पुस्तक का नाम: अनुभव अर्श के....
प्रस्तावना
‘अर्श की कलम से’……..
हर एक व्यक्ति में कुछ ना कुछ खुबी होती है उस खुबी को पहचान कर उसे निखार कर समाज के समक्ष लाने पर वह इंसान अपनी इस खुबी से समाज हित में कई अच्छे कार्यों को अंजाम दे सकता है।
‘फर्श से अर्श तक’ मेरे जीवन का सारांश है। मैं अपने जीवन की पहली पुस्तक प्रकाशित कर रहा हूँ। इस पुस्तक के माध्यम से समाज के विभिन्न पहलुओं पर विभिन्न विषयों पर मेरे द्वारा रचित इन ५० लेखों के संग्रहण द्वारा प्रकाश डाला गया है। समयानुसार इन संग्रहित लेखों के द्वारा मैनें अपना एक सकारात्मक विचारों का द्रष्टिकोण रखा है। मेरे इन लेखों का संग्रह ‘अर्श’ की उत्पत्ति से अभिभूत है। भूत भावन बाबा महाकाल की नगरी की गलीयों में गुजारा बचपन सचमुच एक खुला विश्वविद्मालय था, बिना दीवारों के इस विद्मालय में जीवन कि कटुता को समझ, ‘संघर्ष ही जीवन है’ इस मूल मंत्र को आत्मसात कर अपना स्वयं का मार्ग प्रशस्त करने की यह गाथा है। मेरा जन्म एक गरीब परिवार में हुआ परंतु एक जिद्द थी की पारिवारिक परिस्थितियों को संभालते हुये स्नातक की डिग्री हासिल करना है,विद्यालयीन और महाविद्यालयीन शिक्षण के साथ – साथ इस खुले विश्वविद्मालय में बहुत कुछ सीखने को मिला, व्यक्तिगत जीवन शैली में मालवा की मृधगंध आचार – विचार, व्यवहार, त्यौहार, मृधभाषा और आत्मीयता शरीर के रोम – रोम से पुलकित होती है। भले ही शारीरिक रूप से में पुणे में हूँ परंतु आत्मिक रुप से हमेशा उज्जैन में विचरण करता रहता हूँ। भूख से लड़ना अपने व्यक्तिगत कार्य प्यार और सहजता से निकालना इस खुले विश्वविद्मालय की देन है। संघ की शाखाओं में नियमीत रुप से जाना और छात्र जीवन की राजनिती ने जीवन में एक विशेष संगठन कौशल्य का निर्माण किया। विद्यालयीन जीवन में हिंदी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने के कारण बचपन से ही गद्य, पद्य, निबंध और स्तंभ लेखन में रुचि रही है। हिंदी साहित्य को समझने की कोशिश की और लिखने का शौक बचपन से ही रहा है। जिंदगी जीने के इस संघर्ष, भाग दौड और उठा – पटक में अपने इस शौक को समय ही नही दे पाया।
आज में एक टी.यु. वी.सर्टीफाइड प्रायव्हेट लिमिटेड कंपनी का मैनेजींग डायरेक्टर हूँ। ऑटोमोबाइल उद्मोग के अंतर्गत स्थित औद्मोगिक क्षैत्र में भी कई टेस्टिंग उपकरणों का निर्माण अपने ज्ञान और अनुभव से किया है। इस क्षेत्र में अपने ज्ञान, लगन,मेहनत, एकाग्रता और ईमानदारी से कई बेमिसाल कार्य किये है जो जीवन में माइल स्टोन है। यह सब लिखने का कारण यह है की एक गरीब परिवार का लड़का जिसने उज्जैन जैसे धार्मिक शहर में अपना बचपन गुजारा और आज एक मुकाम पर पहुंचने के बाद अपने जीवन की समस्त जवाबदारीयों से मुक्त होकर, स्वयं को समाज के लिये लेखन कार्य के लिये समर्पित कर दिया है। मेरे इस शौक को विशेष रूप से स्थाई भाव देने का का कार्य कोरोना संकट के लाक डाउन ने किया है| लाक डाउन में मिले समय का सदोपयोग कर मैने अपने मन में चल रहे शब्दों के द्वंद को कलम की मदद से कागज पर उतारने की कोशिश की है।
साहित्य, लेखन और फिल्मों के क्षैत्र में चलन है की जो भी व्यक्ति इन क्षैत्रों में कार्य करते है उनका एक उपनाम जरूर होता है। व्यक्तिगत मित्रों की सलाह थी की मुझे भी एक उपनाम जरूर रखना चाहिये। कई दिनों के विचार मंथन के बाद दोस्तों के द्वारा प्रस्तावित उपनाम ‘अर्श’ पर मेरी मोहर लगी। इस ‘अर्श’ शब्द के और भी अर्थ है जैसे की खुला आकाश, मुकुट या उपहार और अंग्रेज़ी वर्णमाला में यदि ARORA RANJEET SINGH को शार्ट कर लिखते है तो ‘ARSH’ शब्द की उत्पत्ति होती है।
मेरी अपनी चाहत है की मेरी लेखनी खुले आकाश की तरहां हो और पाठक इसे पढ़कर मुकुट की तरहां धारण करें और यही मेरी लेखनी के द्वारा समाज को दिया गया यह एक अनूठा उपहार होगा।
अनुक्रमणिका
संगठन में शक्ति है
पुरी दुनिया में वैश्विक महामारी कोरोना ने भीषण आतंक मचा रखा है। हर इंसान खौफ़ में जीने को मजबूर है। विश्व के बड़े – बड़े बली केवल अवाक होकर महामारी की विभीषिका के आगे नत मस्तक है। हमारी सरकार, पोलीस– प्रशासन, डाक्टर्स, नर्सेस, पैरा मेडिकल स्टाफ पुरी एकजुटता के साथ महामारी से जूझ रहे है, यह कोरोना महामारी दिन – प्रतिदिन विकराल रूप धारण कर काल का ग्रास बनकर धीरे – धीरे सभी को अपने लपेटे में लेती जा रही है। हम केवल सरकार के भरोसे बैठे है। कब वैक्सीन आयेगी? और कब हमें इस महामारी से निजात मिलेगी? तो क्या जब तक इस महामारी का कोई इलाज ना मिल जाये, तब तक हमें अपने लोगों को इस महामारी से ग्रसित होने देना चाहिये ? क्या हमारा कोई फर्ज नही है? क्या हम अपनी अनेकता में एकता की विशेषता को भूल गये? क्या हम विरासत में मिले अपने इतिहास को भूल गये? विश्व में कई छोटे – छोटे देशों ने इस महामारी को उनके देश में घुसपैठ नही करने दी। वहाँ के लोगों ने संगठित होकर शानदार टीम वर्क का प्रदर्शन कर इस महामारी पर विजय प्राप्त की है।
हमारे टीम लीडर फिर वो चाहे प्रधानमंत्री जी हो, मुख्यमंत्री जी हो इस समय देश के सभी नेता आपस में मिलकर अपने तरिके से बहुत अच्छा समाधानी कार्य कर रहे है। इस महामारी से लड़ने के लिये हमारा नेतृत्व संगठित होकर एक टीम वर्क के रूप में उत्तम कार्य कर रहा है।
आज महाराष्ट्र सबसे ज्यादा कोरोना के संकट से त्रस्त है,परंतु हम भूल गये की हमनें तो अपने खेलों में ही बहुत अच्छा संगठन कौशल्य का परिचय देकर उत्तम टीम वर्क करते है। फिर चाहे वो दही हंडी का खेल हो। इस खेल में चाहे जितनी उंचाई पर दही हंडी बंधी हो, हम कई – कई मंजिल मानव निर्मित श्रृंखला बनाकर दही हंडी को फोड़ते है और मजेदार यह है की टीम का सबसे छोटा सदस्य एक हीरो की तरहां यह कार्य बड़ी आसानी से करता है। हमारे ढ़ोल लेझीम पथक में सैकड़ों युवक – युवती एक अनुशासन का अनुपालन कर जब एक साथ ढोल पर ठेका देते है तो एक विशेष ब्रह्म नाद उत्पन्न होता है। यह ब्रह्म नाद ही हमारे संगठित टीम वर्क की ताकत है। आज हमें इस टीम वर्क की ताकत को पहचानना होगा और इस ताकत को पुनर्जीवित करना होगा।
एक अच्छा उदाहरण है:– एक बार एक उद्दयोगपति एक गांव में कारखाना शुरू करना चाहता था। उस गांव में जब वो अपनी कार से जा रहा था तो उसकी कार गांव के कच्चे रास्ते पर कीचड़ होने के कारण फंस गई। मदद हेतु उद्दयोपति कार से उतर कर कुछ दूर गया तो उसकी मुलाकात एक वृद्ध किसान से हुई और उस उद्दयोपति ने उस किसान से कीचड़ में फंसी अपनी कार को बाहर निकालने के लिये मदद मांगी। वृद्ध किसान जब कार के पास आया तो कहने लगा की कार को बाहर निकालने के लिये बंड्या को बुलाना पडे़गा। यह सुनकर उद्दयोपति ने कहा कि ठीक है आप बंड्या को बुलाकर लाये और बंड्या ने कार निकालने में मेरी मदद करी तो में बंड्या को अच्छा खासा ईनाम दूंगा। वृद्ध किसान ने हंसते हुये कहा की बंड्या कोई इंसान नही बल्कि मेरा बैल है और वह तुरंत उस बैल को लेकर आया। रस्सी के सहारे से बैल को बांधकर हाकते हुये जोर – जोर से चिल्ला कर बैल को गाड़ी खीचने के लिये कहने लगा। साथ ही जोर – जोर से चिल्लाते हुये कहने लगा, एह बंड्या खींच ! एह पिलीया खींच ! एह कालिया खींच ! एह धौलिया खिंच…..!
और देखते ही देखते बैल ने पुरी ताकत लगाकर उस कार को खींचकर बाहर निकाल दिया। उद्दयोपति बहुत खुश हुआ। और वृद्ध किसान को पूछा की गाड़ी को खींचने के लिये तो एक ही बैल रस्सी से बांधा गया था परंतु आप और अलग – अलग नाम क्यों पुकार रहे थे। वृद्ध किसान ने मुस्कराते हुये कहा की मेरा बैल बंड्या बुढ़ा और अंधा है उसे दिखता नही है। इसलिये उसे पता नही की उसे अकेले ही को कार से बांध कर जोता गया है। मैंने अलग – अलग और बैलों के नाम लिये तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ की और तीन बैलों को उसके साथ जोता गया है। और वो सभी कार को खींच रहे है। अर्थात् वो संगठित होकर एक टीम में काम कर रहे है। और उसने अपनी पुरी ताकत लगाकर सर्वोत्तम परिणाम दिया है। साहब इस पुरे घटनाक्रम को आपकी भाषा में बोला जाता है “टीम स्पिरिट” !
एक अनपढ़ किसान की चतुराई को देखकर उद्दयोपति अवाक रह गया।
TEAM के चार वर्णमाला के अक्षरों को बहुत सुंदर तरिके से परिभाषित किया है।
T = TOGETHER
E= EVERYONE
A= ACHIVES
M=MORE
आज हमारे देश के नेतृत्व ने संगठित होकर एक उत्तम टीम वर्क का प्रदर्शन देश के सामने किया है। अब हमारी नैतिक जवाबदारी है की हम सभी मिलकर – संगठित होकर एक उत्तम टीम बनकर इस महामारी से मुकाबला करे।
यदि हमें एक उत्तम टीम बनानी है तो इन बिंदुओं को विशेष ध्यान में रखना होगा :—
कोई भी मुश्किल काम संगठित होकर टीम वर्क में करेंगे तो असंभव कुछ भी नही है। यदि टीम के सभी घटक किसी की प्रतिक्षा ना करते हुये एकजूट होकर पुरी ताकत से काम करेंगे तो परिणाम निश्चित ही अद्वितीय होंगे।
हमारे साथ कोई हो या ना हो परंतु स्वीकार की हुई जवाबदारी हम पुरी जिम्मेदारी से निभा सकते है। यह विश्वास ही हमारे मनोबल को बढा़ने में सहायक होगा।
हम स्वयं एक टीम है ऐसा समझते हुये अपने प्रत्येक साथी को साथ में लेकर स्वयं आगे बढ़कर कार्य करे तो निश्चित ही हमारे साथियों का मनोबल उंचा होगा आत्मविश्वास बढे़गा।
इस संगठित टीम वर्क में वो लोग सबसे घातक होते है जो दी गई जवाबदारी को टीम के दुसरे सदस्य पर सरकाने की कोशिश करते है और संगठित टीम में भीड़ बढा़ते है, ऐसे लोगों से बचकर रहना चाहिये ।
संगठित टीम में आगे होकर जो विभिन्न जवाबदारी लेते है और अपने कार्य में हमेशा दुसरे टीम के सदस्य की मदद भी लेते है एवम मदद करते भी है; ऐसे लोगों से ही संगठित टीम महान होती है।
तो साथियों आओं हम सभी मिलकर संगठित होकर एक उत्तम ‘टीम स्पिरिट’ बने। कोरोना महामारी से बचाव ही प्रतिघात है। इस महामारी से बचना देश को आर्थिक रुप से समर्थ करना है यही देश भक्ति है, हमारा नैतिक और राष्ट्रीय कर्तव्य भी है की हम अपने संगठन कौशल्य से इस वैश्विक महामारी को समाप्त कर पुरे विश्व को दिखा दें की।
संगठन में ही शक्ति है !
अन्न पूर्ण ब्रह्म है
में एक दिन किसी काम से एक भवन – निर्माण की साइट पर किसी का इंतजार कर रहा था पास ही साइट के मजदूरों के कुछ बच्चे आपस में खेलने में मग्न थे। परंतु मैने देखा की एक छोटा बच्चा (लगभग आठ नौ वर्षों का) कोने में खडा़ होकर उन बच्चों का खेलते हुये देखकर अत्यंत खुश हो रहा था। उन बच्चों को खेलते हुये देख यह बच्चा भी जोर – जोर से चिल्लाने लगता कभी ताली बजाता तो कभी हंस देता था।
मैने उसके पास जाकर पूछा, एह छोटू तु क्यों नही खेल रहा है? वो बच्चा एक अच्छे दर्शक की तरहां खेल को देखता रहा और मुझे ना देखते हुये उत्तर दिया की मां ने खेलने से मना किया है।
मैने आश्चर्यचकित होकर बच्चे से कहा की अरे मां क्यों खेलने से मना करेगी? शायद तुम मां की बात नही सुनते हो या फिर मां को तंग करते हो? उस लड़के ने मुझे कटाक्ष नजरों से देखा और बिना कोई उत्तर देते हुये खेल देखने में मग्न हो गया। मुझे बड़ी हैरानी हुई मेरे अंदर की जिज्ञासा मुझे शांत बैठने नही दे रही थी। मैने उसे फिर से तंग करते हुये कहा की मुझे पता है तुम्हारी मां खेलने से क्यों मना करती है शायद तुम ठीक तरहां से पढाई नही करते हो। उसने मेरी नजरों में झांक कर मजबूरी दिखाते हुये दुनिया का सबसे जहरिला सच अंतर्मन से बाहर निकाल कर कहा की मां कहती है बेटा खेलना नही है, यदि तुम खेले तो तुम्हें ‘भूख’ लगेगी और तुम फिर से खाने की मांग करोगे . . . . . .!
उस बच्चे के चेहरे पर झल्लाहट के साथ आंखों में पानी था और वह अचानक कहीं चला गया।
में हताश – बैचेनी से सोचने लगा की पिछले साल भर में भूख लगे और खाये हुये अन्न को पचाने के लिये मैने दवाइयों पर कितना खर्च किया है?
इस एक सौ तीस करोड़ आबादी वाले देश में ना जाने कितने बच्चे भूखे सोते है। जिन्हें खाने का महत्व नही पता वो लापरवाही से तैयार खाने को बर्बाद करते है; पंजाबी में कहावत है ।
जो वंड खाये सो खंड खाये,
जो अड्ड खाये सो हड्ड खाये।
अर्थात् जो बांट कर खाते है वो स्वादिष्ट मीठा खाते है और जो समाज का विचार ना करते हुये स्वयं का विचार कर खाते है वो कुत्ते की तरहां हड्डी को लेकर अलग से अकेले में खाते है। प्रसिद्ध पंजाबी सूफ़ी शायर बुल्लेशाह नें भी कहा है।
बुल्ले नाल चुल्ला चंगा जिसते अन्न पकाईदा,
रेल फकीरा मजलस कित्ती भोरा – भोरा खाईदा।
अर्थात् सूफी संत बुल्लेशाह से चुल्हा अच्छा है जिस पर खाना पकाया जाता है और सारे फकीर मिलजूल कर उस खाने को थोड़ा – थोड़ा खाते है।
अन्न के महत्व को समझकर ही सिख धर्म के पहले गुरू पातशाह ‘गुरू श्री नानक देव साहिब जी” के द्वारा लंगर की प्रथा ने समाज के हर व्यक्ति की भूख मिटाई है और समाज में हर व्यक्ति को बराबरी का दर्जा दिया है राजा हो या रंक ‘भूख’ सभी को लगती है।
इसलिए सनातन धर्म में कहा गया है।

हौंसला अफजाई
दुनिया इस सदी की सबसे भयानक महामारी से संघर्ष कर रही है। लगभग पुरी दुनिया में लाक डाउन है। प्रशासन और सरकार से निर्देश दिये जा रहे है की कोरोना (कोवीड़-19) से लड़ने के लिये आपको केवल दो ही काम करना है। घर में बैठना है और सोशल डिस्टेंस मैंटेन करना है और इस समय यही सबसे बड़ी देश भक्ति है, हम सभी भारतीय अब मानसिक रूप से इस महामारी से जूझने को तैयार है।
यहां विशेष ‘हौंसला अफजाई’ करनी होगी, डाक्टर्स, नर्सेस, पेरा मेडिकल स्टाफ का जो कोरोना के मरिजों का सर्वोत्तम इलाज कर रहे है और इस कारण कोरोना ग्रस्त मरिज तेजी से ठीक होकर अपने – अपने घरों को भी जा रहे है। जिस प्रकार से हमारे सैनिक बॉर्डर पर पुरी निष्ठा से जान की बाजी लगाकर देश सेवा करते है। आज उसी तरहां से यह लोग भी दिन रात कोरोना ग्रस्त मरिजों का मेडिकली, सामाजिक और मानसिक रूप से बड़ा आधार देकर इन मरीजों का इलाज कर रहे है। इन लोगों का काम तलवार की धार पर चलने के जैसा है। ‘कठिन परिस्थितियों में लगातार संघर्ष करते रहो तो एक अति बहुमूल्य संपत्ति विकसित होती है,जिसे आत्मविश्वास कहते है’। जिस आत्मविश्वास, भावना और निष्ठा से यह लोग काम कर रहे है, उसे शतश: नमन।
आज हम सभी नागरिकों को वाहिगुरु (ईश्वर) के चरणों में अरदास करनी चाहिये की इन सभी लोगों को तंदुरुस्ती, आत्मविश्वास और देश प्रेम का जज्बा बक्शे। इन सभी की ‘हौंसला अफजाई’ करते हुये तहदिल से इनका आभार मानकर अभिनंदन करना चाहिये और यदि हम वाकई इन लोगों के लिये कुछ कर सकते है तो घर पर बैठकर सोशल डिस्टेंस बनाये रखे, ताकि हम स्वस्थ रहे, हमारा परिवार स्वस्थ रहे, हमारा देश स्वस्थ रहे और इन देश भक्त लोगों पर अतिरिक्त भार ना पडे़। यह वो भारत माता के सपूत है जिंहोंने अपने ज्ञान, सेवा और आत्मविश्वास से अद्भुत देश भक्ति का परिचय दिया है। अंत में……!
निशब्द हूँ में क्या कहूं,
आप सभी का ह्रदय से आभार है|
आप सभी का प्यार ही,
मेरी प्रेरणा का मात्र आभार है||
इन सभी लोगों का शतश: अभिनंदन !
रिबूट - बटन
विश्व इतिहास के इन दशकों में ९ / ११ एक ऐसी घटना थी की पुरी दुनिया का सोच – विचार करने का नजरिया बदल गया। परंतु कालांतर में दुनिया अपने पूर्व पद पर आकर फिर से अपने नजरिये से चलने लगी। इस कोरोना वायरस पर हम निश्चित ही काबू पायेंगे परंतु शायद इस बार दुनिया अपने पूर्व पद पर ना आ सके।
इस भागती दौड़ती जिंदगी में जिन लोगों के पास समय नही था आज उनका समय कट नही रहा है। जो केवल और केवल पैसा कमाने की सोचते थे। वो आज जमा पूंजी को बचाने में लगे हुये है। जिंदगी की रफ्तार धीरे – धीरे धीमी होते जा रही है। पहले भी दो वक्त का भोजन करते थे परंतु अब स्वाद लगा – लगा कर भोजन कर रहे है। परिवार में एक दूसरे के लिये आदर आ गया है। बच्चों के साथ खुलकर समय बिताया जा रहा है। आपसी भाईचारा प्यार – मोहब्बत बढ़ गई है। जीवन में क्या कमाया और क्या गंवाया? उसको संकलित कर आडिट करने का समय आ गया है। जिनसे बरसों फोन पर बात नही होती थी अब खुलकर वार्तालाप हो रहा है। जीवन भर की कमाई खर्च कर जो सुंदर आलिशान आशियाने बनाये थे। उनका लुफ्त उठाने का समय है। यह समय गृहस्थ जीवन की गाड़ी के सर्वीसिंग का है।
‘रुको, सोचो – समझो, संकल्प और आत्म संयम’ द्वारा इस महामारी से मुकाबले का समय है।
वाट्स एप युनिवर्सिटी में हिन्दू मुस्लिम डिबेट खत्म हो चुकी है। CAA, NRC आदि मुद्दे डिब्बे में जा चुके है। कोवीड- 19 को भगाने के इतने उपाये इस युनिवर्सिटी में उपजे है की हर बंदा भ्रमित है। शेयर बाजार और अर्थ व्यवस्था के गिरने से कोई घबराहट नही हो रही है। बस एक खौफ का माहौल जरुर है, पर घबराये नही! यही समय है, हमें अपने आत्म संयम को बनाये रखने का। इस महामारी से बचने के लिये प्रशासन के निर्देशों का सौ प्रतिशत पालन करना होगा, यही सही मायने में देश भक्ति है।
आज दुनिया की बड़ी से बड़ी महाशक्तियां सभी इस ना दिखने वाले कोरोना वायरस के सामने नतमस्तक है। जो देश एटम बम, मिसाइल और सैन्य शक्ति की ताकतों से प्रतिस्पर्धा कर एक दूसरे को आंखें दिखाते थे आज उन आंखों के सामने अंधेरा है। साबित हो गया है की यह दुनिया बाहुबल पर नही उस परमपिता परमेश्वर की असीम कृपा से चल रही है। आज हमें विरासत में मिला सनातन धर्म, गुरूओं की सिख और कुरान शरिफ की आयतें याद आ रही है। आधुनिकता की चका – चौंध में विरासत में मिली संस्कृति को भूलकर हम एक तेज अंधी दौड़ में शामिल हो गये। इस दौड़ की कोई मंजिल नही, कोई ठिकाना नही बस दौडे़ चले जा रहे है।
रुको ……!
इस महामारी से बचना है तो हमें अपने संत – महापुरुषों और गुरूओं की सिख पर चलना होगा। गुरूओं ने तो पहले से ही हमें तम्बाकू और नशे से दूर रहने के उपदेश दिये, स्वच्छता के मंत्र को आत्मसात करने के लिये कहा था।
हमें ऊंच – निच, जांत – पांत भूलकर एक वज्र मूठ होकर इस महामारी का मुकाबला करना है। संगठित होकर हम मुकाबला करेंगे तो जरूर जल्द ही सफलता हासिल करेंगे।
वरना….!
हम एक ऐसे विनाश की दहलीज पर खडे़ है, जहां केवल ओर केवल सर्वनाश है।
ऐसे बुरे वक्त के लिये ही धन्य – धन्य दशम पिता गुरू ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने रक्षा मंत्र के रुप में हमें चौपाई साहिब का पाठ दिया है। प्रशानिक निर्देशों का पालन कर हमें लगातार चौपाई साहिब के पाठ करना चाहिये। सभी कुछ उस परम पिता परमेश्वर अकाल पुरख के हाथ में है।
इस विकट समय में हमें डॉ.नरेन्द्र दाभोलकर / कलबुर्गी जैसे आधुनिक बुध्दीजीवीयों को भी याद रखना होगा। जिंहोने आधुनिक विज्ञान के जरिये आम लोगों को अंधश्रद्धा से बचाया है। वरना सोचो आज इस विकट समय में कई फर्जी गुरू, बाबा और मांत्रिको की दुकान पुरजोर चालू हो जाती थी। कहां है निर्मल बाबा ओर उनका जादू? (शायद आने वाले समय में एकाध वीडियो आ जाये की रात के दो बजे पानी पुरी में दो चम्मच वोड़का डालकर पिने से करोना वायरस ठीक हो जाता है। कहां है साध्वी प्रज्ञा? क्यों नही वो कोरोना वायरस को श्राप देती? यदि वो इतनी शक्तिशाली है तो क्यों नही भारत सरकार उंहे इटली लोगों का इलाज करने भेजती है?
आज पक्षियों को आसमान में उड़ते समय हवाई जहाजों से डर नही लग रहा है। समुद्री जीव जन्तु समुद्री जहाज़ों के अतिक्रमण से मुक्त है। प्रदूषण का स्तर लगभग शुन्य पर है। ध्वनी प्रदूषण नही के बराबर है। वातावरण में तूफान से पहले आने वाली गहन शांति का आगाज है।
जीवन के इस कठिन दौर में हमें सनातन धर्म की सिख पर चलना होगा। विरासत में मिली संत – महापुरुषों ओर गुरूओं की सिख को अमल में लाना होगा। फिर से दुनिया में एकबार साबित हो गया है की संतुलित गृहस्थ जीवन के दिशा निर्देश हमें गुरू ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी से ही लेना होंगे। ऐसा प्रतित हो रहा है की ईश्वर ने दुनिया के ‘रिबूट – बटन’ को दबाया है। यह उस परमपिता परमेश्वर का मुक संदेश है की इंसान के रुप में जन्म लिया इंसान बन कर रहो। अगर इस को समझ कर संकल्प लेकर आत्म संयमित हुये तो निश्चित ही एक सुनहरा भविष्य आपका इंतजार कर रहा है।
जीवन कि सहजता
एक छोटे से कार्यक्रम में बहुत ही स्वादिष्ट उच्च कोटि की बिर्यानी बनाई हुई थी। बासमती चावल से बनी बिर्यानी की खुशबू ने वातावरण को सुगंधित कर दिया था। कार्यक्रम समय से पीछे चल रहा था। स्वभाविक रुप से कार्यक्रम में उपस्थित सभी लोगों को कड़क भूख लगी हुई थी और बिर्यानी की खुशबू ने भी सभी के मुंह में पानी भर दिया था। बिर्यानी को अच्छे तरिके से परोस दिया गया, उपस्थिति सभी लोग बिर्यानी खाने की तैयारी कर रहे थे की अचानक रसोइये ने आकर बताया की बिर्यानी बनाते समय एक बडा़ कंकड़ का तुकडा़ जो चावलों के रंग ही का था, बिर्यानी में गिर पडा़ है| जो काफी कोशिश करने के पश्चात भी मुझे नही मिला। अब में कह नही सकता की खाते वक्त किसके मुंह में आयेगा? और बिर्यानी खाते समय यदि किसी की दाढ़ो के बीच आया तो जख्म भी हो सकता है। बिर्यानी बहुत ही उत्तम प्रति कि स्वादिष्ट बनी है, भूख भी दबाकर लगी है, मुंह में पानी भी आया हुआ है परंतु बिर्यानी खाने का मजा जा चुका है। बिर्याणी को स्वाद लेकर खाने की सहजता को खोकर प्रत्येक व्यक्ति जागरूक होकर बिर्यानी सावधानी से खा रहा है। पता नही किस व्यक्ति के मुंह में कंकड़ आ जाये? हर व्यक्ति को ऐसा प्रतीत हो रहा था की कंकड उसी के मुंह में आने वाला है। कार्यक्रम में बिर्यानी खाने का मजा जा चुका था और हर व्यक्ति जागरूक और सावधान होने की वजह से वार्तालाप बंद हो चुका था। हंसी मजाक थम गया था और सभी ने सावधानी पूर्वक अपना भोजन करते हुये भोजन समाप्त किया। तत्पश्चात् हाथ धोकर जब वार्तालाप करने लगे तो ध्यान में आया की खाने में कंकड़ तो किसी को भी नही आया है तुरंत रसोइये को बुलाकर पूछा तो उसने कहा की चावलों में बहुत सारे कंकड़ थे। मैने लगभग सभी निकाल दिये थे परंतु हो सकता था की एकाध कंकड आ जाये। ऐसा मैने महसूस किया तो आप सभी को बता दिया। अब सभी एक दूसरे की और ताकते रह गये। बिर्यानी बहुत ही उत्तम एवम स्वादिष्ट थी परंतु बिर्यानी के स्वाद पर चर्चा नही हुई। भोजन के पश्चात एक अजीबों गरीब थकान महसूस हो रही थी कारण भोजन करते समय उसकी सहजता चली गई थी। मुंह के जबडे़ और जुबान की सहजता असामान्य हो गई थी और भोजन कष्टदायक व स्वादहीन हो गया था।
तो दोस्तों कहने का तात्पर्य यह है की वैश्विक महामारी कोरोना की वजह से हमारा भी हाल बिर्यानी के कंकड़ के समान हो गया है। कह नही सकते कंकड किसके नसीब में आयेगा? हमारे रोजमर्रा के जीवन जीने की सहजता लुप्त हो गई है। जो हमें रोज के मदद करने वाले हाथ है जैसे दूधवाला, सब्जीवाला, पेपरवाला, किरानेवाला आदि को भी हम शंकित नजरों से देख रहे है। पता नही जीवनावश्यक वस्तु देते समय यह हमें और क्या दे जायेगा? इसी शंका में दिन – रात चिंतित होकर जीवनयापन कर रहे है, जीवन की आजादी खो चुके है हम| पता नही कब तक यह चलेगा? परंतु इतना जरूर है की जिंदगी में ‘जीवन कि सहजता’ का कितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, यह अब हमें समझ आ रहा है|
कंधा
देश में कोरोना वायरस (कोवीड – 19) की महामारी प्रलय के रुप में फैल चुकी है। सैकड़ों की तादाद में लोगों की मौत हो रही है परंतु विडम्बना है की मृत व्यक्ति के परिजन, दोस्त यार, रिश्तेदार, इस महामारी के चक्रव्यूह में फंस कर मृत व्यक्ति को ‘कंधा’ भी नही दे सकते है। ऐसा नही है की इंसानियत मर चुकी है या ‘कंधा’ देना नही चाहते है परंतु इस महामारी को रोकना है तो यह त्याग मृत व्यक्ति के परिजनों को करना होगा।
आज यह सोचने का वक्त है की दुनिया में “कंधा” देने वाले तो मिल जायेंगे परंतु हाथ देकर साथ देने वाले दुर्मिल होते है।
हमारे इस सामाजिक परिवेश में मृत व्यक्ति को ‘कंधा’ देने का कार्य बहुत ही पवित्र और परोपकारी माना जाता है परंतु मृत व्यक्ति को इस कार्य का कोई उपयोग नही होता है। इसलिये मुसिबत में फंसे जिंदा व्यक्ति को हाथ देकर साहारा देना ही पुण्य का कार्य होता है। जरुरतमंद व्यक्ति को सहारा देना ही प्रभु भक्ति है।
हमारी इंसानियत का पैमाना यह होना चाहिये की हमने कितने जीवित व्यक्तियों की मदद की है अपितु यह नही की हमने कितने लोगों को ‘कंधा’ दिया है।
इंसान के मरने के पश्चात दौड़ के जाने वाले व्यक्ति उसके जिंदा रहते हुये मुसिबत के वक्त क्यों दौड़कर मदद नही करते?……
असल में इंसान के मरने के बाद की दौड़ भाग व्यर्थ है क्योंकि तुम नही भी पहुंचे तो लोगों ने उसका अंतिम संस्कार कर देना है और ऐसी व्यर्थ की दौड़ धूप करने वाले बहुत लोग होते है।
मुसीबत के समय दौड़कर जाने वाले व्यक्तियों के ह्रदय में ईश्वर का वास होता है। ऐसे व्यक्ति कम होते है परंतु इनकी दौड़ भाग निश्चित ही सार्थक होती है। मुसीबत के समय कंधा देने के लिये ईश्वर स्वयं नही आते है परंतु ईश्वरीय रुप लोग हमेशा मदद के लिये तैयार रहते है।
यदि आपके ह्रदय में ईश्वर बसते है तो ही आप मुसीबत में आगे आयेंगे। जीवित लोगों को मुसीबत में आधार देने वाले असल में ईश्वर होते है क्योंकि मृत व्यक्ति को कंधा देना अपने आप में मजबूरी है कारण इसमें एक भय है की यदि में लोगों की मय्यत में नही गया तो मेरी मय्यत में कौन आयेगा?…..
