पुस्तक का नाम
अनमोल-स्वर्णिम सिख इतिहास
मार्गदर्शक--
1. सरदार भगवान सिंह 'खोजी' (इतिहासकार)।
2.सरदार रणजीत सिंह अरोरा 'अर्श'।
यह पुस्तक श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के 400 वें प्रकाश पर्व के शुभ अवसर पर श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी को समर्पित की गई है।
प्रस्तावना
अप्रैल सन् 1699 ई. को बैसाखी दिवस पर करुणा, कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी’ महाराज के द्वारा ‘गुरु पंथ-खालसा’ की सर्जना कर प्रथम पांच प्यारों को सिख सजाया था और उन्हीं पांच प्यारों से स्वयं अमृत पान कर विश्व के भौगोलिक नक्शे पर एक अदद, मानवतावादी धर्म अर्थात सिख धर्म का उदय गुरु जी के कर-कमलों के द्वारा हुआ था। इस नवीन धर्म में खालसा सजने के तुरंत बाद गुरु जी ने स्वयं अमृत छककर छोट-बड़े, जात-पात का भेद समाप्त कर दिया था। इस ‘गुरु पंथ-खालसा’ ने अपनी सेवा,सिमरन, त्याग, इंसानियत, देशभक्ति और रणभूमि में दी गई शहीदीयों के जज्बे से अपनी एक अलग विशेष पहचान विश्व के मानस पटल पर निर्माण की है।
दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी’ ने खालसा को धार्मिक शिक्षाओं से शिक्षित कर ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के आदेशानुसार गृहस्थ जीवन में जीने का सरल और उत्तम मार्ग बताया। वर्तमान समय में दशमेश पिता के इस खालसा ने सिख धर्म की शिक्षाओं के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों में महारत हासिल कर ‘गुरु पंथ-खालसा’ का परचम पूरी दुनिया में शान से लहराया है।
‘गुरु पंथ-खालसा’ के महान विद्वान, इतिहासकार सरदार भगवान सिंह ‘खोजी’ जी द्वारा ‘गुरु पंथ-खालसा’ के इतिहास के संदर्भ में कुछ वीडीयो क्लिप रचित कर ‘खोज-विचार’ नामक श्रृंखला के माध्यम से गुरुमुखी भाषा में यू-ट्यूब और फेस बुक के माध्यम से पाठकों तक पहुंचाई जा चुकी है। यह वीडीयो क्लिप पंजाबी भाषियों में बहुत प्रसिद्ध है और इन वीडीयो क्लिप के माध्यम से सिख धर्म से संबंधित गुरबाणी और सिख इतिहास का आधुनिक तरीके से विश्लेषण कर वर्तमान समय के जीवन में उसकी उपयोगिता को सिद्ध कर सिख धर्म के अनुयायियों के समक्ष प्रस्तुत कर इस अनमोल-स्वर्णिम सिक्ख इतिहास का प्रचार-प्रसार करने का बेमिसाल प्रयत्न आदरणीय भगवान सिंह जी ‘खोजी’ के द्वारा किया गया है।
इतिहासकार सरदार भगवान सिंह जी खोजी खंडे-बाटे का अमृत छककर, अमृत पान कर सिख धर्म के तैयार-बर-तैयार खालसा जी है। सिख धर्म की सभी उच्च धार्मिक शिक्षाओं को आपने प्रसिद्ध सिख धर्म के धार्मिक संस्थानों से इन शिक्षाओं को ग्रहण कर संपूर्ण गुरबाणी को कंठस्थ कर, सिख धर्म से इतिहास का गहन अध्ययन कर, एक वरिष्ठ अध्यापक के तौर पर अपनी सेवाएं समर्पित की थी। आप जी ने उत्तम अध्ययन कर अपने एक विशेष दृष्टिकोण से सिख इतिहास के कई अनछुए, ऐतिहासिक पहलुओं की खोज की है। आपकी इस उपलब्धि के कारण आप का उपनाम ‘खोजी’ के रूप में विश्व विख्यात है।
इस पुस्तक के लेखों के अंतर्गत इतिहासकार सरदार भगवान सिंह ‘खोजी’ के द्वारा रचित इतिहास और गुरुबाणी के वीडीयो क्लिप की जानकारी को पुस्तक के दूसरे लेखक के द्वारा इन सभी वीडीयो क्लीप को सरल हिंदी भाषा में अनुवाद कर पाठकों के समक्ष लेखों के स्वरुप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
पुस्तक के दूसरे लेखक डाॅ. रणजीत सिंह जी अरोरा ‘अर्श’ विज्ञान के स्नातक और एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के कार्यकारी संचालक हैं। साथ ही आप जी हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध स्तंभकार के रूप में पूरे देश में चिर-परिचित है। कोरोना लॉक डाउन के खाली समय में आपने गुरबाणी और सिख इतिहास पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करते हुए अनेक लेखों का उत्तम लेखन किया है। डाॅ. रणजीत सिंह अरोरा ‘अर्श’ सिख धर्म के कट्टर अनुयाई और समाज सेवक है। आप जी के द्वारा रचित लेख और इतिहासकार सरदार भगवान सिंह जी ‘खोजी’ द्वारा रचित वीडीयो क्लिप को हिंदी में अनुवाद कर लेखों के रूप में लिखकर हिंदी के पाठकों को अनमोल-स्वर्णिम सिख इतिहास की अभिनव और अत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी arsh.blog के माध्यम से हिंदी के पाठकों को देने का विशेष प्रयत्न लेखक के द्वारा किया जा रहा है।
अकाल पुरख वाहिगुरु जी के चरणो में अरदास है कि लेखक को वाहिगुरु जी आशीर्वाद प्रदान करें ताकि लेखक अपने पाठकों तक सही-सटीक और विशुद्ध अनमोल-स्वर्णिम सिख इतिहास की जानकारी को समर्पित कर सकें।
नोट:- 1.’श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक ‘अंग’ कहकर संबोधित किया जाता है|
2. इन लेखों के वीडीयो क्लिप निर्माण और लिखित रूप में रचना करने के लिए कई संदर्भ ग्रंथों (स्रोतों) से एवं गूगल सर्च इंजिन से भी जानकारी ग्रहण की गई है।
3.गुरुबाणी के पद्यों का हिंदी अनुवाद ‘गुरुबाणी सर्चर ऐप’ को मानक मानकर उसके अनुसार किया गया है।
4. इस ब्लाग में प्रकाशित सिख गुरुओं के चित्र काल्पनिक है|
सिक्ख जीवन शैली
विश्व में सिक्ख धर्म को सबसे आधुनिक धर्म माना गया है। सिक्ख धर्म को एक मार्शल धर्म भी माना जाता है। ऐसी क्या विशेषता है इस धर्म की? जो सिक्ख धर्म के अनुयाई हैं, उनकी एक विशेष प्रकार की ‘जीवन शैली’ होती है। इनके जीवन में विनम्रता और व्यक्तिगत स्वाभिमान का विशेष महत्व है। प्रत्येक सिक्ख ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के द्वारा ‘किरत करो, नाम जपो और वंड़ छकों’ के सिद्धांत के अनुसार जीवन व्यतीत करता है अर्थात कष्ट करो, प्रभु – परमेश्वर का स्मरण करो और जो भी प्राप्त हो उसे बांट कर खाओ। सिक्ख धर्म की बुनियाद अंधविश्वास को ना मानने में है। अज्ञानता को दूर करने के लिए मानवीय जीवन में गुरु बाणी की शिक्षाओं से दिव्य ज्ञान को प्राप्त कर गुरुबाणी की शिक्षाओं के अनुसार सिक्ख ‘जीवन शैली’ चलती है। अंधविश्वास का सिक्ख विद्वानों ने भी अपनी बाणी में कडा़ विरोध किया गया है।
इन विद्वानों कि बाणी में अंकित है:-
जो कढ़िये अंदरो अंध विशवास।
मिटे अंधकार हनेरा होए प्रकाश।।
अर्थात्… वो बातें या प्रसंग जिन पर बिना जानकारी के, बिना किसी ज्ञान के,किसी और के बोलने पर विश्वास करना अंधविश्वास कहलाता है। यदि इसे विस्तार से विश्लेषित किया जाए तो हम कह सकते हैं कि अंधविश्वास अर्थात उन बातों पर विश्वास करना जिनकी कोई प्रमाणिकता नहीं है। अंधविश्वास एक ऐसी गहरी धुंध है जो मनुष्य के सोचने – समझने की दृष्टि को प्रभावित करती है। इसका सबसे गहरा प्रभाव इंसान की मानसिकता पर पड़ता है। इससे इंसान अपनी ‘विवेक – बुद्धि’ खो देता है। इसके कई उदाहरण हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में देखने को मिलते हैं। जैसे पुराने समय में रात को घर में झाड़ू लगाने से मना किया जाता था। इसके पीछे एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण था कि पुराने समय में रात में रोशनी की सुविधा अच्छी नहीं होती थी और यदि गलती से घर का कीमती सामान घर में गिरा होगा तो वो कचरे के साथ बाहर फेंका जा सकता है। इसलिए रात में झाड़ू लगाने के लिए मना किया जाता था। इस तरह की अनेक धारणाएं हैं जो उस समय के अनुसार बनी हुई थी परंतु वो ही धारणाएं आज हमारे आधुनिक समाज में ‘रीति -रिवाज’ बनकर प्रचलित है। पहले से चली आ रही है, अंधविश्वास की लकीरों को समझकर उसकी सच्चाई की तह तक कोई जाना नहीं चाहता है। पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे इन रीति – रिवाजों को इंसान मानसिक रूप से स्वयं के फायदे के लिए ‘डर’ के द्वारा दबा देता है। यदि देखा जाए तो आंख बंद कर किसी भी रीति – रिवाज को मानने का प्रमुख कारण ‘डर’ है।
पुरातन समय से लेकर आज तक जब भी इंसान किन्हीं बातों या प्रसंगों से भयभीत हुआ या किसी शक्ति या ताकतों के आगे इंसान ने अपने आप को कमजोर पाया तो ‘डर’ के कारण उन्हीं को पुजना शुरु कर दिया। यदि गहराई से सोचें तो धर्म के क्षेत्र में अंधविश्वास को बढ़ावा ‘डर’ ही देता है। ‘डर’ का अभिशाप ही इंसान को मानसिक रूप से अपाहिज करता है। अंधविश्वास, बुद्धिमान – विवेकी और समझदार व्यक्ति की बुद्धि क्षमता को ही नष्ट कर जीवन के सच्चे मार्ग से भटका देता है।
गुरुबाणी में अंकित है:-
दुबिधा न पड़उ हरि बिनु होरु न पूजउ मडै़ मसाणि न जाई।।
(अंग क्रमांक ६३૪)
अर्थात् इंसान को दुविधा में नहीं जीना चाहिए और ना ही अपने आप को किसी भ्रम, संदेह में डालना चाहिए क्योंकि कहीं ना कहीं दुविधा,भ्रम और संदेह ही अंधविश्वास का कारण बनते हैं।
अंत में इस अंधविश्वास का परिणाम ‘धोखे’ के रूप में प्राप्त होता है। इस अंधविश्वास की गफलत भरी दुश्वारियां से बचने के लिए,आत्मा की ऊंची उड़ान के लिए,जीवन को अंधविश्वास के अंधेरों से बाहर निकालना चाहिए। ज्ञान के प्रकाश के मार्ग पर चलने के लिए आवश्यक है कि हम उस ज्ञान को प्राप्त करें। इंसान के विवेक और बौद्धिक स्तर को मजबूत करें। इंसान को सच्चे ज्ञान का बोध हो और सच्चे ज्ञान के लिए आवश्यक है, इंसान का उस परमपिता – परमेश्वर पर अटूट विश्वास का होना। इससे इंसान को समझदारी का बोध होता है और जब यह समझदारी का बोध इंसान को हो गया तो वो कभी भी किसी गफलत की हवा से जीवन में अपने विश्वास को टूटने नहीं देता है और जब अंधविश्वास का अंधेरा जीवन को बिखेरने की कोशिश करें तो हमें अपने प्रभु – परमेश्वर को याद कर विवेकी होकर जाग्रत बुद्धि से होश – हवास में कदम उठा कर अपने जीवन को स्थिरता प्रदान कर जीवन को सुखी बनाना चाहिए। यही ‘सिक्ख जीवन शैली’ है।
इसी तरहां से गुरु सिक्ख की ‘जीवन शैली’ स्वयं के कर्मों पर आधारित है। ‘अहंकार और घमंड’ से कोसों दूर सिक्ख की ‘जीवन शैली’ विनम्रता से परिपूर्ण होनी चाहिए। विनम्रता को कभी कमजोरी या बुजदिली नहीं समझना चाहिए। विनम्रता कभी भी हीन भावना से ग्रस्त नहीं होती है। विनम्रता करते समय ध्यान रखना होगा कि हमारा व्यक्तिगत स्वाभिमान क्षतीग्रस्त ना हो। किसी के सामने जलील हो जाना यह बुजदिली से झुक जाना या किसी की जबरदस्ती से बात मान लेनी, विनम्रता के लक्षण नहीं है। ‘श्री गुरु नानक देव जी’ की बाणी में अंकित है:-
जे जीवै पति लथी जाइ।।
सभु हरामु जेता किछु खाइ।।
(अंग क्रमांक १૪२)
अर्थात् जो इंसान अपनी इज्जत गवां कर जीवन जीता है और परमात्मा के डर को भूल जाता है। उस इंसान की इज्जत समाप्त हो जाती है। ऐसे समय में इंसान हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है। जब इंसान इज्जत गवां लेता है तो सभी कुछ हराम है। जो भी खा – पी रहा है या अच्छे कपड़े पहन रहा है, वो सभी हराम है।
सिक्खों को गुरु जी ने स्वाभिमान के साथ जीना सिखाया है इसलिए पांच ककारों में कृपाण को रखा गया है। कृपाण नामक इस शस्त्र को पहले तलवार से संबोधित किया जाता था। तलवार शब्द बना है तले+वार से अर्थात मजलुमों पर वार करने वाला हथियार तलवार ! सिक्खों को यही शस्त्र धारण करवाया गया परंतु इसे तलवार न कहते हुए कृपाण से संबोधित किया गया। कृपाण अर्थात कृपा+आण, यह शस्त्र म्यान में से तभी बाहर आता है, जब किसी मजलूम पर कृपा करनी हो या फिर जब व्यक्तिगत स्वाभिमान पर कोई प्रहार करें।
कृपा,दया और विनम्रता की प्रतीक है। आन, स्वाभिमान का प्रतीक है। दोनों संज्ञाओं का मिलाजुला रूप कृपाण है। गुरूबाणी में अंकित है:-
जिन जीवंदिआ पति नही मुइआ मंदी सोइ।।
लिखिआ होवै नानका करता करे सु होइ।।
(अंग क्रमांक १२૪२)
अर्थात् जिनकी जीवन यात्रा में इज्जत नहीं है। ऐसे लोगों की मरने के बाद भी कोई इज्जत नहीं होती है। अपितु ऐसे मरे हुए लोगों को समाज बुराई कर अपशब्द कहते हुए ही याद करता है। कर्मों के अनुसार इंसान के किये हुये कर्म लिखे जाते हैं और उसके मुताबिक ही उस अकाल पुरख,परमपिता – परमेश्वर ने न्याय करना है।
इससे स्पष्ट होता है कि सिक्खी ‘जीवन शैली’ में अंधविश्वास को कोई महत्व नहीं है अपितु अंधविश्वास के नाश के लिए ही सिक्ख धर्म का उदय हुआ है। सिक्ख ‘जीवन शैली’ में विनम्रता और स्वाभिमान का अपना अलग महत्व है।

गुरबाणी और विज्ञान (प्रसंग एक)
गुरबाणी और विज्ञान दो अलग – अलग पक्ष है। पर इनका आपसी संबंध अभूतपूर्व है। विज्ञान दिमाग की उपज है, विज्ञान गणनाओं पर आधारित होता है, विज्ञान में समीकरणों का अत्यंत महत्त्व है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विज्ञान एक खालीपन है। विज्ञान को प्रयोगशालाओं में सिद्ध किया जाता है। पहले वैज्ञानिक विचार कर संकल्पना लिखते हैं और फिर प्रयोग कर उसकी सत्यता को सिद्ध करते है।
जब की गुरबाणी का संबंध आत्मा और परमात्मा से है। यह एक स्थाई आनंद है। यदि विज्ञान और गुरबाणी का विश्लेषण किया जाये तो दोनों अलग – अलग शब्द हैं। एक और दिमाग है एवं दूसरी और आत्मा, प्रत्यक्ष रूप से सीधा इनका कोई संबंध नहीं है।
आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व हमारे गुरुओं ने और भक्तों ने जब बाणी का उच्चारण किया तो आधुनिक विज्ञान की खोज और उनके द्वारा उच्चारित बाणी में सौ प्रतिशत साम्य है। आश्चर्य की बात है कि इन सूफी, संत, भक्त और गुरुओं के पास आधुनिक विज्ञान के कोई भी साधन उपलब्ध नहीं थे। उस समय विज्ञान बिल्कुल अपने बाल्यावस्था में था। सैकड़ों वर्ष पहले उच्चारित गुरूबाणी आज के आधुनिक विज्ञान की खोज पर खरी उतरी है। यह अत्यंत आश्चर्यजनक है।
विज्ञान के अनुसार लाखों, करोड़ों वर्ष पहले कुछ नहीं था और विज्ञान ने “बिग बेन” के सिद्धांत को मानकर कहा है कि एक अति सूक्ष्म जीव अनंत है। आधुनिक विज्ञान में अनंत की कोई गणना नहीं है। इस का विश्लेषण विज्ञान में नहीं किया जा सकता है परंतु गुरबाणी कहती है:–
अरबद नरबद धुंधूकारा॥
धरणि न गगना हुकमु अपारा।।
ना दिनु ना रैनि न चंदु न सूरजु सुंन समाधि लगाइदा॥
खाणी न बाणी, पउन न पाणी॥
ओपति खपति न आवण जाणी॥
(अंग क्रमांक १०३५)
अर्थात् अरबों – खरबों वर्ष पहले केवल धुंध थी। उसके हुकूम से ना कोई धरती थी, ना अकाश था, ना दिन था, ना ही रात थी और ना ही चंद्रमा था, ना ही सूरज था केवल अकाल पुरख अपनी अवस्था में लीन थे। ना खाने को कुछ था, ना बाणी थी, ना हवा थी, और ना ही पानी था। कोई उपज नहीं थी, ना ही कोई खान – पान था और ना ही कोई आना – जाना था। यही आधुनिक विज्ञान ने भी सिद्ध किया है की उस समय कुछ नहीं था।
फिर दुनिया की उत्पत्ति क्यों हुई? इस प्रश्न पर विज्ञान मौन है। ‘बिग बैंन’ सिद्धांत के हिसाब से एक अति सूक्ष्म उर्जित कण पर एक बहुत बड़ा धमाका हुआ और दुनिया की उत्पत्ति हुई। दुनिया की उत्पत्ति के पश्चात ही विज्ञान प्रारंभ हुआ। गुरबाणी में सृष्टि की रचना का प्रारंभ इस तरह दर्शाया गया है:–
आपे सचु कीआ कर जोडि॥
अंड़ज फोड़ि जोड़ि विछोडि।
(अंग क्रमांक ८३९)
अर्थात् अंडे के रूप में सूक्ष्म ऊर्जा का फूटना,जुड़ना और फिर फूटना यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। आधुनिक विज्ञान भी यही कह रहा है कि सृष्टि का विस्तार और विनाश एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।
इसको गुरुबाणी में दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने इस तरह उच्चारित किया है:–
जब उदकरख करा करतारा॥
प्रजा धरत तब देह अपारा॥
जब आकरख करत हो कबहूं ॥
तुम मै मिलत देह धर सभहूं॥
(काबयो बाच बेनती)
अर्थात् जब परमात्मा ने दुनिया का विस्तार किया, फलस्वरूप ब्रह्मांड का उदय हुआ है और जब परमात्मा सब कुछ समेट लेगा तो सभी कुछ उसमें विलय हो जायेगा। अर्थात् विस्तार होगा और विनाश होगा और यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इसी को जप जी साहिब में दर्शाया गया है:–
कीता पसाउ एको कवाउ॥
तिस ते होए लख दरिआउ॥
(अंग क्रमांक ३)
अर्थात् एक अति सुक्ष्म उर्जा के अत्यंत विशाल विस्फोट से सृष्टि की उत्पत्ति हुई है।
जपु जी साहिब में ब्रह्मांड को ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने विश्लेषित किया है:–
पाताला पाताल लख आगासा आगास॥
ओड़़क ओड़क भालि थके वेद कहनि इक वात॥
सहस अठारह कहनि कतेबा असुलू इकु धातु॥
(अंग क्रमांक ५)
अर्थात् पातालों के नीचे लाखों ही पाताल हैं और आकाश के आगे लाखों ही आकाश हैं।
वेद जो कहते हैं कि अनंत से लेकर अनंत तक ढूंढ के थक गये हैं। वेदों में यह कहा गया कि १८००० ग्रह है परंतु वास्तव में एक ही ब्रह्मांड है। ‘श्री गुरू नानक देव साहिब जी’ द्वारा रचित आरती का उच्चारण उंहोने इस प्रकार किया:–
गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती॥
(अंग क्रमांक १३)
अर्थात् पुरे ब्रह्माण्ड की आकाश गंगा, चांद, सूरज और तारों को लेकर अकाल पुरख की आरती गई है। इस रचना के उच्चारण से ही समझ आता है कि ‘श्री गुरू नानक देव साहिब जी’ को ब्रह्माण्ड की सुक्ष्म रूप से उत्तम जानकारी थी।
विज्ञान ने अपनी खोज में सिद्ध किया है कि आज से १३००० वर्षों पहले एक उल्का पिंड जो मंगल ग्रह से टूट कर विनस और सूरज की परिक्रमा कर धरती पर गिरा। जो कई छोटे – छोटे टुकड़ों में विभक्त हो गया था। नासा के वैज्ञानिकों ने इन टुकड़ों का प्रयोगशाला में परीक्षण किया और इन टुकड़ों से एक जीवाश्म के अंश को प्राप्त किया था। इस खोज को ७ अगस्त सन् १९९६ के दिन पूरा किया था और इस प्राप्त जीवाश्म के अंश को ALH 84001 के नाम से नामांकित किया गया। इसे गुगल पर भी सर्च किया जा सकता है। इस खोज के पश्चात नासा के वैज्ञानिकों ने माना कि धरती के बाहर ब्रह्मांड में भी जीवन है। जिसे आधुनिक विज्ञान में एलियन का नाम दिया है परंतु ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी में इसको लगभग ५०० वर्ष पहले ही अंकित किया गया था।
‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित है:–
जलि थलि जीआ पुरिआ लोआ आकारा आकार॥
ओइ जि आखहि सु तूंहै जाणहि तिना भि तेरी सार॥
(अंग क्रमांक ૪६६)
अर्थात् आकाश गंगा के ग्रहों में जो जीव जंतु रहते हैं उन्हें भी परमात्मा का आशीर्वाद प्राप्त होता है।
घट घट के अंतर की जानत॥
भले बुरे की पीर पछानत॥
(कबयो बाच बेनती)
अर्थात् परमात्मा ब्रह्माण्ड में स्थित सभी जीव, जंतुओं के घट – घट की जानता है और सारे जीव,जंतु भी उस एक निरंकार की आराधना करते है।
विज्ञान जो ऐलियन की खोज को साबित कर रहे है परंतु ‘श्री गुरू ग्रंथ साहिब में’ इसका प्रमाण ५०० वर्षों पूर्व में ही दे दिया गया है।
गुरबाणी कहती है:–
जो ब्रह्मंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै॥
(अंग क्रमांक ६९५)
अर्थात् जो ब्रह्मांड में है वो ही सब कुछ तुम्हारे शरीर में है और शरीर की आत्मा का मिलन परमात्मा से करना है।
सिक्ख धर्म की उत्पत्ति प्रकृति और विज्ञान के अनुकूल है।
गुरबाणी कहती है:–
हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे होवै मुकति॥
(अंग क्रमांक ५२२)
अर्थात् गृहस्थ जीवन में रहकर गुर सिक्खी अनुसार सभी भौतिक सुविधाओं का आनंद लेकर जीवन की यात्रा के आनंद को मानना चाहिये।
प्रवाण ग्रहस्थ उदास।
अर्थात गृहस्थ जीवन में रहकर उदास नहीं रहना चाहिये।
धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ और गुरुओं द्वारा उच्चारित बाणी धन्य है और आधुनिक विज्ञान में वैज्ञानिक नई – नई खोजों का आधार ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी को आधार मानकर कर रहे हैं।

गुरबाणी और विज्ञान (प्रसंग दो)
गुरबाणी और विज्ञान दो विभिन्न पक्ष है। पर इनका आपसी संबंध अभूतपूर्व है। विज्ञान दिमाग की उपज है, विज्ञान गणनाओं पर आधारित होता है, विज्ञान में समीकरणों का अत्यंत महत्त्व है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विज्ञान एक खालीपन है। विज्ञान को प्रयोगशालाओं में सिद्ध किया जाता है। पहले वैज्ञानिक विचार कर संकल्पना लिखते हैं और फिर प्रयोग कर उसकी सत्यता को सिद्ध करते है।
जब की गुरबाणी का संबंध आत्मा और परमात्मा से है। यह एक स्थाई आनंद है। यदि विज्ञान और गुरबाणी का विश्लेषण किया जाये तो दोनों विभिन्न शब्द हैं। एक और दिमाग है एवं दूसरी और आत्मा, प्रत्यक्ष रूप से सीधा इनका कोई संबंध नहीं है।
आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व हमारे गुरुओं ने और भक्तों ने जब बाणी का उच्चारण किया तो आधुनिक विज्ञान की खोज और उनके द्वारा उच्चारित बाणी में सौ प्रतिशत साम्य है। आश्चर्य की बात है कि इन सूफी, संत, भक्त और गुरुओं के पास आधुनिक विज्ञान के कोई भी साधन उपलब्ध नहीं थे। उस समय विज्ञान बिल्कुल अपने बाल्यावस्था में था। सैकड़ों वर्ष पहले उच्चारित गुरूबाणी आज के आधुनिक विज्ञान की खोज पर खरी उतरी है। यह अत्यंत आश्चर्यजनक है। यह जानकारी में अपने पहले लेख में लिख चुका हूँ परंतु हम अभी जो जानकारी पढ़ने जा रहे है, उसे समझने के लिये प्रथम हमें उपरोक्त लिखी बातों को फिर से समझ लेना चाहिये।
धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ और गुरुओं द्वारा उच्चारित बाणी धन्य है और आधुनिक विज्ञान में वैज्ञानिक नई – नई खोजों का आधार ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी को आधार मानकर कर रहे हैं। इस लेख के द्वारा हम गुरूबाणी में रसायन शास्त्र (CHEMISTRY) और पदार्थ विज्ञान (MATERIAL SCIENCE) के बारे में क्या अंकित है? समझने की कोशिश करते है।
गुरुबाणी में अंकित है:-
पवणु गुरु पाणी पिता माता धरति महतु॥
(अंग क्रमांक ८)
अर्थात् वायु गुरू है,पानी पिता है और महान पृथ्वी सभी की माता है।
पाणी पिता जगत का फिरि पाणी सभु खाइ॥
(अंग क्रमांक १२૪०)
अर्थात् पानी दुनिया का पिता है और अंत में पानी ही सब कुछ नष्ट कर देता है।
पहिला पाणी जीउ है जितु हरिआ सभु कोइ॥
(अंग क्रमांक ૪७२)
अर्थात् पानी में जीवन है, जिससे हर चीज हरी हो जाती है।
आधुनिक विज्ञान में पानी की खोज अर्थात् रसायन शास्त्र की भाषा में H2O की खोज सन् १७८૪ में हुई थी। ANTOINE LAVOISIER नामक वैज्ञानिक जिसका जन्म सन् १७૪३ में हुआ था और मृत्यु सन् १७९૪ में हुई थी। इसी वैज्ञानिक ने सन् १७७८ में आक्सीजन की और सन् १७८३ में हाइड्रोजन की खोज की थी। इसी तरहां से एक और वैज्ञानिक HENRY CAVENDISH ने सन् १७८૪ में H2O यानिकी पानी की खोज की थी। उन्होंने अपनी खोज में दर्शाया था कि हवा से पानी की उत्तपत्ती हुई है। आक्सीजन और हाइड्रोजन की रासायनिक क्रिया (CHEMICAL REACTION) के फलस्वरूप पानी का निर्माण हुआ है। जब हम धन्य – धन्य ‘श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी को पढ़ते है तो हम गौरवान्वित महसूस करते है। आधुनिक विज्ञान के इन वैज्ञानिकों की खोज के पूर्व ही सन् १६०૪ में ही ‘श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी‘ की बाणी में अंकित है कि पानी की खोज किस प्रकार से हुई थी? ‘श्री गुरू नानक देव साहिब जी’ ने अपनी बाणी में अंकित किया है:-
साचे ते पवना भइआ पवनै ते जलु होइ।।
जल ते त्रिभुवन साजिआ घटि घटि जोति समोइ॥
(अंग क्रमांक १९)
अर्थात् सबसे प्रथम परमपिता – परमेश्वर (अकाल पुरख) उसके पश्चात हवा और हवा के पश्चात पानी का निर्माण हुआ। पश्चात तीनों लोकों का निर्माण हुआ और तीनों लोकों को अपने ह्रदय में बसाया॥
प्रमाणिक रुप से देखा जाये तो ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ सन् १५३९ में ज्योति – ज्योति समाये थे। जबकी पानी की खोज वैज्ञानिक ANTOIN LAVOISIER ने की जिसकी मृत्यु सन् १७९૪ में यानिकी ‘श्री गुरू नानक देव साहिब जी’ और वैज्ञानिक ANTOIN LAVOISIER की उम्र में २५५ साल का अंतर था। जबकि सन् १७३१ में वैज्ञानिक HENRY CAVENDISH का जन्म हुआ था और उसकी मृत्यु सन् १८१० में हुई थी। पानी की वैज्ञानिक खोज सन् १७८૪ में हुई थी। जबकी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का पहला प्रकाश सन् १६०૪ में हुआ था। लगभग १८० साल पहले ही गुरूबाणी में पानी की खोज हो चुकी थी।
इसी प्रकार से पदार्थ विज्ञान की अभूतपूर्व जानकारी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी‘ में अंकित है पदार्थ विज्ञान के महान वैज्ञानिक Dr. JHON DELTON का जन्म सन् १७६६ में हुआ था और उनकी मृत्यु सन् १८૪૪ में हुई थी। आणविक सिद्धांत (Atomic theory ) की खोज सन् १८०३ में हुई थी। इस सिद्धांत पर काम करने वाले दूसरे वैज्ञानिक J.J.THOMSON थे। इनका जन्म सन् १८५६ को इंग्लैंड में हुआ था और इनकी मृत्यु सन् १९૪० में हुई थी। इन्होंने भी अणु सिद्धांत पर महत्वपूर्ण खोज की थी और इन्हें नोबेल पुरस्कार से विभूषित भी किया गया था। इस प्रकार वैज्ञानिक आइंस्टीन का जन्म भी सन् १८७९ में हुआ था और आणविक सिद्धांत पर इन्होंने भी महत्वपूर्ण खोज की थी। इनका ही सिद्धांत था कि यदि अणु (MOLECULE) को उसके यह नाभिक ( NUCLEUS) से तोड़ा जाए तो परमाणु (ATOM) का निर्माण होगा। परमाणुओं का विस्तार श्रृंखलानुसार (CHAIN REACTION) में होता है। इसी सिध्दांत पर अणु बम का निर्माण हुआ। सन् १९૪५ में इन अणु बमों का विस्फोट जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर किया गया था। इन विस्फोटों में लाखों लोग मारे गए और इन अणु बमों का असर उनकी आने वाली पीढ़ी पर भी दिखाई देता है। इन वैज्ञानिक खोजों ने पृथ्वी को गहरे संकट में डाल दिया है। अध्ययन करने से पता चलता है कि पदार्थ विज्ञान की यह महत्वपूर्ण खोज १८वीं और १९ वीं सदी के मध्य हुई थी।
धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी‘ का पहला प्रकाश सन् १६०૪ में हुआ था और ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी‘ में अणु सिद्धांत को पहले से ही अंकित किया गया है। सिक्ख धर्म के पांचवे गुरु ‘श्री गुरु अर्जन देव जी‘ ने अपनी बाणी ‘गाथा‘ में ‘पृष्ठ क्रमांक १३६०‘ (पाठकों की जानकारी के लिए ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब‘ के पृष्ठों को गुरुमुखी भाषा में सम्मान पूर्वक ‘अंग‘ कहकर भी संबोधित किया जाता है‘) अंकित है:-
परमाणो परजंत आकासह दीप लोअ सिखंड़णह॥
गछेण नैण भारेण नानक बिना साधू सिधृते॥
(अंग क्रमांक १३६०)
अर्थात् अणु से भी छोटा कण ‘परमाणु‘ है, जिसे तोडा़ नही जा सकता है, साथ ही परजंत की भी खोज होनी है। इस परजंत पर ही आधारित अंग्रेजी फिल्म ‘एंट मैन‘( ANT MAN) है। जिसमें परजंत की खोज की सोच को दर्शाया गया है। इस फिल्म में एक इंसान को चींटी के रूप में परिवर्तित किया जाता है और हो सकता है कि ऐसी खोज आने वाले समय में आ सकती है। उपरोक्त अंकित बाणी को सन् १६०૪ में ही ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी‘ में स्पष्ट रूप से अंकित किया गया है। इस बाणी में गुरू जी फरमान करते है कि परमाणु, परजंत की खोज हो जाए परंतु एक बात का ध्यान रखना है कि पलक झपक ने के समय जितने समय में भी तुम पूरी दुनिया में भ्रमण करके आ गए तो भी हमेशा याद रखना कि जब तक तुम संगत में नहीं आओगे, जब तक तुम गुरु की शरण में नहीं आओगे, तब तक तुम्हें शांति प्राप्त नही होगी। भौतिकी रुप से परमात्मा का ज्ञान नहीं हो सकता है और ना ही परमात्मा को प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
सन् १८०३ में अणु की खोज होती है परंतु गुरु जी ने सन् १६०૪ में अणु से भी सूक्ष्म परमाणु की खोज की और परजंत की खोज के बारे में विस्तृत जानकारी दी है अर्थात् ‘नैनो टेक्नोलॉजी‘ का प्रारंभ सन् १६०૪ में ही हो गया था।
जैसे–जैसे धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का अध्ययन करो, बाणी को समझो और गहन विचार करो तो ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की अपरंपार महिमा से हमें विज्ञान की नई – नई खोजों का ज्ञान निश्चित ही प्राप्त होगा।

गुरबाणी और विज्ञान (प्रसंग क्रमांक ३)
गुरबाणी और विज्ञान दो विभिन्न पक्ष है। पर इनका आपसी संबंध अभूतपूर्व है। विज्ञान दिमाग की उपज है, विज्ञान गणनाओं पर आधारित होता है, विज्ञान में समीकरणों का अत्यंत महत्त्व है।
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विज्ञान एक खालीपन है। विज्ञान को प्रयोगशालाओं में सिद्ध किया जाता है। पहले वैज्ञानिक विचार कर संकल्पना लिखते हैं और फिर प्रयोग कर उसकी सत्यता को सिद्ध करते है।
जब की गुरबाणी का संबंध आत्मा और परमात्मा से है, यह एक स्थाई आनंद है। यदि विज्ञान और गुरबाणी का विश्लेषण किया जाये तो दोनों विभिन्न शब्द हैं। एक और दिमाग है एवं दूसरी और आत्मा! प्रत्यक्ष रूप से सीधा इनका कोई संबंध नहीं है।
आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व हमारे गुरुओं ने और भक्तों ने जब बाणी का उच्चारण किया तो आधुनिक विज्ञान की खोज और उनके द्वारा उच्चारित बाणी में सौ प्रतिशत साम्य है। आश्चर्य की बात है कि इन सूफी, संत, भक्त और गुरुओं के पास आधुनिक विज्ञान के कोई भी साधन उपलब्ध नहीं थे। उस समय विज्ञान बिल्कुल अपने बाल्यावस्था में था। सैकड़ों वर्ष पहले उच्चारित गुरूबाणी आज के आधुनिक विज्ञान की खोज पर खरी उतरी है। यह अत्यंत आश्चर्यजनक है। यह जानकारी में अपने पहले के दो लेखों में दे चुका हूँ परंतु हम अभी जो जानकारी पढ़ने जा रहे है, उसके लिये हमें उपरोक्त लिखी बातों को फिर से समझ लेना चाहिये।
धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ और गुरुओं द्वारा उच्चारित बाणी धन्य है और आधुनिक विज्ञान में वैज्ञानिक नई – नई खोजों का आधार ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ की बाणी को आधार मानकर कर रहे हैं। इस लेख के द्वारा हम जानेंगे गुरूबाणी में वैज्ञानिक गैलिलीयो द्वारा की गई खोज को गुरू ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने पहले से ही गुरूबाणी में अंकीत किया है।
आधुनिक विज्ञान के महान वैज्ञानिक गैलीलियो का जन्म सन् १५६૪ में हुआ था और उनकी मृत्यु सन् १६૪२ में हुई थी। वैज्ञानिक गैलीलियो ने ૪ अप्रैल सन् १५९७ को टेलिस्कोप का आविष्कार किया था। इस टेलिस्कोप की सहायता से ही इन्होंने चंद्रमा, बृहस्पति और अलग – अलग कई ग्रहों की महत्वपूर्ण खोज की थी। सन् १६१० में ब्रह्मांड में वैज्ञानिक गैलीलियो ने चार चंद्रमा की खोज भी की थी। महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य यह है कि गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के ज्योति – ज्योत समाने के २५ वर्षों पश्चात वैज्ञानिक गैलीलियो का जन्म हुआ था। गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के ज्योति – ज्योत समाने के ७३ वर्षों पश्चात टेलिस्कोप का निर्माण हुआ था। इससे यह सिद्ध होता है कि गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के समय कोई भी टेलीस्कोप नहीं था। महान वैज्ञानिक गैलीलियो की यह अत्यंत महत्वपूर्ण खोज है कि चंद्रमा का प्रकाश सूरज के प्रकाश से उत्सर्जीत होता है और चंद्रमा का अपना स्वयं का कोई प्रकाश नहीं है। चंद्रमा से जो प्रकाश उत्सर्जीत होता है, दरअसल वो सूरज के प्रकाश का परावर्तन (REFLECTION) है।
यदि हम ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ की बाणी पढ़ते हैं तो इसमें अंकित है कि जब गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की सिद्धों से गोष्ठी हुई और ज्ञान का आदान – प्रदान हुआ तो उस समय गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी, ने ‘ब्रह्माण्ड’ पर चर्चा करते हुए सिद्धों को बताई हुई गुरुबाणी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित है:-
रामकली महला १ सिद्ध गोष्ट
ससि घरि सूरू वसै मिटै अंधियारा॥
(अंग९૪३)
ससीअर कै घरि सूरू समावै॥
(अंग ८૪०)
चंदु सूरजु दुइ दीपक राखे ससि घरि सूरू समाइदा॥
(अंग १०३३)
अर्थात् जब चंद्रमा पर सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो अंधियारा मिट जाता है अर्थात सूर्य का प्रकाश चंद्रमा से परावर्तित होता है। जिससे चंद्रमा प्रकाशित होता है और चंद्रमा सूर्य के प्रकाश में समाहित होता है। उस अकाल पुरख (परमपिता – परमेश्वर) ने ‘ब्रह्मांड’ में इन दो दीपक को विराजमान किया है और चंद्रमा की रोशनी सूरज के द्वारा ही उत्सर्जीत होती है।
गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ का प्रकाश सन् १૪६९ में हुआ था। और आप जी ज्योति – ज्योत सन् १५३९ में समाये थे। वैज्ञानिक गैलीलियो का जन्म सन् १५६૪ में हुआ था और मृत्यु सन् १६૪२ में हुई थी अर्थात गुरू ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के ज्योति – ज्योत समाने के २५ वर्षों पश्चात गैलिलीयो का जन्म हुआ था। गैलीलियो के जन्म के कई वर्ष पूर्व ही गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने गैलीलियो द्वारा टेलीस्कोप से की गई खोज का वर्णन सिद्धों से गोष्ठी करते समय किया था।
जैसे – जैसे गुरुबाणी का अध्ययन करो,गुरुबाणी को समझ कर, गहन विचार करो तो ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की अपरंपार महिमा से हमें विज्ञान की नई – नई खोजों का ज्ञान निश्चित ही प्राप्त होगा।

