भारत-पाक विभाजन की विभीषिका पर अत्यंत वेदना दायी, मार्मिक और करुणामयी सच्ची घटना पर आधारित कथानक–
संपूर्ण देश में आजादी का अमृत महोत्सव हर्षोल्लास से हर घर तिरंगा फहराकर मनाया जा रहा है, आने वाली पीढ़ी को यहां आनंदोत्सव/जलसा तिरंगे के साथ देशभक्ति उर्जित कर रोमांचित करती है परंतु हमें या एहसास होना अत्यंत आवश्यक की इस आजादी को पाने के लिए हमें अनेकों कुर्बानियां देनी पड़ी थी| हजारों नहीं लाखों लोग बेघर हुए थे महिलाओं की इज्जत लूट कर उन्हें बेआबरू किया गया था| उस तत्कालीन समय में कहर का कत्लेआम हुआ था, विस्थापित लोगों को अपने अच्छे भले जमे-जमाए कारोबार और आलीशान महलों जैसे घरों को, खेत-खलियानों को रातों-रात छोड़ कर बेघर होना पड़ा था| यह सब कत्लेआम और खून-खराबा और किसी के साथ नहीं अपितु हमारे ही बड़े बुजुर्गों के साथ हुआ था| इस भारत-पाक विभाजन की विभीषिका में प्रत्येक परिवार के, प्रत्येक इंसान की सच्ची घटनाओं पर अनेक किस्से-कहानियां, कथानक और आपबीती समय की धुंध में छुप कर कहीं गुम से हो गये है, यह अनकहे, असहनीय, अत्यंत दर्दनाक ह्रदय को द्रवित करने वाली सच्ची घटनाएं और कथानक आज भी उस समय मजहब के नाम पर इंसान में पनपी राक्षसी वृत्ति के कारण हुये कत्लेआम के लिये हम सभी को सोचने पर मजबूर कर देते है|
हम अपने ही अतीत को भूल गए हैं, समय-समय की सरकारों ने अपनी राजनीति की रोटी सेकने के लिए, इन सरकारों ने अनजान होकर हमें फिरकापरस्ती और आपसी झगड़े में उलझा कर, हमारे आपसी भाईचारे और शांति वार्ता के सिद्धांत को बढ़ाने की बजाय हमें फिजूल के विवादों में उलझा कर रख दिया है| कभी झंडों की लड़ाई तो, कभी शहरों के नाम, रास्ते, विश्वविद्यालय और रोड़ के नाम पर, धर्म के नाम, पर मंदिर-मस्जिद के नाम पर, हमें लगातार लड़वाते रहे, कभी सड़कों पर जाम, तो कभी पत्थरबाजी, कभी हड़ताल! बस ऐसे ही बिना विचार किए हम लड़े जा रहे हैं| इन बेकार के झमेलों में जिंदगी तबाह होती जा रही है| हमें एक नेक इंसान बनकर अच्छी नियत से, अपने परिवारों से मिलकर, अच्छे ढंग से जिंदगी गुजारनी चाहिए| हमें अपने आपसी भाईचारे को बरकरार रखते हुए गंदी सोच और बुरे विचारों से आजादी पाना ही असल में आजादी का अमृत महोत्सव होगा| हमारी आजादी की कीमत और विभाजन की विभीषिका का वर्णन करने वाली एक सच्ची घटना के कथानक को आप स्नेही पाठकों के समक्ष प्रस्तुत की जा रही है|
सेंस (SENSES)–
