल के दम पर धर्म का अवसान हुआ है क्या?
मिट गए मिटाने वाले गुरुओं के ज्ञान के सम्मुख,
शमशीर के वार से धर्म का विहान रुका है क्या?
इन पंक्तियों में छिपा प्रतिबिंब उद्घोष करता है कि शस्त्र-बल क्षणभंगुर है, परंतु गुरु जी की शहादत शाश्वत है।
21. निष्कर्ष
श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने—
- बहुआयामी शिक्षण, संगीत और युद्ध-कला का समन्वय प्रस्तुत किया।
- लोक-कल्याणकारी यात्राओं द्वारा सामाजिक-धार्मिक पुनर्जागरण किया।
- अत्याचार-विरोधी शहादत से धर्मनिरपेक्षता और मानवाधिकार का अमर घोष रच दिया।
इस प्रकार वे वास्तव में “श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी इंसानियत की ज़मीर के रखवाले” के स्वरूप में सम्मानित हुए। उनकी 350 वीं शहादत-वर्ष की स्मृति समस्त मानवता को-
धर्म-स्वातंत्र्य, सहिष्णुता एवं सेवाभाव का प्रकाश-स्रोत प्रदान करती रहेगी।
इंसानियत की ज़मीर के रखवाले ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को कोटिशः नमन!