मरने के बाद मय्यत में कौन व्यक्ति आया और कौन नही? यह मृत व्यक्ति को कैसे समझेगा? यदि कोई नही आया तो प्रकृति के पंच महा भूत आपकी मृत देह का अंतिम संस्कार कर ही देगें।
इसलिये जो भी भाग दौड़ करनी है जीवित रहते हुये जीवित व्यक्ति के लिये करे। मरने के बाद ‘कंधा’ देने से तो अच्छा है की मुसीबत में फंसे किसी व्यक्ति को प्रमाणीक रुप से हाथ देकर साथ देवें ताकि………!
मृत्यु के अंतिम समय तक आपको उसका अभिमान रहे !!

विभाजन की विभीषिका
विश्व इतिहास में यदि पांच हजार सालों के इतिहास के पन्नों को पलटा जाये तो देश की आजादी के समय जब भारत पाकिस्तान का विभाजन हुआ तो यह ऐसी एतिहासिक घटना थी जहां दो देशों के राजा अपनी – अपनी गद्दी पर विराजमान थे और प्रजा की अदला – बदली हुई थी। लाखों लोगों ने पैदल ही पाकिस्तान से भारत और भारत से पाकिस्तान की यात्रायें अपने पूरे परिवार और जरूरी सामान के साथ की थी। यह कटू इतिहास मानवता के कपाल पर एक कालिख के तौर पर याद रखा जायेगा।
आज इसी इतिहास की पुनरावृत्ती कोरोना संकट के समय पुन: हो रही है। हमारी आजादी को लगभग ७३ वर्ष हो चुके है, विश्व के मानस पटल पर हम तेजी से उभरते हुये विकासशील देश के रुप में प्रस्थापित हुये है। परंतु क्या ऐसा है? नियोजन शुन्य करोबार है जिसको जो समझ आ रहा है वो मनमर्जी कर रहा है, परिणाम गरीब जनता और मजबूर मजदूर भुगत रहे है।
यह कैसी विडम्बना है? की एक और अप्रवासी भारतीय जिंहोने कोरोना संकट को इस देश के माथे पर थोपा है उंहे लाने के लिये विशेष विमान चलाये जा रहे है। दूसरी और गरीब असहाय मजदूर अपने पुरे कुनबे के साथ चिलचिलाती धूप में लगभग पंद्राह सौ से दो हजार किलोमीटर का सफर पैदल ही तय कर रहे है। कृष्ण, राम, भगवान बुद्ध, गुरू नानक और येशु के देश में इंसानियत मर चुकी है। चारों और त्राहि – त्राहि है, हड़कंप मचा है इस देश के राजा चाहे प्रधानमंत्री हो या राज्यों के मुख्यमंत्री हो या सनदी अधिकारी यह सभी शासन कर्ता अपनी – अपनी कुर्सियों पर बैठकर वातानुकूलित कमरों से आदेश पर आदेश पारित किये जा रहे है। पर जमिनी हकीकत एकदम अलग है। टी. वी. चैनलों पर ख़बरों को देखकर मन पसीज उठता है। आज कई श्रवण कुमार है जो अपने बुजूर्गों को कंधों पर बैठाकर इस सफर को तय कर रहे है। छोटे – छोटे बच्चे अपने परिजनों के साथ कदम ताल कर चल रहे है इस आशा से की मौत भी आये तो कम से कम अपने गांव, अपने शहर, अपने लोगों के बीच आये। हम देश को उस पतन के गर्त में विभाजित कर रहे है ‘जहां एक और समृद्धशाली लोग है और दूसरी और बेसहारा गरीब मजदूर’।
इन असहाय बेसाहरा लोगों की कोई सुनवाई करने वाला नही है। देश के नेता सहिष्णुता और बराबरी की बात करते है परंतु क्या यह लोग इंसान नही है? राजनैतिक पार्टीयों के लाखो – करोड़ों कार्यकर्ता केवल चुनाव के मौसम में ही बाहर आते है क्या? लाखों एन.जी.ओ. वाले इस देश के सामाजिक कार्यकर्ता कहां है? केवल गुरूद्वारों से और उंगलियों पर गिन लो ऐसे ही लोगों से मदद मिल रही है यदि पुरा देश एकसाथ कंधे से कंधा मिलाकर खडा़ हो जाये तो इन प्रवासी मजबूर मजदूरों की हम मदद कर सकते है। संकट इतना बडा़ है की हम सभी को मिलजूलकर मुकाबल करना होगा हमें अपनी सच्ची देश भक्ति का परिचय देते हुये इन असहाय, बेसहारा लोगों की यथासंभव मदद करनी होगी। सरकारी सहायता का इंतजार ना करे जैसे भी हो, जहां भी हो, इन लोगों की मदद करे। उंच – नीच का भेदभाव छोड़कर हम सभी भारतवासियों को देश की महान सहिष्णुता और इंसानियत का जज्बा दिखाकर इस कोरोना संकट को मुंह तोड़ जवाब देना होगा। यही देशभक्ति है और देश की जरूरत भी है|

आम आदमी का कसूर क्या है?
आज इस देश का आम आदमी पूरी ईमानदारी, मेहनत, और लगन से अपने – अपने कारोबार करके अपना और अपने परिवार का पालन – पोषण कर रहा है। इस आम आदमी ने स्वयं की मेहनत से औद्मोगिक प्रतिष्ठान, दुकानें और अनेक प्रकार के व्यवसायों को खडा़ कर देश को विकसनशिल देशों की पंक्ति में लाकर खडा़ कर दिया साथ ही देश के कई लोगों के लिये नौकरियों का भी इंतजाम किया। यह आम आदमी देश के सभी कानूनों का अनुपालन कर नियमित रूप से आयकर भी अदा कर रहा है। इस आम आदमी के सरकारी तंत्र, प्रशासन और देश चलाने वालों से कुछ प्रश्न है, यह लेख इंही प्रश्नों का लेखा – जोखा है।
देश चलाने वालों ने कोरोना संकट को गम्भीरता पूर्वक नही लिया जिसका खामीयाजा आज पुरा देश भुगत रहा है इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
लाखों की भीड़ ने अमेरिकन राष्ट्रपति ट्रंप को २४ फरवरी २०२० को नमस्ते कह कर स्वागत किया और अमेरिका से कोरोना वायरस का भारत आगमन हुआ। जानबूझकर इसे नजरअंदाज किया गया। इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
कोरोना संकट से देश में पहली मौत ९ मार्च २०२० को हुई। मध्यप्रदेश की कमलनाथ सरकार २२ मार्च २०२० को गिरी और शिवराज की सरकार २३ मार्च २०२० को बनी साथ ही २४ मार्च २०२० को लाक डाउन घोषित हुआ। सरकार बनाने के चक्कर में देश की जनता को डांव पर लगाया तो इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
लाखों अप्रवासी भारतीयों को विशेष विमान से भारत लाया गया और इनके आगमन पर प्रशासन के द्वारा ठीक से सावधानीयां नही बरती गई। इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
देश के सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों को रोक दिया गया परंतु मरकज जैसे कार्यक्रम को रोकने में प्रशासन असफल रहा। इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
मरकज जैसे कार्यक्रम की सच्चाई को क्यों दबाया गया? दोषी व्यक्तियों पर कार्यवाही क्यों नही हो रही है? इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
वाट्स एप के खुले विश्वविद्यालय में सुनियोजित ढंग से हिन्दू – मुस्लिम समुदायों में द्वेष पैदा कर कोरोना के संकट को भटकाने की कोशिश की गईं। इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
कोरोना संकट के कारण प्रवासी मजदूर पैदल ही अपने घरों की और जा रहे है। इन मजदूरों के पैर में जूता नही और पेट में रोटी नही है, चिलचिलाती धूप में गर्भवती महिलायें, बुजुर्ग सिर पर बोझा उठाये इस आस में पैदल चले जा रहे है की मौत भी आये तो अपने लोगों के बीच आये। कई गरीब मजदूर सायकलों से सह परिवार सफर कर रहे है। कई बेचारे पैदल चल – चलकर रेल्वे लाइन पर ही सो गये उन्हें रेल ने कुचल दिया। इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
कोरोना संकट के मद्देनजर देश की अर्थ व्यवस्था को ठीक करने हेतु उद्मोग धंधों पर भरोसा ना कर शराब की अर्थ व्यवस्था को प्रवीणता दी गई। इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
प्रशासन की ढ़िलाइ और लापरवाही से पुरा देश घरों में बंद है, विद्यार्थियों का भविष्य खतरे में है, उद्योगपति, किसान, मजदूर और मेहनत कश सभी लोग हैरान – परेशान है। इन परिस्थितियों को देखकर इससे आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
देश में घोर निराशा है अंधेरे के बादल छाये है कहीं रोशनी की किरण नजर नही आ रही है, थाली बजाने और दिये जलाने के लालीपाप से आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
इन सभी गलतियों का भुगतान देश के उद्दयोगपति, व्यापारी और जनता स्वयं के खर्चे से करे तो यह देखकर आम आदमी के मन को ठेस लगी तो इसमें आम आदमी का कसूर क्या है?
‘मेरी जानकारी से आम आदमी का कसूर यह है की वो संगठित नही है उसे संगठित होकर अपने हक की लडा़ई स्वयं लड़ना होगी’ |
दोस्ती के रंग अद्भुत
जीवन में संपर्क में आए हुए लोग कुछ अचानक नहीं आते हैं। प्रत्येक घटना के पीछे कुछ ना कुछ कारण होता है। हम किसी से कहीं तो ऋणानुबंध के एक अटूट जोड़ से जुड़े होते हैं, नहीं तो १२५ करोड़ जनसंख्या वाले इस देश में हम से संबंधित व्यक्ति से ही क्यों हमारी मुलाकात होती है? इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं जानता। इन बने हुए अद्भुत संबंधों को निभाने के लिए जी तोड़ मेहनत और त्याग करना पड़ता है। जिस तरहां से हमें जीवन जीने के लिए ऑक्सीजन की जरूरत होती है, उसी तरहां से जीवन में यह संबंध ऑक्सीजन का काम करती है। ईश्वर खून से बने रिश्ते बनाकर भेजता है, उसमें कोई बदलाव नहीं हो सकता परंतु प्रेम के रंग में रंगा दोस्ती का रिश्ता वैसा नहीं होता है। दोस्ती का यह रिश्ता आपसी तालमेल, विचार और अंतरात्मा का रिश्ता है। यह रिश्ता इतना मजबूत होता है कि किसी के भड़काने पर या विपरीत परिस्थितियों में भी कभी टूट नहीं सकता। जब हम जीवन के सबसे बुरे दौर में होते हैं तो इन अद्भुत रिश्ते से बने मित्रों का कंधे पर हाथ रख कर बोला गया यह वाक्य “मैं हूं ना” संजीवनी का काम करता है। इस तरह के रिश्ते जीवन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करते हैं।
“पैसों से धनवान होना बहुत सरल है, रिश्तों से समृद्ध होना बहुत कठिन है”।
सनसनीखेज ब्रेकिंग न्युज: कोरोना
वैश्विक महामारी कोरोना ने आज लगभग पुरे विश्व को अपनी मूठ्ठी में जकड़ लिया है। कौरोना की ‘सनसनीखेज ब्रेकिंग न्युज’ से पुरा विश्व खौफ खाये बैठा है, हमारा प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया और इलेक्ट्रानिक मीडिया टी.आर.पी.बढा़ने के चक्कर में लगातार ‘सनसनीखेज ब्रेकिंग न्युज’ की मिसाइले टी.वी. चैनल के माध्यम से आम जन मानस पर दाग रहे है। (कुछ टी.वी चैनलों को छौड़कर), जिससे अनावश्यक डर, खौफ और चिंता का वातावरण निर्मीत हो रहा है।
आज देश के जन मानस के पास तीन ही काम है खाना – पीना, टी. वी. देखना और सोना। बुजूर्ग, बच्चे,जवान और महिलायें केवल कोरोना की ‘सनसनीखेज ब्रेकिंग न्युज’ का नकारात्मक विश्लेषण कर अपना आत्म विश्वास गंवा रहे है। इन खबरों में त्राहि – त्राहि, भंयकर, दहशत, विनाश और खौफनाक शब्दों का खुले आम प्रयोग किया जा रहा है। मरीजों के दिन – ब – दिन बढ़ते आंकड़ों से घबराहट हो रही है; जाने दुनिया का अंत आ गया है। कोरोना प्रलय का यह राक्षस जैसे सारी दुनिया को लील लेगा। इसी वजह से हमारे मजदूर पलायन कर गये और आने वाले समय में इससे देश की अर्थ व्यवस्था पूरी चौपट हो जायेगी। देश को इसका खामियाजा भुगतना होगा। क्या कोरोना का संक्रमण दुनिया का अंत कर देगा? ऐसा बिलकुल नही है। इसमें कोई दो मत नही है की कोरोना जान लेवा है परंतु यदि हम प्रशासन के दिशा निर्देशों का पालन कर सावधानी बरत कर पुरी सुरक्षा से रहे तो निश्चित ही कोरोना संकट पर मात कर सकते है। तिसरा लाक डाउन १७ मई २०२० को समाप्त होने के पश्चात कोरोना संकट समाप्त हो जायेगा क्या? ऐसा नही है तो फिर हमें ऐसी जीवन शैली आत्मसात करनी होगी की जिसमें हम कोरोना को कभी भी हावी नही होने देंगे। इसलिये सभी प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया और मेडीकल एक्सपर्ट लोगों ने आम जनता को समझाकर शिक्षीत करना चाहिये ना की डराना चाहिये। जब तक कोरोना का स्थाई रूप से कोई ईलाज नही मिल जाता तब तक कोरोना की महामारी हमारे जीवन में धूप छांव की तरहां रहने वाली है। हमारी जीवन शैली और दिनचर्या ऐसी होना चाहिये की हम कोरोना को दूर रखकर प्रतिदिन के काम कर सकें| लाक डाउन खुलने के बाद प्रत्येक संक्रमीत जोन का कलर बदलता रहेगा। कोरोना संक्रमीत झोन ग्रीन से रेड और रेड से ग्रीन होते रहेंगे। संक्रमण कम ज्यादा होता रहेगा तो फिर इसका खौफ क्यों खाना?
सरकार जितने टेस्ट करेगी उतने मरीज बढ़ेंगे परंतु इससे घबराना नही है जितनी जल्दी से संक्रमीत रोगीयों की पहचान होगी उतना ही जल्दी यह संकट समाप्त होगा परंतु हमारे टी. वी. चैनल ऐसा दिखा रहे है की संक्रमीत व्यक्ती मानवता के दुश्मन है। कोरोना संक्रमीत होना मतलब सब कुछ समाप्त होना है। जैसे आसमान टूट पड़ा हो परंतु आंकड़े बता रहे है की लगभग ९८ प्रतिशत लोग इस संक्रमीत बीमारी से ठीक हो रहे है। सावधानी ही इस बीमारी से बचने का सबसे अच्छा उपाय है। हमें सोशल डिस्टेंस बनाकर रखना है। बार – बार हाथ धोने है, मास्क का उपयोग करना है, अनावश्यक घूमना और यात्राओं से बचना है। सच्चाई यह है की ८० प्रतिशत संक्रमीत लोगों में इसके लक्षण दिखाई नही पड़ते है। केवल १२ प्रतिशत रोगीयों में इसके लक्षण सुखी खांसी, तेज बुखार, सर्दी आदि दिखाई पड़ते है और बचे हुये मरीजों का भी बड़े स्तर पर बचाव होता है। कोरोना संक्रमीत लोगों को दूरी बनाकर सहारा देना है। अन्य देशों से तुलना करे तो हमारे देश की स्थिती बहुत अच्छी होते हुये भी टी. वी. चैनलों के द्वारा टी. आर. पी. के चक्कर में प्रसारित ‘सनसनीखेज ब्रेकिंग न्युज’ नकारात्मक, भयावह और चिंता का माहौल पैदा करने वाली है ऐसी खबरे हमें अंधेरे कुँए में ढ़कलती है इन खबरों से हम सामाजिक और आर्थीक रूप से कमजोर होंगे। इसके विपरीत इस समय आम जनता में जन – जाग्रति कर सही – सटीक और सौम्य भाषा में जानकारी देकर लोगों में एक आत्मविश्वास पैदा करने की जरूरत है।
जिंदगी का सफर
इन दिनों में आजकल किसी से वार्तालाप किया जाये ऐसा मन नही करता है। बहुत – बहुत बोरियत होती है जहां नजर डालों मुखौटे चड़ाये हुये चेहरे नजर आते है। लोग पीठ पीछे निंदा चुगली करने से बाज नही आते है, इन लोगों की मानसिकता इतनी घटिया होती है की मन में चीड़ निर्माण होती है।
कैसे लोग झूठ, फरेब और मतलब की जिंदगी जी सकते है? और इसमें हमारे जीवन से जुड़े हुये लोग होते है यह विशेष !
जिन लोगों के लिये आपने सारी जिंदगी का त्याग किया, कष्ट उठाये, खून – पसिना एक किया हो, हर तरहां का समायोजन (एडजस्टमेंट) किया हो वो केवल आपकी एक ना से या एक विचार नही मिलने से बदल जाते है। तब ऐसा लगता है की इससे तो ‘जिंदगी के इस सफर में अकेले रहते तो ज्यादा अच्छा था’।
इसलिए हमेशा अपना मन साहित्य, संगीत, सिमरन और मन पसंद छंदों में लगाना चाहिये। जिससे मन में एक प्रसन्नता रहती है स्वाभाविक रुप से नकारात्मक विचार दूर होते है।
जिंदगी के इस सफर में एक समय ऐसा आता है की तुम्हें लोगों से बोरियत होती है इन लोगों को प्रोटोकॉल में संभालने में बहुत ज्यादा मानसिक तनाव आता है।
प्रत्येक व्यक्ति का मुड़ संभालना और उस हिसाब से अपने आपको ढ़ालना वस्तुत: बहुत कठिन है, इससे हम मानसिक रुप से थक जाते है। हम हमेशा दूसरों का विचार करते रहते है। कभी सोचा है आपने की हमें स्वयं को क्या चाहिये? यह प्रश्न हमेशा दुय्यम होता है, हम प्रोटोकॉल और अनुशासन में रहते हुये जिंदगी के सफर को समायोजित करते है परंतु बदले में आपको प्यार के दो बोल, विश्वास, आत्मिक अपनापन और रिश्तों में जो आदर मिलना चाहिये, क्या वो मिलता है?
‘फिर प्रश्न उठता है की, यह सब क्यों’? किसके लिये?
गहराई से विचार करने पर इस प्रश्न का उत्तर मिलता है की हम अकेलेपन से घबराते है। हमने अपनी मानसिकता बना ली है की हमें व्यक्तिगत रुप से सुरक्षित रहना है तो समूह में रहना होगा। लोगों के साथ एक निश्चित प्रोटोकॉल में रहना होगा। कहीं दुनिया में हम अकेले ना पड़ जाये इस डर से हम प्राकृतिक न्याय भी नही करते है। पक्षपाती हो जाते है और कई बार अपनी इच्छाओं के विरुद्ध फैसले लेते है। हम बडे़ जरूर होते है परंतु दोस्ती, रिश्तेदारी और इंसानियत के मायने भूल जाते है।
हमारे आचार – विचार, व्यवहार से लोग हमारे लिये धारणा बना लेते है और हम भी उस धारणा के अनुसार स्वयं को ढाल कर एक काल्पनिक जीवन जीते है परंतु जिंदगी के सफर में एक समय ऐसा आता है की हमारे लिये बनी हुई धारणा को हम ही तोड़ने के लिये उतावले होते है।
जिंदगी के सफर में थोड़े हों पर अच्छे लोग होना चाहिये। मुखौटों के पिछे छिपे हुये चहरों से डर लगता है और जब हम पुनः अपने अंतरमन में प्रवेश करते है तो एक पल ऐसा आता है जो हमारा अपना है। इस महत्त्वपूर्ण पल को कभी अपने हाथों से मत निकलने दो वरना जिंदगी रूखी और उदासीन होगी।
हम अच्छे लोगों की संगत में रहकर उत्तम कार्य करेंगे, ऐसा मन में निश्चित कर लिया तो हमारी प्राथमिकतायें अपने आप बदल जायेंगी। परिणाम स्वरुप जिंदगी का सफर आसान और सरल होगा। इस सफर में चुनिंदा पर प्यार वाले और प्रमाणीक रुप से हमारी भावनाओं से जुड़े हुये लोग हो जो समय आने पर हमारे हित के लिये अपनी आंख भी दिखा सके।
‘तो सही मायनों में जिंदगी का सफर सुहाना और रुहानी होगा’।
जिंदगी के इस सफर में लोगों की भीड़ के प्रवाह में चलते हुये हमें अपना ‘आदर्श’ किसे मानना है, यह हमें स्वयं निर्धारित करना होगा !
बात का बतंगड़
इंदौर के एक प्रसिद्ध दैनिक हिन्दी अखबार ने अपने ही अखबार में एक इश्तहार प्रकाशित किया की उंहे अपने कार्यालय के प्रबंधन के लिये एक प्रबंधक (मैनेजर) की आवश्यकता है।
आवेदन करने हेतु उम्मीदवार का हिंदी साहित्य में एम.ए. होना आवश्यक है एवम् प्रकाशन कार्य का कम से कम पांच वर्षों का अनुभव होना भी आवश्यक है।
उसी शहर के एक बातुनी शख्स तुरंत तैयार होकर जरूरी सामान लेकर अखबार के कार्यालय में साक्षात्कार देने के लिये उपस्थिति हो गये।
साक्षात्कार प्रारंभ हुआ।
उम्मीदवार से प्रश्न किया गया की आपने हिंदी साहित्य में एम.ए. किया है?
उम्मीदवार का उत्तर था की नही मैने हिंदी साहित्य में एम.ए.नही किया है।
साक्षात्कार कर्ता ने कुछ समयावधि की खामोशी के बाद उम्मीदवार से पुनः प्रश्न किया की आपको प्रकाशन का कोई अनुभव है?
उम्मीदवार ने बड़े ही शांति से उत्तर दिया की नही मुझे किसी प्रकार का कोई प्रकाशन का अनुभव नही है।
साक्षात्कार कर्ता ने हैरान होकर कहा की इस नौकरी के लिये आप बिल्कुल योग्य नही है फिर आप साक्षात्कार देने हेतू क्यों आये?
उम्मीदवार ने चाय का अंतिम घूट सुड़कते हुये कहा की में तो आपसे यह कहने आया था की आप मेरे भरोसे मत रहना, योग्य उम्मीदवार खोज के आप अपना इंतजाम कर लेना जी।
अर्थात् ‘आत्म निर्भर’. . . . .!
यदि ३३ मिनट के भाषण में २५ बार ‘आत्म निर्भर’ सुनकर आपको कुछ समझ नही आया तो, मेरे इस वर्तांत को पढ़कर आपको क्या समझ आयेगा?
गुस्सा मत करिये यह तो एक उदाहरण है।
आत्मनिर्भर भारत
सैकडों वर्ष की गुलामी और अंग्रेजों से लूटने के बाद इस कंगले देश को पुनर्स्थापित करने के लिये तात्कालीन प्रशासन की और से अनेक सरकारी उद्मोग, रिसर्च संस्थान और शैक्षणिक संस्थान की नींव रखकर उंहे सफलतापूर्वक समय पर तैयार कर देश को समर्पित किया गया, इसे कहते है ‘आत्मनिर्भर भारत’!
जब देश में अकाल पड़ा और अन्य – धान समाप्त हो गये, ऐसे कठिन समयावधि में योग्य निर्णय लेकर अतिरिक्त अन्न – धान का उत्पादन कर देश को परिपूर्ण कर अन्न देशों को भी अन्न – धान उपलब्ध कर देश के किसान को समर्थ करना, इसे कहते है ‘आत्मनिर्भर भारत’!
सन् १९६२ के चीन से युद्ध में बुरी तरहां से परास्त होने के बाद बांग्लादेश को एक अलग देश के रूप में प्रस्थापित करना एवम पोखरन में अणु बम का सफलतापूर्वक परिक्षण कर पुरे विश्व में देश को एक सामर्थ्यशाली भारत के रुप में प्रस्तुत करना, इसे कहते है ‘आत्मनिर्भर भारत’!
प्रगति की और अग्रसर भारत में आलोचना की जाती थी की किसानों और सपेरों के इस देश में कम्प्यूटर का क्या काम? उस समय अत्यंत कठोरता से विरोध किया गया था की कम्प्यूटर के आने से बेरोजगारी बड़ेगी और किसानों एवम मजदूरों का नुकसान होगा। आज इनफर्मेशन टेक्नोलॉजी के इस युग में रोजगार के नित्य नये अवसर उपलब्ध कराकर आय.टी. के क्षैत्र में सबसे अधिक मनुष्य बल दुनिया को देकर देश के गौरव को बढ़ाया है। इसे कहते है ‘आत्मनिर्भर भारत’!
जब हम सायकल पर सैटेलाइट को लादकर परिवहन कर रहे थे तो दुनिया हम पर हंसी थी परंतु बिल्कुल ना डगमगाते हुये पूर्ण आत्मविश्वास से पहले ही प्रयत्न में अंतरिक्ष की महासत्ता पर अपनी अमीट मोहर लगाकर देश को गौरवांतित किया था, इसे कहते है ‘आत्मनिर्भर भारत’!
जब प्रधानसेवक जर्मनी की शानदार बी.एम.डब्ल्यू. कार से उतरकर, जेब में अमेरिकन आय फोन लेकर, हाथ में स्वीट्झरलैंड की रोलेक्स घड़ी पहनकर और आंखों पर जर्मनी में निर्मित मेयबैच का ब्रांडेड चश्मा पहनकर जिस ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बात कर रहा हो, उस देश को मेरे देशवासियों ने अपने खून पसिने और बुद्धीबल से पिछले ७० वर्षों में सामर्थ्यशाली बनाया है। यदि इन असली देश भक्तों ने अपना सामर्थ्य नही दिखाया होता तो आप तो कभी का झोला उठाकर चल देते थे। इंही ७० वर्षों में हमारे देश के वैज्ञानिक, बुद्धीजीवी और तात्कालीन राज्यकर्ताओं ने अपनी पुरी मेहनत, ईमानदारी और बुद्धि कौशल्य से इस देश की अनेक सरकारी कंपनियों को शिक्षण एवम रिसर्च संस्थानों को देश का बहूमुल्य आभूषण बनाकर गौरवांतित किया है और आज इंही को बेचकर देश चलाने की बात हो रही है। केवल जन – धन खातों में पैसा जमाकर देश ‘आत्मनिर्भर’ नही होता है। उसके लिये कठोर परिश्रम की जरूरत है। ३३ मिनट में ‘आत्मनिर्भर भारत’ पर प्रवचन देकर केवल और केवल ‘अंधभक्त’ तैयार किये जा सकते है और इससे भारत कभी भी ‘आत्मनिर्भर’ नही होगा।
उम्र का तकाजा
इंसान की उम्र बढ़ना यह एक प्राकृतिक नियम है। जन्म से मृत्यु तक यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इसलिये कृपा करके हमें स्वयं ही यह नही कहना चाहिये की हम वृद्ध [बूढ़े] हो गये है। वैसे भी वृद्धावस्था में व्यक्ति हताश, बेबसी, नाउम्मीदी और थकान के अंतिम पढा़व पर होता है। इंसान ने उम्र बढ़ने पर प्रौढ़ होना चाहिये; ना की वृद्ध . . . .!