एक पुरानी और बंद हो चुकी मॉडल के कार के पुर्जे की तलाश पर मुझे आखिरकार लुधियाना के ‘गिल रोड’ पर जाना ही पड़ा| किसी जानकार ने बताया कि इस बाजार में सेखुपुरिया खरादियां की एक दुकान अगले चौराहे पर है, जहां पर जैसा पुर्जा चाहिए, वह दुकानदार तुरंत बना कर दे देते हैं| जब मैं उस दुकान पर पहुंचा तो दुकान पर बैठे खुशमिजाज सरदार जी ने दुकान में काम करने वाले लड़के को आवाज देकर बुलाया और कार का पुराना/कंडम पुर्जा मेरे हाथ से लेकर उन्होंने उस लड़के को बनाने के लिए दे दिया| लड़का वह पुर्जा लेकर दुकान पर स्थित सीढ़ियां चढ़कर अंदर की और चला गया| मैं दुकान के काउंटर के सामने लगी हुई कुर्सी पर बैठ गया और मेरा ध्यान काउंटर पर बैठे सरदार जी के पीछे लगी हुई फोटो पर चला गया था इस फोटो को पासपोर्ट साइज की फोटो से बढ़ाकर फ्रेम में जड़ा गया था| इस फोटो में गंभीर मुद्रा में दर्शनिक सा चेहरा स्पष्ट नजर आ रहा था| फोटो फ्रेम के नीचे लिखा था 01/01/1930 से 10/12/2010 तक| वैसे तो मेरे गणित का ज्ञान ठीक-ठाक है परंतु पुर्जा बनाने इंतजार में बैठे-ठाले मैंने उस गंभीर वातावरण को तोड़ने के लिए उस फोटो-फ्रेम पर अंकित तारीख का एक मोटा-मोटा हिसाब लगाकर कहा कि यदि आपके बुजुर्ग और 20 दिनों तक जीवित रहते तो वह अपनी पूरी 80 वर्ष की आयु को सम्पूर्ण कर के जाते थे परंतु मेरी आशा के विपरीत वातावरण की चुप्पी और गहन एवं गहरी हो चुकी थी| उस समय में, मैं काउंटर पर बैठे सरदार जी के कुछ बोलने की आशा करके अपनी जेब से मोबाइल निकाल कर, मैंने मोबाइल के स्क्रीन से खेलना प्रारंभ किया तो एक गहरी सांस को छोड़ते हुए सरदार जी ने बड़ी ही गंभीरता से धीरे से कहा क्या करते 20 दिन और अपने ना चाहते हुए किये गये गुनाह की सजा भुगत कर?
उस फोटो-फ्रेम की तस्वीर से वह बीमार तो नहीं लगते थे, इस कारण से मैंने पूछा कि बीमार तो नहीं लगते थे, क्या समस्या थी? सरदार जी ने बैठे हुए कुर्सी पर अपने-आपको ढहा लिया था और आंखें बंद कर अपने अतीत में कहीं खो गए. . . . .
उन्होंने मुझे बताया कि भारत-पाक विभाजन के समय मेरे बापू सरदार सन्मुख सिंह जी की केवल 17 वर्ष की आयु के थे, उनका जन्म जंडियाला शेर खां के पास स्थित ग्राम (पाकिस्तान) में हुआ था| घर में खाना-पीना बहुत अच्छा था, करिब सवा ६ फीट उनकी ऊंचाई थी और अपने अंतिम समय तक अत्यंत उद्यमी थे| मेरे दादा जी के प्रथम पुत्र मेरे बापू सन्मुख सिंह जी थे और 2 वर्ष के पश्चात एक बेटी गुड्डी ने उनके घर में जन्म लिया था| जन्म से ही इस बेटी के हाथ-पैर अपाहिज/अपंग थे| यह दिव्यांग बेटी गुड्डी चल फिर नहीं सकती थी, दादा जी बताते हैं कि अपने बचपन में छोटी आयु में ही मेरे बापू उस अपनी दिव्यांग बहन गुड्डी को अपनी पीठ पर उठाकर पुरे गांव में अंदर-बाहर घुमाते, कभी वह अपनी बहन को लेकर घर के चौबारे पर चढ़ जाते तो कभी खेतों में घुमा लाते थे| अपनी तमाम जिंदगी खामोशी से गुजारने वाले मेरे बापू का अपनी उस छोटी दिव्यांग बहन गुड्डी के साथ अत्यधिक मोह था| अपनी छोटी बहन