श्री गुरु ग्रंथ साहिब और भक्ति संगीत
धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ एक ऐसा पवित्र, अनोखा ग्रंथ है जिसमें अंकित सारी गुरुबाणी भक्ति संगीत पर आधारित है। जिसे ‘गुरमत संगीत’ के नाम से भी पहचाना जाता है। ‘गुरमत संगीत’ का प्रारंभ सिक्ख धर्म के संस्थापक प्रथम गुरु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ से हुआ एवं दशम पिता गुरु ‘श्री गोबिन्द सिंघ साहिब जी’ के समय तक पूर्ण विकसित हो गया था। निश्चित रूप से ‘गुरमत संगीत’ का आधार भारतीय शास्त्रीय संगीत ही है। ‘गुरमत संगीत’ को हम इस तरह से परिभाषित कर सकते हैं:–
सिक्ख धर्म में प्रभु के यश के साथ आध्यात्मिक संबंध रखने वाले गुरु, भक्त, संत एवं सुफी – फकीरों की बाणी को राग, लय और ताल में गाने की संगीतमय पद्धति को ‘गुरमत संगीत’ कहते हैं।
‘गुरमत संगीत’ की कुछ मौलिक विशेषतायें हैं जिस कारण ‘गुरमत संगीत’ पारंपरिक भारतीय शास्त्रीय संगीत से अलग हो जाता है। सिक्ख धर्म में प्रचलित पारंपरिक कीर्तन प्रथा के सिद्धांत को ही ‘गुरमत संगीत’ कहते है।
गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने गुरमत के प्रचार के लिये संगीत को माध्यम बनाया और यही संगीत की परंपरा दसवें गुरु तक ‘गुरमत संगीत’ के नाम से विकसित हुई और इस तरह भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक नई विधा ‘गुरमत संगीत’ का जन्म हुआ।
‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में १૪३० पृष्ठों (अंग) में ‘गुरमत संगीत’ के आधार पर ही रागमयी गुरबाणी अंकित है। १२ वीं सदी से लेकर १७ वीं सदी तक भारत के विभिन्न प्रांतों में रची गई ईश्वरी आध्यात्मिक बाणी को ही ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में संकलित किया गया है। इस ग्रंथ में सिक्ख गुरुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मों के भक्त, संत और सूफी – फकीरों की बाणी भी सम्मिलित है।
‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में संकलित गुरबाणी को योजनाबद्ध तरीके से वैज्ञानिकिय आधार पर संकलित किया गया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में रचित रागों को विशिष्ट भावनाओं, विषय और समय के साथ सम्मिलित किया गया है। जिसका मानवीय जीवन पर विभिन्न रूप से विशेष प्रभाव होता है। संक्षेप में जानकारी इस प्रकार से:–
राग बिलावल:- इस राग में आत्मा के सौंदर्य का वर्णन किया गया है।
राग गौंड़ और तुखारी:- इस राग में अलगाव और संघ के विषय में वर्णन किया गया है।
राग श्री:- इस राग में माया और अलगाव को वर्णित किया गया है।
राग माझ:- इस राग में आत्मा का परमात्मा में लीन होना और नकारात्मक विचारों को त्यागने के के संबंध में अद्भुत वर्णन किया गया है।
राग गौरी:- इस राग में आध्यात्मिक सिद्धांतों और विचारशीलता का वर्णन किया गया है।
राग आसा:- यह राग मानवीय जीवन की आशाओं पर केंद्रित है।
राग देवगंधारी:- इस राग में पति – पत्नी को आत्मानुभूति अवस्था में लीन होने का वर्णन किया गया है।
राग सोरठ:- इस राग में ईश्वर की लीलाओं का वर्णन किया गया है।
राग धनाश्री:- इस राग में कई विभिन्न विषयों का उत्तम वर्णन किया गया है।
राग जैत श्री:- इस राग में मन की स्थिरता का वर्णन किया गया है।
राग टौढ़ी:- इस राग में माया और अलगाववाद का वर्णन है।
राग बैरारी:- इस राग में प्रभु की भक्ति करने की प्रेरणा का वर्णन किया गया है।
राग तिलंग:- इस राग में लिखित कविता में इस्लामिक परंपरा के अनेक शब्दों का उपयोग उदासी और सुंदरता को दर्शाने के लिये किया गया है।
राग नट नारायण:- इस राग में प्रभु मिलन उपरांत मिलने वाले आत्मिक आनंद का वर्णन किया गया है।
राग माली गौरा और बसंत:- इस राग में जीवन में मिलने वाली खुशियों को वर्णित किया गया है।
राग केदारा:- प्रेम पर वर्णित है।
राग भैरव:- इस राग में नरकीय यातना का वर्णन किया गया है।
राग सारंग:- इस राग में प्रभु मिलन की प्यास का वर्णन किया गया है।
राग जै जै वंती और वड़हंस:- इन रागों में अलगाववाद पर ध्यान केंद्रित करने का वर्णन किया गया है।
रात कल्याण प्रभाती और कानरा:- इन रागों में भक्तों की भक्ति को दर्शाने का वर्णन किया गया है।
राग सोही बिहाग और मल्हार:- इन रागों में आत्मा का प्रभु के घर से दूर होना और पति मिलन की खुशी का वर्णन किया गया है।
शास्त्रीय संगीत के राग व्यक्ति की भावनात्मक झुकाव का प्रतिबिंब होता है और इसे संगीत की लय में लाने हेतु बनाये गये नियमों में संग्रहित करना होता है। ठीक इसी प्रकार इन रागों को उच्चारने का समय चक्र भी निश्चित है, जो इस प्रकार है:–
राग सोहिनी और परज:- प्रातः से पूर्व (रात २ बजे से भोर ૪ बजे) तक।
राग भटियार और ललीत:- भोर ( ૪ बजे से ६ बजे) तक।
राग अहीर, भैरव, बिलास्खानी – टोड़ी, कोमल – ऋषभ और आशावारी:- प्रातः ( ८ बजे से १० बजे) तक।
राग भैरवी, देशकर, अलहिया – बिलावलऔर जौनपुरी:- प्रातः (१० बजे से दोपहर २ बजे) तक।
राग मपलासी और मुल्तानी:- दोपहर (२ बजे से ૪ बजे) तक।
राग:- पूर्वी, श्री और प्रदीप:- सांयकाल (૪ बजे से ६ बजे) तक।
राग यमन, पुरिया, शुद्ध – कल्याण और हमीर:- सांयकाल (६ बजे से ८ बजे) तक।
राग जै जै वंती, केदार, दुर्गा और देश:- सांयकाल ( ८ बजे से १० बजे) तक।
राग बिहाग, बागे श्री, शंकर और चंद्रकौंस:- रात (१० बजे से १२ बजे) तक।
राग मालकौंस, दरबारी, कान्हड़ा, शहाना और अड़ाना:- देर रात ( १२ बजे से २ बजे) तक।
इससे स्पष्ट रुप से निष्कर्ष निकलता है कि यदि ‘श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी को समझना है तो हमें भारतीय शास्त्री संगीत और ‘गुरमत संगीत’ का ज्ञान होना आवश्यक है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत और गुरमत संगीत: एक तुलनात्मक अध्ययन
एक संगीतकार अपनी भाव भंगिमाओं को स्वर,ताल और लय के द्वारा प्रगट कर साकार करता है। गुरमत संगीत, भारतीय संगीत से इसलिये भिन्न है कि इसमें सिक्ख गुरुओं ने अपनी सर्जनता और भावनाओं को प्रकट करने के लिये इसकी सृजना की है। निश्चित रूप से गुरमत संगीत प्राचीन मार्गी संगीत पर ही आधारित है।
गुरमत संगीत ऐसा देसी संगीत जिसकी कोई लिखित विधा नहीं है परंतु जो लोक भावनाओं में सम्मिलित था उसे भी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में शामिल किया गया है। इस कारण से यह गुरमत संगीत आम जन में बहुत लोकप्रिय हुआ। गायन शैली के अंतर्गत ही लोक गीतों का विवरण गुरुबाणी में अंकित है।
देश में आयोजित भक्ति संगीत समारोह में गीतों का गायन एवम लोक धुनों का वादन किया जाता है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रदर्शन के समय गायक इन गीतों का गायन नहीं करते हैं। भारतीय शास्त्रीय संगीत, तीन प्रमुख अंगों पर आधारित है, गायन, वादन और नृत्य कला। वादन निश्चित रूप से गायन के अधीन है एवं नृत्य कला, गायन और वादन के साथ में संपूर्ण होती है परंतु गुरमत संगीत में नृत्य कला को वर्णित नहीं किया गया है।
गुरमत संगीत ‘शब्द’ प्रधान है। इस संगीत में राग, स्वर और ताल सहायक हैं परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में स्वर एवं ताल को प्रधानता दी गई है। गुरमत संगीत का लक्ष्य उस अकाल पुरख प्रभु की उपासना है। इसलिये इसमें विशुद्ध शास्त्रीय संगीत की भाव – भंगिमाओं को प्रदर्शित नहीं किया जाता है। गुरमत संगीत गुरबाणी की कोमल भाव – भंगिमा को प्रदर्शित करने का माध्यम है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत की ज्यादातर रचनाएं विरासत को संभालने के साथ अपने शौक को पूरा कर मनोरंजन करना है परंतु गुरमत संगीत का विशुद्ध उद्देश्य मन की भावनाओं एवं परमात्मा के जाप को भक्तों के हृदय में जगाना है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में आलाप, मींड़, खटका, मुर्की, सरगम, तान, बोलतान,बोलवंड़ आदि रागों के प्रयोग के समय गायक को अपनी कलात्मक भावनाओं को प्रदर्शित करना होता है। जबकि गुरमत संगीत में ‘शबद’ (किर्तन) के भावों को प्रकट किया जाता है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में गायक राग के प्रारंभ में आकार के आलाप से राग का स्वरुप प्रकट करते है परंतु गुरमत संगीत में राग में आलाप की परंपरा है| गुरवाणी का फरमान है ‘धंनु सु राग सुरंगडे़ आलापत सभ तिख जाइ’| इस परंपरा में ‘ओंकार एक धुन ऐके राग अलापे’ का विधान है| गुरमत संगीत में ‘मंगलाचरण’ के रुप में ‘ੴ सतिनामु करता पुरखु निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि’| मुल मंत्र के द्वारा आलाप किया जाता है|
भारतीय शास्त्रीय संगीत के समारोह के आरंभ में सरस्वती वंदना का गायन होता है। ऐसा माना जाता है कि मां सरस्वती विद्या और संगीत की देवी है परंतु गुरमत संगीत में प्रारंभ में पहले चार गुरुओं तक ‘ओम’ के द्वारा अलाप होता था। पश्चात पांचवें गुरु अर्जुन देव साहिब जी के समय से इस आलाप वंदना को समायोजित कर ‘सोलह कला संपूर्ण’ की वंदना के स्थान पर अनंत कला के स्वामी जो ‘सरब कला समरथ है’ को एक बार नहीं अपितु अनेक बार उनकी ‘डंडोत वंदना’ की जाती है।
पंचम पातशाही गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी ने चार चौकियों (आसा की वार चौकी, बिलावल की चौकी, सोदर एवं कीर्तन सोहिला की चौकी) के गायन की मर्यादा को स्थापित किया है। उस समय से लेकर आज तक निरंतर अखंडित यह परंपरा श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब अमृतसर में निरंतर चली आ रही है। चौकी गायन की विधि गुरमत संगीत का महत्वपूर्ण हिस्सा है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में किसी भी धार्मिक स्थान पर ऐसी कोई नियम बद्ध परंपरा नहीं है।
गुरमत संगीत में ‘आसा राग’ का अत्यंत महत्व है। इसका गायन ‘आसा की वार’ के रूप में सुबह एवं शाम को सोदर के रूप में आवश्यक है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में ऐसा कोई राग नहीं है जिसका गायन – वादन किसी धार्मिक स्थान पर सुबह – शाम आवश्यक हो गुरमत संगीत की सभी गायन रचना आध्यात्मिक तथ्य पर आधारित है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में तराना एक ऐसी गायन शैली है, जिसमें साहित्य का नामो – निशान भी नहीं है। ध्रुपद गायक के रूप में भी नोम – तोम, री ना ना ऐसे अक्षरों का खुले आलप के रूप में प्रयोग होता है परंतु गुरमत संगीत में राग विधान के अंतर्गत ‘श्री राग’ को ही प्रमुख राग माना गया है। मध्यकालीन युग में भारतीय शास्त्रीय संगीत में राग – रागिनी पद्धतियों में राग भैरव को प्रमुख राग के रूप में स्वीकारा गया था।
उपरोक्त दोनों रागों के ‘थाट’ वर्तमान काल में बदल गये हैं कारण मध्यकाल में शुद्ध ‘थाट’ का प्रयोग ग – नी स्वर कोमल के रूप में प्रयोग होते थे परंतु वर्तमान काल में भारतीय शास्त्रीय संगीत के विद्वान ‘श्री विष्णु नारायण भातखंडे जी’ ने बिलावल को शुद्ध ‘थाट’ माना है। जिसमें सभी शुद्ध स्वरों का उत्तम प्रयोग किया जाता है। गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ ने ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की संपादना करते हुये ‘श्री राग’ को ही प्रमुख स्थान दिया है, जो वर्तमान काल में ‘पूरवी थाट’ में प्रवेश कर चुका है।
गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ ने भक्तों की बाणी के ‘घर’ को ‘सुरलेख’ के रूप में अंकित किया है। ‘घर’ का अर्थ ‘ताल’ माना जाता है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत की गायन शैलीयों में ‘घर’ का ‘सुरलेख’ कही भी नहीं पाया जाता है। गुरमत संगीत में ‘रहाओ’ कि तुक को प्रमुख स्थान दिया गया है एवं बाद में उच्चारित बाणी की तुकों को ‘राहओ’ के अंतर्गत दर्शाये गये सिद्धांतों के आधारित उसकी व्याख्या उदाहरणों सहित दी गई जाती है।
कई ‘शबद’ (पद्यों) में एक से अधिक ‘रहाओ’ भी होते हैं। जिनको परंपरागत ढंग से शिक्षा ग्रहण करने वाले कीर्तनकार भिन्न – भिन्न ‘शबदों’ (पद्यों) में रहाओ की पंक्तियों को स्थाई भाव से गाते हैं । भारतीय शास्त्रीय संगीत में किसी भी गायन शैली के गीत में एक से अधिक स्थाई भाव नहीं होते हैं।
गुरमत संगीत में गायकों के लिये छंद के पदों के अंको की संख्या का अत्यंत महत्व है। इस शैली में गायन करते समय अंकों की सीमा के बंधन में रहना आवश्यक है एक अंक पूरा अंतरा होता है और मर्यादा अनुसार इस अंतरे को गाने के पश्चात स्थाई भाव पर जाना पड़ता है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की शैली में अंको का कोई विधान नहीं है। ख्याल के गीतों में दो और ध्रुपद में चार भाग होते हैं। इन भावों को स्थाई, अंतरा, संचारी और अभोग के नाम से संबोधित किया जाता है। कीर्तन करते समय ऊंची आवाज में वाह – वाह करके दाद नहीं दी जाती है और ऐसी कोई परंपरा भी नहीं है ।
‘शबद’ (कीर्तन) गायन के समय या पश्चात तालियों की करतल ध्वनि की कोई परंपरा नहीं है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत की महफिलों में कलाकार की कला को शब्दों से एवं तालियों की करतल ध्वनि से दाद दी जाती है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत में कलाकार मंच पर बैठकर श्रोताओं को अभिवादन कर उनकी शुभकामनाएं प्राप्त करते हैं उसके पश्चात ही अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं परंतु गुरमत संगीत में रागी सिंघ ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की हजूरी में सभी भक्तों को गुरबाणी से जोड़ शीश झुकाते हैं। इस परंपरा में रागी सिंघ पहले गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ का एवं पश्चात उपस्थित संगत का अभिवादन करते हैं। गुरमत मर्यादा में ‘राजा और रंक’ सभी को एक माना गया है। इस दरबार में कोई बड़ा या छोटा नहीं है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में ऐसा नहीं है।
गुरबाणी में राग – रागिनी की पद्धति को मान्यता नहीं दी गई है। गुरबाणी में अंकित कई राग ऐसे हैं जो उच्चारण करते समय स्त्री लिंग का एहसास कराते हैं, जैसे:- गउड़ी,दीपकी,गउड़ी पूरबी दीपकी, गउड़ी गुआरेरी, गउड़ी बैरागण, सूही, तुखारी… इत्यादि परंतु ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में राग – रागिनी के स्थान पर राग नाम से ही संबोधित किया गया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में राग प्रबंध का आधार भारतीय शास्त्रीय संगीत ही है परंतु राग – रागिनी पद्धति से कोई रिश्ता नहीं है।
गुरबाणी की रचना हेतु गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने कुछ ऐसे रागों की खोज की जैसे:- गउड़ी, दीपकी, गउड़ी पूरबी दीपकी, गउड़ी गुआरेरी, माझ, गउड़ी बेरागण, सूही, तिलंग, तुखारी इन रागों का उल्लेख भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुरातन ग्रंथों में भी नहीं मिलता है।
गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने गुरबाणी की रचना में छ: दक्षिणी भारत के रागों को भी सम्मिलित किया है। इस प्रकार दक्षिण भारत एवं उत्तर भारत के संगीत को एक दूसरे से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने अपने कार्यकाल में किया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में सिक्ख गुरुओं द्वारा रचित राग और पद्य गुरमत संगीत की उपज और देन है।
गुरबाणी में ‘पड़ताल’ एक नवीन प्रकार की गायन शैली है। जिसका अविष्कार ‘श्री गुरु रामदास जी’ ने किया था। गुरबाणी में ‘श्री गुरु रामदास जी’ के १९ ‘पड़ताल’ उपलब्ध हैं।
गुरमत संगीत का प्रमुख वाद्य ‘रबाब’ है। गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के समय से ही रबाब की संगत कीर्तन के लिये की जाती रही है। गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ ने ‘सारंदा’ का प्रयोग अपने समय में किया। इस वाद्य का अविष्कार गुरु ‘श्री रामदास साहिब जी ने किया था। वर्तमान समय में ‘ताऊस’ और ‘दिलरुबा’ का प्रयोग भी गुरबाणी गायन के लिये किया जाता है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत के वाद्य सारंगी, बांसुरी, शहनाई आदि की संगत का प्रयोग गुरबाणी गायन के लिये नही किया जाता है।
गुरमत संगीत में स्वतंत्र वादन का कोई स्थान नहीं है परंतु भारतीय शास्त्रीय संगीत में अनेक वाद्यों को गायन की तरह महत्व दिया गया है।
भारतीय शास्त्रीय संगीत का इतिहास अती विशाल और प्राचीन है। कालानुसार इसमें परिवर्तन होता रहा है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की गायन शैली में नव – नवीन गायन की रचनाओं को विकसित करने में संगीतकारों का अभूतपूर्व योगदान रहा है,जैसे कव्वाली और तराने के लिये अमीर खुसरो, ध्रुपद के लिए राजा मानसिंग, विलंबित ख्याल के लिए सुल्तान हुसैन शाह शरकी और टप्पे के लिये मियां शौरी इत्यादि।
गुरमत संगीत का प्रारंभ गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के ‘शबद’ (कीर्तन) की परंपरा को विशेष ध्यान देकर उससे प्रभु मिलन की विधा को प्राप्त किया गया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’, ‘श्री दशम ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी गुरमत संगीत का प्रमुख आधार है।

प्रभु स्मरण और ध्यान
संत,महापुरुषों और भक्तों की पवित्र धरती महाराष्ट्र में ही भक्त नामदेव जी एवं भक्त त्रिलोचन जी का प्रकाश हुआ था। भक्त नामदेव जी एवं भक्त त्रिलोचन जी समकालीन संत थे। भक्त नामदेव जी ‘छींबा’ जाति के थे (जिसे मराठी में शिंपी’ भी कहा जाता है)। भक्त नामदेव जी हमेशा प्रभु के स्मरण में डूबे रहते थे एवं एक उस अकाल पुरख की बाणी का स्मरण कर किरत भी किया करते थे ताकि अपने परिवार का ठीक से पालन – पोषण कर सकें। प्रभु स्मरण में लीन नामदेव जी ने उस अकाल पुरख की उस्तत में कई ‘शबद’ (पद्यों) की रचना की है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में भक्त नामदेव जी के रचित ६१ ‘शबद’ (पद्यों) को संकलित किया गया है। भक्त नामदेव जी एक ऐसे भक्त थे जिन्होंने अपने उपदेशों में प्रभु का स्मरण कैसे करना चाहिए? ध्यान की ऐसी कौन सी विधि है? जो प्रभु स्मरण से जोड़ती है का बहुत सुंदर विश्लेषण गुरुबाणी में अंकित किया है।
एक दिन अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) में भक्त त्रिलोचन जी अपने कुछ साथियों के साथ सुबह – सुबह सूरज उगने के पहले भक्त नामदेव जी के निवास स्थान पर चले गए कारण वो देखना चाहते थे कि भक्त नामदेव जी दूसरों को हमेशा प्रभु स्मरण का उपदेश देते हैं तो भक्त नामदेव जी किस तरहां से प्रभु का स्मरण करते हैं? इस विधि को देखने के लिए भक्त त्रिलोचन जी अपने साथियों के साथ भक्त नामदेव जी के निवास पर पहुंचते हैं। भक्त नामदेव जी का व्यवसाय है कपड़ों को रंग देना एवं कपड़ों पर छापों की मदद से अलग – अलग कलाकृति को आकार देना। भक्त त्रिलोचन जी देखते हैं कि भक्त नामदेव अमृतवेले (ब्रह्म मुहुर्त) में कपड़ों पर छापे लगा रहे हैं। भक्त त्रिलोचन जी ने भक्त नामदेव जी से कहा कि आप तो दूसरों को प्रभु स्मरण का उपदेश देते हैं परंतु आप स्वयं क्या कर रहे हैं? इसे गुरूबाणी में भी अंकित किया गया है:-
नामा माइआ मोहिआ कहै तिलोचनु मीत॥
काहे छीपहु छाइलै राम न लावहु चितु॥
(अंग क्रमांक १३७૪)
भक्त त्रिलोचन जी के शब्दों को सुनकर भक्त नामदेव जी ने प्रसन्न चित्त होकर भक्त त्रिलोचन जी का स्वागत कर उन्हें प्रेम पूर्वक अपने पास बिठाया और जो उत्तर दिया वो गुरुबाणी में इस तरह अंकित है:-
नामा कहै तिलोचना मुख ते रामु संमा्लि।।
हाथ पाउ करि कामु सभु चीतु निरंजन नालि॥
(अंग क्रमांक १३७૪)
अर्थात् त्रिलोचन जी हाथ पैरों से कार्य करें और ह्रदय से प्रभु का निरंतर स्मरण करते रहना चाहिए। इसे सुनकर जो साथी भक्त त्रिलोचन जी के साथ आए थे उन्होंने भक्त नामदेव जी से कहा कि यह कैसे संभव है? एक साथ दोनों काम कैसे हो सकते हैं?
साथियों के इस प्रश्न का भक्त नामदेव जी ने प्रसन्न मुद्रा में उत्तर दिया और सुंदर उदाहरणों से समझाया कि प्रभु स्मरण में किस तरह से ध्यान को लगाया जा सकता है? जिसे गुरुबाणी में अंकित किया गया है:-
आनिले कागदु काटीले गूड़ी आकास मधे भरमीअले॥
पंच जना सिउ बात बतऊआ चीतु सु डोरी राखीअले॥
(अंग क्रमांक ९७२)
अर्थात् जब छोटे बच्चे कागज और गुड़ी (लई) से पतंग बनाकर डोर के सहारे आसमान में पतंग को उड़ाते हैं तो आपस में पांच – छह बच्चे हंसी – मजाक करते हैं, वार्तालाप करते हैं, खुश होते हैं परंतु उनका ध्यान डोर से बंधी पतंग जो आसमान में उड़ रही है, उस पर ही होता है।
इसी तरह से सुनार अपने ग्राहकों से भी वार्तालाप करता है और साथ ही सोने को ढालने का काम भी करता है। जिससे ग्राहक भी नाराज ना हो और सोने को ढालने का कार्य भी व्यवस्थित चलता रहे। सुनार का ध्यान सोने की ढलाई पर है और व्यवहार ग्राहक से चल रहा है। जिसे गुरबाणी में अंकित किया गया है:-
मनु राम नामा बेधीअले॥
जैसे कनिक कला चितु माँडीअले॥ रहाउ॥
(अंग क्रमांक ९७२)
इसी तरहां से भक्त नामदेव जी का एक और उदाहरण गुरूबाणी में अंकित है:-
आनीले कुंभु भराईले ऊदक राज कुआरि पुरंदरीए॥
हसत बिनोद बीचार करती है चीतु सु गागरि राखीअले॥
(अंग क्रमांक ९७२)
अर्थात् गांव की औरतों ने घड़ों में पानी भरकर सर पर उठाया हुआ है और जब वो पैदल पानी भर कर वापस जा रही है तो आपस में हंसी – मजाक, ठिठौली और वार्तालाप करते हुए जा रही हैं परंतु ध्यान पानी से भरी हुई गागर पर ही है कारण यदि गागर गिर गई तो पुन: पानी लेने वापस जाना पड़ेगा।
इस तरह से भक्त नामदेव जी का एक और उदाहरण गुरूबाणी में अंकित है:-
मंदरु एकु दुआर दस जा के गऊ चरावन छाड़ीअले॥
पाँच कोस पर गऊ चरावत चीतु सु बछरा राखीअले॥
(अंग ९७२)
अर्थात् पशुओं के तबेले के दस रास्ते हैं। (यहां पर शरीर के दस द्वारों का भी संबोधन होता है) और गाय को चरने के लिए छोड़ दिया जाता है। गाय पाँच कोस दूर तक चरने जाती है परंतु उसका ध्यान हमेशा तबेले में बंधे अपने बछड़े की और ही होता है।
इसी तरहां से भक्त नामदेव जी ने एक और सुंदर उदाहरण दिया है। किसे गुरूबाणी में अंकित किया गया है:-
कहत नामदेउ सुनहु तिलोचन बालकु पालन पउढ़ीअले।।
अंतरि बाहरि काज बिरूधी चीतु सु बारिक राखीअले।।
(अंग ९७२)
अर्थात् स्त्री अंदर – बाहर घर पर सभी कार्य करती है परंतु उसका ध्यान पालने में झूल रहे अपने बच्चे की और होता है। कहीं बच्चा गिर ना जाए? या बच्चा रोना प्रारंभ ना कर देवें।
अर्थात् गुरुबाणी में अंकित इन उदाहरणों से भक्त नामदेव जी ने प्रभु के स्मरण को कैसे निरंतर अपने ह्रदय में बसा कर रखना है और गृहस्थ जीवन में रहकर हमें कैसे ध्यान लगाना चाहिए? इसे बड़े ही सुंदर उदाहरणों से स्पष्ट किया है। भक्त नामदेव जी द्वारा उच्चारित ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की इन बाणीयों ने हमें उपदेशित किया है कि कलयुग के इस घोर समय में भी हमे अपने कामकाज को संभालते हुए प्रभु स्मरण में हमेशा अपने हृदय को लगाए रखना चाहिए।
‘धन्य है भक्त नामदेव जी एवं धन्य है गुरूबाणी’!

निपतिआं दी पत: धन्य - धन्य गुरु श्री अमरदास साहिब जी
सिक्ख धर्म के तीसरे गुरु धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ ने कौड़ी भाई प्रेमा की सेवा सुश्रुषा कर उसे कौड़ के रोग से मुक्त कर सिक्ख धर्म का प्रमुख प्रचारक नियुक्त किया था। इस भाई प्रेमा कौड़ी पर धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमर दास साहिब जी’ ने कैसे अपनी मेहर दृष्टि की थी? इस इतिहास से हम इस लेख के द्वारा रू – बरू हो रहे हैं।
लाहौर शहर के समीप ग्राम खई का मूल निवासी था भाई प्रेमा ! इस भाई प्रेमा के माता – पिता का बचपन में ही स्वर्गवास हो गया था। अनाथ प्रेमा जीवन के गलत मार्गों की और अग्रसर होकर इसने गलत कुकर्मों को अपना लिया था। इस कारण से प्रेमा कौड़ के भयानक रोग से ग्रसित हो गया था। प्रथम रिश्तेदारों ने प्रेमा को घर से निकाल दिया था पश्चात ग्राम वासियों ने भी ग्राम से बाहर निकाल दिया था। प्रेमा दुखी था, रोता था, विलाप करता था। आज उसे वो दिन याद आते हैं जब भले लोग उसे कहते थे, भाई संगत कराकर नाम जपा कर, बाणी को पढ़ाकर परंतु जवानी की मस्ती में कुकर्मीयों की संगत कर बैठा था।
कौड़ी प्रेमा के पूरे शरीर पर कौड़ फुट चुका था। तन पर फूटे इन कौडों के घाव से दुर्गंध आना प्रारंभ हो चुकी थी। गंदे खून और मवाद की बदबू के कारण कोई इसके पास नहीं जाता था। किसी सज्जन ने तरस खाकर इसके गले में एक मिट्टी के बर्तन को बांध दिया था, यदि कोई तरस खाकर रोटी के दो टुकड़े इसे दे दे तो ठीक नहीं तो रोता, विलाप करता, तड़पता प्रेमा कई – कई दिनों तक भूखा बैठा रहता था।
इसके पास से गुजरने वाली संगतोंं से प्रेमा कौड़ी हमेशा धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ की महिमा को श्रवण करता था। संगतेंं हमेशा कहती थी कि गुरु जी निपतिआं दी पत, निमाणिआं दे माणि, तिताणिआं दे ताण, निओटिआं दी ओट है। मन ही मन प्रेमा कोड़ी अरदास करता था कि गुरु जी मेरी भी पत (इज्जत) को ढक लेंगे। एक दिन पास से गुजरने वाली संगतोंं को जोर से आवाज देकर प्रेमा कौड़ी ने संबोधित कर कहा कि गुरु जी निपतिआं दी पत है। तो क्या मेरी भी पत (इ्ज्जत) को रख लेंगे। एक गुरु सिक्ख ने प्रेमा कौड़ी के समीप जाकर कहा कि हां वो गुरु निपतिआं की पत (इज्जत) जरूर रखता है। उस गुरु पर केवल भरोसा रखने की आवश्यकता है और तुम उस गुरु का आशीर्वाद लेने हेतु गोइंदवाल साहिब की पवित्र धरती पर क्यों नहीं जाते हो?
कौड़ी प्रेमा ने अपना मुख गोइंदवाल साहिब की और कर लिया था। धीरे – धीरे चलते हुए, रेंगते हुए इस कौड़ी प्रेमा ने गोइंदवाल नामक स्थान पर पहुंचने के लिए अपनी यात्रा को आरंभ कर दिया था। इस कौड़ी प्रेमा को कोई अपने निकट नहीं आने देता था, रास्ते पर आने वाले समस्त गांव में इस का प्रवेश वर्जित कर दिया गया था। हां तरस खाकर लोग इसे रोटी के टुकड़े खाने के लिए अवश्य दे देते थे।
कई दिनों की यात्रा के पश्चात कौड़ी प्रेमा गोइंदवाल साहिब की पवित्र धरती पर पहुंच गया था। इस कौड़ी प्रेमा की दुर्दशा देखकर लोगों ने इसे गुरु जी के निकट जाने नहीं दिया था। इस कौड़ी प्रेमा के मन में चाव था कि यदि गुरु जी सचमुच निपतिआं दी पत हैं तो वो मेरे पास निश्चित ही आएंगे। कौड़ी प्रेमा हमेशा गाता रहता था:-
मेरा गया कछोटा लद्दा, संगत जी मेरा गया कछोटा लद्दा॥
बहुत दिनों तक कौड़ी प्रेमा गोइंदवाल की धरती पर अपनी दुर्दशा पर रोता हुआ हमेशा गाता रहता था:-
मेरा गया कछोटा लद्दा, संगत जी मेरा गया कछोटा लद्दा॥
एक दिन रेंगते – रेंगते जब यह गुरु दरबार के समीप आया और एक हवा के झोंके से इसके शरीर में से जो दुर्गंध आ रही थी वो दुर्गंध पूरे गुरु दरबार में फैल गई थी। गुरु जी ने सेवादारों से पूछा कि यह दुर्गंध कहां से आ रही है? पास ही खड़े सिक्ख सेवादार ने उत्तर दिया कि गुरु पातशाहा जी एक बुरे कुकर्मों को करने वाला प्रेमा कौड़ी है। गंदगी से भरे इसके शरीर से लगातार गंदा खून और मवाद बहता रहता है। शायद यह प्रेमा कौड़ी आज दरबार के समीप कहीं आ गया है, यह जो दुर्गंध आ रही है शायद यह उसके शरीर से निकली हुई दुर्गंध है। इस प्रेमा कौड़ी को हमने कई बार समझा कर कहा था कि तुम गुरु दरबार के समीप मत आना।
जब गुरु जी को कौड़ी प्रेमा की दास्तान ज्ञात हुई तो गुरु जी स्वयं उठकर इस प्रेमा कोड़ी के पास गए थे जिसके पास कोई नहीं जाता था आज धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ की जब उस पर नजर पड़ी तो उसका आधा दुख दूर हो गया था। गुरु जी ने वचन किए गुरु सिक्खों इसे हमारे साथ लेकर चलो। जिस स्थान पर गुरु जी स्वयं स्नान करते थे, गुरु जी ने स्वयं उस स्थान पर अपने हाथों से इस कौड़ी प्रेमा को स्नान करवाया था।
जिस कौड़ी को कोई गले नहीं लगाता था आज उस कौड़ी को गुरु जी ने स्वयं स्नान करवाकर सुंदर वस्त्र परिधान करवाए थे। परिधान किए वस्त्र बारंबार गंदे खून और मवाद से भर जाते थे। प्रेमा कौड़ी के वस्त्र को बारंबार बदली किया जाता था। गुरु जी ने स्वयं इसका इलाज प्रारंभ किया था। जब दवाइयां और जड़ी – बूटियों से इसका इलाज किया गया तो यह धीरे – धीरे ठीक होने लगा था। प्रेमा कौड़ी रोज सुबह गुरु दरबार की झाड़ू मार कर सफाई करने लगा था। कीर्तन सुनकर नियमित उपचार और गुरु के आशीर्वाद से प्रेमा कौड़ी पूर्णतया तंदुरुस्त हो चुका था।
एक दिन गुरु जी ने भाई प्रेमा को समीप बुलाकर कहा कि भाई प्रेमा अब तुम पूर्ण रूप से ठीक हो, क्या तुम अपने घर नहीं जाना चाहते हो?
भाई प्रेमा की आंखों से आसुंओं की नदी फूट पड़ी थी, भाई प्रेमा ने गुरु पातशाहा जी से कहा पातशाहा जी कौन सा घर? कौन सा गांव? कौन से रिश्तेदार? जिन्होंने मेरे गलत कामों को देख कर अपने गले नहीं लगाया था, इन रिश्तेदारों ने मुझे कभी गलत संगत से बचाने की कोशिश भी नहीं की थी। उलट मुझे धक्के मार कर मेरे ही घर से मुझे निकाल दिया गया था। मैं तो बेदर था, मुझे तो केवल आपके दर पर ही आसरा मिला है। अब यदि मैं गुरु के दर को भी छोड़ कर चला गया तो मैं कहां जाऊंगा?
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ अत्यंत प्रसन्न हुए थे और उठकर वचन किए कि कोई गुरु का सिक्ख आगे आए और वो अपनी बेटी का रिश्ता इस प्रेमा से कर देवें। गुरु का सेवादार सिंहां उप्पल गले में पल्ला डालकर खड़ा हुआ और गुरु के हुक्म अनुसार गुरु पातशाहा जी से कहा कि पातशाहा जी मेरी अपनी बेटी जवान है। यदि आप की आज्ञा हो तो मैं अपनी बेटी का रिश्ता इस प्रेमा से कर सकता हूं। उसी समय गुरु का सेवादार सिहां उप्पल की बेटी मथो ने भी गुरु आज्ञा अनुसार आपने शीश को निवा कर गुरु जी की आज्ञा को शिरोधार्य किया था। धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ ने अपने स्वयं के कर – कमलों से इनका आनंद कारज (परिणय बंधन) किया था।
किसी ने जाकर सिहां उप्पल की धर्मपत्नी को बताया कि तेरी बेटी मथो का परिणय बंधन प्रेमा कौड़ी से कर दिया है, जिसे गांव से बाहर निकाल दिया गया था। सिंहां उप्पल की धर्मपत्नी ने उपस्थित होकर गुरु जी से प्रश्न किया कि गुरु पातशाहा जी यह आप ने क्या कर दिया? ना जात पूछी, ना ही इसका गोत्र पूछा, कौन है यह? उस समय धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी ने वचन किए थे कि यह मेरा मुरारी है ! यह मेरा पुत्र मुरारी है, अर्थात् यह सोने जैसा मेरा पुत्र है।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ आपने निपतिआं दी पत ही नहीं रखी अपितु निमाणे के माण बने, निताणिआं के तान बने, निओटिआं की ओट बने। धन्य – धन्य गुरु पातशाहा जी जिसे कोई नहीं पूछता था उसे अपने गले से लगा लिया था।
इस नवविवाहित मथो और मुरारी ने सिक्ख धर्म का बहुत प्रचार – प्रसार किया था। गुरु पातशाहा जी ने उस समय २२ प्रमुख मंजी (आसन) सुशोभित किए थे। उन २२ मंजी (आसन) में से एक मंजी (आसन) का प्रमुख मथो और मुरारी की जोड़ी को मनोनीत किया था। इस जोड़ी ने अपना समस्त जीवन गुरु सिक्खी के प्रचार – प्रसार को समर्पित किया था।
ऐसी है महान धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ की महिमा ‘निपतिआं दी पत’।

ध्वनि क्षेपण विज्ञान और श्री दरबार साहिब जी अमृतसर का निर्माण
वर्तमान समय से लगभग ૪५० वर्ष पूर्व जिस पुरातन समय में ‘श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब अमृतसर जी’ की सर्जना के समय भवन निर्माण करते समय आवाज (ध्वनि) की आवृत्ति को ऊंचा करने के लिए आधुनिक समय की तरह लाउड स्पीकर आदि यंत्र नहीं होते थे। व्यक्ति को अपनी बात दूसरे व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए स्वयं के कंठ के जोर पर ही निर्भर रहना पड़ता था। उस समय धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ ने जब ५०० फीट लंबे और ૪९०फीट चौड़े सरोवर के मध्य ‘श्री हरमंदिर साहिब जी’ का निर्माण किया था। इस पुरी परिक्रमा और परिसर के निर्माण कार्य के लिये ध्वनि क्षेपण तकनिकी विज्ञान को विशेष महत्व देकर संपूर्ण निर्माण कार्य को विशेष शैली में निर्मित किया गया था। श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब की परिक्रमा के दरवाजे से सरोवर पर निर्मित पुल से होते हुये दरबार साहिब के मध्य स्थित मुख्य दरवाजे की लंबाई २૪० फीट है और चौडाई २१ फीट है। पुल से मुख्य इमारत के छत की उंचाई २६ फीट ९ इंच है और छत पर निर्मित गैलरी की उंचाई ૪ फीट है। इस गैलरी के उपर दरबार साहिब के मुख्य गुंबद स्थित है। सरोवर के मध्य स्थित इमारत के मुख्य प्रवेश द्वार के दायीं और एवम् बायीं और १९ – १९ छोटे आकार के गुम्बद एक विशेष ऐतिहासिक महत्व के तहत स्थापित किये गये है। इस सरोवर की गहराई १७ फीट है। गुरु ‘श्री अरजन देव साहिब जी’ ने इस निर्माण कार्य के अंतर्गत कई अद्भुत पहलुओं पर विशेष ध्यान रखकर इस निर्माण कार्य को संपन्न किया था।
इस अद्भुत वास्तु को निर्माण करते हुए इस बात का विशेष ध्यान रखा गया था कि सरोवर की परिक्रमा पर उपस्थित संगतोंं (श्रद्धालुओं) और सरोवर के बीच स्थित ‘श्री हरमंदिर साहिब जी’ की परिक्रमा में उपस्थित संगतोंं (श्रद्धालुओं) को दरबार साहिब में चल रहे कीर्तन की आवाज एक समान रूप से सुनाई देवें। गुरु जी ने स्वयं ध्वनि क्षेपण विज्ञान के मंत्र को आत्मसात कर विशिष्ट ध्वनि लहरी के कोणों के अनुसार परिसर के भवन निर्माण को उन कोणों के अनुकूल निर्माण करवाया था। अर्थात धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अरजन देव साहिब जी’ की ध्वनि क्षेपण विज्ञान और ज्यामिति गणित के अनुसार ध्वनि लहरी के कोणों से परावर्तित होने वाली ध्वनि और सरोवर के जल द्वारा ध्वनि अवशोषण की मात्रा का उत्तम ज्ञान था।
इस निर्माण में मुख्य भवन और परिक्रमा के चारों और निर्मित भवनों के निर्माण में विशेष रूप से भवनों की ऊंचाई, खिड़की, दरवाजों की लंबाई, चौड़ाई और दूरी का खास ध्यान रखा गया था। एक दीवार से दूसरी दीवार तक की दूरी इस तरह से समायोजित की गई थी कि किसी भी प्रकार से चल रहे कीर्तन की आवाज में रुकावट पैदा ना हो और भवनों के निर्माण के कारण ध्वनि की आवृत्ति एक समान हो जिससे आवाज ना फटेगी और ना ही गुंज पैदा करेगी।
इस विशेष ध्वनि क्षेपण की व्यवस्था से आवाज मुलायम और सुरिली होकर एक समान होगी उस समय में इस तरहां के ध्वनि क्षेपण विज्ञान का उपयोग करना बहुत ही तकनीकी और सूझबूझ का कार्य था।
उस समय दरबार साहिब में उपस्थित श्रोताओं को इस तरह से महसूस होता था कि जैसे अकाल पुरख की इलाही बाणी साक्षात् आकाश से अवतरित होकर, मनमोहक कीर्तन की धुन के रूप में संपूर्ण वातावरण को प्रभु – परमेश्वर के प्यार से ओतप्रोत कर रही हो। इस सुंदर वातावरण में धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अरजन देव साहिब जी’ स्वयं कीर्तन से इस इलाही बाणी में प्रेम का अद्भुत रंग भर देते थे। गुरु जी के साथ भाई गुरदास जी संगत करते थे और बाबा बुड्ढा जी रबाब की सुरुली धुनों से गुरु जी का किर्तन में साथ देते थे।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अरजन देव साहिब जी’ की जीवन यात्रा के समय सात प्रमुख कीर्तनी जत्थे दरबार साहिब में अपनी सेवाएं समर्पित करते थे। विशेष इन जत्थों में ६ रबाबी मुस्लिम धर्म के थे। सन् १९०० के दशक में १५ कीर्तनी जत्थे सेवाएं अर्पित करते थे। इतिहास गवाह है जब पंथ के महान कीर्तनकार भाई मनसा सिंघ जी दरबार साहिब में कीर्तन करते थे तो महाराजा रणजीत सिंघ जी के नेत्र इश्वर भक्ति में झुककर सत्कार से नम हो जाते थे। महाराजा रणजीत सिंघ जी कीर्तन के माध्यम से अकाल पुरख से सुरमयी वार्तालाप करते थे।
दरबार साहिब में कीर्तन की हाजिरी भरने वाले रागी सिंघ (कीर्तन कारों) का विशेष सम्मान होता है। उस समय प्रसिद्ध कीर्तनकार बड़े – बड़े राजा, महाराजाओं की हवेली में कीर्तन करने से स्पष्ट इनकार कर देते थे क्योंकि वो अपने कंठ में से सुर निकालने हेतु दरबार साहिब जी को ही उपयुक्त स्थान मानते थे। इन कीर्तन कारों की दरबार साहिब में सेवाएं निश्चित होती थी।
एक दिन ‘शेरे पंजाब’ महाराजा रणजीत सिंघ जी’ को ज्ञात हुआ कि गुरु घर के महान कीर्तनकार भाई मनसा सिंघ जी की आर्थिक हालत ठीक नहीं है। पंथ के महान रागी मनसा सिंघ जी का गरीबी के बोझ तले दबा हुआ होना महाराजा जी को रास नहीं आया और वो स्वयं महान कीर्तनकार भाई मनसा सिंघ जी के घर उसकी आर्थिक मदद करने हेतु पहुंच गए थे परंतु भाई मनसा सिंघ जी ने घर का दरवाजा नहीं खोला और घर के भीतर से ही महाराजा को विनम्रता पूर्वक धन्यवाद कर आर्थिक मदद लेने से इनकार कर दिया था। ‘शेरे पंजाब’ महाराजा रणजीत सिंघ जी तुरंत जान गए थे कि जो व्यक्ति गुरु की शरण में जीवन व्यतीत करता है वो हमेशा सुखी और तृप्त होता है। ऐसे सेवादारों को वाहिगुरु जी स्वयं हमेशा चड़दी कला में रखते हैं।
जब कविवर श्री रविंद्र नाथ टैगोर जी ने दरबार साहिब में पंथ के महान कीर्तन कार भाई सुंदर सिंघ जी का कीर्तन सुना तो वो इस कीर्तन के दीवाने हो गए थे। उन्होंने भाई सुंदर सिंघ जी को सूचित करते हुए निवेदन किया कि वो जिस स्थान पर निवास कर रहे हैं उस स्थान पर आकर आप जी कीर्तन करें। भाई साहब जी ने स्पष्ट इंकार कर कहा था कि यदि रविंद्र नाथ जी को कीर्तन श्रवण करना है तो उन्हें दरबार साहिब में ही उपस्थित होना पड़ेगा। जब टैगोर जी पुनः बंगाल प्रस्थान कर रहे थे तो उन्होंने कहा था कि यदि भाई सुंदर सिंघ जी दरबार साहिब के कीर्तनिये नहीं होते तो मैं उन्हें उठाकर बंगाल लेकर जाता था।
वर्तमान समय में दरबार साहिब में अति आधुनिक ध्वनि क्षेपण यंत्र स्थापित किए गये है,जो अत्यंत सूक्ष्म ध्वनि को भी मुलायम और सुरीला बनाकर संपूर्ण दरबार साहिब एवं परिक्रमा में एक जैसा चारों ओर फैला देते हैं। जैसे हवा का एक झोंका फूलों की खुशबू से वातावरण को सुगंधित कर देता है।
जब अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की पालकी को दरबार साहिब में लेकर जाते हैं तो इस पालकी के आगे एक सिक्ख नौजवान श्रद्धालु पूरी शक्ति से नरसिंघा नामक वाद्य को बजाता है। जब इस नरसिंघा वाद्य से निकली ध्वनि लहरियां दरबार साहिब जी की दीवारों को छू कर पुनः परावर्तित होती है तो इस परिक्रमा का परिसर निश्चित ही विस्मय के रंग में सराबोर होकर वातावरण में एक अद्भुत पवित्रता पैदा करता है। उस समय ऐसा महसूस होता है कि परमेश्वर स्वयं ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के सत्कार में आकाश से अवतरित होकर अनादि – नाद का अनोखा कीर्तन कर रहे हैं। इसी समय एक सेवादार सिंघ अपनी विशेष आवाज में सतनाम. . . . . श्री वाहेगुरु साहिब जी का उच्चारण करता है तो उस सिंघ सेवादार की आवाज बिना माइक के पूरे परिक्रमा के परिसर में एक समान गूंजती है।
‘श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब’ के संदर्भ में कुछ अद्भुत – आलौकिक, महत्वपूर्ण जानकारियां:-
१.विश्व के समस्त मंदिरों के प्रवेश द्वार पूर्व दिशा की और स्थित होते हैं कारण सूर्य की प्रथम किरण ने प्रकाश के स्वरूप में मंदिर को प्रकाशित करना चाहिए परंतु ‘श्री हरमंदिर साहिब,दरबार साहिब जी’ का प्रवेश द्वार पश्चिम दिशा में स्थित है। इस कारण से सूर्य की प्रथम किरण प्रकाश के स्वरूप में दरबार साहिब के पिछले हिस्से को प्रथम प्रकाशित करती है। इसे सिक्ख धर्म में इस तरहां निर्देशित किया गया है कि गुरबाणी के ज्ञान का प्रकाश सूर्य के प्रकाश से भी सर्वोत्तम होता है।
२.’श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब जी’ के प्रवेश द्वार से यदि हम दृष्टिक्षेप करें तो दरबार साहिब के दायीं एवं बायीं और १९ – १९ की संख्या में छोटे गुंबद स्थित है। यह दायीं एवं बांयी और स्थित गुंबद यह दर्शाते हैं कि जब हम धन्य – धन्य गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ का प्रकाश करते हैं तो गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ को यदि हम पठन के लिए सम्मान पूर्वक खोलते हैं तो गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ के अंगों (गुरु श्री ग्रंथ साहिब जी के पृष्ठों को सम्मान पूर्वक गुरुमुखी में ‘अंग’ कहकर संबोधित किया जाता है) के दाएं और एवम् बाएं और क्रमानुसार गुरबाणी की १९ – १९ पंक्तियां अंकित हैं।
३.’श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब जी’ के परिक्रमा के परिसर एवं सरोवर के चारों और कहीं भी मेंढक और बगुले आज तक दिखलाई नहीं पड़ते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि इस तरहां की वृत्ति के लोगों का गुरु घर ‘श्री हरमंदिर साहिब,दरबार साहिब जी’ में कोई स्थान नहीं है।
૪.दुनिया में समस्त निर्मित गुरुद्वारों के प्रवेश द्वार पर ही निशान साहिब (सिक्ख धर्म का ध्वज) स्थित होता है परंतु ‘श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब जी’ में मुख्य निशान साहिब पीछे की और ऊपर में स्थित है। इस पुरे परिसर का यदि हम हवाई दृश्य देखें तो ऐसा प्रतित होता है, जैसे पुरा परिसर खुले समुद्र में यात्रा करते हुए जहाज के समान अवलोकित होता है। जो कि यह दर्शाता है कि इस जीवन रूपी यात्रा में केवल प्रभु के नाम – स्मरण के जहाज में ही यात्रा कर कलयुग रुपी गहरे समुद्र को पार किया जा सकता है।
५.’श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब जी’ में सरोवर के मध्य स्थित मुख्य इमारत का गुंबद कमल के फूल के आकार में उल्टा स्थित अर्थात (विरुद्ध दिशा में) है। कमल के फूल के आकार में यह उल्टा गुंबद ‘विनम्रता’ का प्रतीक है। साथ ही ‘श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब जी’ के एकदम समक्ष स्थित ‘श्री अकाल तख्त साहिब जी’ की मुख्य इमारत के गुंबद को कमल के फूल के सीधे आकर में स्थापित किया है। जो कि सिक्ख धर्म की ‘चड़दीकला’ का प्रतीक है। ठीक इसी प्रकार श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब की पूर्ण परिक्रमा जमीनी सतह की समतल भूमी से निचे की और स्थित है अर्थात् हमें परिक्रमा स्थल पर पहुंचने के लिये सीढ़ियों से उतरकर नीचे की और जाना पड़ता है। जो कि सिक्ख धर्म की विनम्रता को दर्शाता है। साथ ही जब हम ‘श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब जी’ से श्री अकाल तख्त साहिब जी की और जाते है तो हमें उंची सीढ़ियों को चढ़कर जाना पड़ता हूँ। जो कि खालसा की चड़दी कला को निर्देशित करता है।
६.श्री अकाल तख्त के मुख्य दीवान हाल से आप सीधे ‘श्री हरमंदिर साहिब जी’ के मुख्य दीवान में हाल में विराजमान गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ के सीधे दर्शन कर सकते है परंतु ‘श्री हरमंदिर साहिब जी’ के मुख्य दीवान हाल से श्री अकाल तख्त साहिब जी के मुख्य दीवान हाल के दर्शन नही कर सकते है। जो कि यह दर्शाता है कि राज सत्ता को हमेशा धर्म की सेवा करने वालों पर दृष्टिक्षेप करना चाहिए एवम् धर्म की सेवा करने वालों को राज सत्ता की और दुर्लक्ष करना चाहिये।
७.’श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब जी’ के भवन निर्माण के मध्य स्थित मुख्य इमारत के चारों दरवाजों को चारों दिशाओं के कोण से निर्धारित नहीं किया जा सकता है। यहां मुख्य इमारत ३६० डिग्री के कोण से एक समान दिखलाई पड़ती है अर्थात् यदि हम ३६० डिग्री के कोण में घूम कर इस इमारत का अवलोकन करेंगे तो सभी कोणों से यह मुख्य इमारत एक जैसी दिखलाई पड़ती है।
सभी संगतोंं (पाठकों) से निवेदन है कि जब भी ‘श्री दरबार साहिब जी’ में दर्शनों के लिए उपस्थित हो तो इस दृष्टिकोण से ‘श्री दरबार साहिब जी’ के नजारे देख कर अनोखे, आत्मिक सुख का आनंद प्राप्त करें।