प्रौढ़ावस्था और वृद्धावस्था में व्यक्ति के जीवन में क्या अंतर होता है? समझने की कोशिश करते है …..
वृद्धावस्था में व्यक्ति हमेशा दूसरों में सहारा खोजता है परंतु प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति हमेशा दूसरों को सहारा देता है।
वृद्धावस्था में व्यक्ति उम्र को छुपाने कि कोशिश करता है परंतु प्रौढ़ावस्था में उम्र को दिखाने की।
वृद्धावस्था में व्यक्ति घमंडी, अंहकारी और ज़िद्दी होता है परंतु प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति अनुभवी, विनम्र , संयमी, शालीन और अनुशासित होता है।
वृद्धावस्था में व्यक्ति पूछने पर अपने विचार थोपता है परंतु प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति पूछने पर अच्छे विचारों का सुझाव देता है।
वृद्धावस्था में व्यक्ति ढ़लती शाम में समय को काटते हुये मृत्यु की प्रतिक्षा करता है परंतु प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति ढ़लती शाम में आने वाली उषा:काल की आतुरता से प्रतिक्षा करता है और छोटे बच्चों की बाल क्रीड़ा में रम कर तरूणों के प्रगतिशील कार्यों को शाबाशी देता है साथ ही एक आत्म संतोष से परिपूर्ण जीवन जीता है।
वृद्धावस्था में व्यक्ति तरूणों के जीवन में अघोषीत परेशानियों पैदा करता है परंतु प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति तरुणों के जीवन को दिशा देकर उनके विचारों के अनुसार उन्हें जीवन जीने का हक देता है।
वृद्धावस्था में व्यक्ति हमारे समय में ऐसा नही होता था। कहकर हमेशा चिड़चिड़ापन दिखाता है परंतु प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति समयानुसार स्वयं को बदलकर समय के साथ चलना चाहता है।
इसलिये प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति ने अभीमान से, आनंद से, और आत्म संतोष से जीवन जीना चाहिये; ऐसे व्यक्तियों ने अपना ज्ञान और अनुभव समाज को समर्पित करते हुये, अपने कर्तव्यों का अनुपालन करना चाहिये। समाज और परिवार को प्रौढ़ावस्था की जरूरत है, ना की वृद्धावस्था. . . . .! .
चेहरे पर झूर्रीयां पड़ जाये तो ठीक है परंतु कपाल पर स्पीड ब्रेकर की लकिरे मत पड़ने दो प्रौढ़ावस्था में अपने दुखों को प्रदर्शीत ना करे और मृदभाषी रहे। वर्तमान समय के अनुसार समायोजन कर जीवन को खुबसुरती से आनंदीत होकर बिताये।
प्रौढ़ावस्था में व्यक्ति ने दुनिया के साथ कदम ताल करते हुये चलना चाहिये। यदि प्रत्येक व्यक्ति प्रौढ़ावस्था में इस तरहां जीवन जीये तो आने वाले समय में डर कर, आशंकित होकर, अनिश्चित होकर नही अपितु आत्म विश्वास से परिपूर्ण जीवन होगा। साथ ही आने वाली पीढ़ी भी समृद्ध जीवन जीये तो आने वाले समय में डरकर, आशंकित होकर, अनिश्चित होकर नही अपितु आत्मविश्वास से परिपूर्ण जीवन होगा, साथ ही आने वाली पीढ़ी भी समृद्ध जीवन जीयेगी| निश्चित ही जीवन में एक आनंद का झरना हमेशा प्रवाहित होता रहे|
लघु उद्योजकों की व्यथा !
वैश्वीक महामारी कोरोना (कोवीड़-१९) के देश में हुये आक्रमण से पहले ही बहुत कठिनाइयों के दौर में चरमराते हुये लघु उद्योगों पर इस महामारी से बहुत बडा़ संकट टूट पड़ा है। अचानक बिना किसी नियोजन के हुये इस लाक डाउन में लघु उद्योग लगभग अपनी अंतीम सांसे गिन रहा है। सरकार की पहले से ही गलत नितीयों के कारण मरणासन्न इस उद्योग को व्हेंटीलैटर से हटाने के लिये सीधे बहुत बड़े आर्थिक पैकेज की तुरंत जरूरत है। जो आर्थिक पैकेज सरकार ने जाहीर किये है वह कपोल कल्पना है ज़मीनी धरातल पर सरकार को उतरकर लघु उद्योजकों को तुरंत राहत देनी होगी। अन्यथा इस देश की आर्थिक रीड़ की हड्डी माने जाने वाली लघु उद्योजकों इकाईयां समाप्त हो जायेगी। सरकार और इस देश के नितीकार हम लघु उद्योजकों की व्यथा को समझे। निम्नलिखीत मुद्दों को ध्यान में रखकर सीधा राहत पैकेज देने की तुरंत आवश्यकता है।
आज दिनांक १८ मार्च २०२० से लेकर सभी लघु उद्योग इकाईयां १५ जून २०२० तक लगभग तीन महीने तक पूर्णतया बंद है।
लाक डाउन के तहत तुरंत ट्रांसपोर्ट बंद होने से जो कच्चा माल और तैयार माल ट्रांसपोर्ट में पडा़ है वो वहीं पड़ा है और माल की आवक – जावक रूक गई है।
मजदूर वर्ग पगार और एड़वांस ले कर अपने – अपने घरों को कूच कर गये है और आने वाले समय में एड़वांस पगार उनके घरों तक पहुंचाना पड़ रही है। यह चिंता सता रही है की लाक डाउन खुलने के बाद नये मजदूर मिलेंगे या नही? जिन पुराने मजदुरों को दिल पर पत्थर रख कर पगार दी है वो फिर से आयेंगे या नही?
उद्योगिक इकाईयों में कच्चा माल और तैयार माल जहां है, जैसा है वहीं पर पड़ा है। कोई संभाल नही हो रही है, इनवेंटरी कंट्रोल समाप्त हो गया है।
आने वाले समय में जी.एस.टी., इ.एस.आई. और एड़वांस इनकम टैक्स पर दंड की चिंता सता रही है साथ ही बिजली बोर्ड के द्वारा लगाये बिजली मीटर के फिक्स चार्ज और उस पर लगने वाले दंड की भी चिंता सता रही है।
सभी सप्लायरों को पी.डी.सी. चैक देकर आर्डर कर के माल मंगवाया था, (इसमें से कुछ माल ट्रांसपोर्टों पर अटका है) और इन चैकों के द्वारा अकाउंट से लगातार पेमेंट होती जा रही है लाक डाउन खुलने के बाद आर्डर आयेंगे या नही? इस बात की चिंता सता रही है।
इन लघु उद्योग इकाईयों से पहले माल की डीलेवरी होती है और दो से पांच महीने के बाद पेमेंट मिलती है। कोई भी माल लेने वाली कंपनियां एड़वांस पेमेंट नही करती है, इसलिये पुरी अर्थ व्यवस्था चरमरा गई है।
देश में सभी लघु उद्योग इकाईयां आपस में एक दुसरे पर निर्भर है। सरकार ने मायक्रो स्माल एंड मिडीयम इंटरप्रायजेस के नाम से आर्थिक पैकेज की घोषणा तो कर दी है परंतु कोई नही जानता की इसका सीधा फायदा किस को होगा? इसके बावजूद चीन में उत्पादीत माल से हमारी तुलना कर हमें आलसी करार दिया जाता है और समय पर टैक्स नही भरने की सजा भी इंही लघु उद्योजकों को मिलती है।
इस देश की शोकांतिका है की लघु उद्योजक तन – मन – धन से पूरी मेहनत और ईमानदारी से अपना पैसा, अपना बुद्धीबल लगाकर स्वयं के घर बार बैंकों में गिरवी रखकर लोन लेकर दिन – रात धक्के खाकर, शारिरीक और मानसिक रूप से पुरा जोर लगाकर, जिंदगी डांव पर लगाकर एक लघु उद्योग इकाई को स्थापीत करता है और जो भी व्यवसाय से लाभ होता है उस से सभी प्रकार के टैक्स सरकार को अदा करता है। इस पुरी प्रक्रिया में सरकारी मदद शुन्य होती है। इसके साथ ही माल को समय पर तैयार कर क्वालिटी के सभी मापदंड़ो को पुरा कर सप्लाय करता है। उसके बाद दो से पांच महीनों के भीतर पेमेंट मिलती है और यदि समय पर टैक्स नही भरा तो ब्याज और जुर्माने की लटकती तलवार वार करने के लिये तैयार रहती है। कोई भी लघु उद्योजक जानबूझकर टैक्स देर से नही भरना चाहता है परंतु इस क्लिष्ट प्रक्रीया के तहत कहीं ना कहीं कठनाइयां खड़ी होती है।
जी.एस.टी. भरने की प्रक्रीया इतनी जटील है की उसे समय पर भरने के लिये सनदी पाल [चार्टेड़ अकाऊंटेड] के कार्यालय के लगातार चक्कर लगाने पड़ते है।
सरकार द्वारा ऐमनेस्टी स्कीम के तहत पुरे पैसे भरने के बाद भी बीच – बीच में नोटीस आते रहते है और सारे काम धंधे छोड़कर यह समस्या भी निबटानी पड़ती है।
जी.एस.टी. की वेबसाइट इतनी ज्यादा जटील है की उसे समझने में ही सारा समय निकल जाता है, सुझ ही नही पड़ती की काम धंधा कैसे और कब करेंगे?
देश के सभी लघु उद्योजकों ने अपनी क्षमता के अनुसार व्यवसय में वृद्धी कर कई बेरोजगारों को नौकरी देकर अभूतपूर्व देश भक्ती का परिचय दिया है। आज इन लघु उद्योगो को सहानुभूती और सहायता की जरूरत है । सरकार को इन उद्योगो को चलाने में सहायता कर सरल करना होगा। इस लेख में मैनें बैंकींग के विषय पर ना लिखने में ही समझदारी समझी है। यदि कोई लघु उद्योजक किसी बैंक में लोन लेने के लिये जाता है तो उसे एहसास होता है की हम उद्योग चला रहे है या सरकारी कागज जमा करने में अपनी जिंदगी खराब कर रहे है।
माय बाप सरकार से यही निवेदन है की देश के आर्थिक रीड़ की हड्डी हमारे लघु उद्योजकों पर तुरंत ध्यान देंवे, मदद का हाथ देकर, प्रेरणा देकर राष्ट्र निर्माण में इंहे फिर से खड़ा करे, फिर देखों यह उद्योगिक इकाईयां उत्पन्न का कैसे अविरत और अखंड स्त्रोत बनती है !!
नोट:– लेखक स्वंय लघु उद्योजक है और अरोरा इलेक्ट्रोमेग्नेटीक्स प्रा.लि. कंपनी के कार्यकारी संचालक है।
कर्मों का लेखा - जोखा
देश में कोरोना संकट आने से पहले मैं अपनी एक्टिवा चलाते हुये कुम्भार वाडे़ से गुजर रहा था की अचानक मोबाइल की घंटी बजने लगी गाड़ी एक तरफ खड़ी कर आये हुये काल को रिसीव किया और देखता हूँ की इस छोटे से मटका मार्केट में काफी भीड़ है। हर कोई अपनी – अपनी पसंद के अनुसार मटके खरीद रहा है। कोई मकर संक्रांति की रस्मों को पुरा करने के लिये मटका खरीद रहा है, कोई पानी पीने के लिये मटका खरीद रहा है, कोई दुल्हे राजा की घोड़ी चढ़ाई की रस्म अदा करने के लिये मटका खरीद रहा है। एक गरीब महिला चावल पकाने के लिये मटका मांग रही थी। मेरा आया हुआ फोन काल भी समाप्त हो चुका था। जिज्ञासु प्रवर्ती होने के कारण मैं वहाँ पर उपस्थित खरिददारों के हाव – भाव देख रहा था, निरिक्षण कर रहा था। इतने में देखता हूँ की ३ – ४ लोग हड़बड़ाहट में उस मटका मार्केट में आये और वह लोग अर्थी के लिये मटका खरिदना चाहते थे।
प्रत्येक मटके का अपना – अपना नसीब है। किसी में चावल पकेंगे तो किसी में पानी भरा जायेगा और किसी का उपयोग शादी के मंगल कार्यों में होगा तो कोई अर्थी के आगे चलेगा।
हम सभी का नसिब भी इसी प्रकार का है कोई डाक्टर है तो कोई इंजीनियर है, कोई कलेक्टर है तो कोई सेना में भर्ती होकर देश सेवा कर रहा है। कोई श्मशान भूमि में अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहा है।
मटके को अपना भविष्य चुनने का अधिकार नही है परंतु हम अपने कर्मों से अपने जीवन को अति सुंदर बना सकते है। हमारे लिये जीवन अति सुंदर है। अपनी लगन, मेहनत, निष्ठा, ईमानदारी एवम ईश्वर के प्रति आस्था से हम अपने जीवन को खुबसूरत बनाये। आने वाले जीवन में प्रभु के नाम की खुमारी हो,एक दूसरे की मदद करने का नशा हो, अपने जीवन को कल्याण मटका (सट्टे) का मटका नही कर्मों का मटका बनाये। यह बिल्कुल सुनिश्चीत है की ‘कर्म भले ही सदैव सुख ना ला सके परंतु कर्म के बिना सुख नही मिलता है’। प्रसिद्ध सुफी शायर बुल्लेशाह ने भी अपनी शायरी में कहा है:—
उत्थे अमला दे होणे ने निबडे़, किसे ना तेरी जात पुछनी।
झूठे मान तेरे झूठे सब झेडे़, किसे ना तेरी जात पुछनी ।
इस कोरोना के लाक डाउन में मिले समय का सदोपयोग कर जीवन का आकलन करे, आनेवाले जीवन का नियोजन नई उम्मीद और नई आशा के साथ करे।
कर्म अनुनाद की तरहां होते है !
‘जैसे प्रतिध्वनि लौट कर आती है, ठीक उसी प्रकार से किये गये कर्म भी लौट कर आते है’ !!
मानसिक संतुलन
लगतार कोशीश करने के बाद भी सफलता ना मिले तो निराश नही होना चाहिये. . . . ऐसे कठिन समय में उन व्यक्तीयों को याद करो जिन्होनें असफलताओ को लगातार झेलने के पश्चात भी अपना मानसिक संतुलन बनाये रखा और अपना लक्ष्य अर्जीत किया है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपती अब्राहम लिंकन भी ऐसे ही महान व्यक्तीमत्व के स्वामी थे। आप २१ वर्ष की आयु में वार्ड मेंबर का चुनाव हार गये। २२ वर्ष की आयु में व्यवसाय में नाकामयाब रहे। २७ वर्ष की आयु में पत्नी ने तलाक दे दिया . . . . . .टूट गये। ३२ वर्ष की आयु में सांसद के लिये चुनाव लडा़ हार गये। ३७ वर्ष की आयु में कांग्रेस के सिनेट मेंबर का चुनाव लड़ा हार गये। ४२ वर्ष की आयु में उपराष्ट्रपती पद के लिये चुनाव लडा़ हार गये परंतु अपना मानसिक संतुलन बनाये रखते हुये लगातार कोशिश जारी रखी और परिणाम स्वरूप आप ५१ वर्ष की आयु में अमेरिका के राष्ट्रपती निर्वाचित किये गये।
एक अत्यंत सादे परिवार में जन्मे अब्राहम लिंकन महान थे क्यों?
अब्राहम लिंकन राष्ट्रपती बने और अमेरिकी संसद में जब पहेली बार भाषण प्रारंभ करना था की एक ज्येष्ठ सांसद सदस्य जो की अमेरिका के माने हुये उद्योगपति थे। सदन में उठकर कहने लगे की श्री मान राष्ट्रपती जी आप यह मत भूलीये की आपके पिता जी मेरे और मेरे परिवार के लिये जूते बनाते थे। सदन में जोर से हंसी का फव्वारा फुट गया, सभी को लगा की नवनिर्वाचित राष्ट्रपती को उनकी औकात दिखा दी गई|
परंतु कुछ लोग अलग ही मिट्टी के बने होते है, किसी भी असामान्य परिस्थिती में भी अपना संतुलन नही खोते है अपितु अपनी विद्वता और हाजीर जवाबी से सामने वाले को निरूत्तर कर देते है और वो भी एकदम शांती से !
राष्ट्रपती अब्राहम लिंकन भी कुछ ऐसे ही थे। उंहोने सीधे उस व्यक्ती से नजर मिलाकर बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया की सर मुझे पता है की मेरे पिता जी आपके और आपके परिवार वालों के लिये जूते बनाया करते थे। साथ ही इस सदन में और भी ऐसे सदस्य है जिनके लिये मेरे पिता जी जूते बनाते थे कारण उनके जैसा कलात्मक, आरामदायी और मजबूत जूते दुसरा कोई बना ही नही सकता था। मेरे पिता जी महान कलाकार और निर्माता थे उनके हाथों में जादु था और वो पुरे दिल से, समर्पीत भाव से अपना काम करते थे परंतु में जानना चाहता हूँ की उनके द्वारा बनाये गये जुतों से आपको कोई शिकायत है क्या? यदि आपकी कोई शिकयत है तो जरूर बताये कारण में भी जुते बनाने की कला से अवगत हूँ एक अच्छा जौड़ा जुता में भी आपको बनाकर दे सकता हूँ परंतु में जानता हूँ की मेरे पिता जी के द्वारा बनाये गये जूतों के बारे में कभी भी किसी ने कोई शिकायत नही की है क्योंकी मेरे पिता जी एक समर्पीत कलाकार और कारीगर थे और मुझे उन पर अभिमान है।
पुरा सदन अवाक था किसी को कुछ समझ नही आ रहा था की इस माहौल में बोले क्या? राष्ट्रपती अब्राहम लिंकन ने इस छोटे से वाकीये से अपने व्यक्तीमत्व की झलक और चतुरता को सदन में रखा था, सदन के सभी सांसदों को राष्ट्रपती अब्राहम लिंकन के पिता जी पर अभिमान हो रहा था।
इस घटना से स्पष्ट होता है की संकट कितना भी बड़ा हो किसी ने कड़वे शब्द बोलकर कितना भी बडा़ अपमान किया हो उसके सामने धैर्य और संयम बनाकर चाहिये। हमें अपनी धारणा बना लेनी चाहिये की हमारे स्वंय की इजाजत के बिना हमें कोई दुखी नही कर सकता है।
और. . . . . .!
किसे के गलत व्यवहार से हम क्यों अपना मानसिक संतुलन खोये?
‘घटना क्या घटीत हुई है उससे हम दुखी नही होते अपितु घटना पर हमारे द्वारा दी गई प्रतिक्रिया से हम दुखी होते है’।
इसलिये हमेशा अपने आप में अभूतपूर्व आत्मविश्वास जागृत रखे। जिससे की हमारे द्वारा प्रतिकुल परिस्थितयों में भी अपना संतुलन बनाकर परिस्थितीयों को बदलने का प्रयास किया जा सकता है !!
दाल भात में मूसलचंद
वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण में लाक डाउन के तहत फ्री समय में ‘दाल भात में मूसल चंद’ टाइप यानी कि राय चंदों की व्हाट्स एप के खुले विश्वविद्मालय में बाढ़ सी आ गई है। यह एक ऐसी कौम है जिसे आप राय सिंह / रायचंद या राय बहादुर किसी भी नाम से संबोधित कर सकते हैं। इस तरह की वृत्ति के लोगों का अपना ही एक समूह होता है अच्छे भले चल रहे कार्य में आकर बिना मांगे अनवांटेड सजेशन्स ‘पेलना’ यह लोग अपना राष्ट्रीय कर्तव्य समझते हैं। पहले तो यह लोग अपने वाहनों से स्वयं के खर्चे पर पेट्रोल डालकर, समय निकालकर जहां – तहां अपने अनवांटेड सजेशन्स देने पहुंच जाते थे। टेक्नोलॉजी के इस युग में अब इन राय चंदों की निकल पड़ी है; बस एक ऑडियो / वीडियो बनाओ और बिना कुछ सोचे समझे व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी में सनसनीखेज तरीके से अपने आप को महत्व देकर ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर पोस्ट कर दो। यह विशिष्ट रायचंद टाइप के लोग अशिक्षित, विवेकहीन और असंवेदनशील होते हैं इन्हें परिस्थिति माहौल और चल रहे घटनाक्रम से कुछ लेना देना नहीं होता है। यह वो मूर्ख लोग हैं जिनकी स्वयं की जेब में १०० रू. नहीं होते पर अमेरिका की आर्थिक स्थिति का सुंदर अवलोकन कर ऐसा विश्लेषण करते हैं और इस तरह जताते हैं कि अगले वर्ष का अर्थशास्त्र पर मिलने वाले नोबेल पुरस्कार के यही असली हकदार है। चमचों की खास प्रजाति में यह रायचंद उच्च कोटि के चमचे होते है।
मेरे बाल सखा मध्य प्रदेश की संस्कृति के गौरव, महान हास्य कवि स्वर्गीय ओम व्यास ओम जी ने अपने कई हास्य कवि सम्मेलनों में ऐसे रायचंदों का सुंदर चरित्र – चित्रण किया करते थे। उन्हीं के द्वारा प्रस्तुत कुछ उदाहरण मैं यहां लिख रहा हूं। भाई ओम व्यास बताते थे कि मेरे एक मित्र की माता जी का देहांत हो गया। जब अंतिम संस्कार के समय अर्थी उठाने का समय आया तो एक रायचंद ने ओम जी से पूछा कि अर्थी कहां ले जा रहे हैं? ओम जी ने अपनी विशिष्ट शैली में उत्तर दिया की स्विमिंग पूल ले जा रहे हैं (अरे भाई! अर्थी है तो श्मशान घाट पर ले जाएंगे) तो रायचंद कहने लगा अरे मेरा यह मतलब नहीं था, मैं यह जानना चाहता था कि पुराने वाले श्मशान घाट पर या नये वाले श्मशान घाट पर? ओम जी ने उत्तर दिया कि नये वाले श्मशान पर, अब यह रायचंद अपने अनवांटेड सजेशंस देने से बाज नहीं आया और कहने लगा की यदि पुराने वाले पर ले जाते तो मजा ही कुछ और आता।
मतलब परिस्थिति, माहौल कुछ देखना नहीं है केवल राय देनी है जिसको किसी ने मांगी नहीं है। ऐसा ही एक उदाहरण भाई ओमजी देते थे कि मैंने एक रायचंद से गलती से पूछ लिया कि मद्रास का नाम चेन्नई क्यों पड़ा तो इस रायचंद के उत्तर से हास्य व्यंग पैदा होता है। रायचंद ने उत्तर दिया की मद्रास के लोग लुंगी पहनते हैं और लुंगी में चैन नहीं होती है। इसलिए मद्रास का नाम चेन्नई पड़ा। मंदबुद्धि के ऐसे होशियार लोगों का एक उत्तम उदाहरण भाई ओम व्यास जी हमेशा देते थे, जो निम्नलिखित है:–
महान हास्य व्यंग के कवि ओम जी इसे अपनी शैली में प्रस्तुत कर कहते थे कि हमारे मोहल्ले में एक मिठाई की दुकान खुली और दुकानदार ने सुंदर साइन बोर्ड लगाकर उस पर लिखा ‘हमारे यहां ताजी मिठाइयां मिलती हैं’। अगले ही दिन उस मिठाई की दुकान पर एक रायचंद आ पहुंचा और कहने लगा कि ‘हमारे यहां’ लिखवाने का क्या मतलब है जब मिलती है तो यह लिखना कोई जरूरी नहीं है; जब मिठाई की दुकान आपकी है तो आपके यहां ही मिलेगी दूसरी जगह थोड़ी ना मिलेगी और मिठाई की दुकान पर मिठाई मिलेगी ना की दवाई। तो आप तो साइन बोर्ड पर जो ‘हमारे यहां’ लिखा है उसे मिटा दें, दुकानदार ने तुरंत ‘हमारे यहां’ जो बोर्ड पर लिखा था उसे मिटा दिया। अब बोर्ड पर लिखा था कि ‘ताजी मिठाईयां मिलती हैं’, अगले ही दिन एक और दाल – भात में मूसलचंद यानी कि रायचंद दुकान पर पहुंच गया और दुकानदार से कहने लगा की आपने साइन बोर्ड पर यह क्या लिखवा रखा है? की ‘ताजी मिठाईयां मिलती हैं’ इससे ऐसा प्रतीत होता है कि तुम बासी मिठाई भी बेचते हो इससे संदेह पैदा होता है, अतः बात को समझ कर ‘ताजी’ शब्द को मिटा दें और दुकानदार ने तुरंत ‘ताजी’ शब्द को बोर्ड से मिटा दिया। अब बोर्ड पर लिखा था ‘मिठाईयां मिलती हैं’, अगले दिन एक और रायचंद दुकान पर पहुंच गये और दुकानदार से कहने लगे कि मिठाई की दुकान पर मिठाई नहीं मिलेगी तो क्या सब्जी मिलेगी? आप इस बोर्ड से मिठाईयां शब्द को मिटा दें क्योंकि ग्राहक तो दुकान में रखी मिठाइयों को देखेगा ना की बोर्ड को देखेगा। दुकानदार ने तुरंत ‘मिठाईयां’ शब्द को बोर्ड से मिटवा दिया अब बोर्ड पर केवल लिखा था ‘मिलती’ हैं। अगले दिन फिर एक रायचंद उपस्थित होकर कहने लगा कि यह बोर्ड पर क्या लिखा है? ‘मिलती है’ मतलब फ्री में मिलती है क्या? दुकानदार ने कहा कि पैसों से मिलती हैं तो रायचंद ने अपनी राय देकर कहा की जब मिलती है तो ‘मिलती’ शब्द लिखने की क्या जरूरत है, दुकानदार ने तुरंत बोर्ड से ‘मिलती’ शब्द को मिटा दिया अब बोर्ड पर लिखा था ‘है’ अगले दिन फिर एक रायबहादुर दुकान पर उपस्थित होकर कहने लगे कि यह ‘है’ क्या है? जब दुकान पर मिठाई है तो ‘है’ लिखने की क्या जरूरत है, इसे मिटा दें दुकानदार ने तुरंत ‘है’ शब्द को भी मिटा दिया।
अब अगले दिन फिर एक रायचंद दुकान पर उपस्थित हो गए और कहने लगे कि इतनी सुंदर दुकान इतना सुंदर साइन बोर्ड तो फिर इस पर लिखवाते क्यों नहीं की ‘हमारे यहां ताजी मिठाइयां मिलती हैं’।
कहने का तात्पर्य यह है कि इस लाक डाउन पीरियड में यह दाल भात में मूसल चंद टाइप के लोग जो अनवांटेड सजेशंस बिना मांगे वाट्सएप युनिवर्सिटी पर परोस रहे है इन्हें समझे और पहचाने और जिस तरह से इस संक्रमण काल में सोशल डिस्टेंस के तहत हमें ६ फीट की दूरी बनाकर रखनी है तो ऐसे लोगों से दस गुना ज्यादा यानी कि ६० फीट की दूरी बनाकर रखने में ही समाज की भलाई है|
परिपक्वता (MATURITY)
परिपक्वता मतलब :– जब तुम दुनिया को बदलने की जिद छोड़ देते हो और स्वयं को बदलने के लिये स्वयं के प्रत्येक कार्य का परिक्षण – निरीक्षण करते हो।
परिपक्वता मतलब:- जब तुम लोगो को जैसे के तैसे ही स्वीकार कर लेते हो।
परिपक्वता मतलब:- जब तुम्हें यह समझ आ जाता है कि जीवन में प्रत्येक व्यक्ति अपने स्थान पर ठीक है।
परिपक्वता मतलब:- जब तुम लेने की बजाय देने पर ज्यादा विश्वास रखते हो।
परिपक्वता मतलब:- जब तुम रिश्तों में अपेक्षा छोड़ कर त्याग की भावना को स्वीकार करते हो।
परिपक्वता मतलब:- जब तुम्हें यह समझने लगे कि अंतरात्मा का सुख कौन से कार्य को करने से मिलता है।
परिपक्वता मतलब :- जब तुम दुनिया को स्वयं की महानता और होशियारी दिखाने की कोशिश नही करते हो।
परिपक्वता मतलब :- जब तुम दूसरों से अपनी स्तुति व शाबाशी की अपेक्षा न करते हुये अपना काम प्रमाणिकता से करते हो।
परिपक्वता मतलब :- जब तुम स्वयं की तुलना दूसरों से करना छोड़ देते हो।
परिपक्वता मतलब :- जब तुम अपने आप में रम जाते हो और आत्मिक आनंद पाते हो।
परिपक्वता मतलब :- जब तुम्हें तुम्हारी जरुरत और लालच के बीच का अंतर स्पष्ट रुप से समझने लगता है।
परिपक्वता मतलब :- जब तुम्हें इंसानों के साथ इंसानियत से रहना आ जाता है।
परिपक्वता मतलब :- जब तुम स्वयं की प्रगति के साथ दूसरों की भी प्रगति करते हो !!