गुड्डी के दिव्यांग होने के कारण वह उसका बहुत ज्यादा ध्यान रखते थे| पूरे इलाके में भाई-बहन का प्यार एक मिसाल था, परिवार में कभी यह महसूस ही नहीं हुआ कि उनकी बहन गुड्डी दिव्यांग/अपाहिज है| भाई-बहन, हंसते-खेलते हमेशा घर में रौनक लगाकर रखते थे| काउंटर पर बैठे सरदार जी ने बताया कि हमारा मूल गांव (पिंड) जंडियाला शेर खां के पास था| इस गांव में सिक्खों के थोड़े से ही घर थे पर जितने सिक्ख थे वह सामर्थ्य शाली एवं अच्छी जमीन-जायदाद के मालिक थे| गांव के निवासी बताते हैं कि उन्हें पंडित नेहरु ने यकीन दिलाया था कि विभाजन की लकीर खींचने वाला कमीशन ननकाना साहिब से सेखुपुरा जिले के आगे सांगला हिल तक सिक्खों को विभाजित नहीं करेगा| नेताओं के द्वारा इस तरह के झूठे वादे कर अपने ही अवाम को दंगे की आग में झोंक देना निश्चित ही हमारे समाज की मूल्यहिनता एवं संस्कृति की अधोगती का प्रतिक था|
इस कमीशन के फैसले के इंतजार में गांव के निवासी 15 अगस्त सन् 1947 ई. तक गांव में ही बैठे रहे थे, पश्चात गांव में हमले होना प्रारंभ हो गए थे, इन हमलों का स्थानीय सिखों ने करारा जवाब भी दिया था परंतु उस समय इलाके के चौधरी के लड़के की लाश हमारे गांव से बरामद हुई थी चौधरी ने इलाके के सभी फिरकापरस्त गुंड़ों को और फौजियों को अपने मरे हुए पुत्र का वास्ता देकर कहा कि गांव से कोई भी सिख बचकर नहीं जाना चाहिए| गांव में स्थित हमारे बुजुर्गों को हमले की खबर प्राप्त हो चुकी थी परंतु उस समय गांव से बचकर निकलने का कोई रास्ता नहीं था| बहुत से गांव के निवासियों ने अपने बच्चों और औरतों को अपनी रिश्तेदारी में पहले ही गांव से रवाना कर दिया था परंतु अभी भी गांव में कई जवान बहू-बेटियां थी उस समय गांव में स्थित गुरुद्वारे में सिक्खों का इकठ्ठ हुआ और इस इकठ्ठ में हमारे दादा सरदार सेवा सिंह जी भी उपस्थित थे, गुरुद्वारे में यह फैसला हुआ कि दूसरे गांव की तरह जवान बहू-बेटियां, अपनी इज्जत और आबरु बचाने के लिए गांव में स्थित कुएं में छलांग लगाकर आत्महत्या कर लेंवे और बचे हुए लोग काफिला बनाकर बिना देरी करें गांव को छोड़कर चले जाएं| समाचार मिलने पर गांव की बहू-बेटियां स्वयं ही गुरुद्वारे के समीप वाले कुएं की और पहुंची और गुरु साहिब का ध्यान लगाकर अरदास (प्रार्थना) कर, अपने परिवार की खैरियत मांग कर, एक के बाद एक इन सभी महिलाओं ने उस गहरे कुएं में छलांग मार दी थी, बाबा सेवा सिंह जी जब अपने निवास पर पहुंचे तो हाथ-पैर से अपाहिज अपनी दिव्यांग बेटी गुड्डी को देखकर कहीं गुम से हो गए थे, घरवाली ने जब पूछा तो गुरुद्वारे में हुए फैसले की जानकारी दी एवं तुरंत अपने कीमती सामान की गठड़ी बांधना प्रारंभ कर ली थी, सरदार सन्मुख सिंह ने भी