गुरु श्री नानक देव साहिब जी और मोदी खाना
व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में एक वीडियो क्लिप बहुत जोर – शोर से चल रहा है। जिसमें पंजाब के सिक्ख सेवादार दवाइयों की दुकान को ‘मोदी खाने’ के रूप में प्रदर्शित कर ‘मोदी खाने’ के महत्व को समझा रहे हैं। ‘मोदी खाना’ गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के इतिहास से संलग्न है। उस इतिहास को विस्तार पूर्वक इस लेख में अंकित किया गया है।
‘मोदी खाना’ फारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है, राज्य में उत्पादित रसद को उचित मुल्य में स्वीकार कर, आम लोगों में जरूरत के अनुसार उचित मूल्य पर उपलब्ध करा कर देना।
सन् १३३२ में पंजाब के सूबेदार मोहम्मद खान के बेटे सुल्तान खान के नाम से सुल्तानपुर शहर को बसाया गया था। दिल्ली से बादशाह इब्राहिम लोधी की और से पंजाब के गवर्नर पद का दायित्व दौलत खान लोधी को दिया गया था। अकबरनामा ३ जिल्द में पृष्ठ क्रंमाक ७०૪ के अनुसार उस समय दिल्ली से लाहौर जाने वाली मुख्य सड़क पर स्थित सुल्तानपुर बहुत बड़ा व्यापारिक केंद्र हुआ करता था। प्रिंसिपल सतबीर सिंघ जी की पुस्तक अनुसार सुल्तानपुर में कुल ३२ बाजार थे और ५००० के करीब दुकानें थी। इन बाजारों में प्रमुख रूप से सराफा बाजार, पसार खाना,अदिलबींया,फरोसा बाजार जहां पर सभी प्रकार की दवाइयां विशेष रूप से देसी दवाइयों का व्यापार बड़े पैमाने पर होता था। खुशरोमी हलवाईयों का बाजार, एब्रेशन बाजार जहां से कपड़ों का व्यापार किया जाता था, इत्यादि, प्रमुख बाजार थे। यदि उस समय के मूल्यों की सूची का अध्ययन किया जाये तो उस समय पचास पैसे प्रति मन (૪० किलो) गेहूं मिलता था और अच्छे प्रति के चावल ६५ पैसे प्रति मन थे, शुद्ध देसी घी ३ रूपये ५० पैसे प्रति मन था। अच्छे प्रति का सूती कपड़ा ३ रूपये का ३० गज मिल जाता था और उस समय जो करेंसी चलती थी उसे “बेहलौली दीनार” कहा जाता था। यह सब जानकारी पंजाब यूनिवर्सिटी की पुस्तक खोज पत्रिका के पृष्ठ क्रमांक १९६९ में अंकित है।
इस व्यापारिक केंद्र में नवाब दौलत खान का ‘मोदी खाना’ स्थित था। इस ‘मोदी खाने’ से ही पंजाब के कृषि उत्पादों की खरीद – फरोख्त होती थी। कुछ कृषि उत्पाद कर के रूप में भी जमा होता था और कृषि उत्पादों के जरिये व्यापार किया जाता था अर्थात कृषि उत्पाद के बदले दूसरी वस्तुओं को खरीदा और बेचा जाता था। ‘मोदी खाना’ को आधुनिक भाषा में फूड कॉरपोरेशन आफ इंडिया के रूप में भी जाना जा सकता है।
नवाब लोधी के दीवान के रुप में गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के जीजा जी श्री जय राम जी कार्यरत थे। नवाब लोधी ने जय राम जी के ऊपर एक जवाबदारी दी थी कि ‘मोदी खाने’ को चलाने के लिये किसी उत्तम अधिकारी की नियुक्ति की जाये।
दीवान जय राम जी ने नवाब लोधी को सिफारिश कर गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की ‘मोदी खाने’ के मुख्य प्रबंधक के रूप में नियुक्ति करवा दी थी। गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने अपने कार्यकाल में ‘मोदी खाने’ का उत्तम प्रबंध किया। कई प्रकार के फालतू खर्चों के ऊपर रोक लगा दी गई। जिन सिपाहियों को मुफ्त रसद दी जाती थी, उनको हटाकर पुन: दिल्ली भेजा गया। इस प्रकार से पैसों की बचत कर व्यापार वृद्धि में उसका सदुपयोग किया गया। मेहरवान लिखित जन्म साखी में अंकित है कि जो पहले अधिकारी १० प्रतिशत ‘दहलिमी’ को काट कर जनता को रसद दी जाती थी, इससे आम जनता परेशान और दुखी थी। इससे पहले जिन लोगों को ‘मोदी खाने’ का प्रबंध दिया गया उन्होंने आम जनता को लूटने का ही काम किया था। गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ का प्रबंध बहुत उत्तम था। सभी हिसाब – किताब, हिसाब रखने वाले मुनीम भवानी दास जी के पास लिखवा दिया जाता था। इस कार्यकाल में गुरु जी ने अपने संदेश ‘नाम जपो,कीरत करो, और वंड छकों’ के सिद्धान्त को वास्तविकता के रुप में कर दिखाया था। इस समय गुरु जी नौकरी कर किरत कर रहे थे और नाम जप कर सभी जरूरतमंदों को बांटने का भी कार्य करते थे और अपने ‘दसवंद’ (किरत कमाई का दसवां हिस्सा) की कमाई से सभी भूखे प्यासे जरूरतमंद लोगों की जरूरतों को पूरा करते थे और तो और राशन भी ज्यादा तोल कर दे देते थे। उत्तम प्रबंध के कारण थोड़े ही समय में गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की पूरे इलाके में जय – जयकार होने लगी थी। उस समय के भ्रष्ट अधिकारियों और मंत्रियों को यह सहन नहीं हो रहा था और इन सभी भ्रष्ट लोगों का नेतृत्व जादू राय नामक व्यक्ती कर रहा था। जादू राय ने नवाब लोधी को गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ कि सख्त शिकायत की और बताया कि गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के कार्यकाल में भ्रष्टाचार हुआ है और गुरु जी ने ‘मोदी खाने’ को लूट लिया है। इन झूठी शिकायतों के परिणाम स्वरुप गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ को ३ दिन नजरबंद करके रखा गया (उस स्थान पर आज भी गुरुद्वारा कोठड़ी साहिब स्थित है) और ३ दिनों के लेखा – परीक्षण (ऑडिट) के पश्चात हिसाब में ‘३२१ बहलौली दिनार’ अधिक पाये गये। इस तरह से एक बार और भी गुरु जी के ऊपर झूठे इल्जाम लगाये और उस समय जब लेखा – परीक्षण किया तो ‘७६० बहलौली दिनार’ हिसाब में अधिक पाये गये थे।
नवाब दौलत खान गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की ‘कहनी और कथनी’ से अत्यंत प्रभावित हुये और ऐलान किया कि मेरी यह सरकार गुरु जी की सरकार है, मैं अपनी समस्त सरकार को गुरु जी के चरणों में समर्पित करता हूं।
भाई गुरदास जी ने अपनी वारों (पद्यो) में नवाब दौलत खान मोदी का जिक्र कर कहा है:–
दौलत खान लोधी भला जिंग पीर अविनाशी॥
नवाब दौलत खान मोदी के ससुर राय बुलार जी थे (जिन्हें गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ का प्रथम सिक्ख कहकर भी संबोधित किया है) श्री राय बुलार जी ने गुरु जी के नाम पर ७५० मुरब्बा जमीन लिखवा दी थी। (आज के हिसाब से १७९७५ एकड़) जिसका जिक्र श्री रतन सिंघ जग्गी द्वारा रचित विश्व प्रकाश ग्रंथ में अंकित है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि श्री राय बुलार जी गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ से अत्यंत प्रभावित हुये थे।
गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के काल में जो ‘मोदी खाने’ की संभाल हुई उससे पूरे इलाके में उनकी ख्याति थी। लोग कहते थे कि इस तरह का ‘मोदी’ आज तक कोई नहीं हुआ है।
यदि गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के ‘मोदी खाने’ की संकल्पना को लेकर चले तो पूरी दुनिया में गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के ‘मोदी खाने’ खुलने चाहिये। गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की अभिनव व्यापार पद्धति थी। जिसमें उत्पादों का ‘योग्य मुल्य, योग्य वजन और योग्य गुणवत्ता’ के महत्व को प्राथमिकता दी गई थी।

गुरु की कृपा
सिक्ख धर्म के ८ वें गुरु ‘श्री हर कृष्ण जी’ उम्र में बहुत छोटे थे आप जी का जन्म ७ जुलाई सन् १६५६ को पंजाब के कीरतपुर साहिब में हुआ था और आप जी ३० मार्च सन् १६६૪ को ज्योति – ज्योत समा गये थे। आप जी के पिता सिक्ख धर्म के ७ वें गुरु, गुरु ‘श्री हर राय साहिब जी’ थे एवं माता जी का नाम कृष्णा देवी था। कुल साडे़ ८ वर्ष की आयु के कार्यकाल में आप जी ने बहुत सारे आध्यात्मिक कार्य किए एवं अहंकारी और पाखंडीओं को गुरमत की मुख्यधारा से जोड़कर भक्ति का सच्चा मार्ग आप जी ने दिखाया था।
सिक्ख इतिहास में यह अनोखी घटना अंकित है कि एक बार गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ अपनी पालकी में सवार होकर अपने समूह परिवार और सेना के साथ कीरतपुर साहिब से दिल्ली की और प्रयाण कर रहे थे, सेना में २२०० घुड़सवार साथ में सम्मिलित थे। गुरू जी का पूरा काफिला पंजोखरा नामक ग्राम (अंबाला) में विश्राम करने के लिए रुका था। संगतोंं के आग्रह के कारण इसी स्थान पर गुरू जी का दीवान सजाया जाता गया था तो आसपास के दूर – दराज के गांवों से संगतें गुरु जी के दर्शन करने हेतु पहुंची थी। इसी गांव में एक पंडित लालचंद जी रहते थे। पंडित लालचंद जी अत्यंत विद्वान और शास्त्र विद्या में निपुण थे। इस पूरे इलाके में उनके ज्ञान का डंका बजता था और उनका कोई सानी नही था। इसी बात का उनको बहुत अंहकार और घमंड था।
जब पंजोखरा (अंबाला) ग्राम में संगतोंं की बहुत चहल – पहल हो रही थी तो पंडित लाल चंद जी को पता लगा कि गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी अपने पूरे परिवार और सेना के साथ यहां पर आए और उनका दीवान सजा है। लालचंद जी जब दिवान में हाजिर हुए तो गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ की आयु देखकर हैरान रह गए थे, उनका अंहकार जागृत हो गया और कहने लगे कि गुरु का नाम हर कृष्ण है और उनके नाम के आगे हरि के साथ प्रभु कृष्ण जी का भी नाम लगा हुआ है, उन्होंने गुरु जी से कहा कि आपने अपने नाम के आगे कृष्ण लगा रखा हुआ है परंतु क्या आप गीता के किन्हीं दो श्लोकों का अर्थ करके दिखाएंगे? क्या आप मुझ से शास्त्रार्थ करेंगे? प्रसन्न मुद्रा में गुरु जी ने उत्तर दिया कि हम गीता के श्लोकों का अर्थ तो कर देंगे परंतु तुम्हारा अंहकार तभी भी खंडित नहीं होगा और तुम कहोगे कि हो सकता है कि छोटी आयु में आपने ज्ञान अर्जित किया हो? और मैं यह भी जानता हूं कि तुम गीता के श्लोकों का अर्थ जानने नहीं आए हो दरअसल तुम्हें अपनी अर्जित की हुई विद्या पर बहुत घमंड है। साथ ही इस दीवान में उपस्थित यदि मैं अपने किसी सिक्ख को उन श्लोकों का अर्थ करने के लिए कहूंगा तो तुम विरोध करके कहोगे कि शायद इस सिक्ख को गीता के श्लोकों का ज्ञान हो? गुरु जी ने विद्वान लालचंद जी से कहा कि इस दीवान में यदि तुम गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की ‘रहमत’ देखना चाहते हो तो तुम अपने गांव के किसी भी व्यक्ति को साथ लेकर आ जाओ, जो तुम्हारा हो और जिस व्यक्ति को तुम साथ लेकर आओगे उसी से हम इन गीता के श्लोकों का अर्थ करवा देंगे।
अंहकारी लालचंद अपने गांव से एक ऐसे व्यक्ति को साथ लेकर आया जो ठीक से ना सुन सकता था और ना ही ठीक से बोल सकता था। इस व्यक्ति का नाम छज्जू झीवर था। विद्वान लालचंद छज्जू झीवर को गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ के दीवान में लेकर उपस्थित हुआ और गुरु जी से कहने लगा कि आप इस छज्जू झीवर से इन गीता के श्लोकों का अर्थ करके दिखाएं।
ऐसा माना जाता है कि श्री अकाल पूरख और गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी में कोई भेद नहीं है। गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की ज्योति ही गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ में समाहित है। गुरु जी ने अपनी मेहर भरी नजर से छज्जू झीवर को निहार कर देखा, जिसे गुरबाणी में इस तरह अंकित किया गया है:–
चतुर दिसा कीनो बलु अपना सिर ऊपरि करु धारिओं॥
क्रिपा कटाखु अवलोकनु कीनो दास का दूखु बिदारिओ॥
(अंग क्रमांक ६८१)
‘गुरु की कृपा” और मेहर की नजरों का सदका (नदर सुहेली जो करे) गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ ने लालचंद का अहंकार तोड़ने के लिए छज्जू झीवर के सर पर अपने हाथ की छड़ी को रखा, इस दीवान में उपस्थित कुछ लोग सशंकित हुए परंतु जब गुरु की कृपा होती है तो निमाणे को भी मान मिल जाता है और मूर्ख व्यक्ति भी विद्वान हो जाता है। जिसे गुरुबाणी में इस तरहां अंकित किया गया है:-
निमाणे कउ प्रभ देतो मानु॥
मुड़ मुगधु होइ चतुर सुगिआनु॥
(अंग क्रमांक ११૪६)
गुरबाणी में अंकित है कि जब ‘गुरु की कृपा’ होती है तो:-
रोगी का प्रभ खंडहु रोगु॥
दुखिए का मिटावहु प्रभ सोगु॥
अर्थात् रोगी के रोग दूर हो जाते हैं और दुखियों के दुख ‘गुरु की कृपा, से हर लिए जाते हैं।
गुरू अपनी कृपा से असंभव को संभव कर देते है। गुरुबाणी कहती है:-
भेखारी ते राजु करावै
राजा ते भेखारी॥
खल मूरख ते पंडितु करिबो पंडित ते मुगधारी॥
(अंग क्रमांक १२५२)
गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ की मेहर का सदका लालचंद जी जो भी श्लोक पढ़ कर सुनाते थे उसे छज्जू जीवर अपनी स्पष्ट आवाज से उन श्लोको का भिन्न – भिन्न तरीके से अर्थ करके सुनाते थे। जब छज्जू झीवर ने गीता के सभी श्लोकों का सुंदर और स्पष्ट तरीके से, भरे दीवान में अर्थ करके सुनाएं तो लाल चंद जी का अहंकार और घमंड चकनाचूर हो चुका था और लालचंद गुरु के चरणों में समर्पित होकर गुरु जी से सिक्खी की दात को मांगने लगा।
गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ ने लालचंद के ऊपर कृपा कर अपनी सिक्खी की दात बक्शी थी। इस ही भक्त लालचंद ने नौवें गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादर साहिब जी’ की सेवा में समर्पित होकर जीवन व्यतीत किया और यही लालचंद कालांतर में सन् १६९९ की बैसाखी पर ‘खंडे – बांटे’ का अमृत ग्रहण का सरदार लाल सिंघ सज गया और अपना जीवन गुरु सेवा में व्यतीत करता रहा।
सरदार लाल सिंघ अपने जीवन के अंतिम समय तक दशम पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के साथ साए की तरह रहा। जब गुरु जी का मुकाबला चमकौर की गढ़ी में मुगल सेना से हुआ तो यही लालचंद जो गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ के दीवान में गीता के श्लोकों का शास्त्रार्थ करने आया था, ने अपने शस्त्र को उठाया और म्यान से कृपाण निकालकर मैदान – ए – जंग में शत्रुओं के दांत खट्टे करते हुए शहीदी का जाम पी गया था।
दूसरी और विद्वान छज्जू झीवर भी गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ से सिक्खी की दात प्राप्त कर सेवा में समर्पित हो गया। जब सन् १६९९ की वैशाखी के शुभ अवसर पर ‘देश – धर्म’ की रक्षा के लिए दशमेश पिता ने शीश की मांग की तो उस समय छज्जू झीवर के परिवार में से ही भाई हिम्मत सिंघ जी उठकर आगे आए थे जिन्हें दशमेश पिता ने ‘पंज प्यारों’ के रूप में सजाया था। इस तरहां से ‘गुरु की कृपा’ से सरदार लाल सिंघ और छज्जू झीवर को सिक्ख इतिहास में अनौखा सम्मान प्राप्त है।
जिस स्थान (ग्राम पंजोखरा अंबाला) में गुरु ‘श्री हर कृष्ण साहिब जी’ का दीवान सजाया गया था उसी स्थान पर ऐतिहासिक गुरुद्वारा पंजोखरा (अंबाला) साहिब जी स्थित है।

हमारी सांझीवालता
गुरु नानक शाह फकीर, हिंदुओं के गुरु मुसलमानों के पीर।
सिक्ख धर्म के संस्थापक प्रथम गुरु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ का अवतार जगत के कल्याण के लिए हुआ था। आप जी ने अपनी चार उदासी यात्राओं से लगभग ३६००० मील की यात्रा कर आम लोगों को जाति, वर्ण और छुआछूत के भेद – भाव से दूर रहने के उपदेश दिये थे। ‘श्री गुरु नानक देव जी’ ने प्रेम,करुणा,भाईचारा और सदाचार का संदेश बहुत ही प्रेरणादायक ढंग से आम लोगों को दिये। गुरु जी ने कर्मकांड, कुरीतियों, विषमता और दोहरे मुल्यों पर तीखे प्रहार किये।
गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ हमारे देश की सांझीवालता के सजग प्रहरी थे। इतिहास गवाह है कि हिंदू और मुस्लिम समुदाय गुरु जी के उपदेशों के मुरीद थे। कुछ नवोदित बुद्धिजीवियों के द्वारा इतिहास की गलत जानकारी देकर आम जनता के दिमाग में कूट – कूट के भरा जा रहा है कि सिक्खों ने मुस्लिमों के खिलाफ जंगे लड़ी और सिक्ख धर्म का उदय ही इसके लिये हुआ है। यहां हमें इतिहास को समझना होगा कि सिक्ख किसी भी धर्म के खिलाफ नहीं थे। सिक्ख केवल और केवल जुल्म के खिलाफ थे। सिक्ख गुरुओं के समय और गुरूऔं के पश्चात के सिक्ख इतिहास को समझने से स्पष्ट हो जाता है कि मुस्लिम समुदाय का सिक्खों से प्रारंभ से ही स्नेह रहा है।
गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के ईश्वरीय अवतार को सर्वप्रथम पहचानने वाले गुरु जी के प्रथम सिक्ख राय बुलार जी मुस्लिम समुदाय के थे और गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के बाल सखा भाई मरदाना जी एवं गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की दोस्ती विश्व विख्यात है। भाई मरदाना रबाबी गुरु जी के साथ उनकी चार उदासी यात्राओं में परछाई की तरह रहे और गुरु जी के अंतिम समय तक हमेशा गुरु जी के साथ रहे।
चौथी पातशाही गुरु ‘श्री राम दास साहिब जी’ ने ‘श्री हरमंदिर साहिब अमृतसर जी’ की नींव मुस्लिम सूफी – संत मियां मीर जी के कर – कमलों से करवाई थी। सांझीवालता का इससे श्रेष्ठ उदाहरण क्या हो सकता है?
मुगल आक्रांताओं से उस समय का मुस्लिम समाज भी पीड़ित रहा और ऐसे कई मुस्लिम परिवार थे, जो सिक्ख गुरुओं पर अपनी पूरी श्रद्धा और निष्ठा रखते थे। इस समय देश में तथाकथित नवोदित बुद्धिजीवी हर मुसलमान में औरंगजेब, जकरिया ख़ान, वज़ीर खान और फर्रूखशियार को ही क्यों देखते हैं?
करुणा, कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने अपने छोटे से जीवन काल में १૪ युद्ध लड़े और उनमें से १३ युद्ध उन हिंदू राजाओं के खिलाफ लड़े जो उस समय के मुगल शासकों के अधीन होकर आम लोगों पर जुल्म ढ़ाते थे। केवल एक युद्ध गुरु जी ने औरंगजेब के खिलाफ लड़ा था और इन सभी पहाड़ी राजाओं के औरंगजेब को उकसाने के बाद ही दशमेश पिता को औरंगजेब के खिलाफ युध्द लड़ना पड़ा था।
सिक्ख इतिहास में पीर बुध्दुशाह का इतिहास स्वर्ण अक्षरों से अंकित है। पीर बुध्दुशाह और उसके परिवार ने गुरुजी से सच्चा प्यार किया और पूरी श्रद्धा, निष्ठा के साथ दशमेश पिता को भंगानी के युद्ध में साथ दिया था। इस युद्ध में पीर बुध्दुशाह ने अपने ૪०० मसंदो को और चार पुत्रों को शहीद करवाया था।
जब गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ महाराज ने प्रसन्न होकर पीर बुध्दुशाह को कहा कि आप चाहें जो मुझसे मांग सकते हो, उस समय गुरु जी कंघी कर रहे थे और पीर बुध्दुशाह ने गुरु जी से उनकी कंघी में फंसे बालों को मांग लिया था। अपनी विनम्रता और निष्ठा के कारण पीर बुद्धुशाह का नाम इतिहास में अमर हो गया।
इसी तरह मलेर कोटला के राजा शेर मोहम्मद खान (जिन्होंने गुरु गोबिंद सिंघ जी के छोटे साहबजादे के इंसाफ के लिये वजीर खान के दरबार में आवाज उठाई थी) को भी सिक्खों के स्वर्णिम – इतिहास में सम्मान पूर्वक याद किया जाता है।
जब दशमेश पिता अपने सर्व वंश को शहीद करवाकर माछीवाड़ा के जंगल में बिल्कुल अकेले रह गये थे। (इसी समय गुरु जी ने मित्तर प्यारे नू हाल मुरीदा दा कहना वैराग्यमयी ‘शबद’ (पद्य) का उच्चारण किया था तो उनके दो सेवक भाई गनी खान और भाई नबी खान उनको उच्च का पीर बनाकर पालकी में बैठाकर मुगलों के घेरे से सुरक्षित दक्षिण की और ले गये थे एवं भाई नबी खान और भाई गनी खान ने युद्ध में अपने परिवारों को भी शहीद करवाया था।
भक्त कबीर जी,भाई मरदाना रबाबी, भक्त शेख फरीद जी, भक्त भीकन जी, भक्त सदना जी ऐसे पीर और महान सैयद संत हुये जिनकी बाणी को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ में स्थान दिया गया है।
मुस्लिम समुदाय के कुछ विशिष्ट लोगों के नाम सिक्ख इतिहास में विशेष रूप से दर्ज हैं। जिनका सिक्ख गुरुओं और सिक्ख इतिहास से विशेष संबंध रहा है। कुछ प्रमुख नाम इस प्रकार हैं:–
दौलत खान लोधी, साई अल्लाह दित्ता, सैयद तकी, मियां मिट्ठा, शाह सरफ, हमजा गौस, बुड्डन शाह, मखदूम बहाउद्दीन, पीर दस्तगीर, बहलोल दाना, सैय्यद हाजी अब्दुल बुखारी, अब्दुल रहमान , रश जमीर, अल्लाह यार खान जोगी, शाह हुसैन, भाई सत्ता और भाई बलवंत जी, भाई बाबक रबाबी, भाई फतेह शाह, करीम बख्श, मीरा शाह, सैफ खान, मोहम्मद खान पठान गढ़ी नजीर, पीर अराफ दिन, करीम बख्श पठान, हकीम अबू तब,कोटला निहंग खान, बीबी कौलां जी, बीबी मुमताज बेगम, बेगम जैनबुनिशा इत्यादि …इत्यादि।
कहने का तात्पर्य यह है कि सिक्ख धर्म की लड़ाई जुल्म के खिलाफ थी। इसी तरहां नौवीं पातशाही धर्म की चादर, गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ ने तिलक और जैनऊ की रक्षा के लिये अपना शीश देकर महान शहीदी दी थी। साथ ही भाई मती दास, भाई सती दास, भाई दयाला जी ने भी हिंदू धर्म की रक्षा के लिए महान शहीदीयां दी थी।
विशेषकर हमें पंडित कृपाराम जी को भी याद करना होगा जो जब दशमेश पिता की उम्र ९ वर्ष और ६ महीने की थी तभी से लेकर उनके अंतिम समय तक एक साये की तरहां आप जी दशमेश पिता के साथ रहे थे एवं सभी प्रकार की धार्मिक शिक्षा देकर उन्हें युद्ध कला में भी निपुण किया था। अपनी ८૪ वर्ष की आयु में आप जी ने चमकौर की गड़ी में बड़े साहिबजादों के साथ शहीदी प्राप्त की थी।
इन सभी ऐतिहासिक प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि सिक्ख धर्म की शिक्षायें यही है कि हमें जुल्म से लड़ना है, जुल्मी की जात से नहीं, यही आज देश की जरूरत भी है। जात – पात का भेद कर हम एक ऐसा विष समाज में फैला रहे हैं, जिसका परिणाम परमाणु बम से भी घातक है।
हमारी सांझीवालता को भक्त कबीर जी ने अत्यंत सुंदर ढंग से इस पद्य में सुशोभित किया है:-
अवलि अलह नूरू उपाइआ कुदरति के सब बंदे॥
एक नूर ते सभु जगु उपजिआ कउन भले को मंदे॥
(अंग क्रमांक १३૪९)
अर्थात वो ऊर्जा जो अति सूक्ष्म तेजोमय, निर्विकार, निर्गुण, सतत् है और अनंत ब्रह्मांड को अपने में समेटे हुये हैं। किसी भी तंत्र में उसके लिये एक सिरे से उसमें समाहित होती है और एक या ज्यादा सिरों से निष्कासित होती है।
‘हमारी सांझीवालता’ देशभक्ति का सबसे बडा़ जज्बा है’।

बोले सो निहाल, सत श्री अकाल
इन दिनों व्हाट्स ऐप विश्वविद्यालय और फेसबुक पर एक वीडियो क्लिप वायरल हो रहा है। इस वीडियो क्लिप में हमारे देश के रक्षा मंत्री आदरणीय श्री राजनाथ सिंह जी को लेह – लद्दाख के सीमावर्ती क्षेत्र के दौरे पर दिखाया गया है और सीमा पर तैनात सिक्ख रेजीमेंट के सिक्ख सिपाही बड़े ही जोशीले अंदाज में आपको सिक्ख धर्म का पवित्र जय कारा ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’! बुलाकर मान वंदना दे रहे हैं। इस जयकारे बुलाने के अंदाज से रक्षा मंत्री जी प्रभावित हो जाते हैं और उसे फिर से एक बार जयकारा बुलाने की गुजारिश करते हैं। इसी तरह से हमने देशभक्ति से ओत – प्रोत फिल्म बॉर्डर (नायक सनी देओल) को कई बार देखा है और इस फिल्म के एक प्रसंग में ऐसा आता है कि जब पंजाब रेजिमेंट के बहादुर सिपाही दुश्मन के सामने जयकारे लगाते हैं तो दुश्मन जयकारों से खौफ खा जाते है और आपसी वार्तालाप में कहते हैं कि हमें सूचना मिली थी कि इस स्थान पर केवल १२० सैनिक है परंतु जयकारों की आवाज से प्रतीत होता है कि १२० नहीं अपितु यहां ६०० सैनिकों की प्लाटून है। इसी प्रकार सीमा पर भी चीनी सैनिक इन जयकारों से खौफ खाते हैं। युद्ध के मैदान में सिक्ख सैनिकों के लिये जयकारा एक ‘ब्रह्मास्त्र’ के समान है। वैज्ञानिक तरीके से देखा जाए तो जब जयकारा ‘बोले सो निहाल,सत श्री अकाल’ बुलाया जाता है’ तो इसकी ध्वनि लहरियों से अधिकतम ‘अनुनाद’ उत्पन्न होता है, जिससे वातावरण में इसकी गूंज अपना एक विशेष प्रभाव उत्पन्न करती है। इस जयकारे की पृष्ठभूमि को समझने के लिए इसका अर्थ और विश्लेषण जानना जरूरी है जो कि इस प्रकार है:-
सिक्ख धर्म के इस पवित्र जयकारे में तीन शब्दों का अत्यंत महत्व है। निहाल,सत् और अकाल, इन तीन शब्दों के समायोजन से ही जय कारे की वाक्य रचना संपूर्ण होती है। यदि जयकारे के पहले हम ‘जो’ शब्द का उपयोग करते हैं तो वो गलत है। जयकारे का उद्घोष और स्पष्ट उच्चारण केवल ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल है! ना कि ‘जो बोले सो निहाल सत श्री अकाल’ से है। यदि हम गूगल सर्च पर ‘जो बोले सो निहाल’…..लिखकर सर्च करेंगे तो बॉलीवुड की फिल्म ‘जो बोलने बोले सो निहाल’….. की जानकारी उपलब्ध होगी। जयकारे के शुद्ध उच्चारण के लिए हमें ‘जो’ शब्द को हटाना होगा। जयकारे का शुद्ध उच्चारण ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल है’ अर्थात्…. ‘बोले सो निहाल’ शब्द उच्चारण करने वाला ‘निहाल’ हो जाएगा। ‘निहाल’ शब्द का अर्थ है प्रसन्नता! वो खुशी, वो परमानंद जिसे शब्दों में बयान नहीं की जा सकती है, गुरुबाणी में अंकित है:-
गुरु पूरा जिन सिमरआ सेई भए निहाल॥
(अंग क्रमांक १૪२५)
नानक नदरी नदरि निहाल॥
(अंग क्रमांक ८)
पारब्रह्मु जपि सदा निहाल॥ रहाउ॥
(अंग क्रमांक ६१९)
अर्थात् यदि तुम उस अकाल पुरख, पारब्रह्म का स्मरण करोगे तो फल स्वरुप एक अद्भुत खुशी मिलेगी। एक ऐसा परमानंद प्राप्त होगा, जो बेमिसाल है। अब हमें बोलना क्या है? ‘सत श्री अकाल’। (सत शब्द को विशुध्द हिंदी में सत्य लिखा जायेगा) यहां हमें समझना होगा कि सत्य और सच दो अलग – अलग शब्द है। ‘सच’ शब्द का विलोमार्थी शब्द ‘झूठ’ होता है परंतु इस जयकारे में ‘सत्य’ शब्द का उपयोग किया गया है। ‘सत्य’ का अर्थ होता है अनंत काल तक रहने वाला, ‘सत्य’ शब्द का विलोमार्थी शब्द ‘असत्य’ होता है लेकिन हमें उस शब्द से जोड़ना है जो अनंत काल तक अजर – अमर है। इसे गुरुबाणी में इस तरह अंकित किया गया है:-
किरतम नाम कथे तेरे जिहबा॥
सति नामु तेरा परा पूरबला॥
(अंग क्रमांक १०८३)
अर्थात् उस परमपिता परमात्मा का नाम सत्य है, वो अनंत काल तक रहने वाला है। वो (काल से रहित) है। अब इसका पूर्णार्थ होगा:-
‘बोले सो निहाल’ अर्थात बोलने वाला ‘निहाल’ होगा और बोलना क्या है? ‘सत श्री अकाल’ अर्थात अनंत काल तक रहने वाला परमपिता – परमेश्वर, अकाल।
गुरुबाणी में अंकित है:-
‘तु अकाल पुरखु नाही सिरि काला॥
(अंग क्रमांक १०३८)
अर्थात् हे परमपिता परमेश्वर तू अकाल है तेरे सिर पर कोई काल नहीं है। जब हम ‘जप जी’ साहिब जी की बाणी पढ़ते हैं तो गुरु ‘श्री नानक साहिब जी’ ने शुरुआत ही इस तरह से की है। ‘अकाल मूरत, अजूनी सै भंग’॥
इस तरह से अकाल शब्द को मूल मंत्र से जोड़ा गया है। दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने अपनी बाणी में अंकित किया है:-
आगिआ भई अकाल की तभै चलाओ पंथ॥
(अरदास)
अर्थात् उस अकाल की आज्ञानुसार ही यह पंथ चलाया गया है। ६वीं पातशाह गुरु ‘श्री हरगोबिंद साहिब जी’ ने ‘अकाल तख्त’ की सर्जना की थी अर्थात सिक्ख धर्म को ‘अकाल’ से जोड़ा गया है। गुरबाणी में अंकित है:-
अकाल पुरख अगाधि बोध॥
(अंग क्रमांक २१२)
अर्थात् अकाल हमारी सोचने समझने की शक्ति के बाहर है। यहां समझना होगा कि सिक्ख धर्म का जयकारा केवल एक वाक्य नहीं है। जब हम जयकारा बुलाते हैं ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ तो स्पष्ट होता है कि इस जयकारे के माध्यम से हमें अकाल पुरख, परमपिता – परमेश्वर से सीधा जोड़ा गया है।
इस पुरे विश्लेषण से ज्ञात होता है कि जयकारा ‘बोले सो निहाल अर्थात् बोलने वाला ‘निहाल’ होगा और जब ‘सत श्री अकाल’ बोलते है तो हम उस अकाल पुरख (प्रभु परमात्मा) से जुड़ कर उसके नाम का स्मरण करते है।
पाठकों की जानकारी के लिये, जब दो गुरु सिक्ख आपस में मिलते हैं तो एक – दूसरे का अभिवादन ‘गुरु की फतेह’ बुलाकर करते हैं अर्थात्
‘वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह’!
ना कि सत श्री अकाल बोलकर तो हमें समझना होगा कि अभिवादन ‘गुरु की फतेह’ से होता है और सिक्ख धर्म का जयकारा है:-
‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’!

नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाने सरबत दा भला।
परमपिता – परमेश्वर, अकाल पुरुख के समक्ष गुरु के सिक्ख दो हाथ जोड़ प्रार्थना करने की विधि को सिक्ख धर्म में ‘अरदास’ शब्द से संबोधित किया जाता है। दुख हो या सुख हो,खुशी हो या गम हो हर समय गुरु के सिक्ख गुरुओं द्वारा बक्शी ‘अरदास’ उस अकाल पूरख, परमेश्वर से करते हैं। इस अरदास की यह विशेषता है की इसे कोई भी गुरसिक्ख छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग व्यक्ति, स्त्री,पुरुष पूरी विनम्रता से एकाग्र होकर, दो हाथ जोड़कर कर सकते हैं। केवल ‘अरदास’ करते समय शब्दों का उच्चारण शुद्ध होना चाहिए।
‘अरदास’ की समाप्ति के बाद हर ‘अरदास’ करने वाला गुरुसिक्ख यह वाक्य का जरूर उच्चारण करता है:-
‘नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाने सरबत का भला’।
अर्थात् उच्चारण किया हुआ यह वाक्य शब्दों का समीकरण ही नहीं अपितु सिक्ख धर्म का आधारिक सिद्धांत है। यह वाक्य सिक्खी जीवन और सिक्खी शिक्षा का द्योतक है। इस सिक्खी सिद्धांत के वाक्य को समझने की जरूरत है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में ‘नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत का भला’ यह शब्द कहीं भी अंकित नहीं है और ना ही किसी सिक्ख गुरुओं ने इस वाक्य का उच्चारण किया था परंतु यह वाक्य पंथिक प्रमाणित है, ‘श्री अकाल तख्त साहिब जी’ के द्वारा प्रमाणित है, इसका सिद्धांत है:-
नाम, चढ़दी कला, भाणा (उसकी रजा) और सरबत का भला।
जो परमेश्वर का नाम जपेगा (स्मरण) उसकी, हमेशा चढ़दी कला होगी। यही ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी है। चढ़दी कला का मतलब यह नहीं है की तुम बहुत धनी हो जाओगे। कार, बंगले या भौतिक जीवन से संबंधित सभी सुख – सुविधा तुम्हारे पास उपलब्ध होंगी।
गुरबाणी में अंकित है:-
वडे वडे जो दीसहि लोग तिन कउ बिआपै चिंता रोग॥
(अंग क्रमांक १८८)
हमें समझना होगा कि चढ़दी कला क्या होती है? जब सिक्ख धर्म के पांचवे गुरु, गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ तपते हुए लाल तवे पर बैठेकर उच्चारण करते हैं, तेरा किया मीठा लागे ……चढ़दी कला !
धन्य -धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ जब दिल्ली के चांदनी चौक में हिंदू धर्म की रक्षा के लिए शहादत देते हैं, उस समय शीश पर तलवार चलनी है परंतु बिना खौफ के प्रसन्न मुद्रा में मुस्कुराते हैं…… चढ़दी कला !
इसी स्थान पर उनके सिक्ख, भाई दयाला जी को उबलते हुए पानी की देग में उबाला जाता है……चढ़दी कला !
भाई मती दास जी को आरे से चीरा जाता है……चढ़दी कला !
भाई सती दास जी को रुई से बांधकर जलाया जाता है……चढ़दी कला !
इस वाहिगुरु जी की चढ़दी कला में वो ही ‘प्यारा’ आनंद प्राप्त करता है जो हमेशा उस अकाल पुरख का जाप (स्मरण) करता है। जब हम अकाल पुरख, परमेश्वर का सिमरन (स्मरण) करेंगे तो निश्चित ही हमारी चढ़दी कला होगी और जिसकी चढ़दी कला होती है वो परमेश्वर की रजा (भाणे) को मानता है।
यदि तुम्हारी चढ़दी कला ही नहीं होगी तो तुम उसकी रजा (भाणे) को कैसे मानोगे?
गुरुबाणी में अंकित है:-
जो तुधु भावै सो भला सचु तेरा भाणा॥
(अंग क्रमांक ३१८)
अर्थात् जो चढ़दी कला में रहता है वो परमेश्वर की रजा (भाणे) में ही आनंद प्राप्त करता है। गुरु बाणी में अंकित है:-
जिना भाणे का रसु आइआ॥
(अंग क्रमांक ७२)
अर्थात् वो ही आनंद प्राप्त करता है, जिसकी चढ़दी कला होती है।
गुरुबाणी में अंकित है:-
जिधरि रब रजाइ वहणु तिदाऊ गंउ करे॥
(अंग क्रमांक १३८२)
अर्थात् जिस पर परमात्मा (अकाल पुरख) प्रेम करता है वो ही उसकी रजा (भाणा) को मानता है।
गुरूबाणी में अंकित है:-
भाणा मंने सो सुखु पाए भाणे विचि सुखु पाइदा॥
(अंग क्रमांक १०६३)
इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि जो प्रभु – परमात्मा का नाम जपता है उसकी चढ़दी कला होती है और जिसकी चढ़दी कला होती है वो ही परमात्मा की रजा (भाणे) को मानता है और जो उसकी रजा (भाणे) को मानता है वो दूसरों का निश्चित ही भला कर सकता है। जिसे कहते हैं सरबत का भला !
यहां हमें समझना होगा कि ‘अरदास’ के पश्चात बोले जाने वाला वाक्य है:-
‘नानक नाम चढ़दी कला,तेरे भाने सरबत का भला’ !
इन सारे अर्थों को हम सभी ने गहराई से समझना चाहिए। खासकर हमारी आने वाली पीढ़ी को जरूर सरल शब्दों में समझाना चाहिये।
अरदास के अंत में बोला जाने वाला यह वाक्य कोई आम शब्दों की शब्दावली नहीं है इसका बड़ा गहरा और महत्वपूर्ण अर्थ है। सिक्खी सिद्धांत का यह वाक्य:- ‘नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाने सरबत का भला’ ! एक गहरी सोच को दर्शाता है।
जब हम ईश्वर का नाम जपेंगे (स्मरण) करेंगे तो हमारी चढ़दी कला होगी और जब चढ़दी कला होगी तो हम उस परमेश्वर की रजा (भाणे) को मानेंगे और जो परमेश्वर की रजा (भाणे) को मानते हैं वो संसार के सभी प्राणियों का भला करेंगे। जब हम सच्चे दिल से सभी का भला परमेश्वर से मांगेंगे तो कभी किसी का बुरा नहीं सोचेंगे। इस मांगे हुए भले में कभी भी,कहीं भी खुदगर्जी नहीं होगी। धन्य है गुरु के सिक्ख और धन्य है:-
‘नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाने सरबत का भला’ !