परिपक्वता मतलब :- जब तुम अच्छा काम करने वाले को निरपेक्ष भाव से और दिल से शाबाशी देते हो।
परिपक्वता मतलब :- तुम्हें यह संज्ञान होना चाहिये की तुम्हारी हरकतों से किसी को तकलीफ ना हो।
और अंत में महत्वपूर्ण
परिपक्वता मतलब :- ‘जब तुम स्वयं अंतरात्मा के सुख का संबंध भोग विलासिता के साथ जोड़ना छोड़ देते हो’|
शब्द
मन के उदगारों को व्यक्त करना और अपने विचारों को सम्प्रेषित करना ही शब्द हैं।
शब्दों से ही किसी को मान – सम्मान दिया जा सकता है, शब्द दुआ है, शब्द दवा है और शब्द ही दावा हैं। जो मन के गुस्से को अनुराग में बदल दे वो शब्द है। तिरस्कार को प्रेम की भाषा में बदल दे वो शब्द है।
बेबाक, बेपर्दा, स्वतंत्र और उन्मुक्त शब्द ही आजादी की अभिव्यक्ति है। प्रत्येक व्यक्ति के शब्द उसके द्वारा संग्रेहित ज्ञान का बही खाता है। शब्दों के द्वारा ही इन्सानियत को संजोया जा सकता है।
इन्सान का सुंदर दिखने के लिये सुंदर होना महत्वपूर्ण नही है। यदि उसका मन निराकार हो और चेहरे पर निर्मल स्मित हास्य हो साथ ही शब्दों का सुंदर तालमेल हो तो निश्चित ही उस इन्सान से सुंदर कोई नही होगा।
सिक्ख धर्म में शब्द ही गुरू है, गुरू ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने अपनी वाणी में कहा है की शब्दों के गायन से प्रभु की प्राप्ति की जा सकती है। इसलिये गुरू ‘श्री ग्रंथ साहिब साहिब जी’ में संग्रहित ज्ञान को ही गुरू माना गया है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से शब्द ‘अजय, अमर, अनंत और ब्रह्म’ है।
शब्द श्रृंगार है शब्दों से ही भावनाओं को व्यक्त किया जा सकता है। शब्दों की फूंकार से ही भावनाओं को भड़काया जा सकता है। वो शब्द ही है, जो आग होकर भावनाओं को अभिव्यक्त करते है। जब शब्द आंसुओं में परिवर्तित होते है तो भड़की हुई भावनाओं को काबू में कर लेते है।
होंठों पर आने वाले शब्दों को आंखों की भाषा और अन्तर आत्मा का सहयोग ना हो तो शब्दों की भाषा की कोई किमत नही होती हैं, वो केवल एक गतिमान लहरी के समान होते है|
अपना - अपना नजरिया
उसके परिणय बंधन को ३० वर्षों से ज्यादा का समय हो चुका था। एक दिन अल्पाहार बनाते समय उसने हलवा बनाया और हलवा बनाते समय उसके मन में यह विचार आया कि मैं पिछले ३० वर्षों से परिवार में सभी को गर्मागर्म हलवा बना कर देती हूं और आखरी में कढ़ाई में बचा हुआ हलवा और खुरचन मैं स्वयं खाती हूं परंतु आज उसने पहले अपने लिए गरमा गरम हलवा अलग से रख लिया और बचा हुआ हलवा खुरचन के साथ खाने के लिए अपने पति को परोस दिया। अल्पाहार करते हुये पति ने उससे कहा कि आज असल में अल्पाहार करने का आनंद आ गया कारण मुझे बचपन से ही हलवे की खुरचन बहुत अच्छी लगती है। हम भाई – बहन बचपन में हलवे की खुरचन खाने के लिए हमेशा लड़ते थे परंतु अब हमेशा तुम सबसे बाद में हलवा स्वयं को परोस कर खुरचन खाती हो तो मुझे ऐसा प्रतीत होता था की तुम्हें भी खुरचन अच्छी लगती है ! ……. पत्नी की आंखें डबडबा आई! प्रसंग बहुत ही साधारण है परंतु विचार करने का अपना – अपना नजरिया होता है, प्रत्यक्ष में परिस्थितियां कुछ अलग ही होती हैं।
इसी तरह हम हमेशा उदाहरण देते हैं की ग्लास आधा भरा है या ग्लास आधा खाली है। जीवन में किसी प्रसंग को देखकर विचार करने का अपना – अपना नजरिया महत्वपूर्ण होता है। कई बार स्वयं के अनुभव से और विशेष परिस्थितियों के कारण बने हुये नजरिये पर व्यक्ति अपने मत परिवर्तित नहीं करता है। असल में परिस्थितियों के अनुसार नजरिये को बदलने की आवश्यकता होती है। हमें प्रसंगों को अलग – अलग नजरिये से देख कर समझने की कोशिश करना चाहिये। इससे आपके विचार विकसित होंगे और समझ समृद्ध होगी एवं आप व्यक्तियों को अच्छे तरीके से समझ सकते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति का नजरिया अर्थात उसके जीवन का नक्शा होता है। यदि आप गलत नक्शे पर चलेंगे तो आप अपने योग्य गंतव्य स्थान पर नहीं पहुंच सकते हैं। एक ही उद्देश्य को लेकर चले व्यक्तियों का समूह अलग – अलग नजरियों से चले तो अलग – अलग स्थानों पर पहुंचते है कारण हर एक का नक्शा अलग – अलग होता है।
इसलिये अलग – अलग नजरियों से देखोगे तो ‘नजर बदलेगी और नजारे भी’|
आ अब लौट चलें
वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण काल में देश के विभिन्न हिस्सों से मजदूर अपने – अपने गांव में, कस्बों में और छोटे शहरों में लौट रहे हैं। करोड़ों की संख्या में यहां मजदूर अपने बच्चों और परिवारों के साथ अपने पैतृक गांवों में वापस मुड़ चले हैं। अब इन मजदूरों को और देश के राजकर्ता और नीतिकारों को भी सोचने पर विवश होना पड़ेगा कि आगे क्या?
यदि हम सही मायनों में अपने देश का विकास करना चाहते हैं और विकसित देशों में अपना अग्रिम स्थान रखना चाहते हैं तो हमें देश के सभी राज्यों का समतोल विकास करना होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा था की ग्रामीण भारत का विकास ही देश का सर्वांगीण विकास है। आजादी के ७३ वर्षों के बाद भी हमारे देश की जनता बुनियादी आवश्यकतायें जैसे बिजली, पानी और सड़क के लिए संघर्ष करती नजर आती हैं। आज यदि हम सभी राज्यों का संपूर्ण विकास करें और सभी बुनियादी जरूरत के साथ रोजगार एवं उचित शिक्षा की व्यवस्था पूरे देश में समान रूप से हो तो ग्रामीण भारत का मजदूर क्यों पलायन करेगा?
हमारी सरकार को गहराई से विचार करना होगा। आज मुंबई की अवस्था अति भयानक है, करोना संक्रमण कंट्रोल करना मतलब लोहे के चने चबाने जैसा साबित हो रहा है। सरकार को मुंबई को विशेष आर्थिक महानगर का दर्जा देना चाहिये और मुंबई के स्थानीय लोगों को विशेष राहत देनी चाहिये ताकि स्थानीय युवकों को भी उनके अपने राज्य में उनके अपने शहर में रोजगार मिल सके।
पूरी दुनिया की सभी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयां आज भारत को विशेष नजरों से देख रही हैं। इन सभी कंपनियों का ‘रेड कारपेट’ स्वागत करना होगा जिस तरह से उत्तराखंड को विशेष राज्य का दर्जा देकर वहां पर उत्तम उद्योगिक विकास किया गया ठीक उसी तरह हमारे महाराष्ट्र राज्य के मराठवाडा, विदर्भ, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा और झारखंड का विकास करना होगा साथ ही जहां – जहां भी बेरोजगारी है। उन सभी क्षेत्रों में इन सभी आने वाली कंपनियों को सभी सुविधायें देकर बसाना होगा एवं स्थानीय लोगों के रोजगार का भी प्रबंध करना होगा। आने वाली सभी कंपनियों को उत्तम यातायात के लिए सड़कें, भरपूर पानी और अखंडित बिजली की सप्लाई भी देनी होगी तो हम सभी राज्यों का संपूर्ण विकास कर सकेंगे।
राज्यों के राज कर्ता, मजदूर और आम जनता को भी इन कंपनियों को पूरा साथ देना होगा। आने वाली कंपनियों को भी विश्वास और सहारा देने की जरूरत होगी। देश के सभी जागरूक नागरिकों को विशेष ध्यान देना होगा की इसमें कोई राजनीति ना हो वरना हम अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मार कर लेंगे।
राष्ट्रपति महात्मा गांधी के सपनों को साकार करते हुए हमें अपने ग्रामीण अंचलों में खेती और उससे जुड़े व्यवसायों को प्रोत्साहन देकर मदद करनी होगी। हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी के दिये हुये नारे ‘जय जवान – जय किसान’ के साथ ‘जय विज्ञान’ को जोड़कर विकास के पथ पर चलना होगा। ग्रामीण भारत में नागरिकों को सभी बुनियादी सुविधायें देना सरकार का कर्तव्य है। ग्रामीण भारत में खेती और उससे जुड़े हुए व्यवसाय एवं लघु उद्योगो को प्रोत्साहन देना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिये। यदि हम पूरे देश में समतोल कृषि का विकास कर सके तो देश में बेरोजगारी समाप्त हो जायेगी। आज किसानों को बैंकों से सरलता से ऋण मिलना चाहिये वो भी बहुत कम ब्याज दर पर और कृषि उत्पन्न को मंडियों में अच्छा दाम मिलना चाहिये ।
इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के इस युग में अब शहर, गांव, कस्बों और महानगरों को एक कर दिया है। कोई भी कहीं से अपना व्यापार और व्यवसाय कर सकता है। आज मार्केट ग्लोबल हो चुके हैं इस आई.टी. के क्षेत्र में दुनिया में हमारे युवाओं ने अपने बुद्धि कौशल्य का लोहा मनवाया है। अब समय आ चुका है की हमारी सरकार और प्रशासन को सही नीतियां बनानी चाहिये और सभी राज्यों का समतोल विकास करना चाहिये। यदि नीतियां सही हुई तो हमारे किसान मजदूर और बेरोजगार इस देश को पांच ट्रिलियन डालर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए कभी पीछे नहीं हटेंगे। ग्रामीण भारत का विकास ही हमारे देश का समतौल और सर्वांगीण विकास होगा और निश्चित ही हम भविष्य में विश्व गुरू बनकर रहेंगे|
कागज का एक पन्ना......!
श्री लिख दो या भगवान की फोटो छाप दो पूजन योग्य हो जाता है।
प्रेम के ४ शब्द लिख दो संभाल कर रख दिया जाता है।
चल अचल संपत्तियों का मालिकाना हक दिलाता है।
जीवन बीमा के रूप में जिंदगी के साथ भी और जिंदगी के बाद भी।
कुछ गलत लिख दो तो फाड़ दिया जाता है।
कागज का एक पन्ना……!
कभी इसे हवाई जहाज बनाकर हवा में उड़ाया जाता है।
कभी इसे नाव बनाकर पानी में तैरने के लिए छोड़ देते हैं।
कभी इसे चकरी बनाकर हवा में घुमाया जाता है।
रद्दी होकर पुड़िया बांधने के काम आता है और कभी रद्दी समझकर मसल दिया जाता है।
कागज का एक पन्ना……!
जो लेखक की लेखनी का आधार है।
विद्दयार्थियों के विद्या ग्रहण के मार्ग को सरल बनाता है और परीक्षा का परिणाम छाप दो तो मार्कशीट बन जाता है।
जो चित्रकार की चित्रकारी के लिए जरूरी है।
जो नक्शा बनने पर मार्गदर्शक बन जाता है।
जो व्यापारी के हिसाब का ज्ञाता है।
जिस पर आवेदन कर दो तो प्रार्थना पत्र बन जाता है।
डॉक्टरों के द्वारा लिखा जाये तो मेडिकल रिपोर्ट बन जाता है।
जो वकीलों के साथ कोर्ट में गवाह देता है। जो न्यायधीश के आदेश पर कोर्ट का सम्मन हो जाता है और न्यायधीश के आदेश पर न्याय करता है।
कागज का एक पन्ना……!
पेपरवेट रखने पर शांत हो जाता है।
और यदि पेपरवेट हटा दिया तो स्वच्छ हवा में उड़ कर कहीं अटक कर फड़फड़ाने लगता है।
तिलीयों के साथ समायोजित कर दो तो पतंग के रूप में आसमान पर राज करता है।
कागज का एक पन्ना……!
अखबार में जिस पर खबरें छपती हैं।
रिजर्व बैंक छापे तो नोट और स्टांप पेपर बन जाता है।
प्रश्न छापने पर प्रश्नपत्रिका बन जाता है।
रेलवे छापे तो टिकट और एयरलाइंस छापे तो बोर्डिंग पास कहलाता है।
विवाह समारंभ का निमंत्रण छापने पर निमंत्रण पत्रिका बन जाता है।
और यदि संदेशों को लिखकर पोस्ट करें तो डाक बन जाता है।
कागज का एक पन्ना……!
कागज का एक पन्ना……!
इंसान के कर्मों में और कागज के पन्नों में बहुत अधिक समानता होती है !!
एक तुलनात्मक द्रष्टिकोण
चाय…! या कॉफी…!!
चाय मतलब उत्साह..
कॉफी मतलब स्टाईल..!
चाय मतलब दोस्ती..
कॉफी मतलब प्रेम..!
चाय एकदम तुरंत..
कॉफी शांत आराम से..!
चाय मतलब मस्त झकास..
कॉफी मतलब वाह,बहुत खुब..!
चाय मतलब सुबह का अखबार..
कॉफी मतलब जासूसी उपन्यास..!
चाय मतलब टी.वी.की खबर..
कॉफी मतलब आयनाक्स का इंटरवल..!
चाय मतलब तुलसीदास रचित रामायण..
कॉफी मतलब कवि कालिदास रचित मेघदूत..!
चाय हमेशा शांत दोपहर के बाद..
कॉफी एक धुंधलाती शाम..!
चाय मस्त भीगने पर..
कॉफी काली घटा छाने पर..!
चाय मतलब चर्चा..
कॉफी मतलब विश्लेषण..!
चाय मतलब ड्राईंग रुम..
कॉफी मतलब वैटिंग रुम..!
चाय मतलब स्फूर्ति..
कॉफी मतलब जिज्ञासा..!
चाय मतलब भाग दौड़ के दिन..
कॉफी मतलब धड़कनों के दिन..!
चाय मतलब वर्तमान में दमने पर..
काफी मतलब भूतकाल में रमने पर..!
चाय भविष्य के रंग..
कॉफी सपनों के संग..!!
-----और शब्द निशब्द हो गये
एक रविवार के दिन पुणे की प्रसिद्ध गार्डन वडा – पाव की दुकान पर वडा – पाव खाते समय अपनी गोद में एक छोटे से बच्चे को लेकर एक भिकारन भीक मांगती हुई सामने आई और भिक मांगने लगी।
मैनें दुकानदार से कहा इसे दो वडा – पाव बांध कर देना। तत्पश्चात् मन में अंहकार के साथ घमंडीत होकर भाव आया की वाह! मैने आज महान सत्कर्म का काम किया है।
भिकारन पास में ही बैठकर बड़े ही इतमिनान से वडा – पाव खाने लगी। उसने बड़े प्यार से एक वडा़ – पाव खाया। अरे यह क्या? —– में देख रहा हूँ की उस भिकारन ने दुसरा वडा – पाव पास बैठी एक कुतिया के सामने डाल दिया। उसकी यह मगरूरी देखकर मुझे बहुत ही क्रोध आया और क्रोधित होकर उससे कहा की मैनें मेरी मेहनत के कमाये हुये पैसों से तुझे वडा – पाव खरीदकर दिये थे। और तुमने उसे कुतिया के आगे डाल दिया! …..सारे विश्व की ममत्व की भावनाओं को घोल कर पीकर उसने मुझे बहुत ही शांति से विनम्रता से उत्तर दिया, साहेब मेरा तो एक ही बच्चा भूखा है परंतु उसके तो चार – चार भूखे है ——!
—— और शब्द निशब्द हो गये|
हमारी शिक्षण प्रणाली
प्राचीन भारत में गुरुकुल जैसी अत्यंत परिपक्व महत्वपूर्ण शिक्षण प्रणाली थी। तत्पश्चात हमारे नालंदा विश्वविद्मालय और बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जैसे विश्वविद्यालयों ने दुनिया में नाम कमाया। अंग्रेजों की गुलामी ने इन सभी शिक्षण प्रणालियों को समाप्त कर मैकेलिफ के द्वारा इजाद की गई शिक्षण प्रणाली हमारे देश के ऊपर लाद दी गई। देश में शिक्षा का जबरदस्त बाजारीकरण हो चुका है। हमारी अपनी भाषाओं को छोड़कर केवल अंग्रेजी माध्यम में ली गई शिक्षा को ही महत्व दिया गया है। जमाने के हिसाब से अंग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है परंतु अभी की शिक्षण प्रणाली में हम उच्च शिक्षित इंसान नहीं केवल रोबोट पैदा कर रहे हैं। एज्युकेशन एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ होता है की विद्यार्थियों के सुप्त गुणों को खोजना, उन गुणों का संवर्धन करना और ऐसे गुणवान विद्यार्थियों का समाज हित हेतु योग्य उपयोग करना। क्या हमारी शिक्षण प्रणाली इस सूत्र के अनुसार है? हमारे देश के नीति कार और शिक्षण महर्षीयों ने इस प्रणाली को बदलकर तर्कसंगत शिक्षण प्रणाली लागू करनी चाहिये। हमारी आज की शिक्षा प्रणाली पर यह निम्नलिखित प्रसंग विचारणीय है:–
एक ऐसा विद्यालय था जहां पर केवल पक्षियों और वन्य प्राणियों को ही शिक्षा दी जाती थी। विद्यालय के तीन विषय महत्वपूर्ण है दौड़ना, उड़ना, और तैरना, यह तीन विषयों में पारंगत होने के लिये इस विद्यालय में प्रवेश दिया जाता है। इस विद्यालय में प्रवेश लेने के लिए एक बदक आई और जब उसे बताया बताया गया की प्रवेश के लिये दौड़ना, उड़ना और तैरना आवश्यक विषय हैं। बदक ने कहा मैं अच्छी तरह से तैर सकती हूं और यदि नियमित अभ्यास किया तो मैं दौड़ भी सकूंगी पर उड़ना मेरे लिए संभव नहीं है क्योंकि उड़ना मेरा प्राकृतिक गुण नहीं है। शिक्षकों ने कहा की यह विषय जरूरी है यदि डिग्री चाहिये तो पास होना ही पड़ेगा। शिक्षकों ने बदक को समझाया चिंता मत करो हम हैं ना! अलग से क्लास लेंगे, कोचिंग करेंगे तुम्हें सिखायेंगे और बदक ने प्रवेश ले लिया। अब उसे एक शिक्षक ने सलाह दी कि तुझे तैरना आता है ना….. तो उस विषय को अलग से रख दो और तुम्हें रोज दौड़ने अभ्यास करना चाहिये। बदक ने दिन – रात दौड़ने का अभ्यास किया और दौड़ – दौड़ कर उड़ने की कोशिश करने लगी परंतु उड़ना संभव ना हो सका, साथ ही उसने तैरना छोड़ दिया था। एक साल पश्चात जब परीक्षा दी तो दौड़ने की परीक्षा में बड़ी मुश्किल से; कठिनाई से पास हो गई। अंत में शिक्षकों ने उसे पेड़ पर चढ़ा दिया और बदक ने उड़ने की कोशिश की परंतु कोशिश नाकामयाब रही और बदक फेल हो गई, इस तरह से हम हर साल देश में लाखों बदक तैयार कर रहे हैं।
अब इस विद्यालय में एक दूसरा प्राणी आया गिलहरी नामक आया, गिलहरी बहुत अच्छा दौड़ती है। शिक्षकों के द्वारा उसे बताया गया तीन विषय जरूरी है उड़ना, दौड़ना और तैरना परंतु गिलहरी तो बहुत अच्छा दौड़ सकती है। उड़ने का क्या करना है? और यदि तैरने गई तो डूब के मर जायेगी। उसने प्रवेश लेने से मना कर दिया परंतु शिक्षकों के आश्वासन पर प्रवेश ले लिया और अभ्यास प्रारंभ कर दिया। जब परीक्षा का समय आया तो गिलहरी दौड़ती हुई पेड़ पर चढ़ गई और ऊपर से शिक्षकों से पूछा क्या मैं झाड़ पर से कूद जाऊं? ताकि मेरे उड़ने की परीक्षा भी हो जायेगी। शिक्षकों ने स्पष्ट किया की यह पाठ्यक्रम में नहीं है उड़ना हमेशा नीचे से ऊपर की ओर होना चाहिये, ऊपर से नीचे की और नहीं हो सकता है तुम्हें परीक्षा के नंबर नहीं मिलेंगे। तुम अपने मन से कुछ नहीं कर सकती हो, जो पाठ्यक्रम में है वो ही होना चाहिये। इस तरह से हमने अपनी शिक्षण प्रणाली में विद्यार्थियों को पाठ्यक्रम से बांध कर रख दिया है।
अब इस विद्यालय में एक तीसरा पक्षी आया तोता नामक शर्त वो ही है। आपको प्रवेश के बाद दौड़ना, उड़ना और तैरना सिखाया जाएगा। तोते ने कहा कि मैं उड़ सकता हूं इस विषय में पास हो जाऊंगा और यदि दौड़ने का अभ्यास किया तो वह भी हो जायेगा परंतु तैरना मुश्किल है। शिक्षकों ने कहा जरूरी विषय हैं पास तो होना पड़ेगा तोते ने कहा मुझे विद्यालय में प्रवेश ही नहीं लेना है मैं ऐसे ही ठीक हूं। विचार मंथन हुआ की इस तरह से विद्यार्थी विद्यालय छोड़कर जाने लगे तो विद्यालय कैसे चलेंगे? शिक्षकों का क्या होगा? और तोते को जबरजस्ती पकड़कर प्रवेश दे दिया गया। अब प्रश्न यह है की विद्यालय विद्मार्थियों को सिखाने के लिए है या शिक्षकों की रोजी – रोटी के लिए है? और तोते को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया ताकि उड़ ना सके अब तोते का प्राकृतिक गुण उड़ना है परंतु उसे पिंजरे में बंद कर दिया तो तोते ने पिंजरे के अंदर जो झूला है; उसे पकड़ कर उस पर सुरक्षित बैठना सीख लिया। अब साल के बाद परीक्षा के समय तोते को पिंजरे से बाहर निकाला गया अब उसे उड़ने में भी कठिनाई होने लगी परंतु जैसे – तैसे उड़कर एक सुरक्षित पैड़ की टहनी को पकड़ कर बैठ गया क्योंकि टहनी पकड़ कर बैठने में तोता अब मास्टर था। हमारे विद्मार्थियों का भी ऐसा ही है एक बार डिग्री मिल गई तो सरकारी नौकरी मिल जायेगी। और बस डटकर पकड़ कर बैठ जाओ सुरक्षित भविष्य…..! यही है हमारे देश के विद्यार्थियों का भविष्य सभी रटने वाले तोते…..!
इस विद्यालय में प्रवेश लेने के लिये एक और नया पक्षी आया है कोयल नामक। इसकी आवाज मिठी है। जब गाती है तो पूरी सृष्टि झूमने लगती है परंतु इसमें एक अवगुण है की वो रंग की काली है, इतनी विलक्षण प्रतिभा होने के पश्चात वो हीन भावना से ग्रस्त कि वो रंग की काली है, उसे अपने आप में एक कमीपना महसूस होता है। वैसे ही हमारे ग्रामीण अंचल के गरीब विद्मार्थी हैं ऊपर से दबाव है कि अंग्रेजी नहीं आती है। बुद्धि है,गुण है परंतु हीन भावना से ग्रस्त है की पिछड़े ग्रामीण इलाके के विद्यार्थी हैं यह बड़ी समस्या है। हमें एक बात ध्यान रखना चाहिये कि पांचों उंगलियां एक जैसी नहीं होती हैं, झाड़ के दो पत्ते एक जैसे नहीं होते हैं, हाथ की हथेलियों पर रेखाएं भी एक जैसी नहीं है, एक जैसी आंखों वाले दो इंसान नहीं हो सकते हैं और सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ‘इस दुनिया में हमारे अपने जैसा दूसरा कोई नहीं हो सकता है’। हमारा कोई क्लोन नहीं हो सकता है, हमारी कोई आवृत्ति नहीं हो सकती है और इस बात का हमें अभिमान होना चाहिये।
अंत में विद्यालय में प्रवेश लेने के लिये एक और बाज नामक पक्षी आया, शिक्षकों ने जानकारी दी कि तीन विषय महत्वपूर्ण है दौड़ना, तैरना और उड़ना परंतु बाज ने उत्तर दिया की उड़ने में मेरा कोई सानी नहीं है और मैं ऊंचे से ऊंचे आकाश में उड़ने वाला पक्षी हूँ और मैं क्यों दौड़ने धरती पर आऊंगा? आप इस विषय को ही निकाल दें, शिक्षकों ने कहा जरूरी है बाज ने उत्तर दिया मुझसे नहीं होगा और तैरना मेरा क्षैत्र नहीं है। शिक्षकों का उत्तर सुने बिना बाज ने ऊंचे आकाश में उड़ान भर ली। याद रखें न्यूटन जैसे वैज्ञानिक विद्दयालयों में नहीं विद्यालयों के बाहर ही तैयार होते हैं। यदि न्यूटन विद्यालय में बैठ कर सीखता तो सेवफल के झाड़ पर से सेवफल को गिरता हुआ देखता ही नहीं था और गुरुत्वाकर्षण की खोज भी नहीं होती थी। चार दीवारों के विद्दालय से जीवन का बिना दीवारों का विद्यालय महत्वपूर्ण है और उस बाज ने शिक्षकों से यह भी कहा था कि मेरा सबसे बड़ा विद्यालय मेरी मां है क्योंकि जब मैं इस सृष्टि में आया और अपनी मां की तरफ देख ही रहा था की मेरी मां ने अपने पंजों में मुझे जकड़ लिया और ऊंची से ऊंची उड़ान भर के आसमान में उड़ने लगी। मैं चिल्ला – चिल्ला कर कहने लगा की मां मेरा अभी – अभी जन्म हुआ है, ना मैंने धूप देखी है, ना बारीश देखी है, और ना ही तेज हवाओं से रू – बरू हुआ हूं परंतु मेरी मां ने मेरी एक भी ना सुनी और ऊंचे से ऊंचे आकाश में लेकर उड़ती रही और मां ने अचानक मुझे अपने पंजों से छोड़ दिया मैं तेजी से नीचे की ओर गिरने लगा और मैंने मां की और क़तर नजरों से देख कर कहा ऐसा क्यों किया मां? परंतु यहां क्या अचानक मेरे पंख धीरे – धीरे खुलने लगे और मैं हवा में धीरे – धीरे उड़ना सीख गया और मैंने खुशी से मां की तरफ देखकर कहा मां मैं उड़ना सीख गया हूं। हमे हमारे विद्यार्थियों को शिक्षण प्रणाली में बांधकर नही सिखाना चाहिये। इन विद्यार्थियों को खुला छोड़ कर स्वयं सीखने दो जीवन के अनुभव लेने दो, इंहे धूप छांव में रहना स्वयं सीखने दो। हम शिक्षा केवल नंबरों के लिये लेते है और डिग्री के लिये ले रहे हैं। हमारे विद्मार्थियों को विज्ञान वादी होना चाहिये मतलब ज्ञान को अर्जित करना चाहिये। हम शिक्षा लेते हैं, जानकारी लेते हैं, आंकड़ों को इकट्ठा करते हैं परंतु उसका उपयोग जीवन में क्या है? कुछ नहीं! जिस दिन मेरे देश के विद्यार्थी ज्ञान को विज्ञान में परिवर्तित करेंगे उस दिन इस देश में एक भी बेरोजगार नहीं होगा !!
