श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी और निष्काम सेवा: एक आध्यात्मिक दृष्टिकोण
निष्काम सेवा : सिख धर्म का सारतत्त्व
सिख धर्म में निष्काम सेवा को आध्यात्मिक साधना का मूलाधार माना गया है। यह सेवा न किसी स्वार्थ की कामना से की जाती है, न ही किसी यश-लाभ की अपेक्षा से; वरन् यह तो हृदय की शुद्धता और मानवता के प्रति समर्पण का जीवंत उदाहरण होती है। जो पुरुष सद्विचारों से युक्त हैं, जिनका आचरण उच्च और निर्मल है, वही इस पथ पर अग्रसर होकर निष्काम सेवा में रत हो सकते हैं।
मानव जीवन का परम उद्देश्य लोक-कल्याण के लिए समर्पित होकर, सेवा के माध्यम से प्रभु की प्राप्ति करना है। ऐसी सेवा ही ईश्वर को अर्पित होती है और वही उस परम सत्ता को प्रिय भी होती है।
विचि दुनीआ सेव कमाईऐ॥
ता दरगह बैसणु पाईऐ॥
(अंग क्रमांक 26)
अर्थात् इस दुनिया में विचरण करते हुए यदि इंसान निष्काम सेवा की कमाई करता है तो ही उसे प्रभु के दरबार (सचखंड) में आसीन होने का अधिकार प्राप्त होता है।
निष्काम सेवा : आत्मिक उन्नयन का आधार
निष्काम सेवा ऐसा दिव्य कर्म है, जिससे न केवल तन पावन होता है, अपितु मन भी निर्मलता को प्राप्त करता है। सिख धर्म में भक्ति (सिमरन) और निष्काम सेवा — इन दोनों को मोक्ष का सेतु माना गया है। यह सेवा आत्मिक उन्नति की प्रथम सीढ़ी है, जिस पर आरूढ़ होकर साधक जीवन के परम उद्देश्य की ओर अग्रसर होता है।
निष्काम सेवा के माध्यम से ही आनंदमय रस की अनवरत धारा में आत्मा सराबोर हो उठती है, और जीवन सार्थक बन जाता है। सिख धर्म की दृष्टि में गुरुओं की सेवा, साध-संगत की सेवा तथा उस निराकार, अकाल पुरुष की सेवा, इन सभी को सर्वाधिक पवित्र और उच्च कोटि की सेवा माना गया है।
माता-पिता की सेवा, यदि सम्मान और श्रद्धा के भाव से की जाए,तो वह मनुष्य के नैतिक उत्तरदायित्व की पूर्ति का प्रतीक है। इसके विपरीत, स्वार्थवश अथवा लोभवश की गई सेवा मात्र चाकरी होती है, जो आत्मा को ऊंचाई की ओर नहीं ले जाती, अपितु व्यक्ति को संकीर्ण स्वार्थों में बाँध देती है।
वास्तविक निष्काम सेवा वही है, जिसमें प्रत्येक जीव में उस अकाल पुरख की ज्योति को समभाव से स्वीकार किया जाए और उसी भावना से सेवा की जाए। ऐसी सेवा ही न केवल धर्म का सार है, वरन् मानवता का आदर्श भी। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का फरमान है कि
कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु॥
रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु॥
(अंग क्रमांक 1373)
अर्थात् कबीर जी उपदेशित करते हैं की, सेवा के लिए दो ही भले हैं, एक संत और एक राम! राम का नाम मुक्ति प्रदान करने वाला है और संत इस मुक्तिदाता का नाम जपवाता है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का फरमान है कि—
गुर सेवा ते भगति कमाई॥
तब इह मानस देही पाई॥
(अंग क्रमांक 1159)
अर्थात् भक्ति से गुरु की निष्काम में समर्पित हो तो ही सही अर्थों में मानव देह प्राप्त होती है, इसके बिना जन्म लेकर भी मानवता का भाव प्राप्त नहीं होता है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का फरमान है कि—
सतिगुर की सेवा सफलु है जे को करे चितु लाइ॥
मनि चिंदिआ फलु पावणा हउमै विचहु जाइ॥
बंधन तोड़ै मुकति होइ सचे रहै समाइ॥
इसु जग महि नामु अलभु है गुरमुखि वसै मनि आइ॥
नानक जो गुरु सेवहि आपणा हउ तिन बलिहारै जाउ॥
(अंग क्रमांक 644)
अर्थात् सतगुरु की सेवा तभी सफल होती है, जब साधक उसे पूर्ण श्रद्धा और मनोयोग से करता है। ऐसी सेवा न केवल आत्मिक संतोष प्रदान करती है, अपितु मनोवांछित फल की प्राप्ति का भी माध्यम बनती है। इसके प्रभाव से अंतःकरण में जमे हुए अहंकार का पूर्णतः नाश हो जाता है, और साधक सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है।