ज्योतिष विद्या और सिक्ख धर्म
विश्व में सिक्ख धर्म को सबसे आधुनिक, सहज और सरल धर्म माना जाता है। सिक्ख धर्म के अनुयायियों का ज्योतिष विद्या से किसी भी प्रकार का कोई संबंध नहीं है। सिक्ख धर्म में ग्रह, नक्षत्र, कुंडली और किसी भी प्रकार की ज्योतिषीय पत्रिका को कोई स्थान नहीं है। सिक्खों में सभी दुख – सुख के समय केवल एक अकाल पुरख (परमपिता – परमेश्वर) की ‘अरदास’ (प्रार्थना) की जाती है और यह जरूरी नहीं है कि ‘अरदास’ का गुरुद्वारे के ज्ञानी जी के द्वारा ही पठन किया जाए। कोई भी छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक इस ‘अरदास’ को पढ़ सकता है। ‘अरदास’ पठन के समय शुद्ध उच्चारण को विशेष महत्व दिया जाता है। सिक्खों के परिणय बंधन (आनंद कारज) के कार्य को किसी भी दिन किया जा सकता है। सारा ही समय ईश्वर से निहित है। इसलिए ‘मुहूर्त’ को नहीं माना जाता है। केवल ‘आनंद कारज’ की विधि दोपहर १२ बजे से पूर्व हो तो उसे उत्तम माना जाता है कारण ‘आनंद कारज’ की प्रक्रिया करते समय धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की जो बाणी उच्चारित की जाती है उस बाणी के राग ‘गुरुमत संगीत’ पर आधारित है और इन रागों का गायन दोपहर १२ बजे के पूर्व होना उत्तम माना जाता है।
सिक्ख विद्वान और इतिहासकारों का मानना है कि ज्योतिष विद्या इंसान को मानसिक रोगी बनाती है। सिक्ख धर्म के अनुयाई केवल ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ की बाणी के अनुसार अपना जीवनयापन करते हैं। सिक्खी का आधार है:-
‘नाम जपो, कीरत करो और वंड़ छकों’ अर्थात प्रभु – परमेश्वर का स्मरण करो,मेहनत की कमाई करो और जो प्राप्त हो उसे बांटकर खाओ।
सेवा,सिमरन और त्याग की विचारधारा का अक्षुण्ण प्रवाह ‘गुरसिक्खी’ में निहित है। ज्योतिष विद्या के संबंध में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित है:-
महला ३ रामकली की वार
पंडित पड़दे जोतकी ना बूझहि बीचारा॥
सभु किछु तेरा खेलु है सचु सिरजणहारा॥
जिसु भावै तिसु बखसि लैहि सचि सबदि समाई॥
(अंग क्रमांक ९૪८)
अर्थात सृष्टि की रचना तो अकाल पुरख का खेल है। पंडित लोग ज्योतिष विद्या पढ़कर गणना करते हैं, जो कि मिथ्या है। जीवन तो उस प्रभु – परमात्मा का खेल है। सिक्ख तो उस अकाल पुरख की रजा में जीवन व्यतीत करते हैं।
गुरुबाणी कहती है:-
पडि पंडितु अवरा समझाए॥
घर जलते की खबरि ना पाए॥
(अंग क्रमांक १०૪६)
अर्थात् पंडित विद्या पढ़ – पढ़ कर दूसरे को ज्ञान देते हैं परंतु स्वयं ज्योतिष को उसके घर में जो ज्वाला जल रही है उसका ज्ञान नहीं है। ज्योतिष के अंतर्मन में जो राहु – केतु विराजमान है उसका क्या? स्वयं में स्थित काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार का क्या? स्वयं पर लगी हुई साढ़े साती का क्या? इनको कैसे समाप्त करना है? इस पर कौन ध्यान देगा। ज्योतिष गणनाओं के चक्कर में लोग मानसिक रोगी हो जाते हैं। गुरुबाणी कहती है:-
गणत गणीऐ सहसा दुखु जीऐ॥
(अंग क्रमांक ९०૪)
अर्थात् गणनाओं के चक्कर में पड़कर केवल दुख प्राप्त होगा॥
गुरूबाणी में अंकित है:-
सूख सहज आनदु घणा हरि कीरतनु गाउ॥
गरह निवारे सतिगुरू दे अपणा नाउ॥
(अंग ૪००)
अर्थात् ग्रहों के चक्कर में नहीं पड़ना है। यदि तुम ईश्वर का स्मरण करते हो और प्रभु – परमेश्वर को याद करते हो तो गुरु जी आप ही तुम्हारे सभी ग्रहों को शांत कर देते हैं और कोई भी साढ़े साती नहीं लगेगी।
गुरबाणी में अंकित है:-
आगम निरगम जोतिक जानहि बहु बहु बिआकरना॥
तंत मंत्र सभ अउखध जानहि अंति तऊ मरना॥
(अंग क्रमांक ૪७६)
अर्थात् चाहे जितना तंत्र – मंत्र करना है,कर लो, कुछ नही होने वाला है। गणनाओं से ग्रह शांत नहीं होने वाले हैं कारण अंत में इन गणना करने वाले ज्योतिषियों की भी मृत्यु होना स्वाभाविक है।
इसलिए सिक्ख धर्म के सच्चे अनुयाई तिथी, वार, मुहूर्त और दिनों के चक्करों से दूर रहते हैं। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी में अंकित है:-
सतिगुर बाझहु अंधु गुबारु॥
थिती वार सेवहि मुगध गवार॥
(अंग क्रमांक ८૪३)
अर्थात् गुरुबाणी कहती है की तिथि,वार, मुहूर्त और दिनों के चक्कर में केवल मूर्ख लोग पड़ते हैं।
सिक्ख धर्म सिखाता है कि ज्योतिष विद्या के चक्कर में पढ़ोगे तो मूर्खता करोगे। धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ की बाणी अनुसार ही जीवन का कल्याण संभव है। नाम जपो गुरबाणी को पढ़ो और समझो। ज्योतिष विद्या कोरी कल्पना है। इंसानियत के नाते ‘सरबत का भला करो’ सिक्खी कहती है ‘नानक नाम चढ़दी कला तेरे भाने सरबत का भला’ !

वाहिगुरु या हेल्लो
विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक ग्रहाम बैल ने टेलीफोन यंत्र की खोज की थी। टेलीफोन नामक यंत्र की खोज १० मार्च सन् १८७६ में की गई थी। जब टेलीफोन यंत्र का प्रथम निर्माण हुआ तो ग्राहम बेल ने अपने इस यंत्र को परीक्षण करने हेतु अपनी पत्नी मार्गरेट को दूसरे कमरे में बिठाया था। साथ ही उसके कुछ सहायक भी इस परीक्षण में उसकी मदद कर रहे थे।
१० मार्च सन् १८७६ को परिक्षण करते समय फोन की पहली घंटी बजी थी। दुसरे कमरे में बैठी हुई मार्गरेट ने फोन के रिसीवर को उठाकर जब कान पर लगाया और हेल्लो शब्द का उच्चारण किया था। कारण मार्गरेट का उपनाम (निकनेम) हेल्लो था। इस यंत्र के परीक्षण के समय ग्राहम बेल के द्वारा भी हेल्लो शब्द ही बोला गया था। इस फोन के परीक्षण के समय दोनों और से हेलो शब्द का उच्चारण हुआ था। यंत्र परीक्षण की सफलता के लिए खुशियां मनाई गई थी और तालियां भी बजाई गई थी। उस परीक्षण की सफलता वाले दिन ग्राहम बेल ने कहा था कि आप भविष्य में भले ही मुझे भूल जाएं परंतु मेरी पत्नी हेलो को जरूर याद रखना। जब भी आप फोन पर वार्तालाप करें तो मेरी पत्नी के नाम का उच्चारण हेलो अवश्य करे।
इतिहास को दृष्टिक्षेप करें तो १० मार्च सन् १८७६ को फोन पर प्रथम शब्द हेलो का इजाद हुआ था। १५ अप्रैल सन् १६८७ को अर्थात् १८९ वर्ष पूर्व जब भंगानी का युद्ध हुआ तो गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने वचन किए थे:-
आगे आवत सिंघ जो पावे, वाहिगुरु जी की फतेह बुलाए॥
अर्थात् खालसा जी जब आप एक दूसरे को मिलते हो या जब एक दूसरे को पुकारते हो तो उस समय आपको उस अकाल पूरख वाहिगुरु का स्मरण होना चाहिए। इसलिए उस समय मुख पर वाहिगुरु शब्द का उच्चारण करना चाहिए। जब दो गुरु सिक्ख आपस में मिलते हैं तो अभिवादन स्वरूप उच्चारण करते हैं:-
वाहिगुरु जी का खालसा,वाहेगुरु जी की फतेह॥
परंतु आज हमारा अक्सर वार्तालाप फोन पर होता है और हम बोलते क्या है? वैज्ञानिक ग्राहम बेल की पत्नी का नाम हेल्लो!
विचार करने योग्य है की हेल्लो हमारी कौन लगती थी? क्या वो हमारी चाची, ताई या मौसी थी? वो रिश्ते में हमारी क्या लगती थी? हम सभी उसी का नाम दिनभर जपते रहते हैं। हमें याद रखना होगा कि गुरबाणी में अंकित है:-
अंति कालि जो इसत्री सिमरै ऐसी चिंता महि जे मरै॥
बेसवा जोनि वलि वलि अउतरै॥
(अंग क्रमांक ૪२६)
अर्थात् अंतिम समय में जो कोई औरत का ध्यान धारण करता है और वो इसी ख्याल में मृत्यु को प्राप्त होता है तो वो बार – बार वेश्या की जून में जन्म लेता है।
हम नहीं जानते कि इस जीवन यात्रा में हमारे मुंह में अंतिम शब्द हेलो होगा या वाहिगुरु यह तो हम पर निर्भर करता है। यदि हम दिनरात हेलो, हेलो का उच्चारण करते रहे तो हो सकता है कि हमारे जीवन का अंतिम शब्द भी हेलो हो!
जब हम फोन करते हैं या फोन सुनते हैं तो क्या हम वाहेगुरु नहीं बोल सकते? यदि सारी दुनिया हेलो बोलती है तो क्या हम अपने गुरु का नाम या उस अकाल पुरख का नाम नहीं जप सकते? यदि हम वाहिगुरु का नाम लगातार जपते रहें तो हमारा मुंह तो पवित्र होगा ही अपितु हमारे विचार भी पवित्र होंगे। जब हम फोन पर वाहिगुरु शब्द का उच्चारण करेंगे तो हमारा मुख भी पवित्र होगा एवं दूसरी और जो फोन सुन रहा है उसके कान में जब वाहिगुरु की आवाज सुनाई देगी तो उसके कान और विचार दोनों ही पवित्र होंगे। इस एक छोटे से बदलाव से हमारे जीवन में अगिनत बार वाहिगुरु का नाम अनायास ही जपा जाएगा।
निश्चित ही हम आज के पश्चात हेलो शब्द की बजाय वाहिगुरु का नाम जपेंगे। इस लेख के अंत में धन्य – धन्य करुणा – कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता की गुरु फतेह की सांज करें।
वाहिगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह!

संत - सिपाही और शस्त्र
सिक्ख धर्म के दस गुरुओं में से पहले पांच गुरुओं ने सूफी – संतों की तरह रहन – सहन रखकर धर्म प्रचार किया। पांचवे गुरु, गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ की शहादत के पश्चात जब सिक्ख धर्म के छें वें गुरु ‘श्री हरगोबिंद साहिब जी’ गद्दी पर विराजमान हुए और उन्होंने ही श्री ‘अकाल तख्त’ साहिब जी की स्थापना की और मिरी – पीरी की उपमाओं से अपनी दोनों कृपाणों को धारण करके सुशोभित किया एवं शस्त्र के महत्व को पहचान कर प्रत्येक गुर सिक्ख को शस्त्र धारण करना अनिवार्य किया और गुरू के सिक्खों को ‘संत – सिपाही’ का रूप दे दिया।
जब गुरु जी श्री ‘अकाल तख्त’ पर सजे और मीरी – पीरी की दो कृपाण धारण कर संगतोंं के दर्शन – दीदारें कर रहे थे तो उस समय कुछ लोगों ने शशंकित होकर सवाल किये, क्या शस्त्रों की जरूरत है? क्या एक गुरु गद्दी पर बैठे संत को शस्त्र धारण करने की आवश्यकता है? इन शंकाओं का एकदम सही उत्तर हमें भाई गुरदास जी की ‘वारा’ पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है।
जिउ मणि काले सप सिरि हसि देइ न जाणी।
अर्थात् काले नाग के फन में ‘मणि’ होती है। जब तुम उससे प्रेम से मणी मांगोगे तो क्या वो तुम्हें मणी दे देगा? जब तक उस काले नाग के फन को कुचलोगे नहीं, तब तक तुम्हें मणि प्राप्त नहीं होगी। इसी तरह से भाई गुरदास जी की ‘वारा’ में अंकित है:-
जिउ करि खूहहु निकलै गलि बधे पाणी।
अर्थात् यदि हमें कुएं से पानी निकालना है तो घड़े के गले में रस्सी बांधी ही पड़ेगी। इसी तरह से भाई गुरदास जी की ‘वारा’ में अंकित है:-
जाण कथुरी मिरग तनि मरि मुकै आणी।।
अर्थात् यदि तुम्हें हिरण से कस्तूरी प्राप्त कर दी है तो उसे समाप्त करना ही पड़ेगा। जब तक तुम हिरण का वध नहीं करोगे तो वो कस्तूरी प्राप्त नहीं होगी। इसी तरह से भाई गुरदास जी की ‘वारा’ में अंकित है:-
जिऊ मुहु भंने गरी दे नलीएरु निसाणी।
अर्थात् यदि नारियल से गिरी प्राप्त करनी है तो उसे तोड़ना ही पडे़गा। जब तक नारियल के टुकड़े नही होंगे तब तक हमें गिरी प्राप्त नही होगी।
इसी तरहां से भाई गुरुदास जी की ‘वारां’ में अंकित है:-
तेल तिलहु किउ निकलै, विणु पीडे़ घाणी।
अर्थात् यदि तिल से तेल निकलता है तो तिल को घाणी में डालकर पिसना पड़ेगा तो ही तेल निकलेगा।
इसी तरह से भाई गुरदास जी की ‘वारा’ में अंकित है:-
बेमुख लोहा साधीऐ वगदी वादाणी॥
अर्थात् जो बेमुख लोग हैं उन्हें यदि सीधा करना है तो जिस तरहां से लोहे को तपा कर हथौड़े से वार किया जाता है तो ही वो सीधा होगा।
अर्थात् यदि हमें सांप से मणि लेनी है तो उसका फन कुचलना पड़ता है। यदि हमें कुएं से पानी निकालना है तो घडे़ के गले में रस्सी बांधने पड़ती है। यदि हमें हिरण से कस्तूरी लेनी हो तो उसका वध करना पड़ता है। यदि हमें नारियल की गिरी प्राप्त कर दी है तो हमें नारियल के टुकड़े करने पड़ते हैं। यदि तिल से तेल निकालना है तो उसे घाणी में डालकर पिसना पड़ता है और यदि हमें बेमुखों को सीधा करना है तो बिना शस्त्रों के वो संभव नहीं हो सकता है।
पंथ प्रकाश में अंकित है:-
राज किसे को कोइ न दै है॥
जो ले है निज बल से लै है॥
शसत्रन के अधिन है राज॥
जो न धरेहि तिस बिगरत काज॥
कोई भी किसी को राज नही देता है, राज स्वबल से प्राप्त करना पड़ता है। क्योंकि राज शस्त्रों के अधिन होता है और बिना शस्त्रों से राज नही चलता है।
गुरु जी उच्चारित किया है:-
जब हमरे दरशन को आवहु॥
बन सुचैत तन शसत्तर सजावहु॥
अर्थात् जब हमारे दर्शनों को आओं तो सचैत होकर तन पर शस्त्र सजा कर आओं।
बिना शसत्तर के संग, नंर भैड़ जानो।।
अर्थात् बिना शस्त्रों के व्यक्ति भैड़ के समान है।
भाई देसा सिंघ जी लिखते है:-
कछ् किरपाण न कबहु तिआगे॥
सनमुख लरै न रण तै भागे॥
इन सभी बाणीयों से सिद्ध होता है कि बिना शस्त्रों के सिक्ख की जिंदगी अधूरी है। शस्त्रों को धारण करना गुरूओं का हुक्म है। बिना शस्त्रों के सिक्ख भैड़ के समान है। दशम पिता गुरु ‘श्री गोबिन्द सिंघ जी’ ने शस्त्रों को पीर का दर्जा दिया है:-
असि क्रिपान खंडों खड्ग तुपक तबर अरु तीर॥
सैफ सरोही सैहथी यहै हमारे पीर॥
(ससत्र नाम माला)
इस लेख को पढ़ने के बाद पाठक समझ सकते है कि शस्त्रों को धारण करना सिक्खों के लिये क्यों जरूरी है?
सिक्खों की असली पहचान शस्त्र धारी उसका ‘संत – सिपाही’ रुप ही है।

शहीद
सलोक कबीर॥
गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ॥
खेतु जु माँडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ॥
सूरा सो पहिचानीऐ जु लरै दीन के हेत॥
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेतु॥
(अंग क्रमांक ११०५)
अर्थात् वो ही शूरवीर योद्धा है जो दीन दुखियों के हित के लिए लड़ता है। जब मन – मस्तिष्क में युद्ध के नगाड़े बजते हैं तो धर्म योद्धा निर्धारित कर वार करता हैं और मैदान – ए – जंग में युद्ध के लिए ‘संत -सिपाही’ हमेशा तैयार – बर – तैयार रहता हैं। वो ‘संत – सिपाही’ शूरवीर हैं, जो धर्म युद्ध के लिए जूझने को तैयार रहते हैं। शरीर का पुर्जा – पुर्जा कट जाए परंतु आखरी सांस तक मैदान – ए – जंग में युद्ध करता रहता हैं।
भक्त कबीर जी द्वारा रचित यह बाणी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में ‘मारू राग’ के अंतर्गत अंकित है। वीर रस से ओत – प्रोत इस ‘शबद’ (पद्य) जैसी रचनाओं से प्रेरित होकर जो ‘संत – सिपाही’, धर्म योद्धा, ‘देश – धर्म’ की रक्षा के लिए और जुल्मों के खिलाफ लड़ते हुए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर वीर गती को प्राप्त होता है, वो ‘शहीद’ कहलाता है। ‘शहीद’ शब्द का अर्थ करने के लिए और विश्लेषण करने के लिए हमें इतिहास के पन्नों को पलटना होगा।
ईसा काल पूर्व मिस्र में राज्य करने वाले राजा जिन्हें ‘फ्रोन’ के नाम से भी जाना जाता है। उनके समय में दो कबीले हुआ करते थे ‘मौजस’ और ‘इब्रानी’, इन दोनों कबीले के लोगों पर ‘फ्रोन’ के राजाओं द्वारा बेइंतहा जुल्म किए जाते थे। इतिहास में अंकित है कि इन दोनों कबीलों ने मिलकर उस समय के ‘फ्रोन’ राजाओं के खिलाफ बगावत शुरू कर दी थी। इन राजाओं के द्वारा अपनी सेनाओं को आदेश दिया गया था कि इन दोनों कबीलों के लोगों को पूर्ण रूप से समाप्त कर दिया जाए। उस समय इन दोनों कबीलों के पुरुष, महिलाएं, बुजुर्ग और बच्चों का बेदर्दी से कत्ल कर दिया गया। जुल्म की इंतिहा थी उस समय गर्भवती स्त्रियों को और उनके भ्रूणों को भी बेदर्दी से हत्या कर दी गई थी। ‘फ्रोन’ राजाओं का सेना को आदेश था कि दोनों कबीलों की आने वाली पीढ़ियों का समूल नष्ट कर दिया जाए। जब यह मौत का तांडव चल रहा था तो ग्रीस के लोगों द्वारा ग्रीस की भाषा में एक विशेष चिंहांकित (µaptup) शब्द का जन्म हुआ जिसे ‘शहीद’ के नाम से उच्चारित किया गया।
इसके पश्चात प्रभु ईसा मसीह को ‘शहीद’ किया गया तो शब्द आया MARTYR जिसे MARTYDOM भी कहा जाता है। इसी तरह से इस्लाम धर्म में अरबी भाषा का शब्द है ‘शहीद’ पहली बार ‘शहीद’ शब्द का उपयोग ‘मुकदस हदीस’ में भी किया गया। ईसा काल में शब्द ‘शहीद’ का पैमाना कुछ और था कारण इस काल में आपस में ही एक दूसरे को मारा जाता था।
यदि सिक्ख इतिहास को देखा जाए तो श्री ‘गुरु ग्रंथ साहिब जी’ मैं ‘शहीद’ शब्द दो बार अंकित है। पहली बार ‘शहीद’ शब्द (पद्य) ‘श्री राग’ में पृष्ठ क्रमांक ५३ (पाठकों की जानकारी के लिए श्री ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ के पृष्ठों को गुरमुखी में सम्मान पूर्वक ‘अंग’ कहकर संबोधित किया जाता है।) पर गुरू ‘श्री नानक देव साहिब जी’ द्वारा रचित बाणी में अंकित है:-
पीर पैकामर सालक सादक सुहदे अउरु सहीद॥
(अंग क्रमांक ५३)
दुसरा ‘शबद’ (पद्य) ‘मल्हार राग’ में भक्त कबीर जी द्वारा उच्चारित पृष्ठ (अंग) क्रमांक १२९३ पर अंकित है:-
जा कै ईदि बकरीदि कुल गऊ रे बधु करहि मानीअहि सेख सहीद पीरा॥
इस तरहां से दो बार ‘शहीद’ शब्द ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ में अंकित है। इसी प्रकार ‘शहीद’ शब्द भाई गुरदास जी द्वारा लिखित ‘वारां’ में भी एक बार अंकित है:-
मुरदा होइ मुरिद न गली होवणा।
साबरु सिदकि सहीदु भरम भऊ खोवणा॥
अर्थात् जिसके पास ‘शबद और सिदक’ है, वो शहीद कहलाता है। अपने भीतर भ्रम और भय को दूर करने वाला ‘शहीद’ कहलाता है। गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के समय से ही सिक्ख धर्म में ‘शहीद’ होने की परंपरा रही है। जिस समय ‘बाबर’ के द्वारा लाहौर शहर में आग लगाई गई थी, उस समय शहर के सभी घरों को जलाया जा रहा था। उस समय गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ का एक सिक्ख भाई ‘तारु पोपट’ पानी की बाल्टी से जब आग बुझाने की कोशिश करता है तो उसे उस आग में जलाकर ‘शहीद’ किया गया था।
सिक्ख धर्म के गुरुओं में से पांचवें गुरु, गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ को ‘शहीदों के सरताज’ की उपाधि से विभूषित किया गया था। जिंहोने धर्म, ग्रंथों की इज्जत, आन – बान और शान के लिए तपते हुए तवे पर बैठकर बेमिसाल शहीदी दी थी। गुरु ‘श्री हरगोबिंद साहिब जी’ (सिक्ख धर्म के ६ वें गुरु) ने अपने कार्यकाल में चार युद्ध किए थे। इन युद्धों में वीरगति को प्राप्त करने वाले सिक्ख ‘शहीद’ कहलाए। इसी तरह हिंदू धर्म की रक्षा के लिए ९ वें गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादर साहिब जी’ ने दिल्ली के चांदनी चौक में अपने सिक्ख भाई मती दास, भाई सती दास, और भाई दयाला जी के साथ प्राप्त की ‘शहीदी’ अभूतपूर्व है। गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ जिन्हें (धर्म की चादर के नाम से भी संबोधित किया जाता है) जी के लिए गुरुबाणी में अंकित है:-
धर्म हैत जिन साका किआ सीस दिआ पर सिर ना दिआ॥
दशम पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के समय भंगानी के युद्ध में वीरगति को पाने वाले ‘शहीद’ कहलाये। जब मुग़ल सेना द्वारा आनंदपुर साहिब के किले को घेर लिया गया और कसमें देखकर गुरु जी को किला खाली करने के लिए कहा गया, इन कसमों का मान – सम्मान रखने के लिए जब गुरु जी ने किला खाली किया तो खाई हुई कसमों से पलटी होकर पीछे से आक्रमण किया गया। इस युद्ध में आन – बान और शान के लिए मैदान – ए – जंग में युद्ध करते समय वीरगति को प्राप्त करने वाले ‘शहीद’ कहलाए। इस युद्ध में गुरु जी के चारों साहबजादे भी ‘शहीद’ हुए थे।
श्री आनंदपुर साहिब जी के किले में से बाहर निकलकर ग्राम झंखिया के मैदान – ए – जंग में युद्ध कर वीरगति को प्राप्त कर ‘शहीद’ होने वाली प्रथम सिक्ख महिला योद्धा बीबी ‘भीखां कौर’ जी थी। इसी प्रकार बीबी ‘शरण कौर पांवला’ चमकोर की गढ़ी में जब बड़े साहिबजादों की देह का संस्कार कर रही थी तो उसे भी चिता की आग में ‘शहीद’ किया गया था। गुरुओं के समय में अंतिम ‘शहीदी’ चित्तौड़गढ़ की धरती पर भाई मान सिंघ जी और बाबा जोरावर सिंघ और साथ में २१ सिक्खों ने शहीदी दी थी। जिनका अंतिम संस्कार दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ महाराज ने आप किया था।
बाबा बंदा सिंघ बहादर से लेकर सन् १९८૪ तक अभिलेख के अनुसार ८૪९००० (आठ लाख उनपचास हजार) सिक्खों ने ‘देश – धर्म’ की रक्षा के लिए और जुल्मों के खिलाफ लड़ते हुए वीरगति प्राप्त कर ‘शहिदीयां’ दी हैं। सन् १९८૪ से लेकर २०२० तक ९ लाख से भी अधिक सिक्खों ने शहीदी का जाम पिया है। भाई इकबाल सिंघ जी लिखित पुस्तक के अनुसार अभी तक ९ लाख से भी अधिक सिक्खों ने ‘शहीदी’ का जाम पिया है।
हाल ही में सन् २०२० में लद्दाख की सीमा पर चीनियों से हुये युद्ध में सरदार गुरतेज सिंघ ने अपनी म्यान से कृपाण निकालकर अकेले ही १२ चीनियों को मौत के घाट उतार वीरगति प्राप्त कर ९ लाख से ज्यादा सिक्ख ‘शहीदों’ में स्वंय का नाम भी अंकित किया है।
भाई कान्ह सिंघ जी नाभा लिखित पुस्तक अनुसार ‘शहीद’ का अर्थ:- धर्म के नाम पर गवाही देने वाला ‘शहीद’ होता है। ‘शहीद’ शब्द का पैमाना अति विशाल,पवित्र और ऊंचा है। सिक्ख धर्म में शहीदों की दास्तान अनोखी है, यह दास्तान ‘ना खत्म हुई है और ना ही कभी खत्म होगी’।
‘देश – धर्म’ की रक्षा और जुल्म के खिलाफ लड़ते हुए वीरगति प्राप्त सभी ‘संत – सिपाही’ गुर सिक्ख ‘शहीदों’ को सादर नमन !

शहीद भाई तारु पोपट जी
‘पंथ खालसा’ में सिक्ख शहीदों की एक लंबी फेहरिस्त है। जुल्म के खिलाफ लगातार लड़ते हुए धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के सिक्खों ने लगातार शहिदीयों को प्राप्त किया है। भाई तारु पोपट ऐसे ही एक युवा सिक्ख सेवादार की सेवा करते हुए प्राप्त की गई शहीदी की अनोखी दास्तान को समर्पित है यह लेख।
मुगल आक्रांता बाबर ने बारंबार हिंदुस्तान पर आक्रमण कर हिंदुस्तान को लताड़ा, मारा और जलाया था। बाबर द्वारा हिंदुस्तान के सांस्कृतिक मूल्यों का लगातार हनन किया गया था। किसी भी हिंदुस्तानी ने इस जुल्मी आक्रांता के विरुद्ध आवाज नहीं उठाई थी। इस पूरे भारतवर्ष में उस समय धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने बाबर को जाबर कहकर लानतें दी थी। बाबर के जुल्मों की इंतिहा थी। उसके द्वारा पूरे लाहौर शहर में आग लगा दी गई थी।
जब लाहौर शहर में अग्नि का तांडव अपनी चरम सीमा पर था तो उस समय युवावस्था की दहलीज पर खड़ा धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ का एक नौजवान सिक्ख भाई तारु पोपट जी ने स्वयं अपने हाथों से इस ज्वलंत आग को बुझाने का प्रयास किया था। कई इतिहासकारों ने तारु और पोपट ऐसे दो नामों को भी अंकित किया है। भाई तारु पोपट जी चढ़ती हुई उम्र का नौजवान सिक्ख था। उस समय इस नौजवान ने बाल्टी नुमा बर्तन में पानी भरकर जलते हुए लोगों के घरों को बुझाने का सेवाभावी कार्य प्रारंभ कर दिया था।
मुगल सैनिकों ने इस भाई तारु पोपट से पानी बुझाने के इस बर्तन को छीन लिया था और भाई तारु पोपट पर हमला कर बुरी तरह से घायल करके भगा दिया था। भाग कर भाई तारु पोपट अपने स्वयं के घर पर आ गया था। भाई तारु पोपट ने इस रक्त रंजित अवस्था में भी पुनः पानी की बाल्टी हाथ में ली और आग बुझाने के लिए जब वो पुनः जाने लगा तो भाई तारु पोपट की बहन ने इसकी बांह को पकड़ कर रोक कर कहा भाई आप कहां जा रहे हो? आप बुरी तरह से घायल हो इस रक्त – रंजित अवस्था में आप को इलाज की सख्त जरूरत है। इन मुग़ल सैनिकों ने तुम्हें बुरी तरह से मार कर घायल किया है। इस अवस्था में तुम कहीं नहीं जा सकते हो।
भाई तारु पोपट ने जिद्द करके कहा कि मेरी बहन में पुनः आग बुझाने जा रहा हूं। भाई तारु पोपट की बहन ने कहा था कि भाई अब यदि तुम पुनः आग बुझाने गए तो यह जालिम मुगल सैनिक तुम्हें मार देंगे।
उस समय भाई तारु पोपट ने अपनी बहन को निर्भीकता से जवाब दिया था कि मेरी बहन धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के सिक्ख मरने से नहीं डरते हैं। मैं भी उन्हीं का गुरु सिक्ख हूँ मैं यह सहन नहीं कर सकता हूं कि गुरु के सिक्ख के सम्मुख कोई कैसे किसी का घर जला सकता है? मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता हूं।
उस समय भाई तारु पोपट पानी की बाल्टी भर के आग बुझाने के लिए चला गया था और जाते – जाते अपनी बहन को कह कर गया था कि मेरी बहन यदि मैं जीवित नहीं रहा तो एक बात हमेशा ध्यान में रखना कि:-
जै जीवै पति लथी जाइ॥
सभु हरामु जेता किछु खाइ॥
(अंग क्रमांक १૪२)
अर्थात यदि तुम्हारे सामने कोई जुल्म कर सामने वाले की इज्जत – आबरू को उतार रहा हो तो ऐसे समय में तुम चैन से कैसे रह सकते हो? तुम चैन से कैसे रोटी खा सकते हो?
भाई तारु पोपट कह कर गया था कि हो सकता है की इस सेवा को निभाते हुए मैं शहीद हो जाओ! जब भाई तारु पोपट पुनः आग बुझाने गया तो जालिम सरकार के नुमाइंदों ने इसे शहीद कर दिया था।
यहां एक बात याद रखने वाली है कि जब तारु पोपट पुनः आग बुझाने के लिए जा रहा था तो इसकी बहन ने प्रश्न किया था कि भाई इस सेवा को निभाते हुए मारे गए तो तुम्हें क्या मिलेगा? उस समय भाई तारु पोपट ने उत्तर दिया था कि बहन मेरी मैं धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ का सिक्ख हूँ एक बात हमेशा याद रखना:-
जिस दिन दरगाह में (अकाल पूरख के सम्मुख) जब लेखा मांगा जाएगा तो उस दिन दो पंक्तियां अंकित होगी:-
एक आग लगाने वालों की सूची होगी और दूसरी आग बुझाने वालों की।
जब कोई धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ का सिक्ख होये तो निश्चित ही उसका नाम आग लगाने वालों की सूची में नहीं होगा। अपितु उसका नाम आग बुझाने वालों की सूची में होगा।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के इस युवा सिक्ख भाई तारु पोपट का जिक्र भाई गुरुदास जी रचित वारां में भी अंकित है:-
भाई तारु पोपट सिख सधाया॥
अर्थात् सिक्ख इतिहास में भी भाई पोपट तारु जी का जिक्र किया गया है परंतु अफसोस है कि आज हम ऐसे शुरवीर,सुरमा योद्धाओं के इतिहास को अपनी युवा पीढ़ी तक नही पहुंचा पा रहे है।
ऐसी अनोखी है ‘पंथ खालसा’ के सिक्ख धर्म के प्रथम शहीद युवा बच्चे के शहादत की दास्तान।
सादर नमन है इन वीरों को!

पंथ खालसा सर्जना पर विशेष।
१३ अप्रैल सन् १६९९ के वैशाखी पर्व पर करूणा – कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता गुरू ‘श्री गोबिंद सिंघ जी’ ने खालसा पंथ की सर्जना करते हुये खालसा सजाया था।
इतिहास गवाह है की पंथ खालसा के खालसाई सेवादारों ने अपनी देशभक्ति, निष्ठा, त्याग, समर्पण, सेवा और सिमरन से पंथ खालसा को दुनिया में एक विशेष आयाम दिया है। दशमेश पिता ने अमृत पान कराकर एक – एक खालसा को सवा लाख से जूझने की शक्ति प्रदान करी है। ऐसा क्या विशेष तत्व इस अमृतपान में मौजुद है? की इसे ग्रहण करने से एक आलोकिक, अद्भुत शक्ति खालसे को मिलती है।
इसके लिये हमें दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ महाराज के जीवन चरित्र को समझना होगा। पंथ के कई महान विद्वान, इतिहासकार, कथाकार और पंजाब की लोकधाराओं में गुरु जी प्रशंसा करते हुये विभिन्न शब्दावली का उपयोग किया है, किसी शायर ने कहा है:-
जितनी भी तारिफ हो गोबिन्द की वो कम है।
हरचंद मेरे हाथ में पुरजोर कलम है।
सतगुरू के लिये कहां ताबे रकम है।
एक आंख से क्या बुलबुला गुलमेहर को देखे।
साहिल को या मझधार को या लहर को देखे।
अकाल पुरख की आज्ञानुसार गुरू ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की दसवीं ज्योत गुरू ‘श्री गोबिंद सिंघ जी’ की आयु छोटी थी। आपका जीवन एक बिजली की चमक की तरहां था। आसमान में चमकती हुई बिजली की आयु लंबी तो नही होती है परंतु जितनी भी होती है उसमें एक कणखर चमक और कर्कश आवाज होती है जो सभी का ध्यान आकर्षित करती है।
दशमेश पिता के जीवन का प्रत्येक पहलू विभिन्नता से परिपूर्ण था। जब आपका प्रकाश (आगमन) पटना साहिब में हुआ तो उस समय के पीर भीखनशाह ने पश्चिम के बजाय पूर्व की और सजदा किया था। गुरु जी की छवि और सद्गुणों वाला स्वरुप अलौकिक था। आपजी की कलगी नुरानी थी, आप जी की कृपाण श्री साहिब और नगाडा़ रणजीत था। जो सुदूर पर्वतों में अपनी गुंज पैदा करता था। गुरू जी ने सत श्री अकाल का जयकारा दिया साथ ही खालसा को अविनाशी बनाया। आप जी ने देग – तेग फतेह की गुंज दी और अस्त्र – शस्त्र को पीर माना, आप जी की मोहर केश, घोड़ा नीला, हाथी प्रशादि, बाज सफेद और किर्तनी साज ताउस था। आप जी के तीर सोने की नोंक के बने हुये थे और कलम लोह एवं खड्ग सर्व लोह भगवती का था। दशमेश पिता का सर्वोत्तम दान सर्व वंश दान था। आप जी के आशिक अपने परिवार को कुर्बान करने वाले पीर बुद्धू शाह और नबी खान, गनी खान जैसे थे। इस महान गुरू का योद्धा भाई विचित्र सिंघ, गुरू जी का संग्राम धर्म युद्ध और चाहत शस्त्रों के साथ जुझ मरना। गुरु जी की इंसानियत भाई कन्हैया और पांच प्यारे शीश तली पर रख कर प्रियतम की राह पर चलने वाले राहागिर। गुरू जी के चालीस मुक्ते अपने लहू से बेदावा फड़वाने वाले और बिखरे समय की यादें “मित्तर प्यारे नू हाल मुरिदा दा कहना”। दशमेश पिता का उस अकाल पुरख को शुकराना चारों साहिबजादे शहीद करवा कर कहना …
‘इन पुतरन के सिस पर वार दिये सुत चार,चार मुयें तो क्या हुआ जीवित कई हजार’।
गुरू जी का जीवन कुरबाणी की इंतहा है। शहीद हुये पिता के शीश का संस्कार, बडे़ साहिबजादों के शहीद शरीरों के दर्शन, छोटे साहिबजादों के शहीद होने कि खबर, सर्व वंश को कुरबान करके अकाल पुरख को कहना ‘कमाले करामात कयाम करिम, रजा बक्श राजक रहियाकुन रहीम’।
दशमेश पिता का निशाना …
‘जो मंजीले मकसुद धर्म चलावन,संत उबारन दुष्ट सभन को मूल उपारन’। दशमेश पिता का जफरनामा वाहिगुरू जी की फतेह का ऐलान नामा, अकाल पुरख को निवेदन चौपाई साहिब का पाठ, पूजा अकाल – अकाल, धून तुही – तुही – तुही, दर्शन की लालसा खालसे के दर्शन, अरदास सरबत का भला। गुरू जी का गुरबाणी के लिये सत्कार आदि ग्रंथ साहिब जी को ‘श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी’ संबोधित कर सर झुका देना। विनम्रता स्वयं की बाणी को अपना खेल कह देना। आपकी सबसे बड़ी कमाई खालसे को वाहिगुरू जी का खालसा बना देना। गुरू जी की जुगती देग – तेग फतेह, उनके दरबार के श्रृंगार कवि, गुणी, ज्ञानी, और विद्वान, बक्शीश बाणी और बाना, हुकूम रहत की परिपक्वता, बरकत पांच ककार, ताड़ना चार कुरेतिआं, उनके वारिस और विरासत श्री अकालपुरख के खालसे।
दशमेश पिता की आत्मा ‘श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी’ में, शरीर खालसा पंथ में,वो मालक दोनों जहान के,’सब विचित्रमय, सब विचित्र, सब विचित्रता भरपूर ऐसो कौन बली रे’, ऐसे महान परोपकारी गुरू के बारे में यह कहना ही सही होगा। ‘सुपन चरित्र चित्तर बानक बने बचित्तर, पावन पवित्र मित्तर आज मोरे आये है’।
समय – समय के विद्वान, कवि, महापुरुषों ने गुरू जी के जीवन को उपरोक्त लिखित अपनी – अपनी शब्दावली से अलंकृत किया है। ऐसे महान दशमेश पिता गुरू जी ने बैशाखी के दिन पंथ खालसा की सर्जना मानवता के कल्याण और जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने के लिये की थी। साथ ही खालसा सर्जना कर आप स्वयं भी गुरू जी ने पांच प्यारों से अमृत पान कर गुरू और चेलों को एक ही रुप कर दिया है। पंथ खालसा की सर्जना पर दशमेश पिता से अरदास है…
चादर मैली साबण थोड़ा, जद देखा तद रोआं॥
बहुते दाग लगे तन मेरे में कैडा़ – कैडा़ धोवां॥
दागा दी कोई कीमत नही, में क्यों हच्ची होआं॥
श्री साहिब मेनु दर्शन देओ, में सच्चे साबण धोआं॥
पंथ खालसा के जनक दशमेश पिता गुरू ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ महाराज और ‘पंथ खालसा’ को सादर नमन – अभिवादन!