मित्रता के मायने
निस्वार्थ मित्रता की यदि कोई ताकत है तो वो है उसकी सहजता। मित्रता की इस सहजता में ही उसकी सुरक्षितता की मलई अपने आप तैयार होती है। मजेदार बात यह है की मलई दूध से बनती है और दूध के उपर एक सशक्त छत का निर्माण करती है। मलई के निचे स्थित दूध को मलई का भार महसूस नही होता है। इस प्रकार दूध और मलई का साथ कोई मजबूरी भी नही है। निस्वार्थ मित्रता भी ऐसी ही होनी चाहिये। ‘दूध से ज्यादा स्निग्ध’ मलाई की तरहां ! पश्चात दूध से बने पदार्थ जैसे की दही, लस्सी, मक्खन और घी निश्चित ही ज्यादा पौष्टिक होते है। इसी तरहां से निस्वार्थ मित्रता में होना चाहिये।
‘मित्रता का हर एक पायदान व्यक्तिमत्व का उत्कर्ष बिन्दू होना चाहिये’|
बायकाट: मेड इन चाइना
पूरी दुनिया के लिये चीन आज सबसे बड़ा खतरा बन चुका है। कोरोना संक्रमण के बाद पूरा विश्व हमें एक विशेष निगाहों से देख रहा है। सभी बड़ी-बड़ी कारपोरेट कंपनियां चीन से बोरिया – बिस्तर बांध कर भारत में अपना उत्पादन प्रारंभ करना चाहती है। इससे चीन के नागरिकों में बेचैनी है और करीब तीस प्रतिशत लोग चीन में बेरोजगार हो चुके हैं। इसलिये चीन जानबूझकर भारतीय सीमाओं पर खुराफत कर एक भय का माहौल बनाना चाहता है। हमारी सेनाएं पूरी तरह से सतर्क है और किसी भी आक्रमण का मुकाबला करने के लिये पूर्णतया तैयार हैं परंतु इस बार का युद्ध आमने – सामने की लड़ाई नहीं है अपितु देश के हर नागरिक को पूरी तरह से मुस्तैद रहकर चीनी आक्रमण का पुरजोर जवाब देना होगा।
हमारे देश में रहने वाले नागरिकों को यह समझना होगा की यह भय का माहौल चीन हमारे साथ ही नहीं बना रहा है अपितु उसकी बुरी नजर वियतनाम, हांगकांग और ताइवान पर भी है। हमारे कूटनीतिज्ञों का यह मानना है की चीन जानबूझकर यह हरकत कर रहा है ताकि वो अपने नागरिकों का ध्यान बांट सके। वहां के शासन करता अपनी १४० करोड़ की आबादी का लक्ष्य भ्रमित करना चाहते हैं क्योंकि वहां की आम जनता जो सरकार के दबाव में बंधुआ मजदूरों की तरह दिन रात काम कर रही है और चीन में मजदूरों के मानवाधिकारों का पूर्णतया उल्लंघन हो रहा है। चीन के शासन कर्ता नहीं चाहते की वहां की जनता विद्रोह करें। यदि चीन में विद्रोह हुआ तो तख्ता पलट हो जायेगा। इससे वहां के शासन करता खौफ खाते हैं। आज चीन में व्यापार बंद है, फैक्ट्रियां बंद है। बेरोजगारी दिन – ब – दिन बेशुमार बढ़ती जा रही है। आम जनता आक्रोशित है कहीं चीन में क्रांति ना हो जाये। इसलिए चीन अपने पड़ोसी मुल्कों से पंगा लेकर जनता का ध्यान बंटाना चाहता है। यह पहली बार नहीं हो रहा है सन् १९६२ में भी चीन ने भारत से जो युद्ध किया था उस समय भी वो अपनी जनता का ध्यान भ्रमीत करना चाहता था क्योंकि उस समय चीन में लगातार चार सालों तक अकाल पड़ा था और बहुत भूखमरी हुई थी। चीन लगातार अपनी जी.डी.पी. में बढ़ोतरी रखना चाहता है यदि वहां जी.डी.पी. कम होती है तो जनता के विद्रोह करने के आसार बढ़ जाते हैं।
हमारी कूटनीतिज्ञों का मानना है की यदि चीन को परास्त करना है तो इस बार जो सेना हथियार लेकर बॉर्डर पर युद्ध के लिये तैयार है उससे भी ज्यादा जरूरी है की हम देश के नागरिक चीन की बुलेट का जवाब अपने वालैट पावर से दें। हमारे नागरिक जो अपनी कड़ी मेहनत की कमाई से चीनी उत्पादों को खरीदते हैं उंहे रोकना होगा। हम भारतीय चीन से मूर्तियों से लेकर कपड़े और फर्नीचर तक हर साल पांच लाख करोड़ डालर का सामान आयात करते हैं और हम से कमाया हुआ पैसा ही हमारे सैनिकों के खिलाफ युद्ध में काम आता है।
हमें अपने देश को बचाने के लिये हमारी १३५ करोड़ जनसंख्या वाली जनता ने चीनी उत्पादों को खरीदना बंद कर देना चाहिये। इससे निश्चित ही चीन की अर्थव्यवस्था चरमरा जायेगी और उनका जी.डी.पी.तेजी से गिरने लगेगा। आज कोरोना संक्रमण के संकट के बाद पूरा विश्व एकजुट होकर चीनी उत्पादों का विरोध कर रहा है।
हमारे देशवासियों को जागना होगा यही देशभक्ति दिखाने का समय है। विचार करने वाली बात है की एक और हमारी सेना बॉर्डर पर चीन के आक्रमण का मुंह तोड़ जवाब दे रही है और दूसरी और हम नागरिक चीनी उत्पादों को खरीदकर शत्रु सेना सेना की मदद कर रहे होंगे।
हमारी युवा पीढ़ी को आह्वान है की अपने देश की रक्षा के लिए सर्वप्रथम समस्त चीनी साफ्टवेयरों का बहिष्कार करें और देश के सभी नागरिक चीनी उत्पादों को खरीदना बंद करें। हमारी सरकार को सभी चीनी उत्पादनों पर प्रतिबंध लगाकर हमारे लघु उद्योगो को बढ़ावा देना चाहिये। हमारे प्रधानमंत्री जी ने ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बात कर हमें स्वावलंबी बनने का मंत्र दिया है परंतु सरकार को भी लघु उद्योगो को लालफीताशाही से बचाना होगा। लघु उद्योजकों को उद्योग चलाने हेतु बिना ब्याज का ऋण और पानी, बिजली की अखंड सप्लाई देनी होगी और परिवहन हेतु उत्तम रोड का प्रबंध करना होगा। यदि देश में खुशहाली लानी है और बेरोजगारी को समाप्त करना है तो हमें इन बिंदुओं पर गहराई से विचार करना होगा।
सबसे पहले सभी चिनी सॉफ्टवेयरों को तुरंत हमारी जिंदगी से हटाये और चीनी उत्पादों का सख्ती से बायकाट करें। हमें चीन और चीनी लोगों से कोई समस्या नहीं है परंतु वहां की तानाशाही सरकार को जगह पर लाने में ही पूरी दुनिया की भलाई है। हमें मुहिम चलानी होगी देश में जागृति लानी होगी। आज हमारे लिए सबसे बड़ी देशभक्ति का काम है ‘बायकाट! मेड इन चाइना’। हमें अपनी देशभक्ति का सबूत देने के लिये जान नहीं देना है केवल और केवल ‘बायकाट! मेड इन चाइना’ करना है|
मदद
इंसान की पहचान उसकी इंसानियत से होती है और इंसानियत की परख कठिन समय में होती है। इंसानियत के बिना इंसान केवल हाड़ – मांस का पुतला मात्र है। जरूरतमंद लोगों को हर इंसान ने इंसानियत के रूप में मदद करनी चाहिये। वैश्विक महामारी कोरोना संक्रमण के समय में यदि वायरस की श्रृंखला को हमें तोड़ना है तो इंसानियत के नाते मदद की ऐसी श्रृंखला बनानी होगी जो इस महामारी पर विजय प्राप्त कर सकें। जरूरतमंदों को सही और सीधी मदद पहुंचाना जवाबदारी का कार्य है। जीवन में कई स्वार्थी लोग ऐसे भी जो हैं जो मदद के नाम पर व्यक्तिगत फायदा उठाते हैं ऐसे असामाजिक तत्वों से सावधान रहने की जरूरत है। ऐसे इंसानों के लिए एक अच्छा प्रसंग उदाहरण के रूप में है:–
एक जंगल में शेर और शेरनी शिकार करने के लिये अपने बच्चों को गुफा में छोड़कर दूर जंगल में चले जाते हैं और कुछ दिनों तक वापस नहीं आते है। शेर के पिल्लों की भूख देखकर एक बकरी उन पिल्लों को रोज अपना दूध पिलाने लगती है। शेर के पिल्ले बकरी का दूध पीकर उस बकरी से घुलमिल जाते हैं कुछ दिनों पश्चात शेर और शेरनी वापस आते हैं और अचानक बकरी के रूप में शिकार देख कर उस पर झपटते हैं। पिल्ले जोर – जोर से चिल्लाकर शेर और शेरनी को बताते हैं कि इस बकरी ने हमें रोज दूध पिलाया है यदि इसने हमें दूध नहीं पिलाया होता तो हम भूखे मर जाते थे इस बकरी ने मदद कर हमारे परिवार पर उपकार किया है।
पिल्लों की बात सुनकर शेर और शेरनी खुश हो जाते हैं और बकरी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुये कहते हैं की तेरी मदद को हम हमेशा याद रखेंगे। तेरे इस उपकार के बदले अब तुम इस जंगल में आजाद घूम सकती हो, तुम्हें किसी भी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं होगी और बकरी स्वच्छंद आजादी के साथ जंगल में घूमने लगती है।
एक बार तो बकरी शेर की पीठ पर बैठकर पेड़ों की पत्तियां खा रही थी। यह देखकर एक कबूतर ने बकरी को पूछा यह कैसे संभव हुआ है। बकरी ने सारी हकीकत बयान कर दी और कबूतर में भी मन ही मन निश्चित किया कि वो भी अब सभी को मदद करेगा।
कुछ समय पश्चात कबूतर ने कुछ चूहे के पिल्लों को दलदल में फंसते हुए देखा वो पिल्ले जितना दलदल से निकलने की कोशिश करते उतना ही फंसते जा रहे थे। अंत में कबूतर में उन पिल्लों को प्रयत्न कर उस दलदल से सुरक्षित बाहर निकाल लिया। चूहे के पिल्ले ठंड से कंपकपा रहे थे। कबूतर में इन पिल्लों को गर्मी देने हेतु अपने पंखों के अंदर समेट लिया। कुछ समय के पश्चात जब चूहे के पिल्ले सामान्य हो गये तो कबूतर ने उनसे जाने के लिये इजाजत मांगी और जब उड़कर अपने घोंसले में जाने की कोशिश की तो कबूतर को उड़ने में कठिनाई होने लगी और अस्वस्थ होकर उसने जानना चाहा कि तकलीफ क्या है?
चूहों के पिल्लों ने पंखों के भीतर गर्मी लेते लेते कबूतर के पंख कुतर दिये थे। कबूतर जैसे – तैसे फड़फड़ाते हुये बकरी के पास पहुंचा और कहने लगा कि तुझे देखकर मैंने भी मदद की, परिणाम स्वरूप तुझे उसका उत्तम फल मिला और मुझे धोखा! अर्थात् दोनों के अनुभव अलग – अलग थे।
बकरी ने हंसते हुए गंभीरता से उत्तर दिया….!
मदद के रूप में उपकार कभी भी शेर जैसे पुरुषार्थ वाले व्यक्तित्व की ही करना चाहिये ना की चूहे जैसे स्वार्थी व्यक्तित्व की कारण स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ के लिये हमेशा दूसरा रास्ता खोजते हैं। ऐसे लोग स्वयं का स्वार्थ पूरा होने पर सच्चे और प्रमाणिक लोगों को भूलने में ही अपनी महानता समझते हैं परंतु पुरुषार्थ स्वभाव के निस्वार्थी, बहादुर और इमानदार लोग जीवन भर मदद कर उपकार करने वाले को याद रखते हैं|
‘दुख विच ले गरीब दी सार, बन इंसान ते कर उपकार’!!
प्रेम और श्रद्धा
ऐसा आभास होता है की दोनों समानार्थी शब्द है परन्तु ऐसा है ! …….नही है !
किसी व्यक्ती से प्रेम करने वाले एक – दो या कुछ लोग हो सकते है परन्तु किसी पर श्रद्धा रखने वाले हजारों – लाखो लोग हो सकते है ।
यदि आप किसी से प्रेम करते हो और कोई दूसरा व्यक्ती भी उससे प्रेम करे तो एक ईर्ष्या का भाव जाग्रत होगा और यदि आप किसी पर श्रद्धा रखते है और दूसरा कोई व्यक्ती भी उस पर श्रद्धा रखता है तो एक अपनत्व का रिश्ता निर्माण होता है ।
जहां प्रेम में व्यक्तीगत स्वार्थ है, वहां श्रद्धा में सामुहीक अपनापन है।
प्रेम शारिरिक सुख है, श्रद्धा आत्मीक सुख है।
प्रेम एकांत चाहता है और श्रद्धा सामुहिक साथ ।
प्रेम को आंखें बंद कर महसूस किया जा सकता है और श्रद्धा खुली आंखों से व्यक्त होती है।
प्रेम स्वप्न है और श्रद्धा हकीकत।
प्रेम का कारण अनिर्दिष्ट और अज्ञात होता है और श्रद्धा का कारण निर्दिष्ट और ज्ञात होता है।
प्रेम सौंदर्य से अभिभूत है और श्रद्धा व्यक्ति के विशेष गुणों पर आधारित है।
प्रेम को सीमाओं में बांधा जा सकता है परंतु श्रद्धा अंनत – अर्श है जिसे बांधा नही जा सकता है।
प्रेम श्रृंगार रस का प्रेरक है और श्रद्धा वात्सल्य रस से परिपूर्ण है।
अतः दोनो शब्द समानार्थी लगते है परंतु भावार्थ एकदम विपरित है !!
अकेलापन और एकान्त
अकेलापन भयानक शाप है
और एकान्त बडा़ वरदान है ।
दोनो शब्द लगते समानार्थी है
परंतु अन्तर जमीन – आसमान का है।
अकेलेपन में मानसिक दुख है
एकान्त में मानसिक सुख है।
अकेलेपन में डर है, तो एकान्त में निडरता है।
अकेलापन उदासी का घोतक है और एकांत आंनद प्राप्ति का मार्ग।
अकेलापन में अभिलाषा है और एकांत में आत्म साक्षात्कार ।
अकेलापन नकारात्मक उर्जा का एहसास है और एकांत में व्यक्ति स्वयं की संगत कर सकारात्मक उर्जा प्राप्त कर आनंदित होता है।
अकेलापन विकृति है और एकांत समृद्धि।
अकेलापन व्यक्ति में झूजारू वृत्ति को पैदा कर झूजना सिखाता है और एकांत में व्यक्ति शांत होकर जीवन समायोजित करता है।
अकेलापन जीवन में बिना इजाजत आता है या थोप दिया जाता है। अकेलापन आत्मविश्वास को कमजोर करता है और अकेलेपन में हम हमेशा किसी का साथ तुरंत चाहते है।
एकांत का चयन हम स्वयं करते है। एकांत से अच्छी भावनायें प्रबलित होती है और एकांत में व्यक्ति सर्जनशिलता करता है।
जब भौतिक वस्तुओं में मन रमा रहे तो अकेलापन महसुस होता है और जब मन मानसिक स्थिरता को प्राप्त करे तो एकान्त के परमआनन्द की अनुभुती होती है।
यह जीवन अकेलेपन से एकान्त की और जाने वाली अंनत यात्रा है।
इस यात्रा के यात्री भी आप है, इसका मार्ग भी आप है और इस लक्ष्य को भी आपने ही प्राप्त करना है !!
गुरु बिन घोर अंधार
“जै सौ चंदा उगवे सूरज चढ़े हजार,ऐते चांदण होंदीया गुरु बिन घोर अंधार”!
……अर्थात गुरु बाणी कहती है की यदि सौ चांद उगने की रोशनी हो और एक हजार सूरज उगने पर जो प्रकाश हो तो वो सब बेकार है,क्योंकि गुरु के ज्ञान के बिना हमेशा जीवन में घोर अंधेरा रहने वाला है। गुरु शब्द का अर्थ होता है जो अंधेरे से उजाले की ओर ले जाये, जो अज्ञानता को दूर करें, जो मानवीय मूल्यों का जीवन में प्रकाश कर अनुशासित जीवन जीने की कला सिखाये। उदाहरण के रूप में एक प्रसंग है:–
एक दिव्यांग ८ से ९ साल का लड़का वृद्ध गुरु के सामने खड़ा होकर उनसे दीक्षा की याचना करता है। गुरुजी अपनी अनुभवी कटाक्ष नजरों से शिष्य को ऊपर से नीचे की और देखकर निरीक्षण करते हैं। इस कच्ची उम्र के शिष्य का दाहिना हाथ एक दुर्घटना में कट गया था। एक हाथ से दिव्यांग शिष्य अपने गुरु से शिक्षा ग्रहण कर स्वावलंबी होना चाहता था।
गुरुजी ने शिष्य से जानना चाहा की तुम मुझसे क्या चाहते हो? शिष्य ने उत्तर दिया कि गुरु जी मैं आपसे जूडो – कराटे की विद्या आत्मसात कर स्वावलंबी होना चाहता हूं।
गुरुजी विचार मग्न होकर सोचने लगे कि इसके शरीर का दाहिना हाथ ही नहीं है और यह जूडो – कराटे जैसी कठिन विद्या को सीखने के लिए उत्सुक है।
गुरु जी ने शिष्य से पूछा कि तुम यहां विद्या क्यों सीखना चाहते हो?
शिष्य ने उत्तर दिया कि गुरु जी मेरे विद्यालय में मुझे सभी लुला कहकर चिढ़ाते हैं, तंग करते हैं। बच्चे तो बच्चे पर बड़े और समझदार लोग भी मेरा मजाक उड़ाते हैं जिसके कारण में हीन भावना से ग्रसित हूं। मुझे स्वावलंबी होकर अपनी हिम्मत पर अपना जीवन जीना है। मैं किसी की दया का पात्र नहीं बनना चाहता हूं, दिव्यांग हूं तो क्या हुआ? मुझे मेरी रक्षा स्वयं करनी आना चाहिये।
गुरुजी ने शिष्य से कहा की मैं अब पहले वाला गुरु नहीं रहा। मैं वृद्ध हो चुका हूं हमेशा प्रभु भक्ति और आत्मचिंतन में मग्न रहता हूं फिर भी तुम्हें मेरे पास किसने भेजा है?
दिव्यांग शिष्य ने कहा की गुरु जी मैं शिष्य बनने के लिये बहुत लोगों के पास गया परंतु किसी ने भी मेरी मदद नहीं की परंतु एक अंहकारी शिक्षक ने कहा की, आप ही वो गुरु हैं जो मुझे सिखा सकते हैं क्योंकि आपके पास दूसरा कोई शिष्य नहीं है और आप वृद्ध भी हो चुके हैं।
गुरुजी तत्काल समझ गये कि वो अंहकारी शिक्षक कौन है? ऐसे अहंकारी, लालची और असामाजिक प्रवृत्ति के लोगों के कारण ही इस विद्या का दुरुपयोग होने लगा है।
गुरुजी दिव्यांग शिष्य को सिखाने के लिये तैयार हो गये और कहा की आज से तुम मेरे शिष्य हो, मैं तुम्हें पहली और आखरी बार बता रहा हूं की अनुशासित रहकर अपने गुरु पर पूर्ण विश्वास रखना होगा। मैं तुम्हें अपने तौर – तरीके से इस विद्या को सिखाऊंगा क्योंकि यह विद्या प्राणघातक है। छोटी सी गलती से भी सामने वाले की जान जा सकती है और इस विद्या का प्रयोग केवल आत्मरक्षा के लिए करना होगा। हमेशा अनुशासन में रहकर विनम्र रहना होगा। समझ गये क्या?
दिव्यांग शिष्य ने गुरुजी को साष्टांग दंडवत प्रणाम कर कहा की मैं हमेशा आपकी आज्ञा का पालन करूंगा और इस प्रकार गुरुजी ने अपने इकलौते शिष्य की शिक्षा प्रारंभ कर दी।
गुरुजी उस शिष्य से एक खतरनाक डांव का रोज अभ्यास करवाते थे और अगले 6 महीने तक गुरुजी उससे यह खतरनाक डांव का ही रोज अभ्यास करवाते रहे। एक दिन दिव्यांग शिष्य ने बड़ी विनम्रता से गुरु जी से पूछा कि गुरु जी आप मुझे केवल और केवल यही डांव में मुझे अभ्यास करवाये जा रहे हो, क्या इस विद्या में और कोई दूसरा डांव नहीं है? गुरु जी ने कहा इस विद्या में अनेकों – असंख्य डांव हैं परंतु तुम्हें केवल यही डांव सीखने की जरूरत है और शिष्य अपने गुरु पर पूरा भरोसा कर लगातार सीखता रहा।
कुछ समय पश्चात उस शहर में एक जूडो़ की टूर्नामेंट का आयोजन हुआ। गुरुजी ने अपने एकमात्र शिष्य को टूर्नामेंट में भाग लेने के लिए भेज दिया। टूर्नामेंट के पहले दो मुकाबले शिष्य ने बहुत ही सरलता से जीत लिये। उपस्थित दर्शक हैरान थे की दाहिना हाथ से दिव्यांग लड़का किस तरह से इस कठिन टूर्नामेंट में विजय हासिल कर रहा है। तीसरा मुकाबला कठिन था परंतु दिव्यांग शिष्य ने चपलता से बड़ी ही सफाई से वेगवान प्रहार कर इस मुकाबले को भी जीत लिया था।
अब दिव्यांग शिष्य का आत्मविश्वास बहुत बडा़ हुआ था। उसके मन में यह भावना प्रबल हो चुकी थी की हां मैं भी जीत सकता हूं और देखते ही देखते दिव्यांग शिष्य टूर्नामेंट के अंतिम मुकाबले में पहुंच गया।
इस अंतिम मुकाबले में जिस अंहकारी शिक्षक ने दिव्यांग शिष्य को गुरुजी के पास भेजा था। उसी अंहकारी शिक्षक का शिष्य ही इस अंतिम मुकाबले में प्रतिस्पर्धी था। दिव्यांग शिष्य का प्रतिस्पर्धी बहुत बलवान, हष्ट – पुष्ट और अनुभवी था। इसे देखते हुए मानवता के दृष्टिकोण से मुक़ाबले के पंचों ने निर्णय किया की यदि दोनों ही प्रतिस्पर्धी मान जाते हैं तो दोनों ही प्रतिस्पर्धीयों को संयुक्त रूप से विजेता घोषित किया जाये क्योंकि यहां मुकाबला बराबरी का नहीं था।
परंतु अहंकारी शिक्षक के शिष्य ने अंहकार में आकर बदतमीजी से कहा की मैं इस दिव्यांग प्रतिस्पर्धी से ताकतवर हूं और मैं इसे आसानी से मात दे सकता हूं। इसलिये मुझे ही विजेता घोषित किया जाये। दिव्यांग शिष्य की और पंचों ने देखकर कहा कि तुम्हें इसकी बात मान लेनी चाहिये। इसी में तुम्हारी भलाई है, दिव्यांग शिष्य ने बड़ी दृढ़ता से कहा की मैंने यह विद्या बहुत ही प्रमाणिकता से अपने गुरु जी से सीखी है और इस अंतिम मुकाबले में मेरी जीत निश्चित है। दिव्यांग शिष्य के इस शूरवीर अंदाज का उपस्थित दर्शकों ने जोरदार ताली बजाकर स्वागत किया। मुकाबले में उपस्थित इस कला के जानकार लोगों के कपाल पर स्पीड ब्रेकर उभर आये थे कारण यहां आत्मघाती निर्णय ‘आ बैल मुझे मार’ वाला था। पहले ही दिव्यांग शिष्य एक हाथ नहीं और ऊपर से जानलेवा मुकाबला!
मुकाबला प्रारंभ हुआ और सभी दर्शक आश्चर्यचकित हो गये। जब दिव्यांग शिष्य ने एक अनमोल क्षण में ऐसी जानलेवा किक थ्रो की जिससे प्रतिस्पर्धी अपना बचाव ना कर पाया परफेक्ट टाइमिंग, परफेक्ट थ्रो, परफेक्ट लगाया हुआ फोर्स और प्रतिस्पर्धी खिलाड़ी अखाड़े की रिंग से बाहर जा गिरा। बेहतरीन!…..और केवल बेहतरीन! उस एक पल के लिये दर्शक दीर्घा में सभी दर्शक अचंभित होकर खड़े हो गये और तालियों की जोरदार आवाज से दिव्यांग शिष्य की हौंसला – अफजाई की दिव्यांग शिष्य को विजेता घोषित किया गया।
गुरु घर वापस पहुंचकर दिव्यांग शिष्य ने अपने बायें हाथ से टूर्नामेंट में जीती हुई ट्रॉफी को गुरु चरणों में रखकर, नमन कर अपनी भावनाओं को व्यक्त किया।
दिव्यांग शिष्य ने गुरुजी से विनम्रता पूर्वक पूछा की गुरु जी आपने तो मुझे केवल एक ही डांव सिखाया था, फिर मैं यह टूर्नामेंट कैसे जीत गया? गुरुजी ने उत्तर दिया की उसके दो कारण हैं। एक तो गंभीरता पूर्वक किया गया अभ्यास और इस डांव को सीखने के लिये किसी भी प्रकार से ना उबते हुये लगातार अभ्यास कर इस डांव को तुम ने सिद्ध किया। आत्मसात किये हुये इस डांव में तुम से कोई गलती हो ही नहीं सकती थी।
…….और दूसरा कारण?
गुरुजी ने उत्तर दिया की प्रत्येक डांव का एक प्रतिडांव होता है उसी प्रकार से इस डांव का भी एक प्रतिडांव है और ऐसा नहीं है कि यह प्रतिडांव तुम्हारे प्रतिस्पर्धी को ज्ञात नहीं था परंतु उस प्रतिडांव को लगाने के लिये दाहिने हाथ को पकड़ कर दांव लगाना पड़ता है और तुम्हारा दाहिना हाथ ना होने की वजह से तुम्हारा प्रतिस्पर्धी तुम्हारा कुछ भी बिगाड़ नहीं पाया।
‘इसलिए जो हमारी कमजोरी है उसे ही हमें अपनी शक्ति बना कर दुनिया में जो विजय होने की कला सिखाता है वो ही सच्चा गुरु है|
हिंदी फिल्मी गीत कोश का भीष्म पितामाह: हमराज
हिंदी भाषा और हिंदी फिल्मों ने पूरे देश को एक सूत्र में बांधने का अद्भुत कार्य किया है। देश की एकता और अखंडता की मिसाल हिंदी फिल्मों के गीत – संगीत का इस में महत्वपूर्ण योगदान है। विश्व की सिने सृष्टि में हिंदी फिल्मों के गाने का एक अपना अलग ही अविष्कार है। हिंदी फिल्मों के प्रारंभ होने से पूर्व भारतीय लोक कलाओं में गाना – बजाना, गीत – संगीत, नाटक, राम लीलायें, नृत्य पर आधारित परंपराएं, बोलियां, भांगड़ा आदि मनोरंजन के साधन प्राचीन काल से प्रचलित हैं और इन सभी परंपराओं का भारतीय फिल्मों में खुलकर प्रयोग किया गया।
हिंदी फिल्मों का अविभाज्य भाग उसका गीत और मधुर संगीत है। फिल्मों को सुपर हिट बनाने के लिए मानों निर्माता – निर्देशकों को एक सुपर हिट संजीवनी मंत्र मिल गया। कथा – पटकथा, अभिनय और उत्तम दिग्दर्शन के साथ गीतकार और संगीतकारों की एक पूरी टीम ईजाद हो गई और इस पूरी टीम ने हिंदी फिल्मों को नये – नये आयाम दिये हैं।
सीने सृष्टि के पर्दे के बाहर विशेषकर रेडियो और आर्केस्ट्रा शो के माध्यम से श्रोताओं को सुनाई देने वाला मधुर गीत – संगीत अपने आप में एक समृद्ध विरासत है। हिंदी फिल्मों में बिना किसी वाद्य यंत्रों की सहायता से प्रारंभ हिंदी फिल्मों के गाने विश्व सीने सृष्टि के लिये आश्चर्य और कौतूहल का विषय हैं । प्रारंभ में इस पर भद्दी टिप्पणी भी की गई परंतु इन सब को नजर अंदाज कर भारतीय संस्कृति की इस परछाई ने हिंदी फिल्मों में एकछत्र अपनी अमिट मोहर लगाई है।
मानवीय संवेदनाओं को अपने गीत – संगीत से प्रदर्शित करने वाले यह फिल्मी गाने मानो हिंदी फिल्मों का ट्रेडमार्क बन गये। हिंदी फिल्मों के गाने फिल्मों की अंतरात्मा बन कर पर्दे पर प्रदर्शित हुई। बिना फ़िल्मी गानों के हिंदी फिल्म बनाना मानो प्रकृति के नियमों के विरुद्ध कोई कार्य करने के समान था। पुरानी फिल्में कानून, यादें और इत्तेफाक कुछ ऐसी ही फिल्में हैं जिनका प्रचार इस रूप में किया गया था की इन फिल्मों में गाने नहीं है। इन फिल्मी गानों ने हम श्रोताओं का बहुत उच्च कोटि का मनोरंजन किया है। हम श्रोताओं ने भी दिल से प्रेम कर गीत – संगीत की इन रचनाओं को नमन किया है। मानवी जीवन को वैभवशाली, समृद्धशाली, भावूक ,भक्ति रस, वीर रस और देश भक्ति रस से परिपूर्ण करने में इन हिंदी फिल्मी गानों का अभूतपूर्व योगदान है।
प्रसंग १९६६-६७ का है। कानपुर निवासी ‘हम – तुम’ जैसा मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मा तरुणाई की दहलीज पर खड़ा एक सामान्य लड़का जिसका नाम सरदार हर मन्दिर सिंह सचदेव उर्फ ‘हमराज’ है और इस तरुण को हिंदी फिल्मों के गाने सुनने का जुनून था;
इन फिल्मी गानों को सुनते – सुनते हमराज को एक शौक उपजा की प्रत्येक गाने की जानकारी जैसे की फिल्म का नाम, गीतकार, संगीतकार और कलाकारों के नाम एक डायरी में क्रमबद्ध किये जायें। उस समय में गानों को सुनना और उनके बारे में जानकारी संग्रहित करने का एक ही माध्यम था रेडियो!