हुए फैसले को सुन लिया था और घर के बरामदे में मंजी (खाट) पर पड़ी हुई अपनी सबसे कीमती वस्तु अर्थात् अपनी दिव्यांग बहन गुड्डी को झोली में डाल कर, अपने कंधे पर डालने लगा. . . . . तो पिता जी ने अत्यंत भारी मन से अपने जवान बेटे को बताया कि बेटा हमारे जीने के भी कोई असर नहीं बचे है, हो सकता है कि हम अपने ग्राम जंडियाला में भी पहुंच ना सके, इस बेचारी को क्यों दरिंदों को नोचने के लिये तुम अपने साथ उठा कर ले जा रहे हो? सरदार सन्मुख सिंह ने अपनी बहन के लिए स्वयं की जान हथेली पर रखकर बहन की जिंदगी बचाने की बार-बार मिन्नते अपने बापू सेवा सिंह से की थी, बापू ने भी बार-बार समझाया कि इसे हम किसी भी तरह बचा नहीं सकेंगे, फिर उस दिन दिव्यांग बहन ने अपने भाई की सुख और लंबी उम्र उस वाहिगुरु जी से मांगी और अपनी जान का वास्ता देकर कहा कि वीरां (भाई) आप मुझे भी गांव की उन बहनों की तरह उस कुएं में फेंक आओ, यदि मैं स्वयं जाने जैसी होती तो सबसे पहले उस कुएं में मैं छलांग लगाती, बस्स . . . . मेरा भाई सलामत रहे, ऐसी जिंदगी मेरे भाई के बिना किस काम की? सन्मुख सिंह के कंधे पर रखी झोली की पकड़ ढीली हो चुकी थी| 17 वर्षीय गबरु जवान सरदार सन्मुख सिंह भावनाओं में बह गए गया था| बापू ने धीरे से समझाया और समझा कर कहा, बेटा या भावनाओं में बहने का वक्त नहीं है, गांव के निवासी जंडियाला की और रवाना हो गए हैं| बरामदे में स्थित आटे की चक्की के समीप रखे हुए सील-बट्टे के पत्थर की और इशारा कर बापू कहने लगा कि आंखें भींचकर गुड्डी के सिर पर जोर से एक वार कर और हम तुरंत आगे की और चल पड़ेंगे| कठोर ईश्वर कई बार ऐसा समय बना देता है वह अपने मानने वालों का भी कठिन इम्तिहान लेता है| इस दिव्यांग बहन गुड्डी ने भी भाई के पजामे का पोछा पकड़ लिया और जोर से खींचा एवं कहने लगी कि वीरां (भाई) देर मत कर, मैं हमेशा तेरे साथ रहूंगी, मैंने एक पल भी तुमसे से दूर नहीं जाना है, मुझे इस दिव्यांग शरीर से आजाद कर दे भाई! छोटी बहन के इन वचनों ने इतनी ताकत दी की भीगी आंखों से और मरे हुए मनसे, रुसवा वजूद को लेकर मनसुख सिंह ने उस सील बट्टे के बड़े पत्थर को उठा लिया था, आंसुओं का जैसे आंखों में सैलाब सा आ गया था, कांपते हुए हाथों से जब पत्थर का एक प्रहार उसने अपनी छोटी दिव्यांग बहन के सिर पर किया तो उसके सिर का एक हिस्सा खुल गया था| छोटी बहन की चीख से सन्मुख सिंह के कान सुन्न हो गए थे, धरती-आसमान पलट गए थे, मुंह में कलेजा आ गया था, छोटी बहन गुड्डी की चीखे शांत हुई तो आंखों को साफ करके सन्मुख सिंह ने जब अपनी छोटी दिव्यांग बहन की और देखा तो छोटी बहन एक छोटी सी मुस्कुराहट से उंगली ऊपर उठाकर इशारा से इंगित कर रही थी कि भाई एक बार और!