ऐसे पुरुषों का जीवन सत्य में प्रतिष्ठित होता है, और वे सदा सत्य-पथ पर अडिग रहते हैं। इस संसार में अकाल पुरख का नाम अत्यंत दुर्लभ है! यह केवल उन्हीं गुरमुखों के चित्त में स्थिर होता है, जो पूर्ण समर्पण और निस्वार्थ भाव से जीवन यापन करते हैं।
है नानक! जो साधक अपने गुरु की निष्काम सेवा करता है, मैं उस पर जीवन अर्पण करने को तत्पर हूँ।
गुरुवाणी का उपरोक्त अधोरेखित पद्य (सबद) से स्पष्ट है कि सिख धर्म में निष्काम सेवा के द्वारा नाम/सिमरन की प्राप्ति का मार्ग दर्शाया गया है।
निष्काम सेवा से ही जन्म–मरण के बंधन कट जाते हैं और मानवीय जीवन सफल होता है। निष्काम सेवा से ही मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है और अंतरात्मा उस प्रभु के नाम में लीन हो जाती है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी का फरमान है कि
करोड़ि हसत तेरी टहल कमावहि चरण चलहि प्रभ मारगि राम॥
भव सागार नाव हरि सेवा जो चड़ै तिसु तारगि राम॥
(अंग क्रमांक 781)
अर्थात् हे प्रभु मेरे करोड़ों हाथ हो और वह तेरी निष्काम सेवा करें, मेरे करोड़ों पैर हो जाए जो तेरे बताए हुए मार्ग पर ही चलें, इस कलयुग रूपी भवसागर में से पार होने के लिए हरि की उपासना एक नाव है और जो इस नाव पर चढ़ता है वह पार हो जाता है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी का फरमान है कि—
सेवा करी जे किछु होवै अपणा जीउ पींडु तुमारा॥
(अंग क्रमांक 635)
अर्थात् हे प्रभु यदि मेरा कुछ अपना हो तो ही मैं तेरी सेवा करूं, मेरी आत्मा और शरीर तुम्हारी देन है, जब कोई सच्चा सेवादार इस आदर्श को समझ लेता है तो वह उसके अहंकार और स्वार्थ से ऊपर उठकर प्रभु–परमेश्वर और इंसानियत की निष्काम सेवा करता है। सभी इंसान उस प्रभु परमेश्वर की देन है, इंसानियत की सेवा ही निष्काम सेवा है।
“मानवता की सेवा करना ही प्रभु–परमेश्वर की सेवा करना है”।
सतगुरु की दिव्य शिक्षाओं का ही प्रताप था कि इस धरती पर अनेक महान आत्माओं, महापुरुषों और गुरु सिखों ने जन्म लिया। उन्होंने आत्मिक ऊँचाई को प्राप्त कर, द्वेष और अज्ञान को त्यागते हुए, प्रभु की भक्ति को ही मानव सेवा का माध्यम माना और निष्काम भाव से समाज में मानव कल्याण हेतु अपना जीवन समर्पित कर दिया।
ऐसी ही निष्काम सेवा का एक स्वर्णिम और अनुपम उदाहरण ‘गुरु पंथ खालसा’ के इतिहास में भाई कन्हैया जी के रूप में प्राप्त होता है। सन् 1704 ईस्वी में, जब युद्ध का रणक्षेत्र रक्त से रंजित था, तब भाई कन्हैया जी ने गुरुवाणी की अमृतमयी शिक्षाओं को अपनी आत्मा में आत्मसात कर, मश्क में जल भरकर घायल सैनिकों को ठंडा पानी पिलाना प्रारंभ किया। उनकी सेवा अद्वितीय थी, वह न किसी के रूप, जाति या पक्ष को देखते थे, न ही मित्र–शत्रु का भेद करते थे। उनका लक्ष्य केवल एक ही था- “पीड़ित मानवता की सेवा”।
भाई कन्हैया जी की यह निष्काम सेवा कुछ सिख सैनिकों को खटकने लगी। उन्होंने दशमेश पिता “श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज” से शिकायत की कि “भाई कन्हैया शत्रु पक्ष के घायल सैनिकों को भी जल पिला रहे हैं, जिससे वह फिर से शक्ति प्राप्त कर हमारे विरुद्ध युद्ध करने योग्य हो जाते हैं।”
यह सुनकर दशमेश पिता ने भाई कन्हैया जी को अपने समक्ष बुलवाया। जब उनसे यह पूछा गया कि “तुम यह क्या कर रहे हो? शत्रु सैनिकों को भी जल क्यों पिला रहे हो?” तो भाई कन्हैया जी ने निर्विकार, निर्मल और निर्भय भाव से उत्तर दिया:
“पातशाह जी! मुझे तो हर घायल चेहरे में केवल आपकी ही झलक दिखाई देती है।”