…… और मजेदार बात यह है की रेडियो भी पड़ोसी के घरों में बजता था। उस समय रेडियो सिलोन पर ‘जवां गीत’ और ‘बिनाका गीतमाला’ प्रसिद्धि की चरम सीमा पर थे और प्रक्षेपण में जब विघ्न पड़ता और खर – खर की आवाज आती या अन्य खराबी के कारण इस जानकारी में विघ्न पड़ जाता था, तब गानों की जानकारी अन्य माध्यम से लेना संभव नहीं था। ‘हमराज’ ने एक बार एक गाना सुना ‘गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा’ और वो गाना कौन सी फिल्म का है? आवाज में खराबी होने के कारण ‘हमराज’ सुन नहीं सका। मन में जिज्ञासा इतनी थी की किसी भी तरह वो इस फिल्म का नाम जानना चाहता था परंतु इस फिल्म का नाम जानने के लिए सारे प्रयत्न विफल हो चुके थे मन में बेचैनी थी उनके एक दोस्त ने कहा की मेरी बहन को शायद इस फिल्म का नाम पता हो क्योंकि वो यह गाना हमेशा गुनगुनाती रहती थी परंतु अब उसकी शादी हो चुकी है और वो दिल्ली में रहती है। ‘हमराज’ पूरी रात रेलवे से सफर कर दिल्ली उस लड़की के ससुराल पहुंचा और अपने मित्र का संदर्भ देकर उस लड़की से फिल्म का नाम जानना चाहा परंतु उस लड़की ने उत्तर दिया कि यह गाना मुझे भी बहुत पसंद है, मैं हमेशा ऐसे गुनगुनाती भी हूं परंतु मैं भी इस फिल्म का नाम नहीं जानती हूं। पुन: कानपुर पहुंच कर इस फिल्मी गानों के प्रेमी ‘हमराज’ को काफी निराशा हुई और मन में विचार आया कि मेरे जैसे जाने कितने फिल्मी गानों के प्रेमी हैं जो इन जानकारियों से वंचित हैं और इस उन्मादी ‘हमराज’ ने इन सभी जानकारियों को संग्रहित करने का बीड़ा उठाया और एक नये इतिहास का उदय हुआ। कार्य बहुत कठिन था परंतु असंभव नहीं ।
इस कठिन कार्य को अंजाम देने के लिये हिंदी फिल्मों के गानों की सूची तैयार की गई और अधिक जानकारी प्राप्त करने हेतु लगातार यात्राएं प्रारंभ कर दी गई। दिन – रात भूखे प्यासे दर – बदर भटक- भटक कर भारत के प्रत्येक ऑल इंडिया रेडियो के कार्यालय मैं जाकर कागजी कार्यवाही पूर्ण कर जानकारी संग्रहक की गई। यह अत्यंत कठिन कार्य था, संबंधित अधिकारियों की मिन्नते कर पुराने गानों के रिकॉर्डों से धूल मिट्टी साफ कर और अन्य लिखित जानकारियों का संग्रहण कर जानकारी हासिल की गई। साथ ही कुछ पुराने संगीतकारों से मुलाकात की तो पता चला की वो स्वयं के रचित गानों को ही भूल गये थे। विशेष रुप से फिरोज रंगूनवाला निर्मित ‘भारतीय चलचित्र का इतिहास’ आपकी इस कठिन साधना का आधार बना।
इंदौर शहर के एक प्रसिद्ध संगीत प्रेमी पान वाले से सन् १९७४ में हिंदी फिल्मों की एक १५ पैसों की बुकलेट को एक रुपये में खरीदकर इन अहम जानकारियों को इकट्ठा किया गया। जहां – जहां भी इस तरुण ‘हमराज’ को उम्मीद की किरण दिखती थी इस फिल्मी गानों के प्रेमी ‘हमराज’ ने निरंतर पूरे भारतवर्ष की यात्राएं की इस जनून की कोई हद्द नहीं थी। हिंदी फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ में लेखन कार्य करते हुये पाठकों से सीधा संवाद कर इन जानकारियों को संकलित किया गया। तारीफे काबिल बात यह है कि इतना बड़ा संग्रहण का कार्य इस ‘हमराज’ ने अपनी स्टेट बैंक की नौकरी को संभाल कर किया। अपने कार्यालय से छुट्टी लेकर स्वयं के पैसे को खर्च कर संबंधित सभी महत्वपूर्ण जानकारी १९७० के दशक में संग्रहित करना कितना कठिन और मेहनत का काम था इसका केवल अंदाजा लगाया जा सकता है परंतु फिल्मी गानों का जुनून और ना उबते हुए लगातार किया हुआ संघर्ष के परिणाम के रूप में सरदार हर मन्दिर सिंह सचदेव उर्फ ‘हमराज’ का पहला फिल्मी गानों का कोश सन् १९८० में प्रकाशित हुआ।
इस कोश में १९५१ से १९६० तक के हिंदी फिल्मों के गानों को अभूतपूर्व रूप से संग्रहित किया गया था। इस फिल्मी गानों के कोश पर दृष्टिक्षेप करें तो ध्यान में आयेगा की इसे संग्रहित करने के लिए अपार परिश्रम और मेहनत की गई है। इस कोश में सन् १९५१ से सन् १९६० तक के सभी फिल्मी गानों की जानकारी फिल्मों का नाम, कब प्रदर्शित हुई?, निर्माता, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार और फिल्म में काम करने वाले सभी कलाकारों के नाम और प्रत्येक गाने के शब्द और उसके आगे गायक का नाम एवम रेकार्ड नंबर इत्यादि विस्तृत जानकारी दी गई है। ‘हमराज’ ने इस कोश को सन् १९८० में प्रकाशित किया एवं तब तक ‘हमराज’ ने अपने विवाह को स्थगित कर दिया था।
‘हमराज़’ की जीद्द, कष्ट करने की अपार क्षमता निरंतर फिल्मी गानों की जानकारी को संग्रहित करना अपने आप में अद्भुत कार्य है| ६०० पन्ने के इस प्रथम खंड को प्रकाशित कर लगातार भागदौड़ कर विस्तृत और सभी जानकारियों को संग्रहित कर पांच और हिंदी फिल्मों के गानों के कोश को प्रकाशित किया।
सन् १९३१ से सन् १९८५ तक प्रदर्शित हुये ६५०० हिंदी फिल्मों के लगभग ४९००० गानों की विस्तृत महत्वपूर्ण जानकारियों को संग्रहित कर इस कोश में प्रकाशित किया गया।
हिंदी फिल्मी गानों का यहां उन्मादी संग्राहक अपने उम्र के ७० वर्ष की पड़ाव पर पहुंच चुका है और उसी तन्मयता से फिल्मों की जानकारी संग्रहित करने में मग्न है साथ ही ‘हमराज’ पिछले ५० वर्षों से ‘लिस्नर्स बुलेटिन’ नामक चार पन्नों का मासिक अखबार भी प्रकाशित करते हैं। इस अखबार में पुराने फिल्मी गाने और उनसे संबंधित सभी कलाकारों की विस्तृत जानकारी दी जाती है।
यदि हम हिंदी फिल्मों को दिल से प्यार करते हैं तो एक बार जरूर इन हिंदी फिल्मी कोशो का अध्ययन करना चाहिये। ताकि हम इस हमराज के जुनून के हद्द तक की मेहनत को समझ सके। निश्चित ही या कोश हिंदी फिल्मों की सिने सृष्टि के अभ्यासकों के लिए महत्वपूर्ण है साथ ही गीत – संगीत कार्यक्रम के निवेदक, लेखक, रेडियो जॉकी और अन्य संगीत प्रेमियों के लिए भी उपयुक्त है।
‘हमराज’ के कोशों के प्रकाशन के पश्चात इस पर आधारित अनेक कोशों का निर्माण हुआ परंतु इन सभी कोशों की गंगोत्री निर्विवाद रूप से ‘हमराज’ द्वारा प्रकाशित कोश ही हैं। फिल्म इंडस्ट्री, सरकार और म्यूजिक मार्केट मिलकर जिस कार्य को अंजाम नहीं दे पाये उसे एक अकेले इंसान ने अपने उन्माद, बुद्धिमता और कर्तव्यदक्षता से कर दिखाया। इस संग्रह को हम श्रोताओं का दिल से सलाम है। एक छोटी सी घटना से प्रेरित होकर हिमालय जैसे उंचे कार्य को अंजाम देकर सरदार हर मन्दिर सिंह सचदेव उर्फ ‘हमराज’ को समर्पित है निम्नलिखित चार पंक्तियां:–
कौन कहता है कि आसमान में सुराख नही हो सकता है,
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो…!!
साभार:– इस लेख में मूल मराठी लेखक पराग खोत के लेख (ललकार स्मृति संगीत वाट्स एप ग्रुप) से जानकारियां संग्रहित की गई हैं।
नोट:– लेखक ने स्वयं “हमराज” से मोबाइल फोन पर बात कर इस लेख की जानकारी दी आदरणीय ‘हमराज’ ने लेखक और ललकार स्मृति संगीत ग्रुप को शुभकामनाएं प्रेषित कर जानकारी दी की जल्द ही इन हिंदी फिल्म गीतों के कोश को डिजिटल कर आम श्रोताओं के सम्मुख पेश किया जायेगा।


रब्बा खैर करी
सच में मन अब उबने लगा है…….!
रोज – रोज देर से उठने का !
दिन – रात एक ही घर के कपड़े पहन कर रखने का !
रोज दोपहर में निश्चिंत होकर सोने का !
गद्देदार सोफे पर दिन – भर बैठे रहने का !
रसोई में तैयार होने वाली नई – नई रेसिपीज का !
सुबह शाम की वीडियो कॉल का !
फेसबुक की पोस्ट का !
व्हाट्स एप विश्वविद्यालय में चर्चा का !
मन में उपजे रोज नये – नये टास्क का !
रोज – रोज एक जैसे चेहरे देखने का !
देर रात तक जागने का !
लगातार मोबाइल को चार्ज रखने का !
नेटफ्लिक्स और प्राइम के लगातार एपिसोड देखने का !
कोरोना संक्रमण के रोज – रोज बदलते आंकड़े देखकर
उस पर चर्चा करने का !
कोरोना वायरस वैक्सीन की प्रगति कहां तक हुई देखने का !
घर पर बना हुआ एक जैसा खाना खाने का !
टीवी पर एक जैसी खबर देखने का !
अचानक बिजली चले जाने का!
इसलिये …….
है ईश्वर, है प्रभु, परमपिता – परमेश्वर !
अब हमारी भी सुन लो !
अब करो एक नये युग की शुरुआत !
अब बस बहुत हो गया !
इस दुनिया को पहले के जैसा पूर्व पद पर आने दो !
अब जाना चाहते हैं इंसानों की भीड़ में !
देखना चाहते हैं यातायात को जाम होता !
सुनना चाहते हैं कर्कश हार्न की आवाज !
परेशान होना चाहते हैं प्रदूषण से !
परेशान होना चाहते हैं कॉल सेंटरों के आने वाले कॉल से !
और अब ……..
शुरू होने दो रोड़ के सिग्नल !
अखबार वाले और दूध वालों की सुबह !
मॉर्निंग वॉक और व्यायाम !
मंदिरों में बजने वाले घंटों की आवाज !
मस्जिदों की अजान !
काम पर जाने की भागदौड़ !
आसमान में विमानों की कर्कश आवाज !
रेल की पटरियों की खड़खड़ाहट !
ऑटो रिक्शा पर मनचाहे गीत!
विद्यालयों की कक्षायें !
यंत्रों की आवाज !
उद्योग व्यवसाय में तेजी !
चलने दो अर्थव्यवस्था की गाड़ी !
देखना है होटल – रेस्टोरेंट की भीड़ – भाड़ !
गरमा – गरम वडा पाव और चाय !
गाड़ी पार्किंग के लिए जगह बनाना !
नाटक, आर्केस्ट्रा और सिनेमा के शो !
रसवंती गृह के घुंघरू की आवाज !
सार्वजनिक स्थानों पर गप्पा गोष्टी !
मंगल कार्यालय के कार्यक्रम की रेलमपेल !
कवि सम्मेलन,गाने और कव्वालियों की महफिल !
जिम में जुम्बां का व्यायाम !
टीवी पर एक के बाद एक सीरियल !
लेडीज किट्टीयों की चहल – पहल !
माल की मल्टी विंडो शॉपिंग !
देर रात को पान के बीड़ों का आनंद लेना !
देर रात तक खुलने वाले पाव भाजी और अंडा भूर्जी के स्टॉल !
ठंडी मस्तानी कुल्फी और आइसक्रीम !
कल्याण की पानी पुरी और भेल !
और अब …….
दिन भर काम करके थकने के पश्चात आने दो सुकून की नींद एवं मीठे स्वप्न !
और अब ……..
जरूरत है इस संक्रमण से लड़ने वाले कोरोना वारियर्स को भी आराम की, उंहे भी मिलने दे परिवार का सुख !
हे ईश्वर, हे प्रभु परमपिता परमात्मा हम पर रहम कर। हमारे गुनाहों को माफ कर हमें बख्श दो !
‘हम चले नेक रास्तों पर, हम से भूलकर भी कोई भूल हो ना’|
‘रब्बा खैर करी’|
अच्छे लोग
धरती फाटे मेघ मिले,कपडा़ फाटे डोर !
तन फाटे को औषधि, मन फाटे को ठौर !!
अर्थात्…..धरती फटे तो मेघ के बरसने से धरती की दरारे बंद हो जाती है। वस्त्र फटे तो धागे की सिलाई से जुड़ जाता है। चोट लगे तो औषधियों से ठीक हो जाती है परंतु यदि मन फटे तो कोई भी औषधि, कोई भी उपाय काम नही करता है। इसलिये हमारी कोशिश होनी चाहिये की अपनी बाणी से किसी को ठेस ना पहुंचाये। भरे हुये दूध के ग्लास में और दूध नही डा़ला जा सकता है परंतु यदि शक्कर डाले तो वो अपनी जगह बना लेती है और अपनी उपस्थिति का एहसास भी करवाती है। ठीक उसी प्रकार ‘अच्छे लोग’ हर किसी के दिल में अपनी जगह बनाकर हमेश अपनी उपस्थिति का एहसास करवाते है।
प्रत्येक व्यक्ती के सुख का उपभोग अपने – अपने हिस्से के अनुसार लिखा होता है। किसी को मुठ्ठी भर के मिलता है तो किसी को गगन में भी ना समाये इतना।
परंतु उस सुख से मिलने वाले आनंद को जिसने महसुस किया वो ही जिन्दगी जीने की कला जानता है।
‘दुखों के समुद्र में सुख की लहर निश्चीत होती है’ पर थोडा़ इन्तजार करना पड़ता है।
हमें हमेशा प्रयत्नशील होना चाहिये की ‘अच्छे लोगों’ की एक मजबुत श्रृंखला तैयार हो ‘अच्छे लोग’ मिले या ना मिले पर उनके विचार हमेशा मिलते रहेना चाहिये।
मेरे साथ जुडे़ हुये ‘अच्छे लोग’ ही मेरी सम्पत्ती है, दुनिया कहती है जीने के लिए पैसा चाहिये। मेरे विचार से पैसों की जरूरत केवल आर्थीक व्यवहार के लिये होती है। जीने के लिए चाहिये अच्छे प्यारे और प्रेम करने वाले लोग।
बिलकुल आपकी तरहा|
हमारी राष्ट्रीय अस्मिता
वैश्वीक महामारी कोरोना संक्रमण के इस कठिन समय में पुरे देश के बुद्धिजीवी, हमारे राजनितिज्ञ, कुटनितिज्ञों और शिक्षण महर्षीयों को विचार करना करना होगा की लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चलने वाले इस देश को क्या आम नागरिक चलाता है? नागरिकों के द्वारा चुने गये इन नेताओं के हाथ में हमारे देश का भविष्य सुरक्षित है क्या? इस लोकतंत्र की नींव हमारे नागरिक है। इस देश को नेताओं से ज्यादा सच्चे, अच्छे और इमानदार नागरिकों की जरूरत है। यदि हमारे नागरिक उत्तम, चरित्रवान होगें तो ही हम समृद्धशाली भारत का निर्माण कर सकते है। इस देश के नागरिकों का सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक स्तर किस पतन के गर्त में जा रहा है? इसकी हम कल्पना भी नही कर सकते है। यदि हमें किसी देश की प्रगति का मुल्याकंन करना हो तो उसके नागरिकों का सामाजिक स्तर कैसा है? यानिकी पहले नागरिकों का जीवन स्तर क्या था? और आज क्या है? हमारे देश में लगातार नागरिकों का जीवन स्तर गिरता जा रहा है। यह एक राष्ट्रीय चिंता का विषय होना चाहिये।
रेल्वे की बोगी के प्रसाधन में टामलोट को चैन से बांधने का आयड़िया जिस किसी भी अधिकारी की कल्पकता है उसे रेल्वे बोर्ड का चेयरमैन बना देना चाहिये। इसी प्रकार बैंक, कार्यालयों में बाल पेन और स्टेपलर्स को बांधकर रखना क्या दर्शाता है? क्या यह भारतीय नागरिकों के आकलन का श्रेष्ठ दर्जा है?
अत्यंत आधुनिक सर्व सुविधा संपन्न वेगवान रेलवे ‘तेजस’ की जिस अधिकारी ने कल्पना की उसे निलंबित कर देना चाहिये क्योंकि उसने भारतीय नागरिकों का आकलन ठीक से नही किया। हमारा देश दो भागों में बंट चुका है एक इंडिया शाईनिंग है, जो हर छोटी – बड़ी बात पर सोशल मिडिया में चर्चा करता है। दुसरा वो गरीब और अनपढ़ तबका, जिसे सिर्फ अपने पेट भरने से मतलब है। इस तबके के लिये आई. आई. टी., आई.आई.एम., एम्स, ओद्मौगिकरण, शिक्षा, हायवे, बिजली, सड़क और पानी सब बेकार का विषय है। इन्हें कोई फर्क नही पड़ता कि देश का प्रधानमंत्री कौन है?
दूसरी और एक नागरिकों का तबका ऐसा भी है जो पढ़ें लिखे है, समझदार है परंतु अपनी आजादी का फायदा व्यक्तिगत स्वार्थ और टिंगल मस्ती में गुजारना ही भारतीय नागरिक का प्रथम कर्तव्य मानते है। जैसे की एक ज्येष्ठ नागरिक प्राणी संग्रहालय के पिंजरे में बंद बंदर के ऊपर खुजली का पावडर डाल कर और उसकी विडियो बनाकर फेसबुक पर डालने में ही अपनी मर्दानगी समझता है या फिर कर्कश आवाज में गाना बजाना, रोड पर थुकना, खुले में शौच करना, ऐतिहासिक इमारतों पर अपना नाम कुरेदना, सरकारी संपत्ति का नुकसान करना, चोरी करना, सरकारी योजनाओं में पैसों की हेराफेरी करना, धार्मिक / शैक्षणिक ट्रस्टों पर कब्जा कर सालोंसाल सफेद कालर के रूप में पद का दुरूपयोग कर लुटा – लुट करना,व्यक्तिगत स्वार्थ और अपना पावर बना रहे इसके खिलाफ जो आवाज उठाये उनका सामाजिक बहिष्कार करना। ट्रस्ट के पैसों के दम पर स्वयं की वाह – वाही करवाना । ट्रस्ट का मतलब विश्वास होता है और ट्रस्टी का विश्वस्त ! ऐसे लोगों का समाज के प्रति,धर्म के प्रति, देश के प्रति उत्तरदायित्व है ! ना की सत्ता भोगने की कोई कुर्सी ! क्या यही इस देश के नागरिकों की पहचान है? क्यों नही हमारे आदर्श जे. आर. डी. टाटा, नारायण मुर्ति बनते है? क्यों हम ए. पी. जे. अब्दुल कलाम जैसे पहले भारतीय नागरिक को अपना आदर्श नही बनाते? इस देश को संतो की श्रेष्ठ परंपराओं का सहवास विरासत में मिला है। क्यों इतनी हाय है? इस हाय के लिये हमने अपने अंदर एक अपराधी प्रवृत्ति को जन्म दे दिया है। हमारा वर्तमान इतना शर्मनाक और लोभी प्रवृत्ति का है तो हम भुतकाल की बांते कर अपने आप को श्रैष्ठ समझकर समझाते रहते है।
७३ वर्षों में बहुत सरकारें बदली हो चुकी है। अब तो नागरिकों को ही बदलना पडे़गा और यदि नागरिक बदली नही होते तो क्या हमें सर्व गुण संपन्न नागरिक आयात करने होंगे? यदि हम ऐसा नही चाहते हो तो हमें अपने ही नागरिकों से प्रश्न करना चाहिये कि क्यों इन ७३ वर्षों में तुम आज भी दर्जाहीन नागरिक हो?
सरकार का क्या है? मतदान के द्वारा बदली जा सकती है नही बदले जा सकते तो हमारे देश के नागरिक! हमारे देश के नागरिकों का दर्जा लगातार पतन के गर्त में गिरता जा रहा है। ऐसे नागरिकों का क्या करोगे?
‘इस देश को नेता नही नागरिक चाहिये’ !!
सकारात्मक - सोच
एक बार एक प्रसिद्ध लेखक अपने अभ्यास कक्ष में बैठकर कुछ सोच रहा था और उसने अचानक अपनी कलम उठा कर कागज पर कुछ लिखना प्रारंभ किया।
लेखक ने कागज पर लिखा की पिछले वर्ष मेरी शल्य चिकित्सा (सर्जरी) हुई और मेरे पित्ताशय (गॉलब्लेडर) को निकाल दिया, जिस कारण मुझे बहुत समय तक बिस्तरे में रहकर आराम करना पड़ा।
…….और पिछले वर्ष ही में ६० वर्षों का हो गया और मैं पिछले ३० वर्षों से मेरा मनपसंद कार्य अर्थात् लेखन का कार्य एक प्रसिद्ध प्रकाशन कंपनी के साथ लगातार कर रहा हूं।
……. और पिछले ही वर्ष मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया था।
…… और पिछले ही वर्ष मेरा इकलौता बेटा अपनी मेडिकल की परीक्षा में फेल हो गया कारण उसकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी उसके पैरों पर कुछ हफ्तों का प्लास्टर चढ़ा था साथ ही दुर्घटना की वजह से कार का भी बड़ा नुकसान हुआ था।
…… और अंत में उसने लिखा……! है भगवान सच में पिछला वर्ष मेरे लिए बहुत ही मनहूस था।
कुछ समय पश्चात लेखक की पत्नी ने अभ्यास कक्ष में प्रवेश किया उसने देखा कि उसका पति बहुत उदास है और अपने सोचने – समझने की शक्ति खो चुका है वो लेखक के पीछे से आई और लेखक के द्वारा लिखे हुए कागज को चुपचाप उठा कर चली गई और उसने कुछ समय बाद उस कागज को बदलकर उसके हाथ से लिखा हुआ कागज रख दिया।
….और जब लेखक ने उस कागज को देखा तो उस पर उसके नाम के नीचे कुछ इस तरह से लिखा हुआ था:–
पिछले वर्ष मेरी शल्य चिकित्सा (सर्जरी) हुई और मेरे पित्ताशय (गालब्लेडर) को निकाल दिया था। इन्हीं पित्ताशय (गालब्लेडर) के कारण में कई वर्षों तक दर्द सहन करता रहा था।
…… और पिछले ही वर्ष में ६० वर्षों का हो गया। इन ६० वर्षों के जीवन में मेरी सेहत उत्तम रही मैं अब रिटायर्ड हो गया हूं। अब मैं शांति से और ज्यादा ध्यान लगाकर अपने लेखन कार्य को ज्यादा समय दे सकता हूं।
…… और पिछले ही वर्ष ९५ वर्ष की उम्र में मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया और पिताजी अंतिम समय तक अपनी दिनचर्या स्वयं ही करते थे, किसी के ऊपर उन्होंने अपने बुढ़ापे को बोझ नहीं बनने दिया और अंत समय तक स्वस्थ जीवन जीते रहे।
…… और पिछले ही वर्ष ईश्वर के आशीर्वाद से मेरे इकलौते बेटे को नया जीवन मिला, हां दुर्घटना में उसकी कार चकनाचूर हो गई परंतु मेरे बेटे को किसी भी प्रकार की कोई भी व्याधि नहीं हुई।
……और अंत में लेखक की पत्नी ने लिखा था……!
सच में पिछला वर्ष मेरे लिए प्रभु की कृपा लेकर आया था।
कागज पढ़कर लेखक अत्यंत खुश हुआ और सोचने लगा कि सच में पिछला वर्ष मेरे लिए जिंदगी का सबसे खूबसूरत और प्रेरणादायी वर्ष था।
अर्थात…..!
‘दैनिक जीवन में हमें वो खुशी नहीं मिलती जिससे हम परिपूर्ण हो सके, बल्कि परिपूर्ण जीवन हमें खुशी प्रदान करता है’ !!
टेंशन लेने का नही
जिंदगी को बेफिक्र होकर अपनी मस्ती में जीना चाहिये। जिंदगी में किसी का बुरा करने का नही और किसी के बारे में बुरे विचार रखने के नही। केवल स्वयं से अनुशासित और प्रमाणिक रहकर जिंदगी जीना चाहिये। फिर किसी भी वस्तु की कोई कमी नही पड़ती है और फर्क तो बिलकुल नही पड़ता है। किसी व्यक्ति विशेष की बुराई को तो बांटने से हमेशा दूर रहना चाहिये। दुनिया में लोगों की विविध देहबोली, चेहरे और आचार – विचार होते है। दुनिया बड़ी अजीब है सुबह आपसे मीठा – मीठा बात करेंगे और शाम को किसी ने आपकी चुगली खा ली तो मुंह फुला कर बैठ जाते है। कोई तो भी एक छोटी सी बात का बतंगड़ बनाकर नाराजी व्यक्त करते है। समय इतना खराब आ गया व्यक्ति तो ठीक है आजकल लोग भगवान से भी नाराज हो जाते है।
कोई कितना भी बुरा बोले बुराई करे या बुरे कर्म करे, हमने तो कोशिश करनी चाहिये कि उस व्यक्ति विशेष के लिये या और भी लोगों के लिये सौजन्यशिलता दिखाते हुये हम अच्छा बोले और अच्छा व्यवहार करे। हमारे अपने व्यक्तव्य में स्पष्टता होनी चाहिये और किसी के व्यक्तिगत जीवन में हमें झांकना भी नही चाहियें। हमें स्वयं के और लोगों के हितों की भी रक्षा करनी चाहिये। साथ ही चमचागिरी और चमचों से सावधान रहना चाहिये। जीवन के इन फलसफों को स्वीकार किया तो जीवन मस्त है।
‘जिंदगी अनुशासित ओर प्रमाणीक होकर मस्ती में जीने का नाम ही जीवन है’ …….. तो
ना टेंशन लेने का…..ना टेंशन देने का|
‘जैसे ठंडा पानी और गर्म इस्त्री (प्रेस) कपड़ों की सलवटों को मिटाता है। उसी तरहां शांत दिमाग और तनाव (टेंशन) रहित मन जीवन की चिंताओं को मिटाता है’।
इसलिये हमेशा मुस्कराते रहिये, यह सुंदर जीवन फिर से नही मिलने वाला है !!
समझ ही नहीं सका
दिन महीने साल और साल पर साल बीतते गये दिवाली, होली, जन्मदिन, गुरपुरब, तेजी से बीतते गये। भागदौड़ की जिंदगी में जीवन चक्र के अनुसार कब प्रौढ़ हो गये?
समझ ही नहीं सका !
स्वयं के कंधे पर जिन बच्चों को खिलाते रहे कब कंधे से कंधा मिलाकर साथ में खड़े हो गये?
समझ ही नहीं सका !
किराये के घर बदली कर – कर के जीवन गुजारा और कब स्वयं के बनाये हुए घर में रहने आ गये?
समझ ही नहीं सका !
पुरानी टूटी हुई साइकिल पर पैडल मार – मार कर दम फूल जाता था। कब फ्लाइट और कारों में घूमने लगे?
समझ ही नहीं सका !
बच्चों की जवाबदारी निभाते – निभाते हम स्वयं कब बच्चों की जवाबदारी बन गये?
समझ ही नहीं सका !
एक समय ऐसा था की दिन में घोड़े बेच कर सोते थे। कब रातों की नींद उड़ गई?
समझ ही नहीं सका !
जिन बच्चों को हम पढ़ाते थे। कब वह बच्चे हमें मोबाइल की भाषा पढ़ाने लगे?
समझ ही नहीं सका !
जिस कर्कश संगीत पर पैर थिरकते थे। कब वह संगीत से सर दुखने लगा?
समझ ही नहीं सका !
जिन लोगों के हक के लिए दिन – रात लड़ते थे। कब उन लोगों ने हमारे ही हक मार लिये?
समझ ही नहीं सका !
जिन काले बालों पर हमेशा गुमान करते थे। वो काले बाल कब सफेद हो गये?
समझ ही नहीं सका !
जिन बच्चों के लिए दिन – रात मेहनत कर चार पैसे जोड़ते थे। वो बच्चे कब दूर हो गये?
समझ ही नहीं सका !
जिस शरीर की तंदुरुस्ती पर घमंड होता था। कब वो शरीर बीमार हो गया?
समझ ही नहीं सका !
अभी भी समय है….. बची हुई जिंदगी को खूबसूरत ढंग से जीकर जीवन का आनंद लिया जाये; क्योंकि ‘यह जिंदगी ना मिलेगी दोबारा’ !!
बोहनी
लोहे के एक सरिये की किमत करीब ३५० रु. है। यदि उसी सरिये से घोडे़ की नाल बनाई जाये तो उसकी किमत करीब १००० रु.व उसी सरिये से सुये बनाये जाये तो किमत १०००० रु. और यदि उसी सरिये से घडी़यों की बैलेन्स स्प्रींग बनाई जाये तो किमत करीब १००००० रु. होगी।
आप क्या है? इस पर आपकी किमत नही लगाई जाती है बल्की आपने अपने आपको क्या बनाया है। इस पर आपकी किमत तय होती है। यह हमारे अपने उपर निर्भर करता है की हम अपने आपको कितना किमती बनाते है।
सोचो. . . . .!
यदि हमने एक दाना बोया और उसके बदले में प्रकृती ने भी एक ही दाना यदि हमको पुन: दिया होता तो? हमें यह सोचना पड़ता की अनाज को बोयें या खाये?