प्रकृति प्रेमी: गुरु श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी
यदि सिक्ख इतिहास को परिपेक्ष्य करें तो सभी गुरुओं के जीवन काल में समकालीन पीर – फकीरों का सिक्ख गुरुओं से घनिष्ठ संबंध रहा है। सिक्ख गुरुओं ने और समकालीन फकीरों ने मानव जाति को जीवन जीने की आध्यात्मिक वृत्ति ही नहीं सिखाई अपितु जीवन जीने की श्रेष्ठ पद्धति को भी सिखाया है।
धन्य – धन्य दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के समय एक मदार शाह नामक फकीर हुए थे। फकीर मदार शाह और फकीर भीखण शाह समकालीन तो थे परंतु आपस में हमेशा विचारों का आदान – प्रदान भी करते रहते थे। एक दिन फकीर मदार शाह ने फकीर भीखण शाह को पूछा कि वर्तमान समय में इस दुनिया में कोई क्या ऐसा इंसान है? जिस में खुदा के, अल्लाह के, परम – पिता परमेश्वर के साक्षात दर्शन हो सकते हो? पीर भीखण शाह ने उत्तर दिया था कि हां मदार शाह यदि तुम ऐसे किसी इंसान से मिलना चाहते हो तो वो श्री आनंदपुर साहिब जी की पवित्र धरती पर विराजमान धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ हैं। मदार शाह ने प्रश्न किया कि क्या सचमुच गुरु जी का व्यक्तित्व ईश्वर समान है? पीर भीखण शाह ने उत्तर दिया था कि हां मैं एक बार उनके दर्शन कर चुका हूं।
पीर मदार शाह गुरु जी के दर्शन हेतु श्री आनंदपुर साहिब जी में पहुंच गए थे। श्री आनंदपुर साहिब जी में कलगीधर गुरु पातशाहा जी का दरबार सजा हुआ था। इस भरे दरबार में रागी सिंघ कीर्तन के द्वारा संगतोंं को निहाल कर रहे थे। गुरु जी की चढ़ती हुई युवा आयु है। निकट ही शस्त्र धारी योद्धा खड़े होकर सेवा कर रहे हैं। युवा आयु में गुरु पातशाह जी तख्त पर विराजमान होकर दीवान की शोभा बढ़ा रहे थे। उपस्थित संगतेंं गुरु जी के दर्शन – दीदारें कर स्वयं की लाई हुई भेंट वस्तुओं को समर्पित कर रही थी। संगतोंं के द्वारा भेंट स्वरूप शस्त्र, घोड़े, माया और विभिन्न प्रकार की उपयोगी वस्तुएं गुरु जी को भेंट स्वरूप समर्पित की जा रही थी।
फकीर मदार शाह ने देखा कि संगतोंं में से प्रत्येक व्यक्ति गुरु जी के समक्ष कुछ ना कुछ भेंट स्वरूप अर्पित कर रहा है परंतु वो स्वयं खाली हाथ इस दीवान में उपस्थित हुए थे। फकीर मदार शाह दीवान से उठकर बाहर चले गए थे, पास ही एक सुंदर बगीचा था। इस बगीचे की मालिक के रूप में सेवा भाई गुलाब सिंघ जी कर रहे थे। फकीर मदार शाह ने सोचा क्यों ना मैं गुरु जी को एक सुंदर फूल भेंट करू? और उन्होंने उस बगीचे के कई अलग – अलग फूलों तोड़ना प्रारंभ कर दिया और मन ही मन एक अच्छे फूल का चुनाव करने लगे थे परंतु अगिनत फूलों को तोड़ने के पश्चात भी कोई फूल पसंद नहीं आ रहा था। अंत में फकीर मदार शाह को एक फूल पसंद आया और मन ही मन विचार किया कि मैं इस फूल को गुरु जी के चरणों में भेंट करूंगा।
फकीर मदार शाह बगीचे में से फूल लेकर पुनः दीवान में उपस्थित हुये थे। फकीर मदार शाह ने उस फूल को दीवान में विराजमान कलगीधर पातशाहा के चरणों में समर्पित कर दिया था। गुरु पातशाह जी ने फकीर मदार शाह की और देख कर उस फूल को देखा और स्वयं के हाथों में उठा लिया था और वचन किए फकीर जी प्रकृति का विनाश प्रभु – परमेश्वर का विनाश है। आपने इस फूल को क्यों तोड़ा? आपने इस फूल को तोड़ कर प्रकृति का विनाश किया है। फकीर ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया था पातशाह जी माफी! मैंने सोचा गुरु जी के पास खाली हाथ जाना ठीक नहीं है।
और वचन किये:-
दस्ते खाली रुसवास्त॥
गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ अपने तख्त से उठे और उठकर इस फकीर को गले लगा लिया था। साथ ही वचन किये:-
ना दस्ते खाली रुसवास्त दिले खाली रुसवास्त॥
अर्थात् मदार शाह जी यदि आप खाली हाथ भी दरबार में उपस्थित होते तो मुझे कोई दुख नहीं होता था। फकीर मदार शाह ने पुनः कहा पातशाहा जी माफी! मैंने सोचा गुरु के पास खाली हाथ कैसे जाए? मेरा दिल नहीं माना कि आपके दर्शन – दीदारें करने हेतु खाली हाथ दीवान में मैं कैसे आता?
गुरु पातशाह जी ने वचन किए, यदि तुम खाली हाथ भी आ जाते तो मैं खुश हो जाता था। मैं तुम्हारी भेंट लेने के लिए यहां पर बैठा नहीं हूँ। मैं तो प्यार का भूखा हूं, मेरे पास खाली दिल से मत आओ। मेरे पास प्यार से, दिल से आओ। मुझे तुम्हारी यही भेंट मंजूर है परंतु फूल तोड़ कर प्रकृति का विनाश करने से मन में दुख हुआ है।
ऐसी महान शख्सियत के धनी थे दशमेश पिता! धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को एक फूल का टूटना नामंजूर था। ध्यान देने योग्य बात यह है कि पश्चात इन्हीं कलगीधर पातशाहा जी ने अपने चार साहिबजादों को शहीद करवा कर दुख नहीं माना था। उलट उस अकाल पुरख का शुकराना अदा किया था परंतु प्रकृति के विनाश से आप जी दुखी हो गए थे।
एक फूल के टूटने से गुरु जी नाराज हो गए थे उनका दिल टूट गया था। सोचो आज हम क्या कर रहे हैं? हम तो लगातार प्रकृति का विनाश करे चले जा रहे हैं। यह प्रकृति ईश्वर स्वरूप है। गुरु जी के इस प्रकृति प्रेम को दिल में बसाने की आवश्यकता है अर्थात् गुरु के पास जाते समय यह विचार मत करो कि भेंट स्वरूप क्या समर्पित करना है? गुरु के समक्ष दिल साफ रख कर जाओ मन में किसी भी प्रकार का भ्रम और शंका को रखकर मत जाओ। शंकावादी बनकर मत जाओ।
जब फकीर मदार शाह दीवान से बाहर आया तो मन ही मन विचार करने लगा कि आज सच में अल्लाह के, खुदा के दर्शन – दीदारें किये है।
इस प्रकृति प्रेम में ही सच्चे परमात्मा का रूप है। प्रकृति प्रेम में ही सच्चे रूप से प्रभु – परमेश्वर के दर्शन है। फकीर जी जब पुन: उस बगीचे में गए तो टूटे हुए फूलों को देखकर दहाड़े मार कर रोने लगे थे और मन में विचार आया कि गुरु जी तो केवल एक फूल टूटने पर इतना उदास हो गए थे। एवं मैंने तो ना जाने कितने फूल इस बगीचे के तोड़ दिए हैं। गुरु पातशाहा जी के प्रकृति प्रेम से हमें सीख लेने की आवश्यकता है और प्रकृति का विनाश हम मानव जाति से ना हो इसके लिए हम लगातार प्रयत्नशील रहें।

बाबा अजीत सिंघ जी की सर्जिकल स्ट्राइक
धन्य – धन्य दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ का दरबार सजा हुआ था। रागी सिंघों (कीर्तनकारों) ने कीर्तन समाप्त किया था कि एक रोता, बिलखता, लाचार गले में कपडे़ का पल्ला डाले हुए देवीदास नामक ब्राह्मण दीवान में हाजिर हुआ था और रोते हुए हाथ जोड़कर खड़ा हो गया था। गुरु जी ने बड़े ही स्नेह एवं प्यार से पूछा कि क्या बात है? तुम क्यों रो रहे हो? उस ब्राह्मण ने उत्तर दिया पातशाहा जी मैं अपने स्वयं की बारात लेकर वापस जा रहा था तो रास्ते में पठानों ने मेरी बारात को घेर लिया और मेरी नई – नवेली दुल्हन, मेरी पत्नी को जबरन उठाकर ले गए हैं। मैंने अपने सभी रिश्तेदारों से मदद मांगी परंतु किसी ने भी मेरी मदद नहीं की पातशाहा जी मुझे किसी ने बताया कि श्री आनंदपुर निवासी धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ जरूर आपकी मदद करेंगे। पातशाहा जी मैं हाथ जोड़कर निवेदन कर रहा हूं कि मुझ गरीब की मदद करो। इस समय कोई ऐसा नहीं है जो मेरी मदद करेगा। गुरु जी ने उस लाचार ब्राह्मण से पूछा कि कितने लोग थे? उस ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि वो केवल दस लोग थे। गुरु जी ने पुनः प्रश्न किया कि तुम कितने लोग थे? ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि पातशाहा जी हम साठ लोग थे। गुरु जी ने उत्तर दिया कि तुम में से किसी की हिम्मत नहीं हुई इन दुष्टों से लड़ने की। यदि संख्या की दृष्टि से देखें तो तुम ६ लोग थे और वो केवल एक ! उस लाचार ब्राह्मण ने उत्तर दिया पातशाहा जी:-
हम तो तोलन जाने तकड़ी, नंगी कर्द कभी न पकड़ी॥
चिडी़ उड़े हम डर जाए, इन तुरकन से कैसे लड़ पाए॥
अर्थात पातशाहा जी हम इनका मुकाबला नहीं कर सकते हैं। यदि हमारे तो गांव में कोई एक पठान भी अतिक्रमण कर दें,तो हम डर जाते हैं। पातशाह जी हंसे और वचन किया:-
इन्हीं को सरदार बनाओ, सवा लाख से एक लड़ाऊं॥
अर्थात् मैं तुम्हारे भीतर शूरवीर योद्धा का जज्बा भर दूंगा।
उसी समय तत्काल गुरु पुत्र बाबा अजीत सिंघ जी को दीवान में बुलाया गया था। गुरु जी ने वचन किये की बेटा आज इस दीवान में यह लाचार, दुखियारा ब्राह्मण हाजिर हुआ है, इसकी पत्नी को कोई पठान जबरन उठाकर ले गए हैं। पता चला है कि वो जालिम पठान जाबर खान है, जिसने आतंक फैला रखा है और अपने आप को सुरमा समझता है। गुरु जी ने बाबा अजीत सिंघ जी को आदेश दिया कि बेटा उस जाबर खान को पकड़कर जिंदा मेरे सामने बांधकर हाजिर किया जाए।
इस घटना को सिक्ख इतिहास में प्रथम सर्जिकल स्ट्राइक के रूप में निरूपित किया गया है। बाबा अजीत सिंघ ने गुरु जी की आज्ञा से २०० सिक्ख योद्धाओं का जत्था अपने साथ लेकर ४५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम बस्सी कलां में जाबर खान को गिरफ्तार करने हेतु कुच किया था।
रात हो चुकी थी सिक्खों ने एक रणनीति तैयार की और उस रणनीति के तहत निर्णय हुआ कि चारों घेरा डालकर बाबा अजीत सिंघ जी कुछ प्रमुख सिक्खों के साथ जाबर खान के हरम में प्रवेश करेंगे। विरोध करने वाले पठानों का मुंह बंद किया जाएगा और यदि किसी ने आक्रमण किया तो उसे पकड़कर बांध दिया जाएगा। इस रणनीति के तहत बिना किसी नुकसान के शत्रु के खेमे में प्रवेश कर बाबा अजीत सिंघ जी ने उस जाबर खान को गिरफ्तार कर लिया था। जो अपने आप को शेर समझता था उस जाबर खान की टक्कर आज सवा शेर से थी।
बाबा अजीत सिंघ ने जाबर खान को गिरफ्तार कर उसकी मुश्कें बांधी और साथ ही उस लाचार ब्राह्मण की पत्नी को उस आतंकी जाबर खान से आजाद कर श्री आनंदपुर साहिब में गुरु जी के सम्मुख दीवान में हाजिर किया था। पश्चात पठानों ने पीछे से सिक्खों के जत्थे पर हमला किया था और इस हमले में भीषण युद्ध हुआ था एवं कुछ गुरु के सिक्ख शहिद भी हो गए थे। वर्तमान समय में उस स्थान महलपुर में गुरद्वारा साहिब सिंघ शहिदां का सुशोभित है।
एक गरीब, बेसहारा, लाचार और असहाय ब्राह्मण की पत्नी को जाबर खान जैसे आतंकी से छुड़वा कर धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने उसे उसके पती को सौंप दिया था। बाबा अजीत सिंघ जी ने अपनी युवा अवस्था में इस सर्जिकल स्ट्राइक को अंजाम दिया था। ताकि दुष्ट जाबर खान के जैसे भविष्य में कोई बहन – बेटी के साथ जबरदस्ती ना कर सकें। पराई बहन – बेटी पर कोई बुरी नजर ना रखें इसलिए धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने उस दुष्ट जाबर खान को नदी के किनारे जीते – जी धरती में गाड़ कर समाप्त करवा दिया था। ताकि भविष्य में कोई जालिम पराई बहु – बेटीयों को इस तरहां से उठाकर उनके पती से विमुक्त ना कर सकें।
धन्य है वो श्री आनंदपुर साहिब की पवित्र धरती जहां गरीब बेसहाराओं की पुकार को सुनकर आम लोगों के साथ पूरा इंसाफ किया गया था। बहन – बेटी की इज्जत की खातिर गुरु के सिक्खों ने शहिदीयों को प्राप्त किया था। विशेष गुरु जी ने अपने युवा पुत्र बाबा अजीत सिंघ की जान की परवाह न करते हुए एक गरीब ब्राह्मण की पत्नी की रक्षा के लिए स्वयं के पुत्र को मैदान – ए – जंग में भेजा था।

गुरु श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी और अंगूठे का छल्ला (अंगूठी)
विश्व में ७००० बी.सी.से १०००० बी.सी. तक पूरे समय को पाषाण युग (स्टोन एज) के नाम से भी संबोधित किया जाता है। यह समय पाषाण युग के तिसरे काल के रूप में निरूपित किया गया है| पुरातन समय में इसी काल में तीर – कमान जैसे शस्त्रों का निर्माण प्रारंभ हुआ था।
जब हम तीर – कमान से प्रत्यंचा को चलाते हैं तो कमान की प्रत्यंचा पर तीर को रखकर प्रत्यंचा को खींचते समय हाथ के अंगूठे का महत्वपूर्ण योगदान होता है। जब बहुसंख्या में दुश्मन पर लगातार तीरों से आक्रमण करना हो तो इस कारण से हाथ के अंगूठे में जख्म हो जाते हैं। इस जख्म से बचने हेतु अंगूठे में एक विशेष प्रकार की अंगूठी को परिधान किया जाता है। जिसे तीर अंदाजी की अंगूठी (आरचरी रिंग) नाम से जाना जाता है।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने अपने संपूर्ण जीवन में १४ युद्ध किए थे इन १४ युद्धों में चमकौर का युद्ध एक बेमिसाल, अद्भुत युद्ध था। इस घमासान युद्ध में धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के द्वारा युद्ध में सबसे अधिक तीरों का उपयोग किया गया था। इस युद्ध में दुश्मन दस लाख की तादाद में था और गुरु जी केवल अपने ४० वीर योद्धाओं के साथ इस युद्ध में दुश्मन से डटकर मुकाबला कर रहे थे। धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने चमकोर की गढी़ की मुमटी (बुर्ज) से शत्रु सेना पर लगातार तीरों की बरसात कर दी थी। इन तीरों से जो आक्रमण किया था उसकी गिनती नहीं की जा सकती है। इस युद्ध में गुरु जी के सिक्खों के पास में बंदूक भी उपलब्ध थी। उस समय बंदूक में गोली भर के चलाने के लिए बहुत अधिक समय लगता था परंतु तीरों को चलाने में समय नहीं लगता था।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ अपनी कमान से जो तीर चलाते थे, उसे आम बोलचाल की भाषा में नौटंकी तीर कह कर संबोधित किया जाता था| इस तीर – कमान को चलाने हेतु इसकी प्रत्यंचा को नौटंक के दबाव से उसे खींचकर चलाया जाता था। यदि तुलना की जाए तो एक टंक में २५ किलो का दबाव होता है अर्थात नौटंक २२५ किलोग्राम के वजन के दबाव के बराबर हो जायेगा। जब एक योद्धा को २२५ किलो के दबाव से प्रत्यंचा को खींचना है और बारंबार खींचना है एवं इस दबाव से अगिनत तीरों की बरसात दुश्मन पर करनी हो तो उस समय हाथ का नाजुक अंगूठा उस दबाव से निश्चित ही जख्मी हो जाएगा। अंगूठें को इस जख्म से बचाने हेतु इस अंगूठे में एक शस्त्र परिधान किया जाता है| जिसे तीरंदाजी की अंगूठी (आर्चेरी रिंग) के नाम से संबोधित किया जाता है।
पुरातन समय में इस अंगूठी का का निर्माण चमड़े से, जानवरों के सिंग से, लकड़ी से, और लोह धातु से भी किया जाता था। धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने इस लोह अंगूठी को अपने अंगूठे में एक शस्त्र की तरहां धारण करा हुआ था। चमकौर के युद्ध को जीतने के पश्चात गुरु जी माछीवाड़ा गए थे और वहां से आलमगीर नामक स्थान पर गए थे और इस स्थान से गुरु जी लुधियाना शहर के निकट मोही नामक ग्राम में पधारे थे। गुरु जी ने जब इस परिसर में प्रवेश किया तो यह एक स्वच्छ पानी का झरना भी मौजूद था। इस स्थान पर गुरु जी का आसन लगाकर गुरु जी को विराजमान किया गया था, गुरु जी के साथ कई और सिक्ख सेवादार भी मौजूद थे।
स्थानीय संगतेंं गुरु जी के दर्शन – दीदारें करने उपस्थित हुई थी। गुरु जी के दर्शन कर उपस्थित संगतेंं निहाल हो गई एवं निवेदन किया कि गुरु जी हम आपकी क्या सेवा करें? धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने वचन किए कि इस आसपास के इलाके में कोई सिक्ख सेवादार ऐसा है जो पेशे से लोहार हो। स्थानीय ग्रामवासियों ने उत्तर दिया कि गुरु जी इस ग्राम में एक लोहार ज्वाला सिंघ निवास करता है और इस ज्वाला सिंघ ने भी आपकी सिक्खी को धारण किया हुआ है।
सरदार ज्वाला सिंघ जी को सूचित किया जाता है कि गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ इस ग्राम में पधारे हैं और उनके अंगूठे में पहनी हुई तीरंदाजी की अंगूठी को काटकर निकालना है अर्थात तीर – कमान में से कमान चलाने के लिए जिस छल्ले (अंगूठी) का उपयोग होता है, उसे काटकर निकालना है। लोहार भाई ज्वाला सिंघ लोहे को घीस कर काटने वाली रेती एवं अन्य औजारों सहित गुरु जी के सम्मुख उपस्थित हो गया था। भाई ज्वाला सिंघ जी ने गुरु जी को विनम्रता पूर्वक मत्था टेका और जब गुरु जी का हाथ देखा तो गुरु जी का हाथ सूजा हुआ था। अंगूठे में पहनी हुई अंगूठी फंस चुकी थी और उसके ऊपर मांस चड़ गया था। कारण इस अंगूठे के दबाव से गुरु जी ने दुश्मनों की सेना पर लगातार तीरों की बौछार की थी। भाई ज्वाला सिंघ जी ने इस सेवा को स्वीकार कर अपनी रेती से धीरे-धीरे इस लोहे की अंगूठी को घीसकर सावधानी पूर्वक उस लोहे की अंगूठी को काट कर निकाल दिया था।
गुरु जी द्वारा परिधान की हुई लोहे की अंगूठी को धीरे – धीरे काट दिया गया था। गुरु जी ने सुख की सांस ली और खुश होकर ज्वाला सिंघ जी को वचन करते हुए कहा कि आप मुझ से मांगो क्या चाहते हो? क्योंकि मैं आपकी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूं। भाई ज्वाला सिंघ जी ने उत्तर दिया कि पातशाहा जी मुझे आपके दर्शन हो गए मेरे लिये यही बहुत है। गुरु जी ने पुनः वचन कर कहा कि भाई ज्वाला सिंघ जी आपने बहुत बड़ी सेवा की है। इस दुख को दूर करने में हमारा साथ दिया है| भाई ज्वाला सिंघ जी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि पातशाहा जी यदि आप अत्यंत प्रसन्न है तो मुझ पर इतनी कृपा करो कि यह छल्ला (अंगूठी) मेरी झोली में निशानी स्वरूप भेंट कर दें।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने वो अंगूठी जिसे अपने अंगूठे में पहनकर युद्ध करते थे और इस तीरंदाजी की अंगूठी की मदद से कमान पर तीर चढ़ाकर प्रत्यंचा खींचकर अनगिनत दुश्मनों को पार लगाया था। गुरु जी के द्वारा वो अंगूठी भाई ज्वाला सिंघ जी को भेंट स्वरुप दे दी गई थी।
यदि दृष्टिक्षेप करें तो इन दुश्मनों की गुरु जी ने भलाई ही की थी। महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य यह भी है कि गुरु जी के तीर के आगे सवा तौला सोना लगा हुआ होता था। यदि उस तीर से दुश्मन की मृत्यु हो जाती तो उस सोने से उसके कफन और क्रिया कर्म का इंतजाम किया जा सकता था और यदि दुश्मन जख्मी हो जाए तो वो अपने इलाज का प्रबंध भी स्वयं ही कर सकता था। इससे साबित होता है कि गुरु पातशाह जी मारते नहीं थे अपितु दुश्मन का भला करते थे।
वर्तमान समय में वो तीरंदाजी की अंगूठी भाई ज्वाला सिंघ के वंशज सरदार मेहर सिंघ जी के पास सुरक्षित है। इस स्थान पर गुरुद्वारा छल्ला साहिब पातशाही दसवीं सुशोभित है। वो तीरअंदाजी की ऐतहासिक अंगूठी वर्तमान समय में ग्राम भीमा जगराओं के निकट ग्राम भीमापुर में है।
यदि इस संबंध में हम ऐतिहासिक स्त्रोतों को देखते हैं तो ज्ञात होता है कि ग्रंथ ‘असावी भाग’ में गुरु गोबिंद सिंघ मार्ग में पृष्ठ क्रमांक ४८ में इस इतिहास को अंकित किया गया है। इसी तरहां से एक और ग्रंथ ‘कीर्ति सुरमें’ में पृष्ठ क्रमांक ५७९ में भी इस तीरंदाजी की अंगूठी का इतिहास अंकित है। यदि हम गूगल पर छल्ला साहिब गुरुद्वारा सर्च करें तो भी इस इतिहास की पुष्टि होती है। इस तरहां के और अनछुये ऐतिहासिक तत्थों से संगतों (पाठकों) को भविष्य में रू – बरू करवाया जाएगा।

गुरु भक्त : सैयद खान
पंथ खालसा की ऐतिहासिक धरोहर को सम्मुख रखकर जब समीक्षा की जाए तो धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने सिक्ख धर्म का उद्गम कर सिक्ख सजाये तो उस समय से ही मुगल आक्रांता बाबर से लेकर मुगल सल्तनत समाप्त होने तक लगातार जुल्मों के खिलाफ लड़ते हुए सिक्खों ने लगातार संघर्ष किया है।
औरंगजेब के समय यह संघर्ष अपनी चरम सीमा पर था। इस्लामीकरण के विरुद्ध सिक्ख योद्धाओं की आर – पार की लड़ाई थी। धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ और उनके सिक्ख योद्धाओं ने अपने शोर्य, देशभक्ति के जज्बे एवं धर्म के लिए लगातार शहिदीयों को प्राप्त कर औरंगजेब के सभी मंसूबों पर पानी फेर के रख दिया था ऐसे ही कठिन समय का यह इतिहास है।
अपने समय में औरंगजेब ने बहुत बड़ा दरबार सजाया हुआ था, इस भरे दरबार में एक पान के बीडे़ को पेश किया गया था। इस दरबार में उपस्थित सभी मुगल सूरमाओं को चुनौती देते हुए औरंगजेब ने फरमान किया कि इस दरबार में उपस्थित मेरी फौज में कोई ऐसा सूरमा नहीं है क्या? क्या कोई ऐसा योद्धा है? जो सिक्खों के गुरु ‘श्री गुरु गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को जीवित गिरफ्तार कर सकें। या उनका सर कलम करके इस दरबार में ला सकें। यदि कोई ऐसा सूरमा इस दरबार में उपस्थित है तो इस पान के बीडे़ को उठाकर इस चुनौती को स्वीकार करें।
उस समय दरबार में सैयद खान नामक एक बहुत बड़ा सूरमा तगड़ा योद्धा दरबार में खड़ा हुआ, इस सैयद खान ने पान के बीडे़ को मुंह में रखकर पूरा जोर लगा कर जब चबाया तो उसके मुंह से पान की पीक एक पिचकारी की धार की तरह निकली थी एवं सैयद खान ने चुनौती को स्वीकार कर भरे दरबार में कहा कि मैं गुरु ‘श्री गोविंद सिंघ साहिब जी’ का खून खोल के ही वापस आऊंगा। मैं इस दरबार में कसम खाता हूं की या तो मैं गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ का सर कलम कर लोटूंगा या फिर इस दरबार में वापस कभी नहीं आऊंगा।
सैयद खान भारी – भरकम सशस्त्र फौज के साथ आक्रमण करने हेतु श्री आनंदपुर साहिब की और चल पड़ा था। रास्ते में इस सैयद खान की बहन नसीरा का गांव पड़ता था। इसकी बहन नसीरा उस समय के सैयद पीर बुधु शाह की बेगम थी। यानीकि सैयद खान पीर बुधु शाह का साला था।
सैयद खान अपनी बहन नसीरा के गांव में पहुंचकर उसके घर पर रुका था। उस समय बहन नसीरा ने अपने भाई से प्रश्न किया कि भाई तुम इतनी भारी – भरकम सशस्त्र फौज लेकर कहां जा रहे हो? सैयद खान ने उत्तर दिया था, बहन तुम अल्लाह के आगे दुआ करो कि तुम्हारा भाई यह जंग जीत करके वापस आए। जब बहन नसीरा अल्लाह से दुआ मांग रही थी तो उसने पुनः सैयद खान से प्रश्न किया कि भाई तुम किस के साथ जंग करने जा रहे हो? सैयद खान ने उत्तर दिया था कि मैं श्री आनंदपुर साहिब में एक गुर ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ नाम का व्यक्ति है जिसने हमारी नाक में दम कर के रखा है। मैं उस गुरु को समाप्त करने के लिए जंग करने जा रहा हूं।
बहन नसीरा ने उस अल्लाह के आगे दुआ मांगते हुए कहा कि ऐह खुदा मेरा भाई नहीं जानता कि यह क्या करने जा रहा है? उसने खुदा से दुआ मांगी कि ऐह खुदा मेरे भाई को धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के द्वारा ऐसी मौत मिले जो आज तक किसी ने देखी – सुनी ना हो।
जब नसीरा की इस दुआ को सैयद खान ने सुना तो एक जोरदार थप्पड़ अपनी बहन को रसीद किया था एवं कहा कि तुम दुआ करके अपने भाई की खेर मांग रही हो या मौत! नसीरा ने उत्तर दिया था भाई तुम नहीं जानते हो जिस से तुम जंग लड़ने जा रहे हो, वो मौत भी खेर में दे देता है। तुम नहीं जानते हो कि तुम किस महान शख्सियत से जंग लड़ने जा रहे हो?
सैयद खान ने गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ पातशाहा के बारे में पहले भी काफी कुछ सुन कर रखा हुआ था। बहन नसीरा ने कहा था कि एक बार तुम सच्चे दिल से धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को याद करना, फिर देखना कि वो अल्लाह का नूर तुम्हारी कैसे मदद करते हैं?
सैयद खान अपनी सशस्त्र भारी – भरकम फौज के साथ आक्रमण करने हेतु श्री आनंदपुर साहिब में पहुंच गया था। जब दूसरे दिन भयानक जंग हुई तो दोनों ही तरफ से सूरमा, शुरवीरता से लड़कर शहीद हो रहे थे। इस जंग के मैदान में आंखें बंद कर सैयद खान के मन में विचार आया कि क्या वाकई गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ अल्लाह का नूर है? जब सैयद खान ने आंखें खोली तो सामने घोड़े पर सवार धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ अवतरित हुए थे। गुरु जी की अलाही मुरत देखकर सैयद खान अंतर्मन से ऊपर से लेकर नीचे तक रोमांचित हो गया था।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने वचन किए सैयद खान तुम मुझ पर वार करते आए हो ना! तुम मुझे जीवित गिरफ्तार करना चाहते हो ना! तुम मुझे समाप्त करना चाहते हो ना! मैं तुम्हें प्रथम मौका देता हूं कि तुम मुझ पर वार करो, कहीं तुम्हारे मन में ना रह जाए कि तुम वार न कर सकें। सैयद खान ने गुरु जी पर वार किया और वो वार खाली गया था। फिर सैयद खान ने दो बार और वार किये परंतु सैयद खान के तीनों वार खाली जा चुके थे। अब सैयद खान ने अंहकार में आकर गुरु जी से कहा कि अब तुम भी वार कर सकते हो। जब गुरु जी ने म्यान में से कृपाण निकालकर जब एक जोरदार शक्तिशाली वार इसकी गर्दन पर किया तो कृपाण सैयद खान के ढ़ाल को चीरते हुए इसकी गर्दन पर रुक गई थी।
सैयद खान ने हथियार छोड़ दिए थे और विनम्रता पूर्वक कहा कि पातशाहा जी यदि कृपाण से वार ही किया है तो आप मुझे मारते क्यों नहीं हो? गुरु पातशाहा जी ने उत्तर दिया कि सैयद खान तुम्हें मैं कैसे मारूं? तेरी गर्दन और मेरी कृपाण के बीच तेरी बहन नसीरा हाथ जोड़कर खड़ी हुई है। उसी समय सैयद खान घोड़े से नीचे उतरा और गुरु जी के चरणों पर अपना शीश रखकर कहा पातशाहा जी मुझे माफ कर दीजिएगा। उस समय गुरु जी ने सैयद खान को आशीर्वाद वचन देकर कहा कि भाई सैयद खान तेरे हाथ तलवार पकड़ने के लिए नहीं बने हैं, तेरे हाथ माला पकड़ने के लिए बने हुए है। जाओ तुम्हारे समस्त गुनाहों को माफ किया, अब तुम तलवार को छोड़कर माला हाथ में लेकर बंदगी कर, नाम जपो।
युद्ध के मैदान से सैयद खान वापस चला गया था और उसने औरंगजेब को पत्र लिखकर सूचित किया कि जिस गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ पर आपने मुझे हमला करने भेजा था, वो अल्लाह का नूर है। आगे से याद रखना कि यदि तुम्हारी और से पुनः गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ पर आक्रमण किया गया तो सबसे पहले गुरु भक्त सैयद खान तुम्हारे सामने टक्कर देने के लिए मौजूद होगा।
गुरु जी इस भारत वर्ष की इस माटी में जन्मे अनेकों गुणों से परिपूर्ण महान शख्सियत के धनी थे, धन्य -धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को सादर नमन!
अमर शहीद भाई मोतीराम जी मेहरा
ऐसा कहा जाता है कि जिस बाग का माली बेईमान हो जाए उसके फूल भी नहीं और फल भी नहीं! जो बकरी शेर की गुफा में प्रवेश कर जाए उसकी हड्डी भी नहीं और खाल भी नहीं! वैसे ही जो कौम अपनी विरासत अपना इतिहास भूल जाये, वो आज भी नहीं और कल भी नहीं! इतिहास कौम का आईना होता है। जिस कौम में से रक्त की लाली ही समाप्त हो जाये, निश्चिती वो कौम दुनिया के नक्शे से नेस्तनाबूद हो जाती है।
प्रत्येक वर्ष दिसंबर के अंतिम सप्ताह में हम सभी सर्ववंश दानी धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के परिवार के इतिहास को सारगर्भित करते हुये, अश्रुपूरित नयनों से श्रद्धांजलि के पुष्पों को अर्पित कर उनकी महान शहादत को हृदय में संजोकर रखते है।
हम सभी इन साहिबजादों की शहीदी के साथ – साथ भाई टोडरमल के त्याग को भी याद कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं परंतु अपने पूरे जीवन की अर्जित पूरी कमाई और पूरे परिवार को शहीद करवाकर साहिबजादों को ठंडे बुर्ज की कैद में दूध का लंगर (दुग्ध पान) छकाने वाले भाई मोतीराम के संपूर्ण विस्तृत इतिहास से क्या हम परिचित हैं? इस लेख में अमर शहीद भाई मोतीराम जी के इतिहास को विस्तार से लिखकर संगतोंं (पाठकों) के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है।
हम सभी जानते हैं कि सन् १७०४ (नौ पोह) २४ दिसंबर को धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ का पूरा परिवार सरसा नदी के तट पर नदी में बाढ़ आने के कारण बिछड़ गया था और (१० पोह) २३ दिसंबर को गुरु जी का रसोईया गंगू ने शिकायत कर माता गुजरी जी और छोटे साहिबजादों को गिरफ्तार करवा दिया था और उसी दिन साहिबजादों को कोतवाली मुरिंडा में रखा गया था। (११ पोह) को साहिबजादों को हथकड़ी लगाकर बैलगाड़ी में बैठाकर सरहिंद नामक स्थान पर लाया गया था। इस नगर में प्रवेश करने से पहले एक पीपल के वृक्ष के नीचे साहिबजादों को बैठाया गया था। सुचानंद नामक व्यक्ति को इनकी शिनाख्त के लिए उस पीपल के पेड़ वाले स्थान पर भेजा गया था। इसे इतिहास में इस तरह से अंकित किया गया है:-
सुचानंद तब देखन आयो, तब माता जी मन सुख पायो॥
सुचानंद की जब माता गुजरी से मुलाकात हुई तो माता गुजरी अत्यंत प्रसन्न हुई थी कि अपना कोई परिचित मिलने आया है। जरूर इस कैद से हमें आजाद करवा देगा परंतु सच जानना यही सुचानंद अपनी बेटियों का रिश्ता बड़े साहिबजादों से करना चाहता था। इस कारण यह गुरु घर से वैर रखता था।
सुचानंद की तसल्ली होने के पश्चात दोनों छोटे साहिबजादों को माता गुजरी से अलग कर दिया था एवं माता गुजरी जी को ठंडे बुर्ज में कैद करने के लिये भेज दिया गया था।
दोनों साहिबजादों ने जब सुबा सरहिंद की कचहरी में बेखौफ होकर प्रवेश किया था और निडर होकर फतेह बुलाई थी।
वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!
कचहरी का समय समाप्त होने के पश्चात साहिबजादों को भी ठंडे बुर्ज पर कैद कर दिया गया था। हुकुमत का आदेश था कि इनके तन के लिए ना कपड़े दिए जाएं और किसी भी प्रकार के भोजन – पानी की कोई व्यवस्था ना की जाये और इनको भूखा रखा जाये।
इस स्थान पर तैनात फौज के लिए भोजन बनाने वाले मोतीराम जी मेहरा जी को जब यह ज्ञात हुआ तो वो अपने घर पर भोजन ग्रहण नहीं कर सकें। अपनी स्वयं की मां से वार्तालाप करते हुए कहा कि माता जी धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के साहिबजादों को ठंडे बुर्ज में कैद करके रखा हुआ है। इस दुखद घटना के कारण में कैसे भोजन कर सकता हूं? मैं रोटी गले से निकल ही नहीं सकता हूं? कारण मेरे गुरु के लाल छोटे साहिबजादें और गुरु जी की माता, माता गुजरी उस ठंडे बुर्ज पर भूखी बैठी है। साथ ही वजीर खान का हुक्म है कि यदि इस परिवार की किसी ने मदद की तो उसे कोल्हू की चक्की में डालकर पीस दिया जाएगा।
भाई मोती राम मेहरा जी की माता जी ने वचन किए कि बेटा जीवन में यह सेवा दुबारा नहीं मिलेगी। कोई बात नहीं यदि सजा के रूप में हमें कोल्हू की चक्की में पीस कर प्राण दंड दिया जाये परंतु तुम माता गुजर कौर और साहिबजादों को भोजन अवश्य ग्रहण करवाओं। मोती राम मेहरा जी ने घर में प्रशादे (रोटी) और गर्म दूध को तैयार किया एवं ठंडे बुर्ज की और रवाना हो गए परंतु महल के अंदर सिपाहियों ने प्रवेश देने से साफ इनकार कर दिया था। मोतीराम जी ने अपने घर के सभी जेवर और मुल्यवान गहने इन सिपाहियों को रिश्वत में दी तब कहीं जाकर महल में प्रवेश की इजाजत मिली थी।
भाई मोती राम मेहरा ने बुर्ज में प्रवेश कर माता जी के सम्मुख नतमस्तक होकर निवेदन किया कि माता जी मैं आप ही का बेटा हूं। पांच प्यारों में से एक भाई हिम्मत सिंघ जी रिश्ते में मेरे चाचा जी लगते हैं और सरदार हरा सिंघ जी मेरे पिताजी हैं और वो खंडे – बांटे का अमृत पान (अमृत छककर) गुरु जी के साथ श्री आनंदपुर साहिब जी में ही सेवा में समर्पित है। केवल मैंने ही अभी तक खंडे – बाटे का अमृत (अमृत पान की विधि) नहीं छका है परंतु फिर भी मुझे आपकी सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ है। माता जी आप से निवेदन है कि इन बच्चों को जल्द ही गर्म दुग्ध पान करवाएं, जिसे इतिहास में ऐसे अंकित किया गया है:-
पिथ कै प्रेम मोती सौ केरा॥
माता जी कहै भलै हुए तेरा॥
अर्थात मोती राम तेरा भला हुए और लगातार तीन दिनों तक भाई मोतीराम मेहरा जी साहिबजादों को ठंडे बुर्ज में दुग्ध पान करवाते रहे थे।
जिसे इतिहास में ऐसे अंकित किया गया है:-
धन मोती जीन पुन कमाईआ।
गुरु लालां ताई दूधं पिलाईआ॥
२६ दिसंबर सन् १७०४ को छोटे साहबजादे की शहीदी हुई थी। इस महान शहीदी के पश्चात इतिहास में इस तरह से अंकित है:-
नीच गंगू को भगत इक पमा।
अर्थात् चुगल खोर गंगू के भाई पम्मा की और से वजीर खान को शिकायत की गई थी कि भाई टोडरमल के साथ इस मोती राम मेहरा ने गुरु परिवार का साथ निभाया था। लकड़ी की टाल से चंदन की लकड़ियां खरीद कर लेकर आने में भी इसका योगदान था। वजीर खान के हुक्म अनुसार भाई मोती राम मेहरा के पूरे परिवार को मुश्कें बांधकर दरबार में हाजिर किया गया था। मोती राम मेहरा को वजीर खान के समक्ष पेश किया गया। वजीर खान ने मोती राम मेहरा से पूछा कि तुझे मौत से डर नहीं लगता है क्या? तुम्हें यह पता नहीं है क्या? कि मेरा हुक्म है जो भी गुरु परिवार की मदद करेगा, उन्हें कोल्हू की चक्की में पीस कर मौत की सजा दी जाएगी। मोती राम मेहरा ने हंसकर उत्तर दिया कि मुझे पता था और मुझे तेरी सजा भी मंजूर है। जिसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है:-
मरने ते क्या डरपना जब हाथि सिध उरा लीन॥
मैं जानता था कि दूध की कीमत का मूल्य मुझे अपने परिवार की शहीदी देकर चुकाना पड़ेगी परंतु मैं डरता नहीं हूं कारण मेरे पिता सरदार हरा सिंघ ने भी धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के साथ युद्ध करते हुए मैदान – ए – जंग में शहीदी का जाम पिया है।
वजीर खान के द्वारा पूरे परिवार को कोल्हू में पीसकर मौत की सजा का ऐलान किया गया परंतु एक शर्त रखी गई कि यदि तुम अपना धर्म बदल लो तो तुम्हें माफ कर दिया जाएगा। इस पूरे परिवार ने धर्म परिवर्तन से इंकार कर दिया था।
मोती राम मेहरा से कहा गया कि तेरे बेटे को तेरी आंखों के सामने कोल्हू की चक्की में पीस दिया जाएगा। क्या कभी तुमने कोल्हू की चक्की से तिलों के तेल को निकलते हुए देखा है? मोतीराम ने अटल इरादों से उत्तर दिया था कि तेरी आंखों के सामने ७ और ९ वर्ष की आयु के साहिबजादे शहीदी दे सकते हैं तो क्या ७ साल का मेरा बेटा शहीदी देने के लिए पीछे रहेगा? इसको भी तुम आजमा कर देख लो परंतु हमारी सिक्खी अडौल है, हम अपनी सिक्खी पर अडीग हैं।
उस समय ७ वर्ष के मोतीराम मेहरा के बेटे नारायण को कोल्हू की चक्की में पिसने के लिए चक्की में प्रथम उसके पैरों को रखा गया और मोती राम मेहरा की आंखों के सम्मुख कोल्हू के पहियों को चलाना प्रारंभ किया था। जब इस पुत्र नारायण को कोल्हू की चक्की में पिसा जा रहा था तो उपस्थित लोगों की चिखें निकल रही थी परंतु धन्य है गुरु का सिक्ख मोती राम मेहरा जो अपने मुंह से वाहिगुरु – वाहिगुरु शब्द का उच्चारण कर प्रभु के इस बहाने को मीठा मानकर स्वीकार कर रहा था। इस छोटे बालक को कोल्हू की चक्की में ऐसे पीस दिया गया था। जैसे गन्ने को चरखी में डालकर उसका रस निकाला जाता है। खून के फव्वारे उड़कर मोती राम मेहरा के चेहरे पर पड़े थे परंतु सिक्खी सिदक का धनी, अपनी सिक्खी पर अडीग होकर मोती राम मेहरा धन्य वाहिगुरु – धन्य वाहिगुरु का उच्चारण लगातार कर रहा था।
अपने बेटे नारायण की शहीदी के पश्चात मोती राम मेहरा की माता जी, माता लधो जी को भी इसी तरहां बर्बरता से मोतीराम की आंखों के सम्मुख कोल्हू की चक्की में पीस कर शहीद किया गया था। मोती राम मेहरा की पत्नी बीबी भोई जी को भी इसी प्रकार से मोती राम मेहरा की आंखों के सम्मुख बर्बरता से शहीद किया गया था। इस प्रकार पूरा परिवार कोल्हू की चक्की में पीस कर शहीद कर दिया गया था। अंत में मोती राम मेहरा का समय भी आ चुका था। मोती राम मेहरा को पुनः लालच दिया गया कि तेरा सारा परिवार कोल्हू की चक्की में पीस कर बर्बरता से शहीद कर दिया गया है। यदि तुम अभी भी धर्म परिवर्तन की शर्त को मान लोगे तो तुम्हें रिहा कर दिया जाएगा।
उस समय मोती राम मेहरा ने जो उत्तर दिया उसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है:-
सिर जावे ता जावे मेरा सिक्खी सिदक ना जावे॥
अमर शहीद भाई मोती राम मेहरा को भी अंत में कोल्हू की चक्की में पीस कर शहीद किया गया था।
इस दुनिया में रहती दुनिया तक दूध रुपये ५०, रुपये १००, रुपये ५०० या ज्यादा से ज्यादा रुपये एक लाख लीटर तक बिक जाएगा परंतु दूध के ३ घडो़ं की कीमत की एवज में पूरे परिवार को ही कोल्हू की चक्की के बीच पीस दिया गया था। इससे महंगा दुनिया का कोई दूध नहीं हो सकता है। इस दूध की कोई कीमत आकीं नहीं जा सकती है। यहां पर सिक्खी का बचपन, जवानी और बुढ़ापा भी कोल्हू की चक्की में पीसा गया था। ऐसी बर्बरता पूर्वक और भयानक मौत दी गई परंतु धन्य है मोती राम मेहरा और उसका परिवार शहीदी दे दी परंतु सिक्खी सिद्क को दाग नहीं लगने दिया था। इसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है:-
धन् मोती जिन पुन कमाईआ॥
गुरु लालां ताही दूध पिलाया॥
भाई मोती राम मेहरा पिता सरदार हरा सिंघ जी, माता लधों जी, पुत्र नारायण जी एवं पत्नी बीबी भोई जी ग्राम संगतपुर सोढ़ीयां सरहंद के निवासी थे।
इतिहासकार भाई किशन जी ने इतिहास में अंकित किया है:-
मोतीराम संगत पुरवासी, राम को नाम जब पुन कमासी।
हिम्मत सिंघ तित चाचू जानो,पांच पिअरन महि परधानों॥
अर्थात हिम्मत सिंघ जी पांच प्यारों में से एक थे।
२७ मार्च सन् १९८५ में भाई मोतीराम जी मेहरा की स्मृति में इस स्थान पर एक भव्य भवन का निर्माण किया गया है। भविष्य में गुरु जी कृपा करें तो ठंडे बुर्ज के निकट ही मोती राम मेहरा जी की स्मृति में कोई स्थान बने। ताकि दूर – दराज से जो संगतेंं ठंडे बुर्ज पर दर्शनों के लिये आती है वो भी इस स्थान का दर्शन कर सकें।
संगत जी (पाठकों) इस लेख के द्वारा मोती राम मेहरा जी और उसके परिवार की सिक्खी सिद्क की कमाई को आपके सम्मुख रखा गया है। भविष्य में इसी तरहां से सिक्ख इतिहास के अनमोल – स्वर्णिम और नवीनतम जानकारियों से ओत – प्रोत,सही सटीक और विशुद्ध इतिहास को आपके सम्मुख रखने की हम लगातार कोशिश करेंगे।

गुरु घर की श्रद्धालु: बेगम जैनबुनिशा
यदि हम सिक्ख इतिहास को परिपेक्ष्य करें तो सिक्ख धर्म के ६ वें गुरु, गुरु ‘श्री हरगोबिंद साहिब जी’ को जब जहांगीर के द्वारा ग्वालियर के किले में कैद रखा गया था तो आप जी ने अपने विशेष प्रयासों से उस समय देश के ५२ राजाओं को जो जहांगीर की कैद में थे उन सभी को आजाद करवाया था।
इन ५२ राजाओं में से एक केल्हूर का पहाड़ी राजा दीपचंद भी था। समय तेजी से बीत रहा था। जब धन्य – धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादुर साहिब जी’ को धन्य – धन्य गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की नौवीं ज्योत के रुप में गद्दी पर विराजमान थे तो उस समय राजा दीपचंद का देहांत हो गया था। राजा दीपचंद के पूरे परिवार की गुरु घर के प्रति बहुत ही श्रद्धा और सम्मान था। राजा दीपचंद के उठामना (भोग) में गुरु जी को केल्हूर राज्य में आमंत्रित किया गया था।
जब गुरु जी केल्हूर में थे तो राजा दीपचंद की पत्नी ने गुरु जी से हाथ जोड़कर निवेदन किया कि पातशाहा जी आपने हम पर असीम कृपा की है। हम आपकी सेवा करना चाहते हैं उस समय धन्य -धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ ने रानी साहिबा से उनके कुछ इलाके की जमीन को खरीदने की पेशकश की थी। गुरु जी ने अपनी दूर दृष्टि का परिचय देते हुए रानी साहिबा से स्वयं का पसंद किया हुआ इलाका दान स्वरूप या भेंट स्वरूप नहीं लिया था, अपितु उस इलाके को खरीदने के लिए ५०० मोहरे रानी जी को देकर उस जगह के जरा पट्टे को लिखवाकर लिया था।
माखोवाल नामक स्थान पर ग्राम सोहोटा में मोहरी गड्ड (नीव का पत्थर) रखकर इस नवीन स्थापित जगह को चक नानकी नगर से संबोधित किया गया था। इस चक्क नानकी नामक स्थान का कालांतर में नाम ‘श्री आनंदपुर साहिब’ हो गया था। रानी साहिबा का गुरु घर से अत्यंत निकट का प्रेम और स्नेह का संबंध था और वो हमेशा ‘श्री आनंदपुर साहिब जी’ में गुरु दरबार में हाजरी भरने आती – जाती रहती थी।
रानी साहिबा की एक गोली (दासी) थी। जिसका नाम बीबी सुभागों था और बीबी सुभागों रानी साहिबा के साथ अपनी भागों नामक बेटी के साथ अक्सर ‘श्री आनंदपुर साहिब जी’ में आती – जाती रहती थी। सुभागों की बेटी भागों ने धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के दर्शन किए थे और माता गुजर कौर एवं धन्य – धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ के दर्शन कर उनका आशीर्वाद भी प्राप्त किया था साथ ही दासी सुभागों की बेटी भागों गुरु घर की श्रद्धालु भी थी।
जब दासी सुभागों की बेटी भागों जवान हुई तो राजपूत घराने की होने के कारण एवं इसका लालन – पोषण महलों में होने के कारण भागो सुंदर और संस्कारी थी। जब इसका विवाह किया गया तो बस्सी पठान नामक स्थान पर इसके विवाह के डोले को वजीर खान के सिपाहियों ने लूट कर डोले में बैठी नववधू भागों को वजीर खान के सम्मुख पेश किया था।
इस नववधू भागों का पालन – पोषण महलों में हुआ था। इसलिये नववधू सुशील एवम् संस्कारों वाली थी। वजीर खान इसकी सुंदरता पर फिदा हो गया और बल प्रयोग कर उसने इसका धर्म परिवर्तन कर दिया था। इस्लाम धर्म में शामिल होने के पश्चात इसका नाम जैनबुनिशा रख दिया गया था। इस जैनबुनिशा से जबरदस्ती वजीर खान ने निकाह किया था और सुंदर – सुशील भागों अब बेगम जैनबुनिशा हो चुकी थी वजीर खान और जैनबुनिशा के घर में दो पुत्रों का जन्म भी हुआ था।
भविष्य में समय चक्र अनुसार साहिबजादे जोरावर सिंघ एवं साहिबजादे फतेह सिंघ को कैद करके सरहिंद में ठंडे बुर्ज पर रखा था। उस समय से ही इस बीबी भागों अर्थात् बेगम जैनबुनिशा ने अपने शौहर का विरोध करना प्रारंभ कर दिया था। इस बेगम जैनबुनिशां ने अपने शौहर वजीर खान को समझाकर कहा था कि लोग गुरु जी को मत्था टेकते और आप ने गुरु जी से मत्था लगा लिया है और इस बेगम जैनबुनिशा ने वजीर खान का पुरजोर विरोध किया था।
जब माता गुजरी जी ठंडे बुर्ज में साहिबजादों के साथ कैद थी तो इसने दूर से माता जी का अभिवादन भी किया था। इस बेगम जैनबुनिशा ने अपनी देह बोली से माता जी के सम्मुख आंखों ही आंखों में अपनी मजबूरी को प्रकट किया था।
जब छोटे साहबजादों को दीवार में चिनवाकर शहीद करने का फतवा जारी किया गया तो बेगम जैनबुनिशा अपने अच्छे संस्कारों से पुनः बीबी भागों में परिवर्तित हो गई थी। बीबी भागों ने वजीर खान का खुलेआम डटकर विरोध कर कहा था कि पापी तेरे को तेरे अपने कर्मों का फल भोगना पड़ेगा। जिस तरह से तुम ने माता गुजरी जी और धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को विराह की अग्नि में झोंका है, तुझे भी उस विराह की अग्नि में जलना होगा और इस विरहा की अग्नि में जलकर ही तेरी मृत्यु निश्चित होगी।
छोटे साहबजादे जब शहीदी का जाम पी गये और पश्चात जब वजीर खान अपने महल में पहुंचा तो इस बीबी भागों उर्फ बेगम जैनबुनिशा ने अपना खंजर वजीर खान के सम्मुख निकाला और वजीर खान की आंखों के सम्मुख पूरी ताकत से अपने पेट में घोंप लिया था। वजीर खान की आंखों के सम्मुख उसकी इस बेगम जैनबुनिशा ने तड़प – तड़प कर अपने प्राण त्याग दिए थे।
वजीर खान के अपने स्वयं के जीवन में यह सबसे बड़ा आघात था। जब उसकी स्वयं की बेगम जैनबुनिशा अर्थात बीबी भागों जो कि धन्य -धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ की निकटवर्ती श्रद्धालु थी ने स्वयं अपने प्राणों का अंत कर अपने धर्म का निर्वाह किया था। इस बीबी भागों ने अपने आपको धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के साथ एकनिष्ठ रहकर स्वयं को कुर्बान कर दिया था।
ऐतिहासिक स्त्रोतों के अनुसार प्रसिद्ध इतिहासकार भाई वीर सिंघ जी द्वारा रचित ‘कलगीधर चमत्कार’ में भी इस इतिहास का जिक्र है। पंथ के महान इतिहासकार डॉ. गुरबचन सिंघ जी राही ने भी इस इतिहास का उल्लेख किया है। इतिहासकार प्रोफेसर कृपाल सिंह बंडोंगर ने भी इस इतिहास पर अपनी मोहर लगाई है।
इसी प्रकार नवीनतम सही – सटीक और विशुद्ध इतिहास पढ़कर और समझकर संगतों (पाठकों) के सम्मुख रखा जाएगा। ताकि संगतों को इस भूले – बिसरे स्वर्णिम इतिहास से रू – बरू करवाया जा सकें।