इस एक उत्तर ने निष्काम सेवा की परिभाषा को अमर कर दिया| जहाँ न कोई भेद है, न द्वेष; केवल ईश्वर की सृष्टि में समानता और करुणा का प्रकाश। जिसे इस तरह अंकित किया गया है-
मैं ता जत देखा तत् तू॥
अर्थात् मुझे तो हर घायल सैनिक में ईश्वर नजर आता है। हर घायल सैनिक में ‘महाराज जी’ मुझे तो आप ही के दर्शन होते हैं। इसलिए मेरे लिए ‘ना कोई बेरी है और ना ही कोई बेगाना है’।
इस प्रसंग को भाई वीर सिंह जी ने अपनी रचना में बहुत ही अच्छी तरह से स्पष्ट किया है।
तुरक अतुरक ना कोई दिसदा तु है सभ नी थाई॥
तेनु पिया पिलावां पानी मैनु होर नजर ना आई।
अर्थात मैं तो केवल आप ही को पानी पिला रहा था। मुझे तो अपना–पराया कोई नहीं दिखा। मुझे तो केवल आप ही आप नजर आए सतगुरु जी। यह सुनकर ‘दशमेश पिता जी’ ने मुस्कुराकर ‘भाई कन्हैया जी’ को गले लगा लिया और भाई कन्हैया जी’ को मलहम पट्टी भी दी और ज़रूरत अनुसार मलहम पट्टी करने का सुझाव भी दिया। साथ ही कहा कि ‘भाई कन्हैया जी’ आपकी सेवा बहुत ही महान है।
इतिहास के इस प्रसंग अनुसार सन् 1863 ई. से 149 वर्ष पूर्व सन् 1704 ई. में ही रेड क्रॉस सोसाइटी का जन्म ‘भाई कन्हैया जी’ की निष्काम सेवा के द्वारा हो चुका था। आज पूरी दुनिया में जहां रेड क्रॉस सोसाइटी कार्य कर रही है वह हमें निश्चित रूप से इंसानियत के रहनुमा निष्काम सेवादार ‘भाई कन्हैया जी’ को भी याद रखना होगा। भाई कन्हैया जी की इन निष्काम सेवा के कारण ही भारत सरकार की और से सन् 1998 ई. में भाई कन्हैया जी की याद में एक ‘डाक टिकट’ भी जारी किया गया था।
बाबा ख़ुदा सिंह जी : करुणा और निष्काम सेवा की जीवंत मूर्ति
सिखों के स्वर्णिम इतिहास में अनेक उदाहरण ऐसे अंकित हैं, जो मानव सेवा की पराकाष्ठा और “गुरु पंथ खालसा” की महत्ता को उजागर करते हैं। ऐसा ही एक प्रेरणास्पद प्रसंग उस समय का है, जब “शेर–ए–पंजाब महाराजा रणजीत सिंह जी” की देहावसान के उपरांत सिख साम्राज्य अपने अंतिम दिनों की ओर अग्रसर था। उस संकटपूर्ण काल में, लाहौर के चुना मंडी क्षेत्र के निवासी बाबा ख़ुदा सिंह जी ने अपनी निस्वार्थ सेवाओं से गुरु पंथ की गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखा।
इतिहास में वर्णित है कि एक अंधेरी और निस्तब्ध रात में, जब बाबा ख़ुदा सिंह जी प्रभु-स्मरण में लीन थे, तभी एक हृदय-विदारक करुण क्रंदन ने उनकी एकाग्रता को भंग किया। यह कराह किसी दुखियारी स्त्री की थी, जो पीड़ा से व्याकुल हो रही थी। उस करूण ध्वनि का अनुसरण करते हुए आप एक जर्जर झोपड़ी तक पहुँचे, जहाँ देखा कि एक निर्धन स्त्री अपने शरीर पर हुए फोड़े की तीव्र वेदना में छटपटा रही थी।
उस महिला की पीड़ा देखकर बाबा ख़ुदा सिंह जी की अंतरात्मा करुणा से भर उठी। सेवा की सच्ची भावना से प्रेरित होकर उन्होंने उस फोड़े के विषरूपी मवाद को अपने मुख द्वारा चूस-चूसकर बाहर निकाला, और इस प्रकार उस स्त्री को असहनीय कष्ट से मुक्ति प्रदान की।
जब पीड़िता का पति भाव-विभोर होकर उनके चरणों में नतमस्तक हुआ और बोला, “बाबा जी, आपने हम निर्धनों पर अपार कृपा की है,” तो बाबा ख़ुदा सिंह जी ने अत्यंत विनम्रता से उत्तर दिया —
“यह सेवा मैंने नहीं की, यह तो गुरु का हुक्म है।”
ऐसी ही निष्काम सेवा की ज्योति को “गुरु पंथ खालसा” के सेवक सदा प्रज्वलित रखते आए हैं और आज भी यह दिव्य परंपरा जीवित है। निश्चित ही बिना किसी भेदभाव के, केवल गुरुवाणी की प्रेरणा से, पीड़ित मानवता की सेवा करना ही सच्ची “निष्काम सेवा” हैं।
धन्य हैं गुरु के सिख!
धन्य है “गुरु पंथ खालसा”!
और धन्य है इनकी निष्काम सेवाएं, जो इन गुरु-सिखों द्वारा निरंतर निभाई जाती है।

दिल्ली फतेह दिवस विशेष–
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