इस घटना को सुनाते हुए काउंटर पर बैठे हुए सरदार जी के हृदय से सिसकारियां निकल रही थी, मैं स्वयं संवेदनशील और गंभीर होकर दुकान से बाहर आ गया और गाड़ी में बैठ कर अपने आंसुओं को रास्ता देकर, मैंने अपनी आंखों को रुमाल से साफ किया| जब मैं पुनः काउंटर पर आया तो सरदार जी ने भी अपने आप को संभाल लिया था, मुझसे यह पूछा ना गया कि सरदार सन्मुख सिंह ने दोबारा उस पत्थर से अपनी छोटी बहन के सिर पर वार किया था क्या? इतने में दुकान का लड़का मेरे पुर्जे को बना कर ले आया था| सरदार जी ने मुझे चाय पीने के लिए रोक लिया था| मैंने सरदार जी से पूछा कि इसके पश्चात परिवार बच कर आ गया था क्या? तब सरदार जी ने उत्तर दिया कि आधे लोग ही पहुंच पाए, कोई भी परिवार पूरा पहुंच नहीं पाया था| सरदार जी ने आगे बताया कि दादा जी को रास्ते में ही हमारी दादी को भी स्वयं कत्ल करना पड़ा था| बापू सन्मुख सिंह पंजाब के इस चढ़ते पंजाब के टुकडे़ में यहां आकर ६३ साल तक अपनी जिंदगी जिया परंतु उसने तां उम्र किसी से बात नहीं की थी| बापू का विवाह हुआ हम तीन भाइयों का जन्म हुआ, इन 60 सालों में कई खुशी और गर्मी के मौके बने परंतु बापू के होठों को कभी भी फड़कते हुए नहीं देखा था| इस शहर में मजदूरी करते-करते बापू हमें इस आलीशान दुकान का मालिक बना गया था बापू सन्मुख सिंह! परंतु अपनी संपूर्ण उम्र में बापू कभी ना हंसा था और ना ही रोया था| ‘मेडिकल साइंस’ के हिसाब से तो यह संभव नहीं था कि किसी इंसान को “सेंस” हो तो वह अपनी खुशी या गमी को जाहिर ना करें, हो सकता है बापू उस घटना के सदमे से अपना “सेंस” लुज़ कर गया हो, यह वैज्ञानिक तथ्य मैंने स्वयं तर्कशील होकर अपने स्वयं से निकाला था| सरदार साहिब की इस बात का कोई जवाब देना मैंने मुनासिब नहीं समझा था, मैंने उस अकाल पुरख परमेश्वर को वाहिगुरु-वाहिगुरु कहकर याद किया एवं अपना चित्त शांत किया| वर्तमान में निश्चित ही ऐसे कथानक हमारी निरीहता, व्याकुलता और अंतर्मन की जुबान बन कर रह गये है|
सरदार जी ने उस दुकान के काउंटर पर स्टैंड वाले कल कैलेंडर पर अंकित गुरबाणी के इस पद्य को पढ़कर मुझे सुनाया था–
मानै हुकमु सोहै दरि साचै आकी मरहि अफारी|| (अंग क्रमांक ९९२)
अर्थात् जो भी परमात्मा के हुक्म का पालन करता है, वह सच्चे दरबार में शोभा का पात्र बनता है परंतु घमंडी और विमुख जीव आवागमनों के चक्कर में पड़े रहते हैं|
यह सच्ची घटना सन् 2013-14 ई. में ‘गिल रोड’ लुधियाना में बुजुर्ग दुकानदार से सुनी थी, तारीख ध्यान में नहीं है इसे शब्दांकित ना करने का मन में बहुत अफसोस था, निश्चित ही ऐसे कथानक शब्दांकित नही किये जाते है अपितु मन में चल रहें अंतर्द्वंदों के हस्तकरधे पर हौले-हौले बुने जाते है| इस कथानक के द्वारा इस घटना को शब्दांकित कर संभालने का यत्न किया गया है|
नोट– उस समय में कई स्थानीय मुस्लिम परिवारों ने छोटी बच्चियों को आश्रय देकर, बचाया भी था, उनमें से कुछ छोटी लड़कियां जब बड़ी होकर चढ़ते पंजाब में अपने पाठकों से मिली तो ज्ञात हुआ कि इन लड़कियों का धर्म परिवर्तन करने के पश्चात् इन्हें मुस्लिम लड़कों से शादी कर, वहां बसा दिया गया है|
साभार– सच्ची घटना पर आधारित इस पंजाबी कथानक की जानकारी मेरे सत्कार योग्य मित्र प्रोफेसर जगरूप सिंह जी रूप खालसा (हजूरी रागी जत्था श्री दरबार साहिब जी) हैं| हिंदी के स्नेही पाठक और हमारी आने वाली पीढ़ी आजादी के इस अमृत महोत्सवी वर्ष में जान सके कि इस आजादी की क्या कीमत हम पंजाबियों ने और खासकर अल्पसंख्यक सिख समुदाय ने चुकाई है?