जफरनामा: विजय पत्र
जफरनामा अर्थात विजय पत्र: यह एक ऐसा पत्र है जो दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ द्वारा औरंगजेब को लिखा गया था। ‘जफरनामा’ एक ऐसा साहित्यिक पत्र है जो हमेशा इतिहास में याद रखा जाएगा। जो कार्य तलवार नहीं कर सकी वो कार्य ‘दशमेश पिता’ ने अपनी कलम से कर के दिखाया था। यह पत्र मूल रूप से फारसी भाषा में रचित है। यह पत्र फारसी भाषा की सर्वोत्कृष्ट रचना माना जाता है। ‘जफरनामा’ अपने आप में बहुत ही विशाल और अद्भुत रचना है। लेखक की इस लेख के द्वारा संक्षेप में जफरनामा के सारांश को लिखने का प्रयत्न है।
इस पत्र को ‘दशमेश पिता’ ने चमकौर के युद्ध के पश्चात ‘दिना कंगड़’ के इलाके में स्थित भाई देसा सिंग की चौपाल पर बैठकर लिखा था। इस पत्र को लेकर पंज प्यारे में से एक भाई दया सिंघ जी एवं भाई तरन सिंघ स्वयं औरंगजेब के पास गए थे।
‘जफरनामा’ में ११ उस्ततें हैं। इसके पहले अध्याय में ९ पद्य हैं और आगे के ૪ अध्यायों में प्रत्येक २१ पद्यों को लिखा गया है। इस मूल पत्र की रचना स्वयं दशमेश पिता ने अपने कर – कमलों के द्वारा की है। इस पत्र की लिखावट बहुत ही सुंदर है। फारसी भाषा के महान विद्वान साहित्यकार, कवी ‘सैयद मोहम्मद तामिल’ जिन्होंने स्वयं फारसी भाषा में कई महान ग्रंथ और काव्य संग्रहों की रचना की है। ऐसे महान साहित्यकार ने जब जफरनामा का अध्ययन किया तो टिप्पणी करते हुए कहा कि इस महान रचना के आगे मेरी रचनाएं फीकी है। जबकि महान साहित्यकार ‘सैयद मोहम्मद तामील’ बगदाद के मूल निवासी थे और फारसी उनकी मातृभाषा थी और ‘दशमेश पिता’ के लिए फारसी एक विदेशी भाषा थी। इस पत्र की रचना से ही हम कलम के धनी ‘दशमेश पिता’ की विद्वता को समझने की कोशिश कर सकते हैं।
जफरनामे की प्रारंभिक रचनाओं के १२ पद्यों में ‘दशमेश पिता’ ने उसे एक अकाल पुरख की आराधना करते हुए ‘उस्तत’ की है। जैसे हम कोई भी पत्र लिखते समय उस परमपिता परमेश्वर को याद करते हैं, ठीक उसी तरह इस पत्र को आरंभ किया गया है। जफरनामा के १३ वें पद से ‘दशमेश पिता जी’ ने औरंगजेब को संबोधित कर लिखना प्रारंभ किया है। अपना सर्व वंश शहीद करवा कर, अपने सभी जान से प्यारे सिंघों को शहीद करवा कर भी दशमेश पिता को अफसोस नहीं हुआ था अपितु इन शहीदीयों पर गुरु जी को ‘अभिमान’ था। ‘दशमेश पिता जी’ को अफसोस इस प्रसंग का था कि औरंगजेब का मुख्य सेनापति ‘ख्वाजा खैबर खान’ जिसने ‘दशमेश पिता’ को शहीद करने का बीड़ा उठाया था। जब वो चमकौर के युद्ध में गुरु जी के सामने आया और ‘दशमेश पिता जी’ ने जब अपनी कमान पर तीर चढ़ाकर निशाना साधा तो वो भयभीत होकर दीवार के पीछे छुप गया था। इस प्रसंग को ‘दशमेश पिता’ ने जफरनामे में अंकित कर ‘ख्वाजा खैबर खान’ जो कि भयभीत होकर दीवार के पीछे छुप गया था, उसे लताड़ा है। गुरु जी ने स्पष्ट किया है कि मैं चाहता तो एक पल में उसको मौत के घाट उतार देता परंतु ऐसे डरपोक सेनापति पर वार करके मैं अपना एक तीर खराब नहीं करना चाहता था। इसलिए मेरी आत्मा ने मुझे इसकी इजाजत नहीं दी थी। काश ! तुमने किसी शूरवीर सुरमा को मुझ से युद्ध करने के लिए भेजा होता?
पाठकों की जानकारी के लिए, तीर – कमान में से कमान की शक्ति को उसकी डोरी के दबाव से नापा जाता है। आधुनिक समय में विश्व ओलंपिक में जो तीरंदाजी के मुकाबले होते हैं उसमें अधिकतम १९० पौंडस के दबाव (प्रेशर) से कमान को विश्व के सर्वोच्च, सर्वोत्तम खिलाड़ी खींचते हैं परंतु ‘दशमेश पिता’ के जो तीर – कमान को ऐतिहासिक धरोहर के रुप में संभाल कर रखा गया है। उसके अध्ययन से पता चला कि इस कमान की डोरी खिंचाई का दबाव (प्रेशर) ૪९६ पौंड़स से भी अधिक है। इससे ‘दशमेश पिता’ के बाहुबल का अंदाजा लगाया जा सकता है।
चमकौर के युद्ध में लाखों की सेना से ‘दशमेश पिता’ और उनके ૪० योद्धाओं का सामना हुआ था। जिसे जफरनामे में इस तरह अंकित किया गया है:-
गर सिनहां के कारे कुनद चहुल लर॥
बाद दै लेख आऐद बरो बैखबर॥
अर्थात औरंगजेब जब तेरी धोखा देने वाली लाखों की डरपोक फौज ने चारों और से घेर लिया था तो मेरे ૪० सिंघ क्या करते?
इसी तरहां से जफरनामे में अंकित है:-
बरगे मरज बेसुमार बतगे मगज शाहकोश आमदम॥
अर्थात् औरंगजेब तेरी काली वर्दीधारी फौज ने इतना विशाल घेरा डाल दिया जैसे लाखों की संख्या में मधुमक्खियों ने छत पर पर घेरा डाला होता है। अर्थात इस युद्ध में दुश्मन की संख्या बहुत – बहुत ही ज्यादा थी। इसी तरहां से एक और ऐतिहासिक प्रसंग में चमकोर की गड़ी के घेरे का वर्णन इस तरहां से किया जाता है कि दुश्मन के सैनिक यदि एक – एक मुट्ठी, मिट्टी भी गड़ी के ऊपर डालते तो गड़ी को मिट्टी में दबा देते थे।
जफरनामे के ८९ से ९૪ पद्यों के मध्य ‘दशमेश पिता जी’ ने औरंगजेब की तारीफ भी की है। यह पद्य वाकई सच्चाई का विश्लेषण है। औरंगजेब में कई खूबियां भी थी जिसे जफरनामा में अंकित किया गया है:-
चाकब रकेब असत चलाक असत॥
हुसनल जमाल असत रौशन जमीर॥
खुदाबंद मुलक असत साहेब अमीर॥
अर्थात् औरंगजेब तुम एक बहुत ही बहादुर योद्धा हो, तुम एक अच्छे शानदार घुड़सवार भी हो, तुम बचपन से ही गरीबों को दान करने वाले हो, ‘दशमेश पिता’ ने फरमाया है कि औरंगजेब तुम देखने में सुंदर भी बहुत हो, वैसे भी औरंगजेब की मां मुमताज की खूबसूरती दुनिया में प्रसिद्ध है। साथ ही औरंगजेब बहुत ही विद्वान था। वो ‘कैलीग्राफी’ विधि से बहुत ही सुंदर कुरान शरीफ लिखा करता था। औरंगजेब की हस्तलिखित कुरान शरीफ आज भी मक्का – मदीना और हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर रखी हुई है। साथ ही ‘दशमेश पिता’ ने उसके राज्य करने के नेतृत्व कला को भी सराहा है। औरंगजेब ने अपने राज्य में शराबबंदी और वेश्यावृत्ति पर रोक लगाई थी। साथ ही सभी व्यक्तिगत खर्चे औरंगजेब स्वयं की कमाई से करता था। राज्य के खजाने के पैसे को कभी भी स्वयं के लिए खर्च नहीं करता था। औरंगजेब कमाई करने के लिए मुस्लिम टोपिया बनाकर भेजता था।
जफरनामा में ‘दशमेश पिता’ ने औरंगजेब को बहुत लताड़ा भी है। जफरनामे में गुरु जी ने औरंगजेब को उसकी धार्मिक कट्टरता के लिए बहुत ही बुरी तरहां से लताड़ा है। इस धार्मिक कट्टरता के कारण ही तु जालिम और हत्यारा है। इसी कट्टरवादी रवैया से तुमने इस्लाम को भी कलंकित किया है। ‘दशमेश पिता’ ने अंकित किया है कि ना ही तुझे कुरान शरीफ पर यकीन है और ना ही इस्लाम धर्म पर यकीन है। औरंगजेब केवल सुन्नी मुसलमानों को ही मुसलमान मानता था। उसने हिंदू, सिक्ख, शिया मुसलमान,खोजा मुसलमान और गोहिरा मुसलमानों पर भी बेइंतहा जुल्म किए थे।
औरंगजेब ने अपना राजपाट बनाकर रखने के लिए अपने भाइयों को, अपने भतीजे को, अपने भांजों को और अपने जीजाओं का भी कत्ल करवा दिया था और अपने पिता जहांगीर को लाल किले में कैद कर दिया था। जहां पर उसे केवल आधा प्याला पानी पीने के लिए दिया जाता था, जहांगीर अपनी कैद में हमेशा कुछ ना कुछ लिखता रहता था। एक बार जहांगीर ने अपने पीने के पानी की स्याही बना ली और जून की तपती दोपहर में पीने को और पानी मांगा तो औरंगजेब ने उत्तर दिया था कि तुम्हें केवल आधा प्याला पानी ही मिलेगा जिससे तुम चाहो तो अपने तन की प्यास बुझा लो या अपने मन की, आधे प्याले से ज्यादा पानी नहीं मिलेगा।
गुरु जी ने जफरनामा में अंकित किया है कि औरंगजेब मैं तुम से युद्ध नहीं करना चाहता था परंतु तुमने मजलुमों के ऊपर जुल्म की हद्द पार कर दी, तो मुझे मजबूरी में हथियार उठाने पड़े। औरंगजेब की दिनचर्या ही ऐसी थी कि जब तक वो सवा लाख ‘जेनउ’ हिंदुओं की उतारकर उन्हें मुसलमान नहीं बना देता,तब तक वो पानी का घूंट भी नहीं पीता था।
पूरे भारतवर्ष में इस तानाशाह के शासन में किसी की भी हिम्मत नहीं होती थी कि वो ऊंची आवाज में बात कर सके। औरंगजेब अपनी धार्मिक कट्टरवादी सोच के कारण जुल्मों का बेताज बादशाह बन गया था। उसे लगता था कि मैं ही इस्लाम का सबसे बड़ा रक्षक हूँ। औरंगजेब की सभी गलतियों का कच्चा चिट्ठा जफरनामे में अंकित किया हुआ है।
इस जफरनामे को मिलने के बाद औरंगजेब ने लगातार कई बार इस जफरनामे को पढ़ा और उसे बहुत ही आत्मग्लानि हुई थी। जब इस पत्र की चर्चा आम जनता में हुई तो आम जनता ने भी औरंगजेब की करतूतों को बहुत लताड़ा था। कई इस्लाम के विद्वानों ने भी औरंगजेब को उस समय लताड़ा था और कहा था कि तुम्हारा मकसद गुरु जी को गिरफ्तार करना था परंतु छोटे – छोटे साहिबजादे को शहीद कर तुम ने इस्लाम धर्म को कलंकित किया है। साथ ही इन बेमतलब के युद्धों में लाखों सैनिक मरवा दिए। जब चारों और से औरंगजेब को लताड़ा जाने लगा तो वो आत्मग्लानि से पीड़ित होकर बीमार रहने लगा और कुछ ही समय में औरंगजेब की महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिसे अब ‘संभाजीनगर’ कहकर संबोधित जाता है, में उसकी मृत्यु हो गई। औरंगजेब का पूरा परिवार और उसके बच्चे भी उससे बहुत दुखी थे। उसकी मृत्यु के बाद उनमें से कोई भी उसकी कब्र पर मिट्टी डालने भी नहीं आया था।
कलम के धनी दशमेश पिता और उनकी सर्वोत्तम रचना जफरनामे को सादर नमन !

इंसानियत के रहनुमा: भाई कन्हैया जी
रेड क्रॉस सोसाइटी एक अंतरराष्ट्रीय संगठन है। जिसका उद्देश्य मानवी जिंदगी और स्वास्थ को बचाना है। इसकी स्थापना ९ फरवरी सन् १८६३ ईस्वी में स्विट्जरलैंड के जिनेवा शहर में हुई थी। यह संस्था शांति और युद्ध के समय दुनिया भर के विभिन्न देशों की सरकारों के बीच समन्वय का कार्य करती है। इस संस्था के द्वारा वैश्विक महामारी और प्राकृतिक आपदाओं के समय पीड़ितों की मदद की जाती है।
रेड क्रॉस सोसाइटी संस्था के संस्थापक HENRY DUNANT का जन्म ८ मई सन् १८२८ को हुआ था। आप जी ने पहले और दूसरे विश्व युद्ध के दरम्यान रेड क्रॉस सोसाइटी की स्थापना की थी। इस सोसाइटी का भारत में पहला मुख्यालय सन् १९२० में स्थापित हुआ था। आज पूरे विश्व में रेडक्रास सोसायटी के कार्यालय स्थापित हो चुके हैं। मानवता की अभूतपूर्व सेवा रेडक्रास सोसायटी के द्वारा पूरी दुनिया में की जा रही है।
सन् १८६३ से १૪९ साल पहले सन् १७०૪ में ‘पंथ खालसा’ के सिक्ख सेवादारों ने गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की गुरबाणी से शिक्षा ग्रहण कर उन शिक्षाओं के आधार पर अपना जीवनयापन कर रहे थे। इन शिक्षाओं को गुरुबाणी में इस तरह से अंकित किया गया है:-
अवलि अलह नूर उपाइआ कुदरति के सब बंदे॥
एक नूर ते सभु जग उपजिआ कउन भले को मंदे॥
(अंग क्रमांक १३૪९)
अर्थात् वो ऊर्जा जो अति सूक्ष्म,तेजोमय, निर्विकार,निर्गुण,सतत है और अनंत ब्रह्मांड को अपने में समेटे हुए हैं। किसी भी तंत्र में उसके लिए एक सिरे से उसमें समाहित होती है और एक या ज्यादा सिरों से निष्कासित होती है।
इसी तरहां से गुरूबाणी कहती है:-
सभु को मीतु हम आपन कीना हम सभना के साजन॥
(अंग क्रमांक ६७१)
ना को बैरी नही बिगाना सगल संगि हम कउ बनि आई।।
(अंग क्रमांक १२९९)
अर्थात् गुरबाणी सिखाती हमने सभी को अपना मीत बना लिया है और हम सभी के साजन हैं। ना कोई बेरी है,ना कोई बैगाना है। हमारी तो सभी के साथ बन आई है। गुरु बाणी की शिक्षाओं को अपनी अंतरात्मा में उतारकर सन् १७०૪ में भाई कन्हैया जी पानी के ‘मश्क’ भरकर मैदान – ए – जंग में जाकर सभी घायलों को ‘मश्क’ का ठंडा पानी पिलाते थे। इस निष्काम सेवा को ‘भाई कन्हैया जी’ बिना किसी भेदभाव के लगातार करते रहते थे। दुश्मनों के घायल सैनिकों को भी बिना किसी भेदभाव के पानी पिलाते हैं। जिससे उन घायल सैनिकों को नवजीवन मिल जाता है।
कुछ सिक्ख सैनिकों से ‘भाई कन्हैया जी’ की सेवा बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को ‘भाई कन्हैया जी’ की सख्त शिकायत कर दी थी और कहा कि ‘भाई कन्हैया जी’ शत्रु सैनिकों को पानी पिला कर फिर से हमारे सामने युद्ध के लिए तैयार कर देते हैं। दशमेश पिता की और से ‘भाई कन्हैया जी’ को बुलाया गया। समक्ष हाजिर होने के पश्चात जब ‘भाई कन्हैया जी’ से पूछा गया कि आप यह क्या कर रहे हो? आप शत्रु सैनिकों को भी पानी पिला रहे हो,ऐसा क्यों? सुनकर ‘भाई कन्हैया जी’ ने बड़े ही निर्वेर भाव से उत्तर दिया कि ‘पातशाह जी’ मुझे तो हर घायल सैनिक में आपकी सूरत नजर आती है।
मैं ता जत देखा तत् तू॥
अर्थात मुझे तो हर घायल सैनिक में ईश्वर नजर आता है। हर घायल सैनिक में ‘महाराज जी’ मुझे तो आप ही के दर्शन होते हैं। इसलिए मेरे लिए ‘ना कोई बेरी है और ना ही कोई बैगाना है’।
इस प्रसंग को भाई वीर सिंघ जी ने अपनी रचना में बहुत ही अच्छी तरह से स्पष्ट किया है।
तेनु पिया पिलावां पानी मैनु होर नजर ना आई।
तुरक अतुरक ना कोई दिसदा तु है सभ नी थाई॥
अर्थात मैं तो केवल आप ही को पानी पिला रहा था। मुझे तो अपना – पराया कोई नहीं दिखा। मुझे तो केवल आप ही आप नजर आए सतगुरु जी।
यह सुनकर ‘दशमेश पिता जी’ ने मुस्कुराकर ‘भाई कन्हैया जी’ को गले लगा लिया और भाई कन्हैया जी’ को मलहम पट्टी भी दी और जरूरत अनुसार मलहम पट्टी करने का सुझाव भी दिया। साथ ही कहा कि ‘भाई कन्हैया जी’ आपकी सेवा बहुत ही महान है।
इतिहास के इस प्रसंग अनुसार सन् १८६३ से १૪९ वर्ष पूर्व सन् १७०૪ में ही रेड क्रॉस सोसाइटी का जन्म ‘भाई कन्हैया जी’ के द्वारा हो चुका था। आज पूरी दुनिया में जहां रेड क्रॉस सोसाइटी कार्य कर रही है वही हमें इंसानियत के रहनुमा ‘भाई कन्हैया जी’ को भी याद रखना होगा।
भाई कन्हैया जी की इन निष्काम सेवा के कारण ही भारत सरकार की और से सन् १९९८ में भाई कन्हैया जी की याद में एक ‘डाक टिकट’ भी जारी किया गया था।
इंसानियत के रहनुमा ‘पंथ खालसा’ के निष्काम सेवादार ‘भाई कन्हैया जी’ को शतश सादर नमन

गुरु की लाडली फौज निहंग सिक्ख और फर्रा
निहंग शब्द संस्कृत शब्द निशुंक का अपभ्रंश है। जिसका अर्थ होता है कृपाण, कलम,घोड़ा और फारसी भाषा में निहंग का अर्थ होता है मगरमच्छ ! जो बिना किसी शंका के जीवन व्यतीत करते हैं जिन्हें किसी का मोह ना हो यानिकी निसक्त हों, ऐसे सिक्ख योद्धाओं को कहते हैं निंहग, अर्थात मगरमच्छ ! जिस तरह से गहरे पानी में मगरमच्छ को कोई चुनौती नहीं दे सकता ठीक उसी प्रकार निहंग सिक्खों को युद्ध के मैदान में कोई नहीं हरा सकता है। इनका बाना (पोशाक) नीले रंग का होता है और हमेशा सशस्त्र होते हैं। निहंग सिक्ख युद्ध कला में निपुण होते हैं।
भक्ति और शक्ति का प्रतीक होते हैं निहंग सिक्ख, अकाली निहंग सिक्खों को दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ और ‘माता साहिब कौर जी’ का धर्म पुत्र माना जाता है। निहंग वो है जो निर्भय हो, निहंग एक ऐसा सिक्ख होता है जो सांसारिक मोह माया से दूर होता है। इसकी दस्तार पर दुमाला सजा होता है और दुमाले में चक्र और खंडे सुशोभित होते है।
निहंग सिक्ख अपनी वेशभूषा के कारण अलग ही पहचाने जाते हैं। पंथ खालसा में निहंग सिक्खों की जवाबदारी है धर्म और धार्मिक स्थानों की, कला, संस्कृति, एवं साहित्य की रक्षा करना और युद्ध के मैदान में सबसे आगे रहना। अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित निहंग सिक्ख दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ की लाडली फौज है।
निहंग सिक्खों के दुमाले के ऊपर सजाये जाने वाला फर्रा कोई आम कपड़ा नहीं होता है और ना ही कोई इसे अपनी इच्छा अनुसार शीश के ऊपर सजा सकता है। इस फर्रे को सजाने का अनोखा इतिहास है। जनवरी सन् १७०૪ में बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश) के राजा अजमेर चंद के साथ गुरु ‘श्री गोबिन्द सिंघ साहिब जी’ का युद्ध हुआ था। इस युद्ध में निहंग भाई मानसिंघ निशान साहिब (पंथ खालसा का ध्वज) को लेकर सबसे आगे चल रहे थे। इतिहास के अनुसार भाई मान सिंघ जी को निशानची के नाम से भी संबोधित किया गया था, कारण पिछले सभी युद्धों में भाई मान सिंघ जी निशान साहिब को लेकर सबसे आगे चलते थे। इस युद्ध में राजा अजमेर चंद और मुगल सेना ने निशानची भाई मान सिंघ को घेर लिया था और उन्हें आदेश दिया कि वो निशान साहिब को धरती पर रख दे। भाई साहब ने कहा कि मेरा शीश कट सकता है पर पंथ खालसा का यह निशान सहिब कभी भी झुक नहीं सकता है। इस घमासान युद्ध में भाई मान सिंघ ने निशान साहिब जमीन में गाड़ कर शत्रु सेना से मुकाबला किया था।
निशानची मान सिंघ को शत्रु सेना ने कहा कि यदि हमें इस युद्ध में तुम्हारे हाथ काट देंगे तब तुम क्या करोगे? भाई साहब ने उत्तर दिया कि मेरे पैरों में इतनी शक्ति है कि मैं अपने पैरों से निशान साहिब की सेवा – संभाल कर लूंगा।
….और यदि पैरों को काट दिया जायेगा तब क्या करोगे? निशानची भाई मान सिंघ जी का उत्तर था कि मैं अपने मुंह से निशान साहब को संभाल लूंगा। शत्रु सेना ने कहा कि यदि हम तुम्हारी गर्दन ही काट देंगे तब क्या करोगे? भाई साहब ने उस समय उत्तर दिया था कि जिस का निशान साहिब है, वो स्वयं संभाल लेंगे परंतु गुरु के सिक्ख अपने जीते जी निशान साहिब को धरती पर गिरने नहीं देंगे।
उस घमासान युद्ध में निशानची भाई मान सिंघ जी के हाथ और पैरों पर जब प्रहार किये गये और जब भाई साहब के हाथ से निशान साहिब गिरने लगा तो भाई साहब ने आवाज लगाई, है कलगीयां वाले दशमेश पिता अपने निशान साहिब की संभाल कर और उसी समय उस युद्ध में साहिबजादा अजीत सिंघ जी प्रकट हुये और उन्होंने निशान साहिब अपने हाथ में ले लिया था और पंथ खालसा के इस परचम निशान साहिब को शान से लहरा दिया था।
अगले दिन दशमेश पिता के दरबार में युद्ध के बारे में वृतांत दिया जा रहा था। उसी समय निशानची भाई मान सिंघ जी को जख्मी हालत में दरबार में उपस्थित किया गया। पूरे दरबार में जब भाई मान सिंघ की बहादुरी की चर्चा हुई तो दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ इस बहादुर निशानची के सम्मान में खड़े हुये और अपनी दस्तार के नीचे बंधी नीले रंग की केसकी (एक छोटा कपड़ा जिसे शीश पर बांधकर दस्तार सजाई जाती है) को उतार कर भाई मान सिंग के शीश पर झूलाकर उन्हें सम्मानित किया।
इसी दरबार में गुरु जी ने वचन किये कि आज के बाद निशान साहिब कभी धरती पर नही गिरेगा। निशान साहिब अब सिक्खों के शीश पर भी फहराया करेगा। उस समय से दुमाले के ऊपर फर्रा बांधने की परंपरा प्रारंभ हुई थी और निशानची भाई मान सिंग के साथ पांच और सिक्खों के दुमाले में फर्रा सजाया गया।
सन् १७९० में लिखित ऐतिहासिक पुस्तक गुरु की साखियों (लेखक भाई स्वरूप सिंघ कोशिक) में भी इस प्रसंग को इतिहास के तौर पर लिखा गया है। दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के दरबार में ५२ कवियों में से एक कवि थे कवी टेकण जी, उन्होंने इस प्रसंग को बहुत ही अच्छे ढंग से पद्य के रूप में प्रस्तुत किया है:-
श्री कलगीधर सुनत बखानी, निकी बात बताई॥
अब निशना बनाओं ऐसा जो कभी टूटे नाही॥
एक सिंघ के कर्र में झूले एक शीश लहराये॥
नील अंबर पितंबर वांका फर्रा अजब सुहाये॥
नीकि सो नेक सजावे कुलीन झूले फर्रा॥
जिसकी शब्द निराली पंच भुजंगी उठाये कपास ते॥
पंचों की दस्तान लुहाली पंचों के शीश झूले फर्रा॥
मुखों गया ऐह सिंघ अकाली अकाल अकाल कहेया सबने कहे कहेकण गुंजे गरवाली॥
जिन निंहग सिक्खों के शीश पर फर्रा सजाया जाता है, उन्हें ‘महाकाल सिंघ’ के नाम से भी पुकारा जाता है।
आलम सिंघ, उदय सिंघ, हिम्मत सिंघ,सुजान,
मोहकम सिंघ ते साहिब सिंघ पंचो भली पछाण॥
तखत केशगढ़ के निकट दुमाल गढ़ स्थान,
कलगीधर फर्रा सजा के प्रकट किया जहान॥
इस स्थान को अकालगढ़ साहिब के नाम से जाना जाता है। इस स्थान पर ही छोटे साहबजादे बाबा फतेह सिंघ जी अपने शीश पर दुमाला सजा कर आये थे। इस ऐतिहासिक स्थान पर गुरुद्वारा अकाल गढ़ साहिब स्थित है और इसी स्थान पर दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ जी’ ने निहंग सिक्खों को आप स्वयं फर्रा की बख्शीश की थी। प्रथम भाई साहब भाई मान सिंघ जी के शीश पर फर्रा सजाया, साथ ही पांच निहंग सिक्खों को फर्रा सजाकर बख्शीश प्रदान की और भाई मान सिंघ जी को जत्थेदार के पद से सुशोभित किया था।
जिस निहंग सिक्ख के शीश पर फर्रा सजाया जाता है वो कोई आम सिक्ख नहीं होते है उसके लिये पंथिक सेवा और उनकी तपस्या के मापदंडों को निर्धारित कर इस सेवा का अवसर दिया जाता है।
जिस सिक्ख के शीश पर फर्रा सजाया जाता है, वो कभी मांग कर नहीं खाता, वो सिक्ख कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता है और वो सिक्ख केवल ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के आगे नतमस्तक होते हैं और जब तक शीश पर फर्रा सजाकर रखते हैं, तब तक वह लेट कर सो नहीं सकते हैं।
धन्य है गुरू के सिक्ख! और धन्य उनकी सिक्खी!
शहीद भाई बाज सिंघ
पूरे विश्व में अपने युद्ध कौशल्य, शूरवीरता और इंसानियत के लिए जुल्म के खिलाफ लड़ते हुए सिक्खों ने अपनी बहादुरी और निडरता का परिचय दिया है। जब बल प्रयोग कर जबरदस्ती इस्लामीकरण इस देश में किया जा रहा था तो शहीद बाज सिंघ ने अपनी बहादुरी से जुल्मी फर्रुखसियर को तख्त छोड़कर भागने पर मजबूर किया था। क्या है वो इतिहास? इस लेख के द्वारा उसे जानते हैं।
इतिहास गवाह है कि दिल्ली में बादशाह फर्रुखसियर जिसका पूरा नाम अब्बुल मुजफ्फर मोहम्मद शाह फर्रुखसियर था। इस बादशाह ने सन् १७१३ से सन् १७१९ तक दिल्ली में राज किया था। इस बादशाह ने जुल्म की इंतहा करते हुए ७ दिन के भीतर ७૪० सिक्ख योद्धाओं को शहीद किया था। प्रत्येक दिन १०० से भी ज्यादा सिक्ख योद्धाओं को क्रमानुसार शहीद किया जाता था। इन शहीद सिक्खों ने निडरता से बिना पीठ दिखाए अपने सिक्खी सिद्क पर अडोल रहते हुए शहीदीयों को प्राप्त किया था। इन शहीद सिक्खों ने सिक्ख धर्म पर कुर्बान होकर हंस – हंस के शहीदी के जाम किए थे।
बादशाह फर्रुखसियर प्रतिदिन दिल्ली के तख्त पर आसीन होकर इस मंजर को देखता था। जब यह शहीदों का मंजर अपने पूरे जोर पर था तो फर्रुखसियर ने कहा कि मैंने सुना है तुम सिक्ख योद्धाओं में कोई बाज सिंघ नामक बड़ा ही शूरवीर योद्धा है। कहां है वो बाज सिंघ? उस समय इस शूरवीर महाबली योद्धा बाज सिंघ को पिंजरे में बंद करके रखा गया था।
बादशाह फर्रुखसियर के सम्मुख महाबली बाज सिंघ को पिंजरे में बंद कर कैदी के रूप में लाया गया था। बादशाह फर्रुखसियर ने बंद पिंजरे में बाज सिंघ को कहा कि हमने सुना है, तुम बड़े योद्धा शूरवीर और चपल बहादुर हो। कहां है तुम्हारी बहादुरी? आज तुम मेरे सामने मेरे पिंजरे में कैद हो।
उस समय गुरु के सिक्ख बाज सिंघ ने बादशाहा फर्रुखसियर को कहा था कि पिंजरे में भेड़ बकरियों को भी बंद नहीं किया जाता है। पिंजरे में तो केवल शेरों को बंद किया जाता है कारण हम जैसे शेरों ने तेरे जैसे गीदड़ खौफ खाते हैं। यदि तुम मेरी बहादुरी देखना चाहते हो तो एक बार मुझे पिंजरे से आजाद कर मेरे हाथ खोल दो, फिर मैं तुम्हें दिखाता हूं कि गुरु का सिक्ख बाज सिंघ क्या है? मैं तुम्हें भरे दरबार में तुम्हारी सेना के सामने चुनौती दे रहा हूं।
फर्रुखसियर ने अंहकार में आकर भाई बाज सिंघ की चुनौती को स्वीकार कर सोचा कि मेरे २५००० सिपाहियों की सेना के आगे इस बाज सिंघ की क्या बिसात है? अपने सैनिकों को हुक्म दिया कि बाज सिंघ को पिंजरे में से निकाल कर इसके केवल एक हाथ की हथकड़ी को खोला जाये ।
जब बाज सिंघ को पिंजरे से बाहर निकाल कर उसके एक हाथ की हथकड़ी को खोला गया तो बाज सिंघ ने बड़ी चपलता से फुर्ती दिखाते हुए पास ही खड़े सैनिक की तलवार को छीन लिया था। साथ ही जोरदार आक्रमण कर उस समय पास में मौजूद १३ सिपाहियों को मौत की गहरी नींद में सुला दिया था।
डरपोक फर्रुखसियर बाज सिंघ की शूरवीरता देखी तो अपनी २५००० की सेना के सामने उसे भागने को मजबूर होना पड़ा था। गुरु के सिक्ख बाज सिंघ ने शेर की तरह दहाड़ते हुए कहा कि ओह फर्रुखसियर तुम कहां भाग रहे हो? अभी तो तुम्हारे सैनिकों ने मेरी एक ही हथकड़ी को खोला है। अभी तो दूसरी हथकड़ी खोलना बाकी है।
फर्रूखसियर के हुकुमानुसार हजारों की मुगल सेना के द्वारा बाज सिंघ को चारों और से घेर लिया गया था। भाई बाज सिंघ ने शूरवीरता से लड़ते हुए अपनी सिक्खी सिद्क के खातिर शहीदी का जाम भी लिया था।
भाई बाज सिंघ वो ही सिक्ख,सुरमा शूरवीर था जब धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने अबचल नगर हजूर साहिब नांदेड़ की पावन पवित्र धरती से बंदा सिंघ बहादुर के साथ ५ सिक्खों को पंजाब में भेजा था, इन ५ सिक्खों में से एक भाई बाज सिंघ था। भाई बाज सिंघ वो गुरु का सिक्ख था जिसने वजीर खान को समाप्त करने के लिए भाई फतेह सिंघ से मिलकर उस पर आक्रमण किया था। इसी भाई बाज सिंघ को सरहंद फतेह करने के पश्चात सिक्ख राजधानी के प्रथम गवर्नर के रूप में नियुक्त किया गया था।
इस गुरु के सिक्ख शूरवीर योद्धा को ७ जून से लेकर ९ जून के मध्य सन् १७१६ में शहीद किया गया था। सरदार बाज सिंघ जी के तीन भाई राम सिंघ जी, शाम सिंघ जी और सुक्खा सिंघ जी ने भी ‘पंथ खालसा’ के लिए अपने जीवन की आहुति को समर्पित कर शहीदी को प्राप्त किया था। ‘पंथ खालसा’ के इस गौरवमयी इतिहास को संजो कर सहज कर रखने की आवश्यकता है। सिक्खों की इस विरासत को संभालकर – सहजकर आने वाली पीढ़ी को इस इतिहास से अवगत करवाने की आवश्यकता है।
‘पंथ खालसा’ के इन वीर सूरमाओं को सादर नमन’!
गुरु का शेर: सरदार रोशन सिंघ
यदि हम सिक्ख इतिहास को परिपेक्ष्य करें तो कई ऐसे ऐतिहासिक पहलुओं से हम अवगत होते हैं। जिनका ऐतिहासिक संदर्भों में कहीं भी उल्लेख नहीं होता है। ऐसा ही एक अनमोल – स्वर्णिम इतिहास इस लेख के माध्यम से पाठकों के समक्ष रखने का यह अभिनव प्रयास है।
औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र बहादुर शाह को उसके तख्त पर बिठाया गया था। इस बादशाह बहादुर शाह का आगरा स्थित किले में भव्य दरबार सजता था। इस दरबार में उसके सभी वजीर, अहलकार (राज दरबारी),मंत्री और राजकीय लोग इस दरबार में उपस्थित होते थे। धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को इस दरबार में आमंत्रित किया गया था।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ इस दरबार में आम लोगों की तरह या आम राजाओं की तरह उपस्थित नहीं हुए थे। गुरु जी घोड़े पर सवारी करते हुए अपने घोड़े के साथ ही इस दरबार में उपस्थित हुए थे।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ से भरे दरबार में वार्तालाप हुआ था। उस समय बादशाह बहादुर शाह की और से गुरु जी को भेंट स्वरूप कुछ वस्तुएं भी दी गई थी परंतु दरबार में उपस्थित अहलकारों (राज दरबारियों) को यह मुलाकात रास नहीं आ रही थी। इन राज दरबारियों ने एक चक्रव्यूह तैयार किया और योजना बनाई कि क्यों नहीं गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को किसी तरकीब से बादशाह बहादर शाह से दूर किया जाए? या गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ को समाप्त किया जाए।
षड्यंत्रकारी इन अहलकारों (राज दरबारियों) ने एक योजना तैयार की थी। इस योजना के तहत नगर के समीप जैजों नामक अति घना जंगल स्थित था और इस जंगल में एक खूंखार,आदमखोर, बब्बर शेर रहता था। इस आदमखोर शेर ने कई लोगों को शिकार कर मार दिया था और कई लोगों को गंभीर रूप से जख्मी भी किया था। जो भी शिकारी इस आदमखोर शेर का शिकार करने गया वो कभी वापस जिंदा नहीं आया था।
इन अहलकारों ने सुन रखा था कि धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ भी उत्तम शिकारी हैं और वो कई शेरों का शिकार भी कर चुके हैं। इन षड्यंत्रकारी अहलकारों ने अपने चक्रव्यू के अंतर्गत योजना बनाई कि हम गुरु जी को शेर के शिकार के लिए प्रोत्साहित कर, बहाने से जैजों के जंगल में भेज देंगे और जब गुरु जी स्वयं शेर का शिकार हो जाएंगे तो हमारे बदले का मंसूबा अपने आप ही पूरा हो जाएगा।
जब अगले दिन बादशाह बहादुर शाह का दरबार सजा और भरे दरबार में इन अहलकारों ने अपनी योजना के तहत बहुत ही चालाकी से बादशाहा बहादर शाह को संबोधित करते हुए कहा कि, हम जानते हैं बादशाह जी की आपका गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ से बहुत स्नेह और प्यार है। हमने सुना है कि गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने अपने जीवन में स्वयं कई शेरों का शिकार किया है। इस समय हमारे जैजों के जंगल में आदमखोर शेर से आम जनता त्रस्त है। हम क्यों नहीं गुरु जी से उस शेर का शिकार करवाये?
इस प्रस्ताव को निवेदन स्वरूप में धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के समक्ष रखा गया और निवेदन किया गया कि पातशाहा जी आओ हम जंगल में चलकर शेर का शिकार करते हैं और शेर को मार कर लेकर आते हैं।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के समीप ही उनका एक सिक्ख सेवादार सरदार रोशन सिंघ खड़ा हुआ था। इस सरदार रोशन सिंघ ने हाथ जोड़कर निवेदन कर कहा कि पातशाहा जी मैं आपसे गुस्ताखी की माफी चाहता हूं। आप इस आदमखोर शेर को मारने का कष्ट ना करें। कृपा करके यह परोपकार और सेवा का मौका मुझे दिया जाए। मैं स्वयं इस जैजों के जंगल में जाकर इस खूंखार शेर का शिकार कर के लेकर आऊंगा। उपस्थित अहलकार सरदार रोशन सिंघ के प्रस्ताव से घबरा गए और कहने लगे हमने तो यह शिकार का प्रस्ताव गुरु जी के समक्ष रखा था। परंतु इनका एक आम सिक्ख सेवादार इस अत्यंत जान की जोखिम वाले कार्य को करने के लिए स्वयं ही तैयार हो गया। जबकि हमारे कई शूरवीर, सूरमा शिकारी स्वयं इस आदमखोर शेर का शिकार हो चुके हैं।
सरदार रोशन सिंघ ने गुरु जी से निवेदन किया कि गुरु पातशाहा जी आप तो केवल मुझे आज्ञा प्रदान करें। आप जी मेरी पीठ थपथपा कर मुझ पर कृपा करो तो मैं शेर के शिकार के लिए तुरंत रवाना हो जाऊंगा।
जब सरदार रोशन सिंघ जी गुरु जी से आज्ञा लेकर जंगल में रवाना होने लगे तो गुरु पातशाहा जी ने सरदार रोशन सिंघ जी को वचन करते हुए कहा कि बेटा आप ऐसा करें कि मेरा तेगा (दुधारी कृपाण) और मेरा बरछा लेकर जाओ और इन शस्त्रों की मदद से जैजों के जंगल में जाकर शेर का शिकार करो। सरदार रोशन सिंघ ने उत्तर दिया कि यदि गुरु पातशाहा जी मैं आपके शस्त्रों को लेकर शिकार पर गया तो इन दरबार के अहलकारों ने कहना प्रारंभ कर देना है कि यहां तो कोई करामात है। हो सकता है कि गुरु की कृपाण में ही कोई करामात हो। सच्चे पातशाह जी मैंने आपसे जो खंडे – बाटें का अमृत छका है (अमृत पान की विधि) मुझे इन लोगों को उस अमृत की शक्ति का परिचय देना है। पातशाह जी मैंने आपके शस्त्रों को तो लेकर नहीं जाना है और तो और मैं अपनी कृपाण और बरछे को भी यहीं आपके पास छोड़ कर जाऊंगा। मैं बिना शस्त्रों की मदद से इस आदमखोर शेर का शिकार करके वापस आऊंगा। सरदार रोशन सिंघ के इस आत्मविश्वास और जज्बे की गुरु पातशाहा जी ने भूरी – भरी प्रशंशा की थी।
गुरु पातशाह जी से आज्ञा प्राप्त कर सरदार रोशन सिंघ शेर के शिकार के लिए जब जंगल में रवाना हुए तो उन्होंने अपने ऊपर एक मोटा कंबल ओढ़ लिया था और एक हाथ में मोटा लकड़ी का डंडा (सोटा) पकड़ लिया था। इस तरह के लकड़ी के सोटे को निहंग सिंघ ‘सलोतर’ शब्द से भी निरूपित करते हैं।
जब जंगल में आदमखोर शेर से टक्कर हुई तो सरदार रोशन सिंघ ने निडरता से उस शेर से मुकाबला करने के लिए तैयार थे। एक और खूंखार, आदमखोर और बब्बर शेर खड़ा था तो दूसरी ओर धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ का शेर डटकर मुकाबला करने के लिए तैयार – बर – तैयार खड़ा था। जब इस आदमखोर शेर ने घात लगाकर सरदार रोशन सिंघ पर हमला किया तो रोशन सिंघ ने बहुत ही चपलता और फुर्ती से स्वयं पहने हुए कंबल को शेर के ऊपर डाल दिया था। उस लकड़ी के सोटे (टंबे) से उस आदमखोर शेर के सर और जबड़े पर कई घातक प्रहार किए और बहुत ही बहादुरी का परिचय देते हुए उस आदमखोर शेर का शिकार कर उसे वहीं ढे़र कर दिया था।
सरदार रोशन सिंघ ने अपने कमर कस्से (कमर को मजबूती से बांधकर रखने वाला विशिष्ट प्रकार का कपड़ा) से उस शेर की अगली दोनों टांगों को बांध लिया और उस मृत शेर को आगरे के किले में बादशाह के दरबार में घसीटते हुए लाकर पटक दिया था। सरदार रोशन सिंघ के इस हौसले और बहादुरी को देखकर धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी अत्यंत प्रसन्न हुए थे।
उस समय बादशाह बहादर शाह ने सरदार रोशन सिंघ को इनाम देने की पेशकश की तो सरदार रोशन सिंघ ने उत्तर दिया था कि बादशाह जी हमें भौतिकी इनामों की आवश्यकता नहीं है। हमारे लिए तो गुरु जी की कृपा दृष्टि और मेहर ही बहुत है। गुरु पातशाह जी के द्वारा हमारी पीठ को थपथपाना ही सबसे बड़ा इनाम है।
बेमिसाल है गुरु के सिक्ख सेवादारों की विरासत। हमारी आने वाली पीढ़ियों ने इस विरासत को पहचान कर, समझ कर और संजो कर रखने की आवश्यकता है। इसी तरहां का अनमोल – स्वर्णिम और कौम को जागृत करने वाले इतिहास से समय – समय पर पाठकों को रू – बरू करवाया जाएगा।
संत - सिपाही: खालसा
असि क्रिपान खंडो खड़ग तुपक तबर अरु तीर॥
सैफ सरोही सैहथी यहै हमारै पीर॥
(शशत्र नाम माला)
करुणा, कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने उस समय के सभी प्रचलित शस्त्रों का इस पद्य में वर्णन कर उन्हें पीर अर्थात प्रभु, परमात्मा, ईश्वर की उपाधि से सुशोभित किया है।
सिक्ख धर्म में शस्त्रों का प्रचलन ६ वीं पातशाही गुरु ‘श्री हरगोबिंद साहिब जी’ के समय से ही प्रारंभ हो गया था। आप भी हमेशा दो कृपाण रखते थे और उन्होंने इन दो कृपाणों को मीरी – पीरी की संज्ञा से संबोधित कर सिक्खों को संत – सिपाही के रूप में देश और धर्म की रक्षा के लिए जागरूकता प्रदान की थी।
संत – सिपाही की इसी प्रथा को दशमेश पिताब गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ महाराज ने अप्रैल सन् १६९९ को श्री आनंदपुर साहिब में खंडे़ – बांटे का अमृत पान पांच प्यारों को करवा कर खालसा का अभिनव रूप दे दिया था। साथ ही खालसे को पंच कंकार धारण कर संत – सिपाही के रूप में सजा दिया और स्वयं भी इन पंज प्यारों से अमृत पान कर एक रूप हो गये।
खालसा साजना दिवस से ही सिक्ख धर्म में शस्त्रों को ईश्वर रूप मानकर सुशोभित किया गया और कृपाण को पंच ककारों में शामिल कर गुरु जी ने स्वयं के शस्त्र प्रेम को प्रदर्शित किया।
उस समय में सिक्ख धर्म में ‘गतका’ यानिकी सिक्खों के मार्शल आर्ट (युद्ध करने की कला) की परंपरा भी प्रारंभ हुई थी। इस ‘गतका’ विद्या में सिक्ख बच्चों को आत्मविश्वास, चपलता,फुर्ती, एकाग्रता,बहादुरी और टीम वर्क की सिखलाई धार्मिक रवायतों के अनुसार दी जाती है।
इस ‘गतका’ विद्या से सिक्ख कृपाण, चक्र और अलग – अलग शस्त्रों को बखूबी चलाना सीख जाते हैं। वीरता और साहस की निशानी कृपाण को सिक्ख हमेशा साथ में रखते हैं। कृपाण को आत्मरक्षा और जुल्म को मिटाने के लिए रखा जाता है। प्रत्येक सिक्ख को जुल्म के खिलाफ लड़ने का जज्बा और आत्मविश्वास कृपाण प्रदान करती है। सिक्खों के मार्शल आर्ट ‘गतका’ विद्या ने भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रतीक कृपाण के व्यतिरिक्त अनेक शास्त्रों की उत्पत्ति की है, जिसमें से एक शस्त्र है चक्र !
सिक्खों की ‘गतका’ विद्या में चक्र का विशेष महत्व है। चक्र शस्त्र को गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने आप सिक्खों के दुमाले (दस्तार) के ऊपर सजाया था।
चक्र शस्त्र दिखावे के लिए नहीं था। यदि कोई दुश्मन पीछे से सिर पर प्रहार करें तो उस प्रहार को बचाने के काम में आता था यह दुमाले के ऊपर स्थित चक्र शस्त्र !
साथ ही चक्र शस्त्र को तर्जनी उंगली में या हाथ से घुमाकर शत्रु के ऊपर घातक प्रहार किया जाता है । इस महत्वपूर्ण शस्त्र ने कई युद्धों का पासा पलटा है और सिक्ख योद्धाओं ने भी इस शस्त्र चक्र का बखूबी युद्धों में उपयोग कर शत्रु सेना में हा – हा कार मचाया है। चक्र की महिमा व उपयोगिता को समझने के लिए एक अनछुआ ऐतिहासिक प्रसंग है। इसे हमारी आने वाली पीढ़ी को जरूर बताना चाहिये।
सन् १७५७ में विदेशी आक्रांता अहमदशाह अब्दाली ने जब ‘श्री हरमंदिर साहिब अमृतसर’ पर हमला किया था और उस समय शहीद बाबा दीप सिंघ जी अब्दाली की सेना से मुकाबला करने हेतु दरबार साहिब अमृतसर जा रहे थे तो रास्ते में गोहरवड़ नामक स्थान पर जो घमासान युद्ध हुआ। उस युद्ध में चक्र नामक शस्त्र का उपयोग बेहतरीन तरीके से किया गया था।
उस युद्ध में अब्दाली का सिपहसालार जबरदस्त खान हाथी पर सवार होकर सिक्ख सेना पर निरंतर प्रहार करके बहुत नुकसान पहुंचा रहा था। इस युद्ध में कुछ सिक्ख पैदल और कुछ सिक्ख घोड़ों पर बैठकर घमासान युद्ध कर रहे थे। सिक्ख सैनिक ज्यादा कर के पैदल ही चल रहे थे। जबरदस्त खान ने हाथी पर सवार होकर तीखे प्रहार कर गई सिक्खों को शहीद किया था।
जबरदस्त खान का पलड़ा भारी होता जा रहा था। ऐसे कठिन समय में घोड़े पर सवार सिक्ख सिपहसालार बाबा बलवंत सिंघ जी इस जबरदस्त खान से युद्ध के मैदान में लोहा ले रहे थे। जबरदस्त खान के कई प्रहारों को सहन कर बाबा जी अपने घोड़े को थोड़े अंतर पर ले गये एवं जब वापस घूमकर जबरदस्त खान के सामने आये तो उन्होंने अपने दुमाले से शस्त्र चक्र को निकालकर बड़ी चपलता से उस चक्र से जबरदस्त खान के ऊपर अनोखा प्रहार किया।
इस चक्र का प्रहार इतना घातक था कि हाथी पर सवार जबरदस्त खान का सिर धड़ से अलग हो नीचे गिर पड़ा और खून के फव्वारे बह निकले। इस युद्ध में जबरदस्त खान का भाई रुस्तम खान भी लड़ रहा था। उसने बाबा बलवंत सिंघ जी को ललकारते हुये कहा की तुम यदि गुरु के सिक्ख हो तो तुम्हें दूर से प्रहार नहीं करना चाहिये, तुम मेरे सामने आकर आमने – सामने का युद्ध करो!
बाबा जी ने रुस्तम खान की ललकार को स्वीकार कर रुस्तम खान के सामने घुड़सवारी करते हुये आ गये एवं बाबा जी ने रुस्तम खान से कहा कि पहले तुम प्रहार करो कारण तुम्हारे दिल में यह अरमान नहीं रहना चाहिये कि तुम प्रहार नहीं कर सके, जब रुस्तम खान ने प्रहार किया तो बाबा जी उसे सफाई से बचा गये और जब बाबा बलवंत सिंघ जी ने अपनी तेग से जोरदार प्रहार कर प्रतिवार किया तो रुस्तम खान का सिर उसके धड़ से अलग हो गया था। बाबा बलवंत सिंघ जी का यह प्रहार इतना खतरनाक था कि उससे बचना नामुमकिन था।
बाबा बलवंत सिंघ जैसे योद्धाओं ने अपनी वीरता से पंथ खालसा का परचम लहराया है। बाबा बलवंत सिंघ जी की याद में गुरुद्वारा बैर साहिब ग्राम चब्बा वरपाल जिला अमृतसर में स्थित है। बाबा बलवंत सिंघ जी की माता जी का नाम आशा कौर एवं पिता जी का नाम सरदार तेजा सिंघ था। आप जी पंजाब के ग्राम निहाल सिंघ वाला के निवासी थे।
मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले ऐसे वीर सूरमा बाबा बलवंत सिंघ जी को शतश: नमन !