पर प्रभु ने मनुष्य के लिये अजीब व्यवस्था कर रखी है। यदि हम एक दाना बोते है तो सैकड़ौ – हजारों दाने हमें मिलते है। याद रखो प्रकृती का यही नियम हम पर भी लागु होता है। जीवन में हम क्या बोते है? दुख: राग, द्वेश और ईर्षा यदि हम बोयेंगे तो यही हजारों गुना बढ़ कर हमें मिलेगा।
और यदि हम आनन्द, प्रेम एवं इन्सानियत बोयेंगे तो प्रकृती से हमें यही सब हजारों गुना बड़ाकर मिलेगा; इसमें कोई शक नही है।
सावधान !!
बारिश के इस मौसम में बोहनी चल रही है, आपने क्या बौना है, यह निर्णय आपको स्वयं लेना होगा !!
आंतरिक सुरक्षा कवच
प्रत्येक व्यक्ति का एक अपना आंतरिक सुरक्षा कवच होता है। यह आंतरिक सुरक्षा कवच मित्रों का, रिश्तेदारों का, व्यवसायिक मित्रों का, कामगर वर्ग का,या सामाजिक – सांस्कृतिक – राजनैतिक क्षेत्र में कार्यरत विशेष लोगों का होता है। इस आंतरिक सुरक्षा कवच का हमें बिल्कुल भान नही होता है परंतु यह कवच हमारी असली पहचान और ताकत होती है। स्त्री, पुरुष, समूह, विशिष्ट सामाजिक – धार्मिक रचना से जुड़े लोग, एक जैसे आचार – विचार और शौक रखने वाले लोग या फिर एक विशिष्ट श्रद्धा और प्रेम से जुड़े लोग इस आंतरिक सुरक्षा कवच के मजबूत बंधन से जुड़े होते है। जब जीवन रूपी पगडंडी में चलते हुये आत्मविश्वास कम पड़ जाता है और हम डगमगाने लगते है तो इस विशेष आंतरिक सुरक्षा कवच से जुड़े लोग हमें सहारा देकर अपना सम्पूर्ण भरोसा देकर, हमें एक अभिन्न आत्मविश्वास प्रदान करते है।
ऐसे व्यक्ति तकदीर वाले होते है जिनका आंतरिक सुरक्षा कवच मजबूत होता है।
कारण …..!
जब आप अकेले पड़ जाते हो, या जब आप जख्मी होते हो, बीमार होते हो, या अचानक जब आप आर्थिक रुप से कमजोर होते हो, या जब बडी़ से बड़ी विपत्ति आपके सामने आ जाये, तो यह आंतरिक सुरक्षा कवच आपको आधार देकर उभार सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है की आंतरिक सुरक्षा कवच आपकी रिश्तेदारी, दोस्ती यारी, मान – मर्यादा और आपके वजूद के साथ ही आपकी सामाजिक प्रतिष्ठा को ऊंचाइयों का एक अलग आयाम प्रदान करता है।
परंतु आंतरिक सुरक्षा कवच ऐसे ही तैयार नही होता की रात को सेट किया और सुबह तैयार हो गया। ऐसा बिलकुल नही है। बचपन में आपके होश संभालने से लेकर जीवन के अंतिम पलों तक यह आपके आचार – विचार , व्यवहार , और वाणी पर निर्भर करता है। ‘आप जो बोयेंगे, वही पायेंगे’। यदि आप के पास एक मजबूत आंतरिक सुरक्षा कवच है तो इसका यह मतलब है की आप भी किसी और के आंतरिक सुरक्षा कवच के अविभाज्य भाग हो।
यह आंतरिक सुरक्षा कवच आपके सहपाठी, बचपन के मित्र, सखी, रिश्तेदार, काका, मामा, मौसी, सहकर्मी, कामगार वर्ग, पडौसी, सहधर्मी, आदि व्यक्तियों से एक अटूट बंधन में बंधा हुआ है। इस आंतरिक सुरक्षा कवच के माध्यम से आप हजारों लोगों से जुड़े होते है। यदि आप एक मजबूत आंतरिक सुरक्षा कवच से जुड़े हुये हो और इस माध्यम से आपने अपने आपको समर्पित किया हुआ है तो आपको पैसों के पीछे भागने की जरुरत नही है। ऐसे लोगों के पीछे पैसा आप स्वयं चलकर आता है। मजेदार बात यह है की इस आंतरिक सुरक्षा कवच के ग्रुप में कहीं भी झूठ, फरेब, मतलबीपना और बेईमानी नही होती है। इस ग्रुप में मौखोटे नही अपितु असली चेहरे होते है और यह जरुरी नही है की आप इस ग्रुप के व्यक्तियों से रोज संपर्क में रहो। परंतु जब आपको ऐसे अपने लोगों की जरूरत होती है तो चाहे आप उनसे बरसों नही मिले हो ऐसे लोग तुरंत आपके संपर्क में आते ही मदद को तैयार हो जाते है।
इस आंतरिक सुरक्षा कवच से जुड़े हुये व्यक्तियों के ग्रुप की एक बड़ी खासियत होती है। इन लोगों में कोई शंका नही होती है, भ्रम नही होता है, एक अजीब सा गहरा आत्मविश्वास होता है। यदि आप कभी आर्थिक अड़चन में हो और आपको आर्थिक मदद की जरूरत है तो यह लोग कभी भी नहीं पुछेंगे की आर्थिक मदद की क्यों जरुरत है? या मदद के रुप में दी जाने वाली राशि कब वापस दोगे? इन लोगों का केवल एक ही अत्यंत आवश्यक शब्द होता है,’ओ के’। ऐसे ग्रुप के व्यक्तियों की यह जरूरत नही होती की रोज आपस में बैठकर कांच के ग्लासों को खनखनाते हुये चियर्स करें। हां पर यदि आपको प्यास लगी तो यही लोग आपको ठंडा, निर्मल जल तुरंत प्रदान कर आपकी प्यास को दूर करेंगे। जो लोग आंतरिक सुरक्षा कवच से जुड़े हुये होते है, वो एक सामाजिक प्रोटोकॉल के बंधन से जुड़े हुये रहते है। डिप्रेशन, आत्महत्या, अकेलापन, उबना, निराश होना, कुंठित जीवन जीना इन सभी परेशानियों से आंतरिक सुरक्षा कवच के अंतर्गत रहने वाले व्यक्ति मुक्त होते है। इसलिये जीवन में आंतरिक सुरक्षा कवच का होना बहुत जरूरी है और प्रत्येक व्यक्ति को यह कोशिश करनी चाहिये की वो भी किसी और व्यक्ति के आंतरिक सुरक्षा कवच का घटक जरूर बने।
सजग रहो …….! जागते रहो …….! प्लास्टिक के फूलों में खुशबू को खोजने की कोशिश मत करो। जीवन की आत्मिक खुशबू को खोजने के लिये खून – पसीने के साथ पत्थर, कांटे, मिट्टी, किचड़ के आवरणों को शरीर पर आत्मसात करना पड़ता है। जीवन के कठिन रास्तों पर कड़ी धूप में चलते हुये ‘आंतरिक सुरक्षा कवच’ निश्चित ही आपके लिये एक ठंडी, सुहानी, सुखद पवन का कार्य करता है|
इंडिया Vs भारत
देश में एक इंडिया ऐसा है जो आलीशान – शानदार घरों में विलासता के जीवन को अभिमान से यह कहते हुये “Home sweet home” कह कर आनंद ले रहा है।
देश में दुसरा भारत ऐसा है (Survival of fittest) जो जिंदगी जीने के लिये लगातार संघर्ष कर रहा है। कड़ी धूप में भूखे पेट मिलों का सफर कर इस जद्दोंजेहद में पैदल चल रहा है की इस संघर्ष में मौत आये तो कम से कम अपने गांव अपने शहर में अपने लोगों के बीच आये।
देश में एक इंडिया ऐसा है जिसने आटा, दाल, चावल, अनाज सब्जियों के साथ सभी जरूरत का सामान भरकर रख दिया है और वाट्स एप युनिवर्सिटी पर बने नये – नये व्यंजनों को वाट्स एप ग्रुप पर परोस रहा है। साथ ही नये – नये स्वादिष्ट व्यंजन बनाने की होड़ सी लगी हुई है। लाक डाउन को त्योहारों की तरहां मनाया जा रहा है। जीभ के स्वाद का पुरा आनंद लेकर एक दूसरे को शाबाशी दी जा रही है।
देश में एक दूसरा भारत ऐसा है जो मुठ्ठी भर अनाज के लिये हाथ पसारकर घंटों लंबी लाईनों मे लगा है। परिवार के आठ दस सदस्यों में मिले हुये खाने को जैसे – तैसे बांटकर पेट की आग बुझाई जा रही है। मदद के रुप में खाना मिले तो ठीक नही तो गटागट पानी पी कर पेट की आग को शांत करने की कोशिश की जा रही है। जैसे – तैसे रात निकल जाये, फिर एक नई आशा से की कल सुबह शायद कुछ खाना मिल जाये।
देश में एक इंडिया है जो शाम को गैलरी में आकर तालीयां बजाता है, थाली बजाकर गो कोरोना गो के नारे लगाता है और दिये जलाकर कोरोना को दिवाली का त्योहार बनाता है। शाम की ठंडी हवाओं में पक्षियों के कलरव से आनंदित होकर कोरोना के आँकड़े कितने बड़े या घटे है, इस पर विश्लेषण कर अपनी विद्वता झाड़ता है।
देश में एक दूसरा भारत है जो दस बाय दस के कमरे में रहने वाले दस लोगों के साथ घबराते हुये सांस लेता है। दानी लोगों से मिले हुये दान पर ब – मुश्किल एक – एक पल को गिनते हुये जिंदगी जी रहा है। इस चिंता से ग्रस्त है की फिर से कोई काम मिलेगा या नही? हतबल होकर बच्चों के सुकड़ते खाली पेट की और देखता है। रोज कुँआ खोद कर पानी पीने वाला यह भारत इस सोच में है की आगे जिंदगी कैसे गुजरेगी?
इस देश में एक इंडिया है और दूसरा भारत!
जो पुल के ऊपर आलीशान कारों में घूम रहा है वो इंडिया है और जो पुल के निचे जिंदगी की गुजर बसर कर रहा है; वो भारत है।
वैश्विक महामारी कोरोना से इंडिया और भारत दोनों ही त्रस्त है। अंतर केवल इतना है की
इंडिया को सख्ती की छुट्टी मिली है|
और. . . . .!
भारत को छुट्टी की सजा मिली है|
साधारण लोगों की असाधारण गाथा
बस स्टैंड पर रात को बहुत समय व्यतीत हो चुका था। रामगढ़ को जाने वाली आखिरी बस अपने समय पर रवाना नहीं हुई थी। वैसे बस स्टैंड पूरा खाली पड़ा हुआ था। दो चार यात्री इधर – उधर चहल कदमी कर रहे थे। रामगढ़ जाने वाली बस के यात्री चिंतित थे कि बस क्यों यात्रा के लिये रवाना नहीं हो रही है? इतने में समाचार मिला की बस का एक पहिया पंचर है और पंचर दुरुस्त होते ही बस अब अपनी अगली यात्रा के लिये रवाना होगी।
बस ठीक दस बजे रामगढ़ जाने के लिये रवाना हुई। बस में बैठे हुए लगभग सभी यात्री रामगढ़ जाने वाले ही थे। हाथ में पोटली लेकर बैठी हुई एक वृद्धा के पास जब कंडेक्टर गया तो उसने रास्ते में लक्ष्मण फाटा नामक बस स्टॉप से आगे दो – तीन किलोमीटर स्थित एक गांव का टिकट मांगा। गांव तक सीधा बस नहीं जाती थी और बस स्टॉप पर उतर कर पैदल गांव तक जाना पड़ता था।
कंडक्टर सोच में पड़ गया था की यहां लाचार वृद्धा जिसकी कमर पूरी तरह से झुक हुई है और इन बारिशों की इस अंधेरी रात में कैसे उतर कर अपने घर पहुंचेगी?
कंडक्टर ने डांटते हुये वृद्धा से पूछा की इतनी रात को तुम अकेली घर कैसे जाओगी? ना तुम्हे ठीक से दिखता है, ना तुम ठीक से चल पाती हो, इतनी रात को अकेली क्यों यात्रा कर रही हो? दिन के उजाले में तुम घर क्यों नहीं गई? निश्चित ही उस डांट में एक अलग अपनापन था।
उस वृद्धा को ठीक से कुछ सुनाई नहीं देता था और वो कुछ बड़बड़ाने लगी। कंडक्टर ने उसकी बात को नजर अंदाज किया एवं अपना काम समाप्त कर अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। बस के ड्राइवर ने बस की बत्तियां बुझा दी और सभी यात्री धीरे – धीरे नींद की आगोश में जाने लगे।
कंडेक्टर परेशान होकर अपनी सीट पर बैठे – बैठे सोच रहा था की वृद्धा को बस स्टॉप पर हम उतार तो देंगे परंतु इन बारिशों की अंधेरी रात में या वृद्धा अपने घर दो – तीन किलोमीटर पैदल चलकर कैसे जायगी? इसे ठीक से दिखाई भी तो नहीं देता और ना ही यह सीधे से खड़ी हो सकती है घर तक जाने वाला रास्ता भी कच्चा है और हो सकता है की बारिश की वजह से रास्ते में खड्डे हो या रास्ते में अचानक बारिश के पानी की वजह से कोई नाला बन गया हो? या हो सकता है इसे अकेली देखकर जंगली जानवर या कुत्तों ने हमला कर दिया तो?
अचानक ड्राइवर ने बस रोककर घंटी बजाई तो कंडक्टर के विचारों की तंद्रा भंग हुई क्योंकि उस वृद्धा के गांव का स्टाप आ चुका था। कंडक्टर ने उस वृद्धा की पोटली को उठाया और उसे सहारा देकर बस से नीचे उतारा बाहर बहुत अंधेरा था, कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था और अचानक कंडक्टर ने वृद्धा की पोटली सर पर रखी और वृद्धा का हाथ पकड़कर उसे अपने साथ लेकर उसके घर की ओर चल पड़ा।
उस वृद्धा को बहुत हैरानी हुई और वो भी कंडक्टर के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने लगी।
इधर बस में हलचल मच गई थी १० से १५ मिनट हो चुके थे परंतु कंडक्टर बस में चढ़ा नहीं था। ड्राइवर बस से नीचे उतरा और बस के चारों और कंडक्टर को खोजने लगा उसे लगा की शायद बस कंडक्टर को कहीं कोई चक्कर वगैराह तो नहीं आ गये? और हो सकता है कि वो बेहोश हो गया, कुछ समय बाद ड्राइवर के ध्यान में आया की शायद वह उस वृद्धा को छोड़ने उसके घर गया होगा। ड्राइवर को बहुत क्रोध आ रहा था और तो और यात्री भी क्रोधित होकर उल्टा सीधा बोल रहे थे की कंडक्टर ऐसे – कैसे इस बियाबान जंगल में निर्जन रास्ते पर बस को छोड़कर चला गया। कुछ यात्री ड्राइवर को दबाव देकर कह रहे थे की बस कंडक्टर को छोड़कर आगे चलते हैं।
इत्यादि, इत्यादि ……………!
इधर उस वृध्दा ने कंडक्टर से पूछा की बेटा तेरा नाम क्या है? कंडक्टर ने खींजते हुए कहा की मेरा नाम जानकर आप क्या करोगी? फिर भी मेरा नाम चंदू पवार है।
कौन से डिपो में काम करते हो?
कंडेक्टर —-रामगढ़
वृद्धा….. बच्चे?
कंडक्टर ……..दो हैं।
इतने में वृद्धा का टूटा – फूटा झोपड़ी नुमा घर आ गया। गांव के दो – चार कुत्ते भोंकते हुए दौड़ गये थे। उस वृद्धा ने दरवाजे पर लगे हुए ताले की चाबी कंडक्टर को दी और उस कंडक्टर ने घर के ताले को खोल वृद्धा की पोटली घर के अंदर रखी और भागते हुए बस की और चला गया।
वृद्धा गांव के उस जीर्ण – शीर्ण पुराने घर में अकेली रहती थी। उसका कोई भी सगा – संबंधी नहीं था और गांव में कोई भी उसकी ठीक से पूछताछ नहीं करता था। इस दुनिया में वृद्धा से प्रेम करने वाला या उसकी चिंता करने वाला कोई भी नहीं था और वो भी किसी को अपने पास आने नहीं देती थी कारण उसे लगता था की लोग उसके पास केवल स्वार्थ से आते हैं। उसे हमेशा अपने घर और ४ बीघा जमीन की चिंता रहती थी। उम्र के अनुसार उसका यह व्यवहार ठीक भी था। वृद्धा अपनी ४ बीघा जमीन को प्रतिवर्ष बंटाई पर देती थी और उस उससे जो पैसा मिलता था उससे उसके जीवन की गाड़ी चल रही थी।
कुछ समय पश्चात वृद्धा बहुत बीमार हो गई उसने गांव के सरपंच, ग्रामसेवक और प्रमुख लोगों को बुलाया; सारे हैरान थे की वृद्धा ने उन्हें क्यों बुलाया है? और उसने सभी के सामने कागज पर लिखवाया की मेरी ४ बीघा जमीन और यह पुराना घर और ढाई तोला सोना चंदू पवार कंडक्टर को मेरे मरने के बाद देना है और यह जो २०००० रूपये मेरे पास जमा है इससे मेरा क्रिया – कर्म कर और अंतिम संस्कार कर देना क्योंकि अब मैं ज्यादा दिन जीवित रहने वाली नहीं हूं। गांव का सरपंच और सभी मान्यवर कुछ समझ नहीं पा रहे थे कि यह चंदू पवार कंडेक्टर कौन है? फिर सोचा शायद इस वृद्धा का कोई सगा – संबंधी होगा परंतु यह वृद्धा चंदू पवार को ही क्यों अपनी सभी जमीन जायदाद देना चाहती है? इन सभी अनुत्तरित प्रश्नों के साथ गांव वाले वापस चले गये।
कुछ दिनों के पश्चात वृद्धा का देहांत हो गया। वृद्धा की अंतिम इच्छा अनुसार उसका क्रिया – कर्म कर दिया गया और सरपंच एवं गांव के प्रमुख लोगों ने रामगढ़ बस स्टैंड पर जाकर चंदू पवार नामक कंडेक्टर की खोज की और चंदू कंडेक्टर को घटित प्रसंग की जानकारी दी गई। लगभग एक वर्ष पूर्व घटित इस घटना क्रम का चंदू को तुरंत ध्यान आ गया एवं वृद्धा ने उस पर जो विश्वास रखा था उसे याद कर उसकी आंखें डबडबा आई थी और उसने घटित प्रसंग की सारी जानकारी गांव के सरपंच और प्रमुख लोगों को दी। घटना की जानकारी मिलने के बाद गांव के लोगों को बहुत हैरानी और खुशी भी हुई।
कंडेक्टर चंदू पवार को एक निश्चित दिन गांव में आमंत्रित किया गया और सभी उपस्थित गांव वालों के बीच सरपंच ने कंडेक्टर चंदू का माल्यार्पण कर भव्य स्वागत किया और एक छोटे से जुलूस के रूप में चंदू को गांव की ग्राम पंचायत के कार्यालय में ले जाया गया। कार्यालय में सभी उपस्थितों के बीच चंदू कंडेक्टर को उस वृद्धा द्वारा लिखा गया कागज जिस पर उसने अपना घर एवं चार बीघा खेत चंदू के नाम पर किया था एवं ढा़इ तोला सोना चंदू के सामने रख दिया। जिसे देखकर चंदू कंडक्टर फूट – फूट कर रोने लगा उसने भरे हुए गले से सभी उपस्थित ग्रामवासियों को बताया की मेरे द्वारा की गई इतनी छोटी सी मदद का मुझे इतना बड़ा उपहार मिलेगा ऐसा मैने सोचा भी ना था चंदू के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया था।
ग्राम पंचायत कार्यालय के पास ही गांव के एक छोटे से विद्यालय से विद्यार्थियों के पढ़ने की आवाज आ रही थी। चंदू कंडेक्टर में सरपंच से पूछा की क्या यह बच्चों का विद्यालय है? सरपंच ने उत्तर दिया की गांव का बहुत पुराना जीर्ण – शीर्ण अवस्था में टूटा – फूटा विद्यालय है। ग्राम पंचायत के इस छोटे से पुराने विद्यालय में जैसे – तैसे बच्चों के विद्यालय का संचालन होता है। कंडक्टर चंदू ने सरपंच जी से पूछा की क्या इस गांव के आस – पास कोई ऐसी जगह नहीं है जहां विदयालय बनाकर सुचारू रूप से चलाया जा सके? सरपंच ने कहा की ग्राम पंचायत के पास ऐसी कोई जगह नहीं है और कोई भी अपनी खेतिहर जमीन को देना नहीं चाहता है।
कंडक्टर चंदू तुरंत कुर्सी पर से खड़ा हुआ और टेबल पर पड़ा हुआ कागज एवं ढाई तोला सोना उठाकर सरपंच जी के हाथ में रखकर बड़ी विनम्रता से कहा की आप इस ४ बीघा जमीन पर एक नया विद्यालय बनाये और घर बेचकर जो भी पैसा मिलता है उसे भवन निर्माण पर खर्च करें साथ ही इस बचे हुये सोने को बेचकर विद्यालय के मुख्य द्वार का दरवाजा बनाये और उस सुंदर बने हुये द्वार को इस वृद्धा का नाम दें। सभी गांव के लोगों ने जोरदार तालियां बजाकर इस प्रस्ताव का स्वागत किया एवं सरपंच जी ने खड़े होकर कहा की इस दरवाजे का नहीं अपितु हम इस विद्यालय का नाम ही उस वृद्धा के नाम पर रखेंगे। कंडक्टर चंदू ने सभी गांव के लोगों का आभार व्यक्त कर गांव से भावभीनी विदाई ली।
कंडक्टर चंदू के जाने के बाद गांव वालों में चर्चा थी की इस चंदू की झोली फटी हुई थी परंतु यह अपनी दरियादिली से गांव का सभी कुछ गांव को देखकर ही चला गया।
‘एक साधारण व्यक्ति ने अपने इस असाधारण कार्य से समाज में नई चेतना फूंक दी थी’।
जीवन में किसी को भी की हुई छोटी – मोटी मदद व्यर्थ नहीं जाती है। मदद स्वीकारने वाला इंसान यदि कृतज्ञ हो जाये तो उसे उसके हाल पर छोड़ देना चाहिये। हमारा मदद करने वाला स्वाभाव हमेशा कायम रहना चाहिये।
‘जब कोई साधारण इंसान इंसानियत के नाते परोपकार करता है तो वो असाधारण बन जाता है’|
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये,औरन को शीतल करे आपहो शीतल होये !
एक नगर में एक जुलाहा रहता था। अत्यंत शांत विनम्र और अनुशासित उसकी ख्याति दूर – दूर तक फैली हुई थी क्योंकि उसे कभी क्रोध नहीं आता था। हंसमुख स्वभाव के इस जुलाहे को कुछ बदमाश लड़कों ने परेशान कर हैरान करने का निर्णय लिया। वो सभी बदमाश लड़के इस जुलाहे के संयम की परीक्षा लेना चाहते थे।
इन बदमाशों की टोली में एक अमीर आदमी का लड़का भी था उसने टोली का नेतृत्व करते हुये उस जुलाहे की दुकान पर रखी हुई एक साड़ी की कीमत पूछी और कहा कि इस साड़ी का क्या मूल्य है? जुलाहे ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया केवल १० रुपये जुलाहे का उत्तर सुनकर इस घमंडी लक्ष्मी पुत्र बदमाश लड़के ने उस साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और पूछा की अब साड़ी की कीमत क्या है? जुलाहे ने शांति से कहा केवल ५ रूपये अब इस बदमाश लड़के ने उस टुकड़े के भी दो टुकड़े कर दिये एवं पूछा कि अब इसकी कीमत क्या है? प्रसन्न मुद्रा में जुलाहे ने उत्तर दिया केवल ढाई रुपये ! लक्ष्मीपति बदमाश लड़का उस साड़ी के टुकड़ों पर टुकड़े करता रहा परंतु संयमी शांत जुलाहा ना चिड़ते हुये उसके प्रश्नों का उत्तर मुस्कुराते हुये देता रहा। अंत में उस बदमाश लड़के ने कहा कि इस साड़ी के तो बहुत छोटे – छोटे टुकड़े हो गये हैं। अब यह साड़ी मेरे किसी काम की नहीं है। उस जुलाहे ने मुस्कुराते हुए कहा की, बेटा जैसे या तेरे किसी काम की नहीं है वैसे अब या मेरे भी किसी काम की नहीं है परंतु ठीक है आप जा सकते हो। उस जुलाहे की सहनशक्ति वाली संयमी बुद्धि और शांति से मुस्कुराकर क्षमाशीलता का गुण उस बदमाश लड़के को जब समझ आया तो वो शर्मिंदा होकर कहने लगा की मैंने आपकी साड़ी का नुकसान किया है;,आप बताइये इसकी क्या कीमत है?
जुलाहे ने उस बदमाश लड़के से कहा कि जब आपने मेरे से साड़ी ली ही नहीं है तो मैं आप से उसकी कीमत कैसे ले सकता हूं? बदमाश लड़के को अपने पैसे का बहुत घमंड था और उसने कहा कि आप केवल इसकी कीमत बतायें, मैं तुरंत आपको इसकी कीमत अदा कर दूंगा वैसे भी ज्यादा से ज्यादा इसकी क्या कीमत होगी? मैं तो बहुत धनवान हूं आपको इस साड़ी का नुकसान व्यक्तिगत रूप से बहुत भारी पड़ सकता है कारण आप एक गरीब जुलाहे हो। वैसे भी इस नुकसान को मैंने किया है तो यह मेरी नैतिक जवाबदारी है की नुकसान की भरपाई मुझे ही करनी चाहिये। इतना जवाबदार तो मैं हूं।
उस बदमाश लड़के की पैसों की मागरूरी देखकर उस शांत स्वभाव के जुलाहे ने विनम्रता से कहा की तुम इस हुये नुकसान की भरपाई कभी भी पैसों से नहीं कर सकते हो क्योंकि यह ‘राष्ट्रीय नुकसान’ है। कल्पना करो की एक किसान ने कितनी मेहनत से खेती करके इसमें लगने वाली रूई को उगाया होगा और उस रूई को व्यापारी को बेचा होगा और मेरे सहायक ने उस रुई से अत्यंत कष्ट कर सूत का धागा बनाया और मैंने उसे रंग देकर बुनकर नया रूप दिया तब कहीं जाकर यह साड़ी तैयार हुई और इतने लोगों के द्वारा की हुई मेहनत पर तुमने पानी फेर दिया। यदि इस साड़ी को कोई परिधान करता और किसी के शरीर को ढ़कने के काम आती तो शायद हम सभी लोगों को उनकी मेहनत का फल मिल जाता था। अत्यंत विनम्र और धीमी आवाज में जुलाहे के इस उत्तर में कहीं क्रोध, आक्रोश और उतावलापन नहीं था। दया और सौम्यता से भरा या उत्तर मानो उस लड़के को एक समुपदेश ही था।
उस बदमाश लड़के को स्वयं से ही शर्म आने लगी मन में विचार आया की मैंने इस महापुरुष को बिना कारण कष्ट दिया और साड़ी को फाड़ दी। बिना कारण हुये इस नुकसान का उसे स्वयं बहुत बुरा लग रहा था। अगले ही पल वो लड़का उस महापुरुष के सामने नतमस्तक होकर कहने लगा की है महात्मा मुझे माफ करें। जानबूझकर किये गये, मेरे इस अघोरी कृत का मुझे बहुत अफसोस है। मैं आपका अपराधी हूं मुझे दंड देकर क्षमा करें। उस जुलाहे ने बदमाश लड़के के सर पर हाथ रख कर कहा की यदि तुम्हारे दिये हुये पैसों को में ले लेता तो मेरा नुकसान तो पूरा हो जाता परंतु भविष्य में तुम्हारी हालत इस फटी हुई साड़ी की तरह हो जाती। निश्चिती साड़ी सुंदर थी परंतु अब उसका किसी को कोई उपयोग नहीं है मेरी एक साड़ी का नुकसान हो गया तो क्या हुआ? मैं और दूसरी बना लूंगा परंतु अंहकार के दुर्गुणों के कारण तुम्हारा जीवन यदि धूल में मिल जाता तो उसे पुनः तुम नये से कैसे उभार पाते?
तुम्हारा पश्चाताप मेरी बनी हुई साड़ी से अत्यंत मूल्यवान है…!
हमारे सभी के जीवन में थोड़ी सुख – समृद्धि आई और जेब में पैसे क्या उछलने लगे की हमें उन पैसों की मस्ती आ जाती है। पैसों से जीवन में स्थिरता आनी चाहिये। ना की अंहकार ! पैसों से इंसान को घमंड आ जाता है और यह घमंड इंसान की कृति से झलकता है पैसों के घमंड से इंसान का मिजाज खराब हो जाता है। व्यर्थ का गर्व, अहंकार, अभिमान और घमंड से ‘इगो’ निर्माण होती है। ऐसे सभी व्यक्तियों को शीतल शांत और सौम्य भाषा से कोमल स्वरों में समझाने वाले ऐसे जुलाहे अब इस मतलब की दुनिया में दिखाई नहीं पड़ते हैं। इस लेख के पाठकों को यदि ऐसा कोई जुलाहा मिले तो उसका पता जरूर बताये। ऐसे जुलाहे को मिलने के बाद निश्चित ही हम जान पायेगें की हमारे पैर इस धरातल पर कितने मजबूती से टिके हैं।
यह तो आप जान ही गये होंगे की इस प्रसंग के महान जुलाहे ‘संत कबीर दास जी’ थे !!

सतगुरु की सेवा सफल है
विगत वर्ष नवंबर में देहरादून से चंडीगढ़ की और अपनी कार से यात्रा कर रहा था। वैसे तो यह सफर केवल ४ घंटों का है। इस सफर में हमेशा एक सुखद अनुभव मिलता है की रास्ते में विश्राम करने के लिये मेरा एक ही ठिकाना होता है ‘गुरुद्वारा पांउटा साहेब’!
गुरुद्वारे में पहुंचकर मत्था टेक कर शांति से कीर्तन सुनते हुये प्रभु के नाम का स्मरण करना एवं प्रभु के आशीर्वाद के रूप में कड़ा प्रशाद लेना और ‘गुरु दा लंगर’ में हाजिरी लगाकर सभी दर्शनार्थियों के साथ एक पंक्ति में चौकड़ी मारकर जमीन पर बैठकर भोजन प्रशादी ग्रहण करना। यह अनुभव अपने आप में एक खुशनुमा माहौल में उत्साहित होकर त्योहार मनाने के जैसा है।
यह अनुभव गुरुद्वारे में उपस्थित सभी जाति, धर्म, महिला, पुरुष और बच्चों के लिये एक जैसा ही होता है। यात्रा के दरम्यान पाउंटा साहिब गुरुद्वारे में बिताया हुआ यह वक्त जीवन में एक नई ऊर्जा प्रदान करता है।
लंगर छकने के बाद गुरुद्वारा परिसर में स्थित एक छोटे मार्केट में चहलकदमी करते हुए मेरी नजर एक गुज्जर परिवार पर पड़ी ऐसे गुज्जर मुस्लिम परिवार पहाड़ों और दरियाओं में जानवरों के साथ लगातार यात्रा करते हैं और दूध बिक्री कर अपने परिवार का पालन पोषण करते हैं। मार्केट में स्थित एक चाय के स्टॉल पर यह गुज्जर परिवार किसी गंभीर विषय पर चर्चा कर रहा था। इस परिवार में एक वृद्ध जोडा़, दो प्रौढ़ जोड़ें और चार छोटे बच्चे ऐसे कुल मिलाकर १० सदस्यों का यह परिवार था। परिवार का वृद्ध अपने हाथ में कुछ छुट्टे पैसे और मेले – कुचेले नोटों को गिन कर कुछ हिसाब लगा रहा था। मेरे हिसाब से वो लोग उस चाय की स्टाल में कुछ खाने की वस्तुओं का आर्डर देने वाले थे। अंत में परिवार ने मिलकर निर्णय लिया और चार समोसे एवम् तीन चाय ऐसा एक ‘बड़ा’ ऑर्डर उस स्टाल वाले को दिया।
मुझे उनकी गरीबी का एहसास हो गया था फिर भी मैंने दबे हुये स्वर में बड़ी विनम्रता से पूछा की आप लोग भोजन करना चाहते हैं क्या?
वातावरण अचानक शांत हो गया था परंतु उस वातावरण की शांति सब कुछ बोल रही थी। उन बच्चों की नजरों में आशा की एक किरण नजर आ रही थी, वो आशा की किरण ही मेरे प्रश्न का उत्तर थी।
परिवार के प्रमुख ने बड़ी लाचारी से कहा कि हमने भोजन किया है। मैं आगे से कुछ बोलता उसके पहले परिवार के ४ बच्चों में से एक छोटा बच्चा व्याकुलता से बोल पड़ा ‘बड़े अब्बू सुबह से हमने कुछ भी तो नहीं खाया है’।
उस बच्चे की भोजन करने की व्याकुलता देख मेरे हृदय में मानों भूकंप आ गया था। मैंने उस परिवार प्रमुख वृद्ध और छोटे बच्चे का विनम्रता और प्यार से हाथ पकड़ा और उन्हें गुरुद्वारे के लंगर घर की ओर ले कर चल पड़ा एवं कहा की यह प्रभु का प्रशाद है इसे लेने से आप मना मत करियेगा। परिवार के चेहरे पर एक संतोष का भाव था परंतु एक अंजाना सा डर जरूर नजर आ रहा था शायद जिंदगी में पहली बार परिवार इस्लाम के किसी धार्मिक स्थान पर ना जाते हुये गुरुद्वारे में जा रहा था।
परिवार के सभी सदस्यों के जूते – चप्पल मैंने स्वयं गुरुद्वारे के जोड़ा घर में अपने हाथों से रखे। गुरुद्वारे में दी गई यह मेरी पहली कार सेवा थी। एक अजीब सी शांति मेरे अन्तर मन में थी। परिवार के लोग असमंजस में थे परंतु एक अनोखे आत्मविश्वास से मुझे देख रहे थे। मैंने मुस्कुराते हुये कहा कि यह मेरी और से गुरु घर में दी गई छोटी सी सेवा है। चलो हम सभी सद्गुरु जी के चरणों में मत्था टेकते हैं और प्रशाद लेते हैं। परिवार के सभी सदस्यों ने गर्दन हिलाकर हामी भरी और मेरे साथ चल पड़े चारों छोटे बच्चों का ध्यान लंगर घर की और था। आते – जाते दर्शनार्थी हमें कटाक्ष तिरछी नजरों से घूर रहे थे। इस कारण मन में बेचैनी थी परंतु मैंने उस बेचैनी को नजरअंदाज कर उन चारों बच्चों की ओर ध्यान देकर उनका आत्मविश्वास जागृत किया। उन बच्चों ने अलग – अलग रंगों के पटके अपने सर पर बांध लिये थे पटके बांधने की यह कला उन्होंने स्वयं ही अर्जित कर ली थी। गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ के सामने मत्था टेकते हुये इन चारों बच्चों के चेहरे पर अपार भक्ति भाव प्रकट हो चुका था। जो सभी को नजर आ रहा था गुरुद्वारे के भाई जी ने बच्चों को कडा़ प्रशाद दिया और हंसकर पूछा और चाहिये क्या? बच्चों ने भी आनंदित होकर अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिये थे।
गुरु घर के लंगर की लाइन में मैं उनके पीछे खड़ा था। जबरदस्त उत्साहित होकर बच्चों ने थाली उठाई और टाट पट्टी पर चौकड़ी मारकर बैठ गये। लंगर घर में हमारे सामने की लाइन में एक शादी शुदा नया जोड़ा बैठा था। नई – नई शादी हुई थी और गुरुद्वारे में शादी के बाद पहली बार मत्था टेकने आये थे। वर – वधु लंगर छक रहे थे। वधू ने बहुत ही सुंदर लाल जोड़ा पहना हुआ था एवं उसके हाथों में पहना हुआ चूड़ीयों का सेट सभी का ध्यान आकर्षित कर रही था। उसने उन छोटे बच्चों को हाथ से इशारा कर मुस्कुराते हुये अपने पास बुला बुलाया। सबसे छोटे दो बच्चे दौड़ते हुये बड़े उत्साह से वर – वधू के बीच में बैठ गये और उसने बड़े प्यार से अपने हाथों से उन दोनों छोटे बच्चों को लंगर खिलाया उस नववधू के चेहरे पर एक अजीब खुशी और आत्म संतोष था। मैं मन ही मन सोचने लगा कि यह नववधू भविष्य में एक अच्छी और कर्तव्य दक्ष, ममत्व से परिपूर्ण मां होगी।
हम सभी को लंगर बांट दिया गया। मैं थोड़ा सा जल्दी उठ गया कारण में इसके पहले भी लंगर ग्रहण कर चुका था। मेरे साथ आये मेहमान संकोच और डर को भूलकर भरपेट लंगर का आनंद ले रहे थे। उस परिवार के चेहरे पर आत्म संतुष्टि का आनंद एक झरने की तरह प्रफुल्लित हो रहा था। जिसे शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है।
इतने में गुरुद्वारे का एक तरुण सेवादार ज्ञानी जी को लेकर मुझे खोजता हुआ मेरे पास आया और मेरी तरफ उंगली उठाकर ज्ञानी जी के कान में कुछ फुसफुसाने लगा। मैं आगे आया और ज्ञानी जी को अदब से नमस्कार कर उनके सामने खड़ा हो गया। गुरुद्वारे में प्रवेश करते समय मेरे मन में जो अस्वस्थता थी वो अब एक अजीब से डर में परिवर्तित हो गई थी। मेरे मेहमान खौफ खाकर नजरें चुराने लगे थे। ज्ञानी जी ने परिवार की और इशारा कर मुझसे पूछा की आप इंहे लेकर आये हैं?
मैंने गर्दन हिलाकर बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया कि हां मैं इन्हें लेकर आया हूं। ज्ञानी जी ने मुझसे पूछा कि क्या तुम रोज पाठ करते हो?
अचानक पूछे गए इस प्रश्न से में गड़बड़ा गया और मैं लापरवाही से उत्तर देने वाला था हां परंतु मेरे बचपन के संस्कारों ने मेरे मन को नियंत्रित किया और मैंने विनम्रता से ज्ञानी जी को उत्तर दिया की मैं रोज पाठ नहीं करता हूं। ज्ञानी जी ने विनम्रता से कहा कि तुम्हें अब आगे से रोज पाठ करने की आवश्यकता भी नहीं है। ज्ञानी जी आगे क्या कहने वाले हैं मैं मन ही मन तैयारी कर रहा था की ज्ञानी जी के अगले वचन सुनकर मैं असमंजस में आ गया ज्ञानी जी ने कहा की आज आपने जो किया है, इससे आपको सभी कुछ प्राप्त हो गया है। इस परिवार को गुरु के चरणों में लाकर और उनकी सेवा कर उन्हें लंगर ग्रहण करवा कर जो महान सेवा आपने की है, उसके लिये हम सदा आपके ऋणी हैं और इसके लिए आपको दिल से साधूवाद !
मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि यहां मेरा उपहास है या उपदेश!
तत्पश्चात ज्ञानी जी हाथ जोड़कर परिवार के सम्मुख गये और कहने लगे की आगे से आप जब भी इस रास्ते से जायें तो गुरुद्वारे में हाजिरी लगाकर गुरु के चरणों में मत्था टेक कर प्रशाद ग्रहण कर और लंगर छक कर जायें क्योंकि यह वाहिगुरु जी की सभी को देन है और वाहिगुरु जी के आशीर्वाद से हमने अपनी झोलीयां भरनी है। इस स्थान पर हाथ जोड़कर मत्था ही तो टेकना है और ज्ञानी जी ने हमें हाथ जोड़ नमस्कार किया एवम् मुस्कुराते हुये वहां से चले गये।
हम सभी गुरुद्वारे के बाहर आ गये थे और पूरे परिवार ने आदर पूर्वक मुझे नमस्कार किया। परिवार की वृद्धा अपने शौहर के कान में कुछ फुसफुसाने लगी मैंने उत्सुकतावश पूछा क्या बात है मियां जी? कुछ रह गया क्या? मियां जी कहने लगे साहेब इसकी इच्छा है की यदि आपको कोई समस्या ना हो तो यह आपके सर पर हाथ रखकर अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करना चाहती है। मैंने हंसते हुये आगे होकर उस वृद्ध महिला के सामने अपना सर नत मस्तक दिया, उस वृद्ध महिला ने अपने एक हाथ से आंखो का पानी पोंछा और दूसरा हाथ मेरे सर पर रख कर कुछ बड़बड़ाने लगी। मैं कुछ समय भावुक मुद्रा में ही खड़ा रहा और मैंने अपनी डबडबाती आंखों को रुमाल से पोंछा और मेरे देखते – देखते ही वो परिवार अदृश्य हो चुका था।
यह शायद मेरे मन का भ्रम है या कुछ और परंतु जब भी मैं नतमस्तक होता हूं तो मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि उस मुस्लिम वृद्धा का झुरियों वाला हाथ मेरे माथे को वात्सल्यपूर्वक सहला कर मुझे शुभकामनायें प्रेषित कर रहा है।
‘शायद यही कारण है कि मैं इस देश की संस्कृति और गंगा – जमुना तहजीब को नमन कर स्वयं को धर्मनिरपेक्ष समझता हूं’|
साभार:– यह लेख मेजर जनरल एस.पी. एस. नारंग (सेवानिवृत्त) के अनुभव लेखन से प्रेरित है।
प्रासंगिक :-- पंथ खालसा साजना विशेष:
१३ अप्रैल सन् १६९९ वैशाखी पर्व पर करूणा – कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता गुरू ‘श्री गोबिंद सिंघ जी’ ने खालसा पंथ की सर्जना करते हुये खालसा सजाया था।
इतिहास गवाह है की पंथ खालसा के खालसाई सेवादारों ने अपनी देशभक्ति, निष्ठा, त्याग, समर्पण, सेवा और सिमरन से पंथ खालसा को दुनिया में एक विशेष आयाम दिया है। दशमेश पिता ने अमृत पान कराकर एक – एक खालसा को सवा लाख से जूझने की शक्ति प्रदान करी है। ऐसा क्या विशेष तत्व इस अमृतपान में मौजुद है? की इसे ग्रहण करने से एक आलोकिक, अद्भुत शक्ति खालसे को मिलती है।
इसके लिये हमें दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ जी’ महाराज के जीवन चरित्र को समझना होगा। पंथ के कई महान विद्वान, इतिहासकार, कथाकार और पंजाब की लोकधाराओं में गुरु जी प्रशंसा करते हुये विभिन्न शब्दावली का उपयोग किया है।
किसी शायर ने कहा है:–
जितनी भी तारिफ हो गोबिन्द की वो कम है।
हरचंद मेरे हाथ में पुरजोर कलम है।
सतगुरू के लिये कहां ताबे रकम है।
एक आंख से क्या बुलबुला गुलमेहर को देखे।
साहिल को या मझधार को या लहर को देखे।
अकाल पुरख की आज्ञानुसार गुरू ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की दसवीं ज्योत गुरू ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ की आयु छोटी थी। आपका जीवन एक बिजली की चमक की तरहां था। आसमान में चमकती हुई बिजली की आयु लंबी तो नही होती है परंतु जितनी भी होती है उसमें एक कणखर चमक और कर्कश आवाज होती है जो सभी का ध्यान आकर्षित करती है।
दशमेश पिता के जीवन का प्रत्येक पहलू विभिन्नता से परिपूर्ण था। जब आपका प्रकाश (आगमन) पटना साहिब में हुआ तो उस समय के पीर भीखनशाह ने पश्चिम के बजाय पूर्व की ओर सजदा किया था। गुरु जी की छवि और सद्गुणों वाला स्वरुप अलौकिक था। आपजी की कलगी नुरानी थी, आप जी की कृपाण श्री साहिब और नगाडा़ रणजीत था। जो सुदूर पर्वतों में अपनी गुंज पैदा करता था। गुरू जी ने सत श्री अकाल का जयकारा दिया साथ ही खालसा को अविनाशी बनाया। आप जी ने देग – तेग फतेह की गुंज दी और अस्त्र – शस्त्र को पीर माना, आप जी की मोहर केश, घोड़ा नीला, हाथी प्रशादि, बाज सफेद और किर्तनी साज ताउस था। आप जी के तीर सोने की नोंक के बने हुये थे और कलम लोह एवं खड्ग सर्व लोह भगवती का था। दशमेश पिता का सर्वोत्तम दान सर्व वंश दान था। आप जी के आशिक अपने परिवार को कुर्बान करने वाले पीर बुद्धू शाह और नबी खान, गनी खान जैसे थे। इस महान गुरू का योद्धा भाई विचित्र सिंघ, गुरू जी का संग्राम धर्म युद्ध और चाहत शस्त्रों के साथ जुझ मरना। गुरु जी की इंसानियत भाई कन्हैया और पांच प्यारे शीश तली पर रख कर प्रियतम की राह पर चलने वाले राहागिर। गुरू जी के चालीस मुक्ते अपने लहू से बेदावा फड़वाने वाले और बिखरे समय की यादें ‘मित्तर प्यारे नू हाल मुरिदा दा कहना’। दशमेश पिता का उस अकाल पुरख को शुकराना चारों साहिबजादे शहीद करवा कर कहना:–
‘इन पुतरन के शिश पर वार दिये सुत चार,
चार मुयें तो क्या हुआ जीवित कई हजार’!
गुरू जी का जीवन कुरबानी की इंतहा है। शहीद हुये पिता के शीश का संस्कार, बडे़ साहिबजादों के शहीद शरीरों के दर्शन, छोटे साहिबजादों के शहीद होने कि खबर, सर्व वंश को कुरबान करके अकाल पुरख को कहना:–
‘कमाले करामात कयाम करिम,रजा बक्श राजक रहियाकुन रहीम’।
दशमेश पिता का निशाना. . . . .!
‘जो मंजीले मकसुद धर्म चलावन,संत उबारन दुष्ट सभनको मूल उपारन’।
दशमेश पिता का जफरनामा वाहिगुरू जी की फतेह का ऐलान नामा, अकाल पुरख को निवेदन चौपाई साहिब का पाठ, पूजा अकाल – अकाल, धून तुही – तुही – तुही, दर्शन की लालसा खालसे के दर्शन, अरदास सरबत का भला। गुरू जी का गुरबाणी के लिये सत्कार आध्य ग्रंथ साहिब जी को गुरू ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ संबोधित कर सर झुका देना। विनम्रता स्वयं की बाणी को अपना खेल कह देना। आपकी सबसे बड़ी कमाई खालसे को वाहिगुरू जी का खालसा बना देना। गुरू जी की जुगती देग – तेग फतेह, उनके दरबार के श्रृंगार कवि, गुणी, ज्ञानी, और विद्वान, बक्शीश बानी और बाना, हुकूम रहत की परिपक्वता, बरकत पांच ककार, ताड़ना चार कुरेतिआं, उनके वारिस और विरासत श्री अकालपुरख के खालसे।
दशमेश पिता की आत्मा गुरू ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ में, शरीर खालसा पंथ में, वो मालक दोनों जहान के,’सब विचित्रमय, सब विचित्र, सब विचित्रता भरपूर ऐसो कौन बली रे’, ऐसे महान परोपकारी गुरू के बारे में यह कहना ही सही होगा।
‘सुपन चरित्र चित्तर बानक बने बचित्तर, पावन पवित्र मित्तर आज मोरे आये है’।
समय समय के विद्वान, कवि, महापुरुषों ने गुरू जी के जीवन को उपरोक्त लिखित अपनी – अपनी शब्दावली से अलंकृत किया है। ऐसे महान दशमेश पिता गुरू जी ने बैशाखी के दिन पंथ खालसा की साजना मानवता के कल्याण और जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने के लिये की है। साथ ही खालसा साजना कर आप स्वयं भी गुरू जी ने पांच प्यारों से अमृत पान कर गुरू और चेलों को एक ही रुप कर दिया है। आज इस महान पर्व पर दशमेश पिता से अरदास है….!
चादर मैली साबण थोड़ा, जद देखा तद रोआं।
बहुते दाग लगे तन मेरे में कैडा़ – कैडा़ धोवां।
दागा दी कोई कीमत नही, में क्यों हच्ची होआं।
श्री साहिब मेनु दर्शन देओ, में सच्चे साबण धोआं।
आज के इस खालसा साजना पर्व के विशेष मौके पर दशमेश पिता गुरू ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ महाराज और पंथ खालसा को सादर नमन – अभिवादन|

प्रासंगिक:- ५५० साला श्री गुरु नानक प्रकाश यात्रा
सन् २०१९ वर्ष पुरी दुनिया में सतगुरू नानक जी के ५५० वर्ष प्रकाश पर्व के रुप में मनाया गया। इस सुनहरे शुभ अवसर के उपलक्ष्य में प्रबंधक कमेटी गुरूद्वारा नानक झीरा साहिब ने विशेष प्रयत्न कर इस महान ऐतिहासिक यात्रा का आयोजन तख्त सचखंड हजूर साहिब जी के जत्थेदार संत बाबा कुलवंत सिंघ जी, पंज प्यारे साहिबान और संत बाबा नरिंदर सिंघ जी, संत बाबा बलविंदर सिंघ जी [प्रमुख जत्थेदार गुरूद्वारा लंगर साहिब, हजूर साहिब] की आज्ञा से किया था।
इस महान यात्रा में ३५० साल पुरातन ऐतिहासिक हस्तलिखित गुरू ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ एक विशाल सुंदर भव्य – दिव्य वातानुकूलित रथ में विराजमान थे। इस रथ को विशेष तौर पर डिजाइन कर के बनवाया गया था। रथ में सुंदर पालखी साहिब सुशोभित थे। साथ ही रथ में हेड ग्रंथि साहिब जी और सेवादारों के लिये विशेष इंतजाम किये गये थे। विशेष नोट करने वाली बात यह है की इस रथ की गाड़ी को सड़क परिवहन कार्यालय से विशेष नम्बर “KA 38 B 550” दिया था। इस पुरी यात्रा में ५० से ६० सेवादार लगातार बखुबी अपनी सेवायें पुरी गुरू मर्यादा के अनुसार निभा रहे थे। विशेष रूप से यात्रा में तखत सचखंड के जत्थेदार बाबा राम सिंघ जी, बाबा शीतल सिंघ जी ने भी अपनी सेवायें दी थी; साथ ही यात्रा में पंज प्यारे साहिब के साथ दो बस और करीब १२ गाड़ीयें और चल रही थी।
यह अभूतपूर्व ऐतिहासिक यात्रा २ जून २०१९ को गुरूद्वारा नानक झीरा साहिब बीदर से श्री अखंड पाठ साहिब की समाप्ति के पश्चात मूल मंत्र के पाठ के बाद पांच प्यारों की उपस्थिति में और सभी संत महापुरुषों की उपस्थिति में साथ ही तेलंगाना राज्य की डायरेक्टर जनरल (आय.पी.एस.) तेजदीप कौर मैनन एवम सभी संगतों की उपस्थिति में गुरू घर के निशान साहिब दिखाकर जयकारे बुलाते हुये, यात्रा की शुरुआत की गई। यात्रा अपने तय रूट के मुताबिक पिछले लगभग ९७ दिनों से देश के १९ राज्य के करीबन २५० शहरों से होती हुई लगभग २६००० किलोमीटर का सफर निर्वीध्न कर दिनांक ७ सितंबर सन् २०१९ को दक्षिण भारत के पंजा साहिब धन गुरू ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के चरण स्पर्श स्थान गुरूद्वारा नानक झीरा साहिब में पहुँची।
इस महान ऐतिहासिक यात्रा का विशुद्ध मकसद पुरे देश की नानक नाम लेवा संगत को गुरूवाणी के आधार पर सांझी वालता का उपदेश देना था। सतगुरू नानक जी की वाणी ‘नाम जपो, किरत करो, और वंड छकों’ को दुनिया के कोने – कोने में पहुँचाकर मानवता की सेवा करना है। इस यात्रा को अभूतपूर्व सफलता मिली थी, पुरे देश में हमारी सांस्कृतिक, धार्मिक और आपसी मेल – मिलाप की भावना को शब्दों में व्यक्त नही किया जा सकता है। मन को छू लेने वाली संवेदनाओं को महसुस किया जा सकता है, समझा जा सकता है। इस महान प्रकाश पर्व यात्रा में पुरे देश के जन सामान्य ने सतगुरू नानक देव साहिब जी के प्रति विशेष श्रद्धा, प्यार और आत्मीयता दिखाई, वो हर गुर सिख को भाव विभोर कर देती है। लाखों की तादाद में देश के जनमानस ने इस यात्रा के दर्शन कर अपने आपको निहाल किया है। इस महान यात्रा के माध्यम से हजारों – हजार सेवादारों की एक अदभुत श्रृंखला तैयार हुई है। यह सारे सेवादार पंथ खालसा की महान विरासत है। जो किसी भी प्रकार की पंथीक सेवाओं के लिये हमेशा तैयार – बर – तैयार रहते है। इस यात्रा ने पुरे देश में भक्ति और सेवा का एक विशेष बेमिसाल माहौल तैयार किया है। सतगुरू नानक देव साहिब जी की कीरत कमाई से अर्जीत गुरू जी के अटूट लंगर पुरे यात्रा मार्ग पर निरंतर चल रहे थे। हम सभी सेवादार अपने आपको गौरवांतित महसुस करते है की यह महान यात्रा अपने मकसद में बहुत हद तक कामयाब रही।
५५० साला गुरू नानक प्रकाश यात्रा की विशेष झलकियां:–
इस महान यात्रा के माध्यम से पुरे देश की नानक नाम लेवा संगत खासकर हमारे सिंधी, मौना पंजाबी परिवार व मुस्लिम भाइयों ने गुरू ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की आध्यात्मिक विरासत को मानते हुये विशेष आस्था दिखाकर अपनी सेवाओं के पुष्प अर्पित किये। गुरू ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी ने पु्रे देश की एकता और अखंडता को कायम रखने में विशेष योगदान दिया है।
इस महान यात्रा के माध्यम से पु्रे देश में पंथिक सेवादारों की एक विशेष श्रृंखला तैयार हुई है। जो पंथ खालसा की सेवा के लिये तैयार – बर – तैयार रहते है। परिणाम स्वरुप पुणे (महाराष्ट्र) में जब ३२ कश्मीरी युवतियों को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा तो (धारा ३७० हटने के बाद) इंही सारे सेवादारों की मदद से यह सभी युवती अपने – अपने घरों में सुरक्षित पहूँची और इस सेवा की पुरी दुनिया में सहराना की गईं।
इस महान यात्रा के दौरान सिक्ख युवक / युवतियों में (नई पीढ़ी) एक विशेष आध्यात्मिक,धार्मिक आस्था व श्रद्धा दिखाई दी। खासकर के छोटे शहरों और कस्बों में इनकी श्रद्धा, भावना और गुरूओं के प्रति आस्था को शब्दों में व्यक्त नही किया जा सकता है। इस महान यात्रा में छोटे बच्चों और महिलाओं का सहयोग सरहानिय था।
यह महान यात्रा छोटे – छोटे कस्बों / शहरों में जहाँ सिक्ख परिवारों की संख्या नगण्य है, वहाँ पर भी गई और सारी संगतों को दर्शन देकर निहाल किया।
जहाँ – जहाँ से भी यह यात्रा गई वहाँ पर कथा – किर्तन और गुरू जी के अटूट लंगर बांटे गये। देश के समस्त गुरूद्वारों की प्रबंधक कमेटीयां और संगतों के बेमिसाल सहयोग से इस महान यात्रा का आयोजन बहुत ही अनुशासित था। तय रूट के अनुसार पुरे देश में सभी स्थानों पर यात्रा लगभग सही समय पर पहुंची थी और सभी कार्यक्रम तय समय अनुसार आयोजित हुये, परिणाम स्वरूप लाखों की तादाद में संगतों ने पालखी साहिब के दर्शनों का लाभ उठाया।
इस महान यात्रा के दौरान देश की संगतों और गुरूद्वारा प्रबधंको के द्वारा यात्रा के सेवादारों का बहुत ही अच्छा समुचित इंतजाम किया गया था। सभी विश्राम स्थानों पर रहने की लंगर की व्यवस्था तारिफे काबिल थी। पुरे यात्रा मार्ग पर यात्रा में चल रही सभी गाड़ियों में फ्युल भरने की सेवा भी लगभग सभी स्थानों पर संगतों के द्वारा की गई। यात्रा मार्ग पर विशेष कर दक्षिण भारत में जहां गुरूद्वारे नही थे, वहां पर ढा़बों में संगतों के द्वारा पुरी गुरू मर्यादा अनुसार लंगर का आयोजन किया गया।
इस महान यात्रा का स्वागत – सत्कार – सेवा देश की सभी संगतों ने, गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटीयों ने, सभी जत्थे बंदीयों ने,सारे देव स्थानों ने, सारे ही संत – महंतों ने, सेवादल, निहंग जत्थेबंदियों ने आपस में मिलकर एकजुट होकर किया।
यह महान ऐतिहासिक यात्रा लगभग ९७ दिनों का अपना सफर निर्वीघ्न संपन्न कर ७ सितंबर सन् २०१९ को गुरूद्वारा नानक झीरा साहिब में पहुँची। इस महान ऐतिहासिक यात्रा को सफल बनाने के लिये प्रबंधक कमेटी गुरूद्वारा नानक झीरा साहिब के अध्यक्ष डा.बलबीर सिंघ जी ओर उनके साथी सेवादार दिन – रात चौबीस घंटे तन – मन – धन से सेवा कर रहे थे। यात्रा के चिफ को – आर्डीनेटर स.पुनित सिंघ जी, स.परविंदर सिंघ जी भाटिया (रायपुर वाले) अपनी पुरी निष्काम सेवायें देकर यात्रा को अभूतपूर्व रुप से सफल बनाया है। स.प्रदीप सिंघ जी यात्रा के सभी सेवादारों की विशेष रुप से सेवा कर रहे थे। स.पवित सिंघ जी ने बीदर गुरूद्वारा साहिब से पुरी यात्रा पर देखरेख कर अपना पूर्ण सहयोग देकर यात्रा को अभूतपूर्व सफल करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है । स.मनप्रीत सिंघ जी खंडुजा जिंहोने इस महान यात्रा की रुप रेखा बनाई थी, उसे पूर्ण रुप से साकार कर पुरे देश की नानक नाम लेवा संगतों को एक सुत्र में बांधने का काम किया है। यहां पर विशेष जिक्र करना होगा स.हरपाल सिंघ जी रांजण, स.लौहार सिंघ जी, स.अजीत सिंघ जी, सतबीर वीर जी हैद्राबाद निवासी और सारी ही गुरूद्वारा प्रबंधक कमेटीयां खासकर तखत सचखंड हजूर साहिब नांदेड की गुरूद्वारा प्रबधंक कमेटी, स.डी.पी.सिंघ चावला जी जिनके विशेष योगदान से यात्रा अभूतपूर्व सफल रही|






जीवन के किसी मोड़ पर मैनें अन्जाने में रास्ते पर गिरे हुये फुलों को कुचल दिया; पर इन पागल फुलों को क्या कहूँ? मुझे पैरों से लेकर सिर तक अपनी खुशबू में सराबोर कर दिया !!