शीश तली पर रखकर प्रण पूरा करने वाला सूरमा: शहीद बाबा दीप सिंघ जी
जु लरै दीन के हेत सुरा सोई… सुरा सोई॥
गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ॥
खेतु जु माँडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ॥
सुरा सो पहचानिऐ जु लरै दिन के हेत॥
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू ना छाडै खेतु॥
जु लरै दीन के हेत सुरा सोई… सुरा सोई ॥
(अंग क्रमांक ११०५)
अर्थात् वो ही शूरवीर योद्धा है जो दीन दुखियों के हित के लिए लड़ता है। जब मन – मस्तिष्क में युद्ध के नगाड़े बजते हैं तो धर्म योद्धा निर्धारित कर वार करता हैं और मैदान – ए – जंग में युद्ध के लिए ‘संत – सिपाही’ हमेशा तैयार – बर – तैयार रहता हैं। वो ‘संत – सिपाही’ शूरवीर हैं, जो धर्म युद्ध के लिए जूझने को तैयार रहते हैं। शरीर का पुर्जा – पुर्जा कट जाए परंतु आखरी सांस तक मैदान – ए – जंग में युद्ध करता रहता हैं।
भक्त कबीर जी द्वारा रचित यह बाणी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में ‘मारू राग’ के अंतर्गत अंकित है। वीर रस से ओत – प्रोत इस ‘शबद’ (पद्य) जैसी रचनाओं से प्रेरित होकर जो ‘संत – सिपाही’, धर्म योद्धा, ‘देश – धर्म’ की रक्षा के लिए और जुल्मों के खिलाफ लड़ते हुए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर वीर गती को प्राप्त होता है, वो ‘शहीद’ कहलाता है।
धन्य – धन्य शहीद बाबा दीप सिंघ जी का जन्म २६ जनवरी सन् १६८२ को ग्राम पहुविंड जिला अमृतसर में हुआ था। आप की माता जी का नाम माता जिऊनी और पिता का नाम भगतु जी था। आप जी को दीपा के नाम से संबोधित किया जाता था। युवावस्था में आप जी को उनके माता – पिता सन् १६९९ में धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के दर्शन – दीदारें करने हेतु श्री आनंदपुर साहिब में लेकर आए थे। युवक दीपा ने खंडे – बांटे का अमृत छककर (अमृत पान कर) गुरु जी के तैयार – बर – तैयार दीप सिंघ नाम से सिंघ सज गए थे।
गुरु सिक्खी को जीवन का सूत्र मानकर आपने अपने माता-पिता की आज्ञा से स्वयं के जीवन को गुरु चरणों में समर्पित कर दिया था। युवक दीप सिंघ ने धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ जी’ के सानिध्य में रहते हुए अपनी रुचि अनुसार घुड़सवारी और शस्त्र विद्या में निपुणता प्राप्त की थी। साथ ही आप जी संस्कृत, ब्रजभाषा और गुरुमुखी की शिक्षाओं को ग्रहण कर उच्च शिक्षित हो गए थे।
गुरु जी की आज्ञा अनुसार आप जी गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर अपने परिवार के साथ जीवनयापन करने लगे थे। कुछ समय पश्चात आपको खबर मिली कि मुगलों से युद्ध करते हुए गुरु जी शहीद हो गए है परंतु पश्चात ज्ञात हुआ कि यह खबर झूठी है और आप जी धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के दर्शनों के लिए साबो की तलवंडी नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस स्थान पर बाबा दीप सिंघ जी ने गुरु जी के चरणों में शीश रखकर हुए युद्ध में शामिल ना होने के कारण दिल से माफी मांगी थी। गुरु जी ने बाबा दीप सिंघ जी को गले लगा कर दूसरे महत्वपूर्ण कार्यों को पूर्ण करने हेतु प्रोत्साहित किया था।
इस साबो की तलवंडी (तख्त दमदमा साहिब जी) नामक स्थान पर उन दिनों में गुरु जी भाई मनी सिंघ जी से धन्य – धन्य गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की पुनर्रचना करवाकर संकलित कर रहे थे। इस समय धन्य – धन्य गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब साहिब जी’ में धन्य – धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ द्वारा रचित गुरु बाणीयों को भी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित कर पूर्ण रूप से संकलित करवाने का महत्वपूर्ण कार्य धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के द्वारा किया जा रहा था। उस समय ૪८ सिक्खों को गुरबाणी कंठस्थ करवाई गई थी और उन सिक्खों में से एक भाई दीप सिंघ जी भी थे।
धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने साबो की तलवंडी से प्रस्थान किया तो इस गुरमत के प्रमुख विद्यालय केंद्र के प्रमुख के रूप में आप जी ने बाबा दीप सिंघ जी को मनोनीत किया था और गुरु जी ने वचन किए थे कि भविष्य में इस स्थान को सिक्खों की काशी के रूप में सम्मान प्राप्त होगा। गुरु जी के वचनों अनुसार बाबा दीप सिंघ जी ने इस गुरमत के प्रमुख विद्यालय केंद्र को दमदमी टकसाल के नाम से निरूपित किया था।
सन् १७०९ में भाई दीप सिंघ ने बाबा बंदा सिंघ बहादर जी की फौज में शामिल होकर सरहिंद फतेह के समय युद्ध के अग्रिम मोर्चे पर रहकर अभूतपूर्व शौर्य का प्रदर्शन कर निश्चय कर अपनी जीत को हासिल किया था ।
सन् १७५६ में जब चौथी बार देश में आक्रांता अहमद शाह अब्दाली ने आक्रमण किया तो पूरे देश में लूट मार कर भारत की बहन, बेटियों को कैद कर जब वो पुनः काबुल जा रहा था तो उस समय बाबा दीप सिंघ जी द्वारा निर्मित मिस्सल शहीदां की नामक फौजी टुकड़ी ने गोरिल्ला युद्ध के अनुसार पीपली और मार्कंडेय नामक घने जंगलों में शत्रु सेना पर अचानक आक्रमण कर लगभग ३०० देश की बहन बेटियों को आजाद करवा कर सुरक्षित उन्हें उनके घरों तक पहुंचाने का अभूतपूर्व पराक्रम वाला कार्य किया था। साथ ही देश की मूल्यवान पशु संपदा और धन – दौलत को भी इस आक्रांता अहमद शाह अब्दाली की सेना से पुनः छुड़वा लिया था। उस समय इन ३०० बहन बेटियों में से कई मुस्लिम परिवार की बेटियां भी थी परंतु किसी भी प्रकार का भेदभाव ना करते हुए इन समस्त देश की बेटियों को उनके घरों में सुरक्षित पहुंचाया था। सिक्खों के उच्च चाल – चलन और चरित्र के कारण ही उस समय मुस्लिम बेटियां बाबा जी से गुहार लगाती थी:-
मोहड़ी बाबा कच्छ वालीआं नही ते गई रण वसरे नु॥
जब अफगानी आक्रांता जहान खान ने श्री दरबार साहिब जी पर आक्रमण करने का मनसुबा बना लिया था तो उस समय बैसाखी का पर्व समीप ही था। १३ अप्रैल सन् १७५७ को गुरु के खालसे बैसाखी पर्व को मनाने हेतु श्री दरबार साहिब में एकत्रित हो रहे थे तो उस समय एक बड़ी, विशाल फौज की सहायता से जहान खान ने लाहौर से कुच कर श्री दरबार साहिब अमृतसर पर आक्रमण कर दिया था। उस समय कई सिक्खों के युद्धक जत्थे देश में अलग – अलग मुहिमों के तहत अलग – अलग स्थानों पर गए हुए थे। इस कारण जहान खान की इस विशाल सेना का सिक्ख योद्धा मुकाबला करने में कमजोर पड़े थे और बहुत सारे सिक्ख योद्धा इस युद्ध में शहीद हो गए थे। जहान खान ने श्री दरबार साहिब पर कब्जा कर लिया था।
इस अफगानी आक्रांता जहान खान ने दरबार साहिब के पवित्र सरोवर में कचरा फिकवा दिया था और गायों की हत्या कर उनके सिरों को काटकर दरबार साहिब के मुख्य कक्ष में रखवा दिया था। जिससे इस पवित्र वातावरण में दुर्गंध फैल गई थी,उस समय श्री दरबार साहिब में कई भवनों को भी ध्वस्त कर दिया गया था। इस जहान खान ने हाहाकार मचाते हुए श्री दरबार साहिब के चारों और अपनी सेना को तैनात कर दिया था।
जब इस घटना की सूचना बाबा दीप सिंघ जी को प्राप्त हुई तो वो अत्यंत आक्रोशित हो गए थे और नगाड़े बजाकर युद्ध करने के लिए तैयार – बर – तैयार होने का संकेत सिक्ख योद्धाओं को दिया था।
इस साबो की तलवंडी पर सिक्ख योद्धा इकट्ठा होना प्रारंभ हो चुके थे। इन योद्धाओं के सम्मुख उपस्थित होकर बाबा जी ने हुंकार भर के वचन दिए कि श्री दरबार साहिब जी को मुक्त करा करने हेतु हमें धर्म युद्ध करना होगा और श्री दरबार साहिब जी की बेइज्जती का बदला अवश्य लिया जाएगा। मृत्यु को गले लगाने हेतु शहीदों की बरात जरूर निकलेग। इस शहीदों की बरात में शामिल होने के लिए केसरी बाना और शस्त्रों के साथ तैयार – बर – तैयार हो जाओ।
देखते ही देखते बोले सो निहाल, सत श्री अकाल! के जयकारों के साथ धर्म की शमा पर मर मिटने वाले शहीद परवानों ने शहीदी का जाम पीने हेतु अपनी कमर पर कमरकस्सा, कस कर बांध लिया था। आसपास के समस्त ग्रामों में इस धर्म युद्ध की सूचना दे दी गई थी। चारों और से सिक्ख योद्धा पूरी तैयारी के साथ एकत्र होना प्रारंभ हो गए थे।
जब यह मीस्सल शहिदां नामक युद्धक दस्ता आक्रमण के लिए तैयार हो गया तो बाबा दीप सिंघ जी ने अपने खंडे़ से जमीन पर एक लकीर को खींच दिया था और हुंकार भरते हुए कहा कि इस युद्धक दस्ते में वो सिक्ख योद्धा ही शामिल हो सकते हैं जो मृत्यु या फतेह की कामना करते हैं। यदि हम श्री दरबार साहिब को आजाद नहीं करवा पाए तो इस रणभूमि में हमारे द्वारा वीरगति को पाना निश्चित है और हम अपने प्राणों की आहुति को गुरु चरणों में न्योछावर कर देंगे। साथ ही सभी सिक्ख योद्धाओं के सम्मुख बाबा दीप सिंघ जी ने वचन किए कि मैं कसम खाता हूं कि मैं अपने शीश को गुरु चरणों में अर्पित करूंगा और यदि कोई योद्धा मृत्यु से घबराता है तो वो अभी पुनः वापस जा सकता है। जो मृत्यु को आलिंगन करना चाहते हैं वो इस खंडे के द्वारा खींची गई लकीर के पार आकर हमारे साथ आक्रमण के लिए आ सकते हैं। लकीर के इस तरफ या उस तरफ के वचन सुनकर ५०० योद्धाओं ने प्रण लेकर बाबा दीप सिंघ जी के साथ युद्ध के लिए कुछ कुच किया था।
उस समय बाबा जी की आयु ७५ वर्ष से भी ज्यादा थी और जब इस जत्थे ने अमृतसर की और प्रयाण किया तो रास्ते में अलग – अलग सिक्ख योद्धा अलग – अलग ग्रामों से इनके साथ इस शहीदों की बरात में शामिल हो रहे थे। जब यह जत्था तरनतारन नामक स्थान पर पहुंचा तो इस जत्थे में ५००० के लगभग सिक्ख योद्धा शामिल हो चुके थे।
अफगान आक्रांता जहान खान को जब ज्ञात हुआ कि सिक्ख योद्धा हमला करने हेतु आ रहे हैं तो वो अपनी बीस हजार की फौज के साथ अमृतसर शहर के बाहर ग्रोवल नामक स्थान पर पहुंच गया। सिक्ख योद्धा जो कि दरबार साहिब की बेइज्जती के लिए इस युद्ध को जान की बाजी लगाकर लड़ रहे थे। इन योद्धाओं के सम्मुख लूटमार करने वाली मुगल सेना के किराए के सैनिक कहां टिक पाते? इस भीषण युद्ध में सिक्खों का पलड़ा भारी था। मुगल सैनिकों ने अपनी जान बचाकर भागना ही उत्तम समझा था।
सिक्ख योद्धा भाई दयाल सिंघ अपने ५०० साथियों के साथ शत्रु सेना को चीरते हुए, जहान खान पर टूट पड़े थे परंतु जहान खान वहां से पीछे हट गया था। उस समय भाई दयाल सिंघ का सामना उसके सिपहासालार याकूब खान से हो गया था। भाई दयाल सिंघ जी ने गुरु जी गदा नामक शस्त्र से ऐसा अचूक वार किया कि याकूब खान जगह पर ही ढेर हो गया था। दूसरी और जहान खान का प्रमुख फौजदार जमाल खान ने आगे से होकर बाबा दीप सिंघ को ललकार कर आक्रमण कर दिया था और घमासान युद्ध हुआ था। बाबा जी का घोड़ा बुरी तरह जख्मी हो चुका था, बाबा जी पैदल युद्ध के मैदान में आगे बढ़ने लगे थे। जमाल खान और बाबा दीप सिंघ दोनों ने अपने शस्त्रों से एक दूसरे पर घातक वार किए थे। इस घातक वार से दोनों के ही सिर धड़ से अलग हो गए थे। दोनों और की सेनाएं इस दृश्य को अचंभित होकर देख रही थी। पास ही खड़े भाई दयाल सिंघ ने उंची आवाज में वचन किए:-
प्रण तुम्हारा दीप सिंघ रहयो॥
गुरपुर जास सीस मै देहऊ॥
मे ते दोए कोस इस ठै हऊ॥
अर्थात बाबा दीप सिंघ जी आपका प्रण तो गुरु नगरी में जाकर शीश देने का था परंतु वो तो अभी दो कोस दूर है।
यह सुनते ही बाबा दीप सिंघ जी उठ खड़े हुए अपने आत्म बल से अपना कटा हुआ शीश हथेली पर रखकर दूसरे हाथ से खंडा चलाते हुए ऐसा भीषण युद्ध किया कि शत्रु सेना में हाहाकार मच गया। मुगल सैनिक कहने लगे कि हम जिंदा सिक्खों से तो युद्ध कर सकते हैं परंतु शीश तली धर कर युद्ध करने वाले योद्धा से हम युद्ध नहीं कर सकते हैं। बाबा जी खंडे को चलाते हुए श्री दरबार साहिब पहुंचे और उन्होंने इस युद्ध पर विजय हासिल कर अपनी बेइज्जती का बदला ले लिया था। बाबा दीप सिंघ जी ने गुरु दरबार में पहुंचकर अपना शीश अर्पित कर अपनी कसम को निभाते हुए शहीदी पाई थी। साथ ही अनेक सिक्ख योद्धा इस युद्ध में शहीद हुए थे।
प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। अपनी कसम को निभाने हेतु आत्मबल से सीमा में रहकर अपने प्रण को बाबा दीप सिंघ जी ने पूरा कर श्री दरबार साहिब की बेइज्जती का बदला ले लिया था।
बाबा दीप सिंघ जी का अंतिम संस्कार श्री अमृतसर नगर में चाटीविंड दरवाजे के पास गुरुद्वारा रामसर साहिब के निकट किया गया था। वर्तमान समय में इस पवित्र स्थान पर गुरुद्वारा श्री शहीद गंज साहिब जी सुशोभित है। बाबा दीप सिंघ जी ने श्री हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब की परिक्रमा में जहां शीश अर्पित किया था, उस स्थान पर भी वर्तमान समय में आप जी की स्मृति में गुरुद्वारा साहिब सुशोभित है। बाबा दीप सिंघ जी का खंडा ‘श्री अकाल तख्त साहिब जी’ में सुशोभित है।
इस अनमोल – स्वर्णिम इतिहास को याद कर, पंथ खालसा का ऐसा सूरमा जिसने मातृभूमि की रक्षा हेतु अपने शीश को तली पर रख अपने प्रण को पूरा किया था। पंथ खालसा के ऐसे शहीद महान योद्धा बाबा दीप सिंघ जी को सादर नमन!

गुरु के सिंघ और अब्दाली
१૪ जनवरी सन् १७६१ को मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ और अहमद शाह अब्दाली के बीच पानीपत का युद्ध हुआ था। भारत के इतिहास का सबसे ‘काला दिन’ था। इस युद्ध में मराठा साम्राज्य के सभी महान योद्धा मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। इस युद्ध में भाऊ सदाशिवराव, शमशेर बहादुर सिंग, इब्राहिम खान गार्दी, विश्वास राव, जानको जी सिंधिया और हमारे हजारों मराठा वीर ‘शहीद’ हुए थे। इस युद्ध के बाद स्वयं अहमद शाह ने मराठों की शुरवीरता के लिए उनकी प्रशंसा की थी और उन्हें भारत माता का सच्चा सपूत ‘देशभक्त’ कहा था।
यह एक ऐसा युद्ध था की महाराष्ट्र के हर घर का सपूत इस युद्ध में ‘शहीद’ हुआ था। इतिहासकार मानते हैं कि इस युद्ध में अहमद शाह अब्दाली विजय हुआ था परंतु सही विश्लेषण किया जाए तो इस युद्ध में अहमद शाह अब्दाली की सबसे बड़ी पराजय हुई थी। इस युद्ध के बाद भारत भूमि पर पुनः पैर रखने की उसकी हिम्मत नहीं हुई थी। अहमद शाह ने स्वयं १० फरवरी सन् १७६१ को एक पत्र लिखकर बालाजी बाजीराव को लिखा था कि आप दिल्ली के सिहासन पर राज्य करें मैं पुनः इस धरती पर पैर नहीं रखूंगा और वो वापस चला गया था।
जब अहमद शाह अब्दाली वापस अफगानिस्तान जा रहा था तो इस देश की २२०० स्त्रियों को युद्ध में जीत कर अपने साथ लेकर जा रहा था। इस कठिन समय कोई ऐसा सूरमा नजर नहीं आ रहा था कि जो अहमद शाह अब्दाली से इन अबला स्त्रियों को बचा सके। जब यह खबर जंगलों में रहने वाले सिक्खों को मिली तो इन सिक्खों ने अब्दाली की सेना पर गोरिल्ला युद्ध की नीति को अपनाते हुए आक्रमण कर इन स्त्रियों को बचाया ही नहीं अपितु हर एक स्त्री को सम्मान पूर्वक उनके घरों तक पहुंचाने का कार्य भी किया था। उस समय सिक्खों के इस किरदार को इस तरह वर्णित किया गया था:-
रन गई वसरे नु गई, मोरिह वे बाबा काश वालीया॥
अब्दाली को जब यह पता चला तो उसने फरमान किया कि यह सिक्ख कौन है? जो मेरी सेना का सामना करने का साहस रखते हैं। ऐसे इन सिक्खों को पकड़कर मेरे सामने पेश किया जाए। इस आदेशानुसार उस समय सिक्खों की धरपकड़ शुरू हुई तो लाहौर के पास ‘कान्हा काशा’ ग्राम के निवासी दो सिक्ख भाइयों को जब इसकी जानकारी मिली कि अब्दाली ने मारकाट मचा रखी है तो इन दोनों सिक्ख भाइयों ने अपने किसानी काम को छोड़कर शस्त्र धारण कर लिए और अपने ८ साथियों को लेकर यह दल अब्दाली का सर काटने हेतु चल पड़ा। इन दो सिक्खों का नाम था भाई हाठु सिंघ और भाई बागड़ सिंघ था। इस दल को अब्दाली के फौजदार बुलंद खान ने रास्ते में रोक लिया और पूछा तुम कौन हो? और कहां जा रहे हो? तो इन सिक्खों ने गर्जना करते हुए अपना नाम बताया कि हम गुरु के सिंघ हैं और कहा कि हम अब्दाली का सर काटने जा रहे हैं तुरंत मुगल सेना ने इस दल को घेर लिया और हाठु सिंघ,बागड़ सिंघ को गिरफ्तार कर अब्दाली के सामने पेश किया गया। इन भाइयों के हाथों में हथकड़ी और पैरों में बेड़ीयां लगी हुई थी। गले में लोहे की मोटी जंजीर को डाल कर बांधा गया था।
अब्दाली उन्हें देखकर कहने लगा यह सिक्ख है! ऐसा क्या खास है? इन सिक्ख, सुरमाओं में, हाठु सिंघ ने आगे बढ़कर कहां हां हम ही गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ जी महाराज के सिंघ – सूरमा , योद्धा है।
अब्दाली ने इन दोनों भाइयों से कहा कि तुम अपने आपको सिघं कहलाते हो तो क्या तुम शेर के साथ युद्ध कर सकते हो? हाठु सिंघ ने ललकारते हुए कहा कि तुम मुकाबला कराके देख सकते हो। अहमद शाह अब्दाली ने कहा कि शेर से तो तुम्हारा मुकाबला बाद में होगा पहले तुम मेरे पठान पहलवान रुस्तम खान से मुकाबला करो।
रुस्तम खान माना हुआ ताकतवर पहलवान था। हाठु सिंघ और बागड़ सिंघ ने रुस्तम खान के साथ मुकाबला किया और उसे पटखनी देते हुए अपने घुटनों से दबा दिया था। अब्दाली ने कहा कि ठीक है तुमने मेरे पहलवान को तो परास्त कर दिया परंतु तुम वाकई सिंघ हो तो शेर से मुकाबला कर के दिखाओ, हाठु सिंघ को भूखे शेर के पिंजरे में बंद कर दिया गया। इतिहास में आता है कि पिंजरे में बंद उस शेर से हाठु सिंघ ने घमासान मुकाबला किया और उसका जबडा़ फाड़ के उस शेर की जुबान खींच ली थी और ‘शेर को ढ़ेर’ कर दिया था। अब्दाली का मन अभी भी नहीं माना तो उसने हाठु सिंघ और बांगड़ सिंघ भाइयों को खूनी हाथी के सामने फिकवा दिया। जब खूनी हाथी ने हाठु सिंघ के ऊपर अपना पैर रखना चाहा तो हाठु सिंघ ने गर्जना करते हुए ‘बोले सो निहाल, सत श्री अकाल ‘ का जयकारा लगाया। इस गर्जना से घबराकर खूनी हाथी पीछे हो गया। हाठु सिंघ के हाथ में अपनी कृपाण थी और उसने हाथी की सूंड पर प्रहार करने की कोशिश की थी। वैसे तो हमेशा हाथी का मुकाबला नुकिलें भालों की सहायता से किया जाता है परंतु इस मुकाबले में वीर हाठु सिंघ, खूनी हाथी का मुकाबला अपनी कृपाण से कर रहा था। हाठु सिंघ बहुत ही चपलता से हाथी के पीछे जाकर कृपाण से उसकी पूंछ को काट देता हैं। खूनी हाथी चिंघाड़ता जब हाठु सिंघ के सामने आया तो हाठु सिंघ ने कृपाण से उसकी सुंड़ पर वार कर उसकी सुंड़ के दो टुकड़े कर दिये थे। एवं साथ ही साथ हाथी के पैरों पर लगातार वार कर खूनी हाथी को धराशायी कर दिया था।
अहमद शाह अब्दाली उठ कर खड़ा हो गया और कहने लगा कि मैं तुम्हारी शुर वीरता से प्रसन्न हूं। तुम मेरी फौज में भर्ती हो जाओ तुम जो चाहोगे मैं तुम्हें दूंगा। मैं नहीं जानता था कि गुरु के सिंघ इस तरह से शूरवीर होते हैं।
हाठु सिंघ और बांगड़ सिंघ ने कहा गुरु के सिंघ कभी किसी के आगे बिकते नहीं हैं और गुरु के सिंघ केवल गुरु के लिए ही लड़ते हैं। अब्दाली को बहुत क्रोध आया उस समय का इतिहास में इस तरह से वर्णन किया गया है:-
तबै साहे सो गुस्सा खाये, दुजे हाथी टंग दुजी बंधाई॥॥रहाउ॥
दोऊ वल दोऊ गज लागे, सिंघ मध दियो बंधाये।।
दयो चिराये इम रो बरो,साहे सो गुस्सा खाये॥
दोनों सिक्खों को अर्थात हाठु सिंघ और बांगड़ सिंघ को तुरंत सेना द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। इन दोनों को दो हाथियों से इनकी अलग – अलग दोनों टांगों को बांधकर दोनों हाथियों को विरुद्ध दिशा में चलाया गया और दोनों सिक्खों को चीरकर शरीर के दो टुकड़े कर ‘शहीद ‘कर दिया गया था। इन दोनों के सिंघों ने साबित कर दिया कि उनके नाम के आगे यदि सिंघ लगा है तो वह शेरों के जैसी बहादुरी और ताकत भी रखते हैं।
धन्य है गुरु के सिंघ और धन्य है उनकी ‘शहीदी’ !
अजय सिख योद्धा: सरदार हरि सिंघ नलवा
समय सन् १८३५ के लगभग का था। जब अफगानिस्तान के खायबर दर्रे में रहने वाली अफगानी मातायें अपने बच्चों में खौफ पैदा करने के लिये कहती थी कि बेटा सो जा नहीं तो नलवा आ जयेगा। इतिहास गवाह है कि खायबर दर्रा अफगानिस्तान में सिक्खों का राज था। महाराजा रणजीत सिंघ का सबसे विश्वासपात्र और बहादुर सेनापति सरदार हरि सिंघ नलवा ने यह कारनामा किया था। जिस खायबर दर्रे को आज तक कोई नहीं जीत सका उस खायबर दर्रे को ‘अजय सिख योद्धा: सरदार हरि सिंघ नलवा’ ने अपनी बहादुरी से जीत कर मिसाल कायम की थी। यूं तो भारत वीरों की धरती है और ऐसे महान वीर जो कुशल योद्धा ही नहीं अपितु देश भक्ति के साथ सभी धर्मों का सत्कार और मान – सम्मान भी करते थे। भारत के यह वीर सपूत दुश्मन के लिए कर्दन काल और दोस्तों के लिये फरिश्ता रहे हैं। इस देश की धरती ऐसे महान वीरों को जन्म देती रही है, जिनका इतिहास विश्व इतिहास के सुनहरे पटल पर अमिट मोहर है। सरदार हरि सिंघ नलवा ऐसे ही एक अजय योद्धा थे, जो केवल नाम के ही सिंघ नहीं थे अपितु उनके नाम के साथ शेर का नाम जोड़ा जाता रहा है। इस वीर ने पंजाब से लेकर अफगानिस्तान तक अपने युद्ध कौशल्य का परचम लहराया था। सरदार हरि सिंघ नलवा ऐसा सिक्ख सुरमा था की अच्छे – अच्छे सूरमा उनके नाम से खौफ खाते थे। इस अजय योद्धा के विजय रथ को रोकना असंभव था। जहां – जहां भी इन्होंने राज किया वहां की जनता अपने आप को खुशनसीब समझती थी, उनके शासनकाल को स्वर्णिम शासन काल के रूप में याद किया जाता है। इन वीरों के शासनकाल में धार्मिक,सांस्कृतिक आजादी तो थी ही और मां बेटियों के सम्मान के लिये इन्होंने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था।
सरदार हरि सिंघ नलवा का जन्म सन् १७६२ में पंजाब के गुजरावाला गांव में उप्पल परिवार में हुआ था। सरदार हरि सिंघ नलवा के दादा जी हरिदास जी ने अहमद शाह अब्दाली की सेना से युद्ध कर वीरगति प्राप्त की थी। आप जी को शुरवीरता और युद्ध कौशल्य विरासत में ही परिवार से मिला था। सरदार हरि सिंघ जी गुरसिक्ख थे एवं सिक्ख धर्म के सभी रीति – रिवाजों और धार्मिक रवायतों के साथ अपना जीवन यापन करते थे। इस कारण आप के ह्रदय में मानवता और इंसानियत की भावना शुरवीरता के साथ कूट – कूट कर भरी हुई थी।
उस समय पंजाब प्रांत में महाराजा रणजीत सिंघ का कुशल शासन था। वो ऐसे पहले महाराजा थे, जिन्होंने पूरे भारतवर्ष में एक संगठित सेना का गठन किया था और अपनी सेना की सिखलाई के लिए विदेशी जनरलों को आमंत्रित कर लगातार सेना का आधुनिकीकरण करते थे। आज भी पाकिस्तान में फ्रेंच जनरलों की कब्र हैं, जो उस समय भारत में इन सेनाओं को आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण देने आया करते थे।
महाराजा रणजीत सिंघ ने अपने शासनकाल में सेना और अवाम दोनों को विदेशी भाषाओं से भी शिक्षित किया था।
उस समय का पंजाब जिस का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान में भी है लेकिन वहां के हुक्मरानों ने इन वीरों के इतिहास को भुला दिया है परंतु हमारे देश में आज भी उस अनमोल – स्वर्णिम इतिहास की विरासत को सहेज कर रखा है। सन् १८०૪ में जब महाराजा रणजीत सिंघ ने अपनी सेना के विस्तार के लिए कई युवाओं को भर्ती किया। उस समय सरदार हरि सिंघ जी भी सेना में भर्ती हो गये। हरि सिंघ के युद्ध कौशल्य और घुड़सवारी से महाराजा रणजीत सिंघ अत्यंत प्रभावित हुये और उन्होंने अपनी सेना का सिपाहसालार बना लिया। एक बार घने जंगल में सरदार हरि सिंघ पर एक शेर ने हमला कर उनके घोड़े को मार दिया परंतु हरि सिंघ ने निडरता से शेर पर हमला कर अपनी तलवार से शेर को मार गिराया एवं शेर के जबड़े अपने हाथों से फाड़ दिये। इस घटना के बाद हरि सिंघ को ‘नलवा’ की उपाधि से सुशोभित किया गया। ‘नलवा का अर्थ है शेर की तरहां पंजों वाला’ एवम् उंहे बाघमार के नाम से भी पुकारा जाने लगा। इससे खुश होकर महाराजा रणजीत सिंघ जी ने उन्हें ८०० घुड़सवारों की सेना का सिपाहसालार बना दिया था।
सरदार हरि सिंघ नलवा कि शुरवीरता के आगे उस समय के सारे पठान नतमस्तक रहे। अपने कुशल नेतृत्व के बलबूते पर सरदार हरि सिंघ नलवा कश्मीर,पेशावर और हजारा के गवर्नर रहे थे और अपनी वीरता का परचम अफगानिस्तान के खायबर दर्रे तक फैला दिया था। हरि सिंघ नलवा एक कुशल कूटनीतिज्ञ थे और भारतवर्ष की भूमि की रक्षा के लिए उन्होंने खायबर दर्रे को अपने कब्जे में लिया था कारण इसके पहले जो भी विदेशी आक्रमण हुये थे वो सभी विदेशी आक्रांता खायबर पास दर्रे से होकर ही भारत भूमि में आये थे। इतिहास गवाह है कि खायबर पास दर्रे को कब्जे में लेने के बाद कोई भी विदेशी आक्रमण भारत की धरती पर नहीं हुआ था।
सरदार हरि सिंघ नलवा इसलिये भी अजय योद्धा कहलाते थे कि उन्होंने अपने से बड़ी – बड़ी सेनाओं को आसानी से हराकर अपनी विजय का परचम लहराया था। सरदार हरि सिंघ ने कसूर,सियालकोट, मुल्तान,अटलोक, कश्मीर, पेशावर और जम्मरूद को फतेह करने के लिये कई बड़े – बड़े युद्ध किये थे। पाकिस्तान के एक शहर का नाम हरि सिंघ नलवा के नाम से हरिपुर रखा गया था। अफसोस है कि आज पाकिस्तान हरि सिंघ नलवा की शहादत को भूल चुका है। हरि सिंघ ने खायबर दर्रे के पास जमरूद के किले का निर्माण किया था। जिसे हरि सिंघ ने अपनी सेना का मुख्यालय भी बनाया था। अफगानी पठान हरि सिंघ से बहुत खौफ खाते थे परंतु हरि सिंघ ने हमेशा पठानों की बहू – बेटियों की बहुत इज्जत की थी। इतिहास में सरदार हरी सिंघ नलवा के साथ पठान बीबी बानो का किस्सा मशहूर है।
एक बार आधी रात को पठान बीबी बानो हरि सिंघ नलवा को मिलने उनके पास गई और अभीवादन कर कहने लगी कि यह ठीक है की तुमने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये खायबर दर्रे पर कब्जा किया है परंतु तुम इतने शक्तिशाली कैसे हो? और कोई भी पठानी सेना तुम्हारे सामने क्यों नहीं टिक पाती? सरदार हरि सिंघ नलवा ने उत्तर दिया कि हम गुरु के सिक्ख इंसानियत और आवाम की भलाई के लिए लड़ते हैं। बीबी बानों ने कहा कि मैं आपके जैसा पुत्र चाहती हूं, आप मुझ से निकाह कर लो। यह सुनकर सरदार हरि सिंघ नलवा बहुत क्रोधित हुये और उन्होंने बीबी बानों से कहा कि तुम मेरा पथ भ्रष्ट करना चाहती हो, तुम यहां से चली जाओ, बीबी बानो बाहर कमरे से जाने लगी और बाहर जाते – जाते कहा कि गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ के दर से और उनके सिक्खों के दर से कोई खाली हाथ नहीं जाता परंतु मैं आज खाली हाथ जा रही हूं। सरदार हरि सिंघ नलवा ने उन्हें वापस बुलाकर सम्मान पूर्वक बिठाकर उनके ऊपर एक दुशाला उड़ा दिया और विनम्रता से कहा कि आप मेरा जैसा पुत्र चाहती हैं तो आज से आप मेरी धर्म की माता हुई और मैं आपका पुत्र ! और अपना सिर बीबी बानों के चरणों में रख दिया। बीबी बानों की आंखें डबडबा आई और उसने कहा कि मैं आज समझ गई कि आप इतने शक्तिशाली और अजय क्यों हो? और आप कोई भी जंग क्यों नही हारते? आप जैसा बेटा पाकर में धन्य हो गई हूँ।
आप धन्य है! आपकी सिक्खी धन्य है! और आपके गुरू धन्य है!
सरदार हरी सिंघ नलवा ने जमरूद के किले से शेरों की तरह राज किया। जब सन् १८३७ में महाराजा रणजीत सिंघ के पोते की शादी में शामिल होने ज्यादातर सिक्ख सैनिक किले से पंजाब की और रवाना हो चुके थे तो दुश्मनों ने मौके का फायदा उठाकर इस किले पर आक्रमण कर दिया। दुश्मनों के इस अचानक हुए हमले और दुश्मन की तादाद बहुत ज्यादा होने के पश्चात भी सरदार हरि सिंघ नलवा लगातार इन से युद्ध करते रहे। घमासान युद्ध हुआ और सरदार हरि सिंघ नलवा को वीरगति प्राप्त हुई। हरि सिंघ ने शहीद होने से पहले ही अपने सैनिकों को आदेश दिया था कि उनकी शाहदत की खबर किले के बाहर नहीं जानी चाहिये कारण दुश्मन की सेना सरदार हरि सिंघ से खौफ खाती थी। लगभग एक हफ्ते तक दुश्मन सेना की हिम्मत नहीं हुई कि वो किले में प्रवेश करें और इस एक हफ्ते के बीच सिक्ख सैनिकों के वापस आ जाने से दुश्मन सेना को मैदान छोड़कर वापस भागना पड़ा था। सरदार हरि सिंघ नलवा ने अंतिम समय तक अपनी मातृभूमि की रक्षा की थी और पंथ खालसा का परचम बुलंद रखा था।
मातृभूमि की रक्षा के लिए ‘अजय सिख योद्धा: सरदार हरि सिंघ नलवा’ का नाम इतिहास के स्वर्णिम अक्षरों में सजों कर रखा जायेगा।
‘धन्य है गुरू के सिक्ख, धन्य है उनकी मातृभूमि के लिये दी गई शहादत’!

पंज हत्था सिंघ
‘शेरे पंजाब’ महाराजा रणजीत सिंघ एक ऐसे महान बलशाली महाराजा हुए हैं कि जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त राज्य के रूप में स्थापित कर एकजुट रखा, अपितु अपने जीते जी अंग्रेजों को उनके साम्राज्य के इर्द – गिर्द फटकने भी नहीं दिया था।
महाराजा रणजीत सिंघ का साम्राज्य इसलिए इतना बलशाली था कि उनकी सेना में एक से एक बहादुर सेनानायक थे। जो सिक्ख धर्म के अनुयाई और मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे।
महाराजा रणजीत सिंघ की सेना में ऐसा ही एक महान सेनानायक था सरदार निधान सिंघ !
१૪ मार्च सन् १८૪२ ईस्वी में महाराजा रणजीत सिंघ और पश्तून जनजातियों के योद्धाओं (जिन्हें गाजी कहकर भी संबोधित किया जाता है) के बीच पेशावर घाटी पर अपने वर्चस्व के लिए नौशेरा में घमासान युद्ध हुआ था और इस युद्ध में सिक्ख सेना नायकों ने अभूतपूर्व युद्ध कौशल का परिचय देकर गाजीयों की जंगी सेना को परास्त किया था।
इस महान युद्ध का नेतृत्व स्वयं ‘शेरे पंजाब’ महाराजा रणजीत सिंग जी कर रहे थे और उनके साथ उनके सेनानायक अकाली फूला सिंघ जी, सरदार निधान सिंघ जी और साहिबजादा खड़क सिंघ जी मैदान – ए – जंग में जब सामना करने जाते हैं तो एक और ३५०० गाजीय़ों की सेना जो तोपों और बंदूकों जैसे हथियारों से लैस है, दूसरी और १५०० शूरवीर की सिक्ख सेना जो ‘शेरे ए पंजाब’ के नेतृत्व में युद्ध के मैदान में थे।
सरदार निधान सिंघ जी जो ‘शेर ए पंजाब’ के वफादार सिपाह – सालार थे जिनकी पीढ़ी दर पीढ़ीओं ने मातृभूमि के रक्षण के लिए लगातार शहिदीयां दी हैं। सरदार निधान सिंघ जी बहुत ही बलशाली आक्रमक और मैदान – ए – जंग में सबसे आगे रहने वाले वीर योद्धा थे। इस युद्ध में सरदार निधान सिंघ जी गाजीओं के घेरे को तोड़ते हुए मैदान – ए – जंग में तेजी से आगे बढ़ रहे थे। गाजियों की और से बंदूको से लगातार गोलियों की बरसात हो रही थी। एक गोली सरदार निधान सिंघ की जांघ को चीरते हुए उनके घोड़े को लगी, उसी समय सरदार निधान सिंघ जी घोड़े पर से छलांग लगाकर युद्ध के मैदान में आ गये थे और घोड़े ने जमीन पर गिरकर अपने प्राण त्याग दिये। सरदार निधान सिंघ जी ने अपने ‘खंडे’ से लगातार वार करते हुये युद्ध के मैदान में शत्रु सेना पर टूट पड़े और अनेक गाजीयों का खात्मा करते हुए लगातार आगे बढ़ते जा रहे थे।
गाजिया की सेना में खलबली मच गई थी। पांच गाजी योद्धाओं ने मिलकर एक योजना के तहत सरदार निधान सिंघ पर हमला किया। युद्ध में ललकारते हुए सरदार निधान सिंघ जी को निशाना बनाकर आक्रमण किया एवं उनकी मंशा थी कि सरदार निधान सिंघ का सर काट कर अपने पैरों तले उस कटे हुए सिर को रौंदा जाये। उस युद्ध में सरदार निधान सिंघ जी ने उन गाजीयों को ललकारते हुए कहा कि अभी तक तुमने गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ के सूरमाओं के करतब नहीं देखे हैं और एक हाथ में मजबूती से विशाल ढ़ाल को पकड़ कर दूसरे हाथ से अपने ‘खंडे’ से (जिसे तेगा भी कहा जाता है,यह एक तरह से चौड़ी दो धारी तलवार होती है।) ऐसा पैंतरा दिखाया कि पांचों गाजी एक साथ ढे़र हो गए।
इस युद्ध कौशल को ‘शेर ए पंजाब’ ने स्वयं अपनी आंखों से देखा था। जब सरदार निधान सिंघ जी उन पांच गाजीयों के शस्त्र लेकर ‘शेरे ए पंजाब’ के समक्ष हाजिर हुए तो ‘शेर ए पंजाब’ ने उन्हें गले से लगा लिया एवं उस युद्ध के मैदान में ऐलान किया कि सरदार निधान सिंघ ‘पंज हत्था सिंघ’ है। आज से सरदार निधान सिंघ को उनके ‘तखल्लस’ नाम ‘पंज हत्था सिंघ’ के नाम से जाना जाएगा।
‘शेर ए पंजाब’ ने स्वयं ‘पंज हत्था सिंघ’ के खिताब से सरदार निधान सिंघ को विभूषित किया था और उपहार स्वरूप रूपये ५००० की जागीर भी प्रदान की थी। इस युद्ध में सिक्ख सेना विजय हुई थी। गाजियों को मैदान ए जंग से भागना पड़ा था। इस लड़ाई में महान सेनानायक अकाली फूला सिंघ जी ने शहीदी का जाम पिया था।
सन् १८३२ ईस्वी में ‘शेर ए पंजाब’ के महान सेनानायक सरदार हरि सिंघ नलवा ब्रिटिश गवर्नर से मिलने जब शिमला गए थे तो उस समय ‘पंज हत्था सिंघ’ सरदार निधान सिंघ जी भी साथ में थे। गवर्नर ने सरदार हरि सिंघ नलवा से कहा कि मैं ‘पंज हत्था सिंघ’ से मिलना चाहता हूं। जब सरदार निधान सिंघ गवर्नर के सामने आए तो हष्ट पुष्ट, बलशाली,महान बली को देखकर अंग्रेज गवर्नर के पसीने छूट गए क्योंकि उनके शरीर पर चार उंगलियों जितनी जगह भी खाली नहीं थी। जगह – जगह पर घावों के निशान बने हुए थे। अंग्रेज गवर्नर ने सरदार निधान सिंघ से कहा कि अरे आपके तो केवल दो ही हाथ है ! सरदार निधान सिंघ जी ने उत्तर दिया गोरा साहिब मेरे हाथ तो दो ही हैं पर जब मैं इन दो हाथों से पांच हाथों का करतब दिखाता हूं तो दुश्मन को दूसरी दुनिया में पहुंचा देता हूं।
सरदार निधान सिंघ जी बहुत ही हाजीर जवाब थे। जब ब्रिटिश गवर्नर ने उनसे पूछा कि ‘शेरे ए पंजाब’ की कौन सी आंख छोटी है? ‘पंज हत्था सिंघ’ ने बहुत ही खूबसूरती से जवाब दिया कि गौरा साहिब ‘शेरे ए पंजाब’ का बल, तेज और प्रताप ही इतना ज्यादा है कि मैं आज तक उनसे कभी नजर ही नहीं मिला सका।
जब जमरूद के क़िले पर अफगानी सेना ने आक्रमण किया तो सरदार हरि सिंघ नलवा ने बहुत ही बहादुरी से इस पठानी सेना का मुकाबला किया था। पठानी सेना में एक बहुत ही बलशाली योद्धा था मोहम्मद अकबर खान! इस योद्धा ने ललकारते हुए कहा कि मेरी तलवार के वार से आज तक कोई बचा नहीं है। कहां है तुम्हारा ‘पंज हत्था सिंघ’? मैं केवल उस सूरमा से युद्ध करना चाहता हूं। जिसे तुम ‘पंज हत्था सिंघ’ से कहकर संबोधित करते हो। उस समय सरदार निधान सिंघ ने युद्ध के मैदान में कहा कि अकबर खान तुझे पांच हाथ दिखाने की कोई जरूरत नहीं है। तेरे लिए तो मेरा एक हाथ ही बहुत है। इस युद्ध में अकबर खान के वारों को बचाते हुए सरदार निधान सिंघ ने ऐसे करतबी वार किए कि अकबर खान के टुकड़े – टुकड़े हो गए। इस जंग को जीतकर पठानों की १८ तोपों पर सिक्ख सेना का कब्जा हुआ था। पठानी सेना मैदान ए जंग को छोड़कर भागने लगी। इस भागती हुई सेना का दूर तक पीछा किया था सरदार निधान सिंघ जी ने और पहाड़ों की गुफाओं के पीछे छुपे हुए पठानों ने गोलियों की बरसात कर दी थी। इन गोलियों से घायल सरदार निधान सिंघ जी उर्फ ‘पंज हत्था सिंघ’ मातृभूमि की रक्षा करते हुए शहीद का जाम पी गए थे। इस स्थान पर सरदार हरि सिंघ नलवा जो सरदार निधान सिंघ जी को वापस लाना चाहते थे उन्हें भी दो गोलीयां लग गई थी और वो जख्मी अवस्था में पुनः जमरूद के किले पर चले गए थे। इतिहास गवाह है कि उनके मृत शरीर में भी सात दिनों तक दुश्मनों के दांत खट्टे किए थे।
मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले इन शुरवीर सिक्खों को सादर नमन !
तीन शेरों का मुकाबला
अनमोल – स्वर्णिम सिक्ख इतिहास के अंतर्गत हम अपने पाठकों को सिक्ख इतिहास की कई नवीनतम जानकारी और इतिहास से अवगत करवा रहे हैं। इसी श्रृंखला में सिक्खों की निडरता, बहादुरी और चपलाई को दर्शता हुआ इस लेख का इतिहास है। इस सिक्ख कौम में कई गुमनाम सिक्ख योद्धा, शूरवीर है। जिन्होंने खंडे – बांटे के अमृत (अमृत पान की विधि) की आध्यात्मिक शक्ति का परिचय और स्वयं को गुरुओं के प्रति भक्ति और निष्ठा से समर्पित किया है। ऐसे ही एक अनोखे इतिहास से हम पाठकों को इस लेख के द्वारा अवगत करवा रहे हैं।
सरदार केहर सिंघ पिता जीवन सिंघ और माता हरनाम कौर ग्राम जर्ग लुधियाना शहर के समीप का निवासी था। इस सरदार केहर सिंघ जी को बचपन से ही कुश्ती, पहलवानी, भारोत्तोलन (वेटलिफ्टिंग) का शौक था।
सन् १८८७ में सरदार केहर सिंघ का तंदुरुस्त शरीर, हष्ट पुष्ट डीलडोल और अच्छी देह को देखते हुए उस समय की अंग्रेज सरकार ने उन्हें फौज में भर्ती कर लिया था। उत्तम फौजी ट्रेनिंग लेने के पश्चात सरदार केहर सिंघ अपनी पलटन का नेतृत्व करने वाले फौजी बन गए थे। सरदार केहर सिंघ का अनुशासन और सेवा को देखते हुए एवम् युद्ध में उत्तम युद्ध कौशल का परिचय देने के कारण आपको अंग्रेज सरकार ने अपने सात तमगों (मेडल्स) से नवाजा था।
उस समय अंग्रेज अफसर शिकार करने के बहुत शौकीन थे। हम पाठकों को ज्ञात होना चाहिए के सिक्ख गुरुओं ने भी शेरों का शिकार किया था परंतु उन शेरों का शिकार किया था जो आदमखोर, नरभक्षी हो गये थे। ऐसा नहीं था कि जंगलों में जाकर चुन-चुन कर शेरों का शिकार किया हो। गुरुओं ने केवल नरभक्षी शेरों का ही शिकार किया था अर्थात वो शेर जो मानव जाति के लिए हानिकारक हो गए थे।
एक अंग्रेज अफसर अपने साथ सरदार केहर सिंघ जी को जंगल में लेकर शेर के शिकार हेतु गया था। इस अंग्रेज अफसर ने अपनी राइफल से दो शेरों का शिकार किया था। शिकार किए गए शेर देह से कमजोर और आयु के छोटे शेर थे। जंगल में शाम होते ही इस अंग्रेज शिकारी का सामना एक खूंखार, बब्बर शेर से हो गया था। यह शेर बहुत ही खतरनाक था और इस शिकारी अंग्रेज की राइफल में गोलियां भी बहुत कम रह गई थी। इस अंग्रेज शिकारी ने फुर्ती से अपने आपको बचाने हेतु एक वृक्ष पर चढ़ गया था और इस अंग्रेज शिकारी ने सरदार केहर सिंघ को आवाज देकर कहा कि केहर सिंघ तुम अपनी जान बचाओ कारण शेर सामने से आ चुका है।
सरदार केहर सिंघ ने अंग्रेज शिकारी को निडरता से उत्तर देकर कहा कि अंग्रेज साहब शेर एक नहीं है। शेर तो सामने भी दो खड़े हैं जब अंग्रेज शिकारी ने चारों और नजर घुमाई और केहर सिंघ से कहा कि कहर सिंघ मुझे तो केवल एक ही शेर दिखाई दे रहा है।
सरदार केहर सिंघ ने डटकर कहा गोरा साहब आप समझने की कोशिश करें कि धन्य – धन्य गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने हमें नाम दिया है सिंघ और सिंघ का अर्थ होता है शेर एवं दूसरा मेरा नाम ही केहर सिंघ है और केहर का अर्थ भी शेर होता है। सामने जंगल का शेर खड़ा है तो क्या हुआ? उस जंगल के शेर के सामने भी गुरु के दो शेर खड़े है। अंग्रेज शिकारी ने पुनः कहा कि केहर सिंघ अपनी जान बचाओ कारण तुम्हारे स्वयं के पास शेर को मारने के लिए कोई घातक हथियार भी नहीं है।
सरदार केहर सिंघ ने कहा कि गुरु की कृपा दृष्टि होनी चाहिए, गुरु की बख्शीश होनी चाहिए। खंडे – बाटे के अमृत की ताकत पर विश्वास होना चाहिए। उस समय सरदार केहर सिंघ ने शेर को अपनी पीठ नहीं दिखाई थी और ना ही पीछे अपने पैर लिए थे। सरदार केहर सिंघ ने आक्रमक मुद्रा में शेर की और चढ़ाई प्रारंभ कर दी थी। अंग्रेज शिकारी आवाज देता रहा कि शेर के सामने मत जाना परंतु जब शेर से सामना हुआ तो सरदार केहर सिंघ ने अपने बरछे से बड़ा ही घातक प्रहार शेर के जबड़े पर किया था। प्रहार इतना घातक था कि शेर वहीं ढे़र हो गया था। सरदार केहर सिंघ ने प्रसन्न मुद्रा में अंग्रेज शिकारी को आवाज देकर कहा था कि अंग्रेज साहब आप पेड़ से नीचे आ जाये। गुरु के दो शेरों ने मिलकर इस जंगल के शेर को ढे़र कर दिया है।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि गुरु का खालसा शेर मारने वाला ही नहीं अपितु शेर दिल भी होता है।
इतिहास गवाह है कि साका ननकाना से पहले जब गुरुद्वारा सुधार लहर प्रारंभ हुई तो सरदार लक्ष्मण सिंघ जी ने सभी ग्रामों में गुरसिक्ख योद्धाओं को एकजुट कर एकत्र करना प्रारंभ कर दिया था और गुरुद्वारा सुधार सेवा की मुहिम के लिए सिक्ख योद्धाओं को एकत्र किया जा रहा था। इस समय सरदार केयर सिंघ फौज से रिटायर होकर पेंशन पर अपने घर आ चुके थे। इस मुहिम के लिए सरदार केहर सिंघ ने हंसते – खेलते हुए खुशी से अपना नाम लिखवा दिया था। साथ ही सरदार केहर सिंघ का बेटा दरबरा सिंघ जो की बाल अवस्था में है ने भी जिद्द की और अपने पिता सरदार कहर सिंघ जी से कहा कि पिता जी यदि तुम कौम के लिए शहिदी देने जा सकते हो तो मैं क्यों नहीं जा सकता हूं?
कहां जाता है:-
पिता पर पुत,पुत पर घोड़ा॥
बहुता नहीं तो थोड़ा – थोड़ा॥
ऐसे शेर का बच्चा शेर बाल दरबार सिंघ था।
१९ फरवरी सन् १९२० को एकत्र समस्त योद्धा ननकाना साहिब को आजाद करवाने के लिए रवाना हुए थे। २० फरवरी सन् १९२० को साका ननकाना हुआ था और दोनों और से गोलियों की बौछार हुई थी। महंतों से युद्ध करते हुए सरदार केहर सिंघ वीरगति को प्राप्त हुए थे। साथ ही सरदार केहर सिंघ का बेटा दरबारा सिंघ अर्थात ‘शेर का बेटा शेर’ इसने भी डटकर मुकाबला किया था और इस बाल दरबारा सिंघ को जीते जी अग्नि में झोंक दिया गया था। ऐसा महान बाल शहीद दरबार सिंघ था। ‘शेर का बेटा शेर’ ।
ऐसे कई ज्वलंत इतिहासों से परिपूर्ण सिक्ख कौम शेरों की कौम है। इस महान शहीद सरदार केहर सिंघ और शहीद सरदार दरबारा सिंघ की स्मृति में ग्राम जर्ग (लुधियाना के निकट) में खालसा नर्सिंग कॉलेज की स्थापना की गई है।
इसी तरहां से भविष्य में भी सिक्खों के अनमोल – स्वर्णिम इतिहास से पाठकों को रू – बरू करवाया जायेगा।
शहीद तारा सिंघ वां
सन् १७१६ में बाबा बंदा सिंघ जी की शहीदी के पश्चात कुछ सुख – चैन का समय सिक्खों को मिला और वो सभी अपने – अपने घरों पर लौटकर खेती – बाड़ी कर खुशहाली की और प्रगति कर रहे थे। अभी दस वर्ष तक ही शांतीमय जीवन व्यतित किया था कि समय की हुकूमत को सिक्खों का वो शांतीमय जीवन रास नहीं आ रहा था।
सन् १७२६ में नौशेरा के चौधरी साहिब राय ने सिक्खों से वैर रखकर सीधा दुश्मनी लेना प्रारंभ कर दी थी। इस चौधरी साहिब राय को सिक्खों की खुशहाली (चढ़दी कला) नागावार लग रही थी। जो सिक्ख खेतों में मेहनत – मजदूरी कर फसलों को तैयार करते थे तो चौधरी साहिब राय जबरन अपनी घोड़ीयों को इन सिक्खों के खेतों में चरने के लिए छोड़ देता था।
चौधरी साहिब राय को सिक्खों ने कई बार सूचित कर कहा कि हमारे खेतों में तुम्हारे द्वारा जो घोड़ीयां चरने भेजी जाती हैं उस कारण हमारी खड़ी फसल उजड़ जाती है। आप जी कृपा करके इन घोड़ीयों को हमारे खेतों में चरने के लिए ना भेजा करो। जब चौधरी साहिब राय ने इन सिक्खों की बात नहीं मानी तो कुछ प्रमुख सिक्ख एकजुट होकर साहिब राय के निवास स्थान पर गए थे।
इन सिक्खों ने चौधरी साहिब राय जी को विनम्र निवेदन कर कहा था कि बड़ी कठिनाई के पश्चात हमारे जीवन में शांति आई है। अब हम अपने घरों में शांति से रहकर खेती – बाड़ी कर खुशहाली की और प्रगति कर रहे हैं। आप से निवेदन है कि हमारी खड़ी फसलों को उजाड़ कर हमारा नुकसान ना किया जाए। आपकी जो घोड़ीयां हैं उन्हें आप रस्सी से बांधकर रखो कारण यह घोड़ीयां हमारी फसलों को चरकर उजाड़ देती हैं।
चौधरी साहिब राय ने दुष्टता से उत्तर दिया था कि सिक्खों मेरे पास रस्सी नहीं है और ना ही मैं अपनी घोड़ीयों को बांधने वाला हूं। सिक्खों ने विनम्रता से कहा कोई बात नहीं राय साहिब जी रस्सी हम लाकर दे देते है। साहिब राय ने कहा कि मेरी घोड़ियों को बांधने के लिए विशेष बनी हुई रस्सीयों की आवश्यकता है।
सिक्खों ने साहिब राय से कहा था कि ऐसे कौन सी रस्सी है? जिनसे तुम अपनी घोड़ीयों को बांधोगे। साहिब राय ने सिक्खों के दिल और दिमाग पर आक्रमण किया और अंहकारी साहिब राय ने बड़ी दुष्टता और मक्कारी से सिक्खों को अपमानित कर कहा था कि मैं अपनी जुतियों में पेशाब कर उन जुतियों को तुम्हारे सिर पर मार – मार कर उस्तरों से तुम्हारे केशों का मुंडन कर उन केशों कि मैं रस्सी बनाउंगा। जिन केशों को तुम अपने गुरु की मोहर कहते हो। जिन केशों पर तुम्हें मान हैं, उन केशों कि मैं रस्सी बनवाउंगा और उन रस्सियों से मैं अपनी घोड़ीयों को बांधकर रखूंगा। अभी तक तुम सिक्ख इतने ज्यादा नहीं हो कि तुम्हारे मुंडन कर में रस्सी बनाऊं। सिक्खों से अपने गुरु का और अपने केशों का अपमान सहन नहीं हुआ था।
सिक्ख चौधरी की हवेली से वापस आ गए थे और आपस में विचार – विमर्श किया था। उस समय सरदार अमर सिंघ ढिल्लों और सरदार बघेल सिंघ ढ़िल्लों जो कि ग्राम भुसे के निवासी थे उन्होंने निर्णय लिया कि अब यदि साहिब राय ने अपनी घोड़ियों को हमारे खेत में चरने के लिए छोड़ा तो अब उसकी खैर नहीं है।
जब साहिब राय ने फिर से अपनी घोड़ियों को सिक्खों के खेत में चरने छोड़ा तो सरदार अमर सिंघ ढिल्लों और सरदार बघेल सिंघ ढिल्लों ने सामने से इन घोड़ियों को छीन लिया था। (चोरी नहीं की थी परंतु जबरदस्ती छीन कर अपने अधीन कर ली थी) और इन घोड़ीयों को लखबीर सिंघ को बेच दिया था। लखबीर सिंघ ने इन समस्त घोड़ियों को पटियाला निवासी बाबा आला सिंघ जी को बेच दी थी और इन घोड़ीयों को बेचकर जो पैसा प्राप्त हुआ था वो समस्त पैसा भाई तारा सिंघ वां के द्वारा संचालित लंगर में भेंट कर दिया गया था।
भाई तारा सिंघ कौन था? भाई तारा सिंघ २४ वर्ष का युवा नौजवान था। इन्होंने ग्राम ड़ल और ग्राम वां के बाहर जंगली इलाके में एक बाड़े का निर्माण करके रखा हुआ था। इस बाडे़ को सिक्खों के पनाहगाह के रूप में निरूपित किया जाता था। दूर – दराज के इलाकों से चलकर सिक्ख इस पनाहगाह में विश्राम करते आते थे। इस स्थान पर युद्ध स्थल से लौटे हुए सूरमा भी विश्राम करते थे। इस स्थान पर बच्चों को गतका (सिक्खों की शस्त्र विद्या) सिखाया जाता था। संगतोंं को लंगर (भोजन प्रशादी) छकाया जाता था और इन सभी की सेवा २૪ वर्षीय सरदार तारा सिंघ जी वां बखूबी निभा रहे थे।
साहिब राय ने अगले दिन तारा सिंघ वां के इस बाड़े में उपस्थित होकर धमकाया था और कहा कि जिन्होंने मेरी घोड़ियों को चुराया है वो दोषी इस स्थान पर छिप कर बैठे है। उन चोरों को मेरे हवाले किया जाए। भाई तारा सिंग वां ने जवाब दिया था कि इस स्थान पर कीर्तन का प्रवाह चल रहा है। लोग नाम – बाणी और प्रभु की बंदगी से जुड़े हुए हैं। इस स्थान पर कोई चोर नहीं है तुम स्वयं इस स्थान को देख सकते हो और उन दोषियों को पहचान भी सकते हो।
साहिब राय उस स्थान से वापस चला गया और पट्टी के फौजदार जाफर बैग के पास जाकर झूठी शिकायतें कर सरदार तारा सिंघ वां के बाड़े पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली थी। इस आक्रमणकारी फौज में साहिब राय स्वयं और जाफर बैग के साथ उसका भतीजा सौ घुड़सवार सैनिकों के साथ तारा सिंघ के बाडे़ पर आक्रमण के लिए कूच कर गए थे।
इस फौज के द्वारा अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) में आक्रमण की तैयारी की गई थी। उस समय सरदार बघेल सिंघ जी ढिल्लों एक हाथ में बरछा और दूसरे हाथ में पानी का लोटा लेकर बाहर शौच के लिए जा रहे थे। आक्रमणकारी फौज ने इस अंधेरे में भी बघेल सिंघ को पहचान लिया था और फौजदार को इशारा कर कहा कि यही बघेल सिंघ है। जिसने हमारी घोड़ियों की चोरी की थी और फौज ने सरदार बघेल सिंघ को चारों ओर से घेर लिया था। निडर गुरु का सिक्ख बघेल सिंघ ने पीठ ना दिखाते हुए जोरदार जयकारा ‘बोले सो निहाल सत श्री अकाल’ का उद्घोष कर शत्रु सेना पर पूरे जोश के साथ आक्रमण कर दिया था।
बघेल सिंघ ने अकेले ही इस शत्रु सेना पर टूट पड़े थे और जाफर बैग के कई सिपाहियों को मार गिराया था। साथ ही जाफर बैग के भतीजे को भी बहादुरी से लड़ते हुए मार गिराया था। पीछे से इस शत्रु सेना पर सिक्खों ने भी तुरंत हमला कर दिया था। इस युद्ध में शत्रु सेना का बहुत बड़ा नुकसान हुआ था और शत्रु सेना मैदान छोड़कर भाग गई थी परंतु इस युद्ध में वीरता से लड़ते हुए सरदार बघेल सिंघ जी ने भी शहीदी का जाम पी लिया था।
इस युद्ध में करारी हार के पश्चात साहिब राय और जाफर बैग ने जकरिया खान के पास जाकर सिक्खों की शिकायत की थी। जिहाद का नारा लगाकर जकरिया खान ने २२०० सिपाहियों का एक फौजी दस्ता सरदार तारा सिंह वां के डेरे पर हमले करने के लिए भेजा था। इस फौज के आक्रमण का जब ड़ल और वां नामक ग्राम के वासियों को ज्ञान हुआ तो सभी प्रमुख सिक्खों ने एकजुट होकर सरदार तारा सिंघ से निवेदन किया कि आप इस स्थान से कहीं चले जाए तो ही यह युद्ध रुक सकता है। आपका बाड़ा खाली देखकर जकरिया खान की फौज वापस चली जाएगी और एक बड़ा युद्ध टल जाएगा।
सरदार तारा सिंघ ने उत्तर दिया था कि अब नहीं! क्योंकि हम अरदास (प्रार्थना) कर चुके हैं। अब यह युद्ध अटल है। नहीं तो पीछे से कहा जाएगा कि सिक्ख बिल्कुल ही समाप्त हो गए। सिक्खों को दबा दिया गया है। उस बाडे़ में मौजूद सरदार तारा सिंघ वां ने १८ सिक्खों को स्वयं अपने हाथों से स्नान करवाया था। इसके पश्चात ‘श्री दशम ग्रंथ साहिब जी’ का पाठ कर हुकुमनामा भी लिया गया था। उस समय मौजूद १८ सिक्खों ने जब तारा सिंघ से प्रश्न किया कि आपने स्नान क्यों नहीं किया? सरदार तारा सिंघ वां ने उत्तर दिया था कि मैं मैदान – ए – जंग में शत्रु के लहु के साथ स्थान करूंगा। ऐसा मैंने अरदास कर हुकुमनामा भी ले लिया है।
इस युद्ध में सिक्खों ने भी रणनीति के तहत मोर्चाबंदी की थी। इस युद्ध में मोमिन खान, तकी बैग और जाफर बैग के नेतृत्व में २२०० संख्या की फौज आक्रमण के लिए पहुंच चुकी थी। इस फौज में ५ हाथी ४० जम्बुतरे (पहियेवाली गाड़ीयों पर स्थित तोपे) भी थी। इस पूरी फौज ने सरदार तारा सिंघ वां के बाड़े को घेरकर उस बाडे़ पर भीषण आक्रमण कर दिया था।
इस युद्ध में एक और शत्रुओं की २२०० की फौज थी और दूसरी और मात्र २२ सिक्ख योद्धा! इस युद्ध में सरदार भीम सिंघ ने हाथी का कान पकड़ कर जोर से खींचकर हाथी को घुटने के बल (गोड़नियां लगाई) पर बैठने को मजबूर कर दिया था और हाथी पर सवार महावत के ऊपर अपनी कृपाण से वार किया था। महावत ने अपने अंकुश से इस वार को रोका था और कृपाण के दो टुकड़े हो गए थे। इस टूटी हुई कृपाण से ही भीम सिंघ ने महावत का सर कलम कर दिया था। जिस लखबीर सिंघ ने साहिब राय की घोड़ीयों को बेचा था। उस लखबीर सिंघ ने हाथी पर चढ़ाई कर मुरीद खान का सर कलम कर दिया था।
तकी बैग इस युद्ध में लड़ते हुए तारा सिंघ वां के सामने आया और कहने लगा कौन है सूरमा तारा सिंघ वां? उसे मेरे सामने लाओ मैं उससे युद्ध करना चाहता हूं। तारा सिंघ ने तकी बैग के सामने आकर कहा कि मैं हूं तारा सिंघ! पहले तुम मुझ पर वार करो। तारा सिंघ ने इस वार को बहुत ही चपलाई से बचा लिया था और अपने हाथ में पकड़े हुए नैजे (भाले) से जोरदार प्रहार तकी बैग के मुंह पर किया था एवं तकी बैग से कहा इसे कहते हैं तारा सिंघ वां का प्रहार।
तकी बैग के मुख से लहू के फव्वारे फूट पड़े थे। तकी बैग पीठ दिखाकर युद्ध के मैदान से भागने लगा था। उस समय मोमिन खान ने तकी बैग से कहा था कि तकी बैग इस मैदान – ए – जंग में भी तुम पान के बीड़े खा रहे हो! तकी बैग ने जवाब दिया था कि हां तुम्हारा बाप तारा सिंह वां पान के बीडे़ बांट रहा है। जाओ तुम भी जा कर ले लो। इस युद्ध के मैदान में निडर तारा सिंघ ने अपनी बहादुरी को प्रदर्शित किया था।
उस समय मैदान – ए – जंग में युद्ध करते हुये सिक्खों ने शहिदीयों को प्राप्त किया था। १८ सिक्ख शहीद हो गए थे। इन सिक्खों के सरों को कलम कर बोरों में भरा गया था। इन सरों को लाहौर में निखास मंडी के चौक पर रखा गया था। पश्चात स्थानिय सिक्खों ने इन सरों के अंतिम संस्कार के लिए हुकूमत को निवेदन किया था परंतु इन सभी सरों को अर्थात गुरु के सिखों के सरों को एक अंधेरे कुएं में फेंक दिया गया था। जिस कुएं में इन शहीद सिक्खों के सरों को फेंका गया था। वर्तमान समय में उस कुएं को शहीद गंज वाला कु़एं के नाम से जाना जाता है।
सिक्ख धर्म के सातवें गुरु ‘श्री हर राय साहिब जी’ का एक सिक्ख था भाई चग्गा जी और भाई चग्गा जी को ३ पुत्र रत्नों की प्राप्ती हुई थी। उनमें से एक भाई गुरबख्श सिंघ जी थे। भाई गुरबख्श सिंघ जी को पांच पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई थी। भाई तारा सिंघ, भाई भारा सिंघ, भाई संगत सिंघ, भाई नाथू सिंघ, भाई काथु सिंघ। इन चार भाइयों का सबसे बड़ा भाई तारा सिंघ था। जिन्हें सम्मान पूर्वक तारा सिंह वां के नाम से संबोधित किया जाता था।
अनमोल – स्वर्णिम सिक्ख इतिहास के अंतर्गत भविष्य में इसी तरह की अद्भुत, अनोखा,अकल्पनीय सिक्ख इतिहास से संगतों (पाठकों) को रू -बरू करवाया जायेगा।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में अंकित शहीदों की बाणी
धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में ऐसे कौन से शहीद हुए हैं? जिनकी बाणीयों को संकलित किया गया है। इस लेख में इन शहीदों के रोचक इतिहास से पाठकों को अवगत करवाया गया है।
धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में कुल चार शहीदों की बाणीयों को संकलित किया गया है। धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ एवं धन्य – धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ ऐसे दो सिक्ख धर्म के गुरु हैं जिन्होंने शहीदीयां प्राप्त की थी। इसके अतिरिक्त ग्यारह भट्ट (भाट) उस समय सामने आए थे। जब धन्य – धन्य गुरु ‘श्री रामदास साहिब जी’ ज्योति – ज्योत समा गये थे तो उस समय यह भट्ट अपनी कला को निखारने एवं रोजी – रोटी की तलाश में अमृतसर शहर में आकर आबाद हो गए थे| धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में कुल ग्यारह भट्टों (भाटों) की बाणीयों को संकलित किया गया है। इन भाटों ने गुरु साहिबान की श्रद्धा पूर्वक अथाह शिफते (प्रशंसा) की थी। गुरबाणी की सर्जना करने वाले यह सभी भट्ट (भाट) अत्यंत सौभाग्यशाली थे कारण इन्हें गुरुओं के सहवास में रहते हुए उनके प्रत्यक्ष दर्शनों के सौभाग्य प्राप्त हुए थे। उस समय राजा महाराजाओं की झूठी शिफत (प्रशंसा) कर पेट भरना इन भट्टों (भाटों) का पैशा हुआ करता था। जब इन भट्टों (भाटों) ने गुरुओं के दर्शन किए तो इनके अंतर्मन का कवि जाग उठा था। पश्चात इन भट्टों (भाटों) ने हृदय से श्रद्धा के पात्र गुरुओं की दिल से शिफत (प्रशंसा) गाकर अमर पदवी को प्राप्त किया था। धन्य -धन्य गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ में इनकी बाणी इस तरहां से अंकित है:-
रहिओं संत हउ टोलि साध बहुतेरे डिठे॥
संनिआसी तपसीअह मुखहु ए पंडित मिठे॥
बरसु एकु हउ फिरिओ किनै नहु परचउ लायउ॥
कहतिअह कहती सुणी रहत को खुसी न आयउ॥
हरि नामु छोडि दूजै लगे तिन् के गुण हउ किआ कहउ॥
गुरु दयि मिलायउ भिखिआ जिव तू रखहि तिव रहउ॥
(अंग क्रमांक १३९५ )
अर्थात मैंने साधु – संतों की खोज की है और असंख्य पवित्र पुरुष देखे हैं। यह सभी एकांत वासी तपी और ब्राह्मण है। मीठी बाणी उच्चारण करने वाले हैं परंतु मेरी तसल्ली कोई भी ना कर सका। भले ही में एक साल तक भटकता रहा हूं। मैंने लोगों को विचार और प्रचार करते हुए सुना देखा है परंतु उनका जीवन और रहन – सहन देख कर मन में प्रसन्नता नहीं हुई है। मैं उनकी महिमा का वर्णन क्यों करूं? जो स्वामी का नाम त्याग कर द्वंद से जुड़े हुए हैं। भीखा भट्ट वचन करता है कि है वाहिगुरू ! आपने मुझे गुरुओं से मिला दिया है। हे गुरुदेव! अब आप जिस तरह से मुझे रखेंगे मैं उसी तरह से जीवन व्यतीत करूंगा।
यदि हम इन ग्यारह भट्टों के विरासत के इतिहास को दृष्टिक्षेप करें तो इनमें से भट्ट भागीरथी जी, इनका पुत्र भट्ट नरसी जी और नरसी जी का पुत्र भट्ट रइआं जी हुए थे। भट्ट रइआं जी के छ: पुत्र थे। भट्ठ भीखा जी, भट्ट सेखां जी, भट्ट चौखां जी’ भट्ट तोखा जी, भट्ट गोखा जी, भट्ट टोड़ा जी। इनमें से भट्ट भीखा जी को भाई गुरदास जी ने अपनी रचित वारां, ११ वार की २१ वीं पौउड़ी के अंतर्गत आपको सुल्तानपुर लोधी कपूरथला का वासी निरूपित किया है।
भट्ट भीखा जी के ३ पुत्र हुए थे, कीरत जी, मथुरा जी और जालप जी। भट्ट कीरत जी और भट्ट मथरा जी की बाणी भी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित है।
भट्ट कीरत जी और भट्ट मथुरा जी जहां गुरु घर की बाणीयों के रचियता बने और गुरु घर की शिफतों (बाणीयों) को रचित किया है, वहीं पर ६ वीं पातशाही गुरु ‘श्री हरगोबिंद साहिब जी’ ने जो युद्ध किए थे उन युद्धों में इन दोनों बाणी के रचयिताओं ने युद्ध में मर्दों की तरह श्री साहिब (तलवार) से लड़ते हुए दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे। साथ ही दिन भर युद्ध में लड़ते – लड़तें शाम तक दुश्मनों के लिये यमदुत बनकर शहीदी का जाम भी गए थे।
जहां पर धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ और गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ ने शहिदीयां प्राप्त की थी, वहीं पर भट्ट कीरत जी एवम् भट्ट मथुरा जी ने भी शहीदी को प्राप्त किया था। इस कारण से धन्य – धन्य गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ में चार शहीदों की बाणीयों को अंकित किया गया है, ऐसा जिक्र आता है।
इतिहास यहीं समाप्त नहीं होता है भट्ट कीरत जी के तीन पोते और चार पड़पोतों ने भी शहीदीयों को प्राप्त किया था। भट्ट कीरत जी के तीन पोते केसों सिंघ जी, हरि सिंघ जी और देशा सिंघ जी ने भी शहिदीयों को प्राप्त किया था। भट्ट केसों सिंघ जी का पुत्र नरबद सिंघ एवं भट्ट हरि सिंघ जी के ३ पुत्र तारा सिंघ, सेवा सिंघ और देवा सिंघ इनके साथ ३६ और सिक्खों को लाहौर में आलोवाल नामक स्थान पर बहादर शाह के हुक्म पर शहीद किया था। बहादर शाह ने यह हुक्म ११ अक्टूबर सन् १७११ को जारी किया था।
इस हुक्म अनुसार सिक्खों का खुरा – खोज समाप्त कर दिया जाए अर्थात सिक्खों को नेस्तनाबूद कर नामोनिशान मिटा दिया जाए। इस हुक्म अनुसार कोई भी सिक्ख बचना नहीं चाहिए था।
उस समय भाई मनी सिंघ जी के पीछे जो परिवार था उस परिवार के सभी सदस्यों को कैद किया गया था और उनके साथ ही भट्ट कीरत जी के सात पारिवारिक सदस्यों को भी कैद किया गया था। इन सभी को लाहौर शहर के आलोवाल नामक स्थान पर बंदी बनाकर रखा गया था परंतु यह सभी अपने इरादों पर अडीग थे। ३ महीने की कैद के पश्चात जब यह डगमगाए नहीं तो ३६ सिक्खों के साथ इन सभी को जमीन में गाड़ कर शहीद किया गया था। इनमें से भट्ट कीरत जी के सात पारिवारिक सदस्य भी थे।
यदि दूसरी और इतिहास को दृष्टिक्षेप करें तो भट्ट ‘बही तलौंदा परगना जिंदे’ नामक ग्रंथ में भी इनका जिक्र किया गया है और प्रसिद्ध इतिहासकार रतन सिंघ भंगू द्वारा रचित ग्रंथ ‘पंथ प्रकाश’ में भी इनका जिक्र किया गया है।
यदि ऐतिहासिक तथ्यों को दृष्टिक्षेप करें तो बहुत ही कमाल की बात सामने आती है कि जो मांग के खाने वालों की जाति है, जो राजाओं के दरबार में उनकी प्रशंसा कर मांग कर खाती थी। वो ही कौम जब धन्य – धन्य गुरु ‘श्री रामदास साहिब जी’ के दर पर धन्य – धन्य गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ के सम्मुख उपस्थित हुए और गुरु घरों में अपनी सेवाएं अर्पित करने लगे तो गुरु की कृपा से,एवम् गुरबाणी की अभूतपूर्व शक्ति के कारण जिन हाथों ने अपनी कलम से लोगों की प्रशंसा की थी,उसी कलम ने बाणीयों को रचित किया। जो हाथ यजमानी कर पेट पालते थे, उन हाथों ने कलम के साथ – साथ (श्री साहिब) तलवार से भी अनोखे जौहर दिखाकर इन भट्टों ने मातृभूमि की रक्षा के लिये सर्वस्व न्यौछावर कर शहीदी का जाम पिया था।
इतिहास गवाह है कि उस समय सिक्खों के सर की कीमत रुपये ८० हुआ करती थी। साथ ही हिंदुस्तान की बहू – बेटियों को गजिनी के बाजार में टके – टके में बेचा जाता था। उस समय की मुगल सरकारों ने सिक्खों के सर की कीमत को रुपये ८० रखा गया था। यदि वर्तमान समय में सन् २०२० से इन रुपये ८० की तुलना की जाए तो उस समय रुपये ८० की १२ एकड़ जमीन खरीदी जाती थी। वर्तमान समय में जमीन की कम से कम कीमत भी आंकी जाए तो एक एकड़ जमीन की कीमत लगभग रुपये ३५००००० (पैंतीस लाख) होती है अर्थात् वर्तमान समय अनुसार सिक्ख के सर की कीमत लगभग रुपये ૪२०००००० (चार करोड़ बीस लाख) होती है। इसे तुलनात्मक दृष्टिकोण से देखें तो वर्तमान समय में सिक्ख के सर की कीमत रुपये ૪२०००००० (चार करोड़ बीस लाख) होगी।
इतने कठिन समय में भी सिक्ख अपने धर्म पर अडिग रहे थे। अपने धर्म से हटे नहीं थे और शहीदीयों को प्राप्त की थी एवम् अपने ईमान पर अटल रहे थे। इन सभी शहीदीयों से निश्चित ही हमें प्रेरणा लेनी चाहिए।
इंसानियत के गुरु: श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी
संपूर्ण कायनात के गुरु ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की संपादना सिक्ख धर्म के संस्थापक प्रथम गुरु, गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ से ही प्रारंभ हो चुकी थी। गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ ने समकालीन सभी भक्तों, संतों और विद्वानों की बाणी का संकलन प्रारंभ किया। प्रमुख रूप से इन बाणीयों में एक अकाल पुरख की महिमा का वर्णन किया गया है। इस सारे बहुमूल्य खजाने की विरासत आपने दूसरे गुरु ‘श्री गुरु अंगद देव साहिब जी’ को सौंपी थी। गुरु ‘श्री अंगद देव साहिब जी’ ने इन बाणीयों की छोटी – छोटी पुस्तकों के रूप में प्रचार – प्रसार किया। पश्चात गुरु ‘श्री नानक देव साहिब जी’ की बाणी और गुरु ‘श्री अंगद देव साहिब जी’ द्वारा रचित बाणीयों का संकलन तीसरे गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ को विरासत के रूप में मिला| इस तरहां से इन बाणीयों का संकलन चौथे गुरू ‘श्री रामदास साहिब जी’ के कार्यकाल से होते हुए पांचवें गुरु, गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ को विरासत में मिला। इन सभी बाणीयों की प्रमाणिकता ठीक रहे और उनमें कोई मिलावट ना हो इसलिए पांचवे गुरु ‘श्री अर्जन देव साहिब जी’ ने भाई ‘गुरदास जी’ की सहायता लेकर इन सारी बाणीयों को क्रमानुसार संकलित कर ‘श्री आदि ग्रंथ’ की स्थापना की थी। इस स्थापना दिवस को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पहले प्रकाश पर्व के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाता है और इसी दिन ‘श्री हरमंदिर साहिब जी’ अमृतसर में ‘श्री आदि ग्रंथ’ को सुशोभित किया गया था। ‘श्री आदि ग्रंथ’ की बाणीयों का प्रचार – प्रसार कर समाज में अज्ञानता को दूर कर, ज्ञान का प्रकाश इन बाणीयों से किया जाता था।
‘श्री आदि ग्रंथ’ में सिक्ख धर्म के प्रथम ५ गुरुओं की बाणी अंकित है और समकालीन १५ भक्तों की बाणीओं का संकलन किया गया है। जिन १५ भक्तों की बाणीयों का भी संकलन किया गया है। वो सभी भक्त स्वयं मेहनत, मजदूरी कर किरत करते थे एवं परमात्मा के सच्चे नाम का प्रचार – प्रसार करते थे।
सिक्ख धर्म के नौवें गुरु ‘धर्म की चादर, श्री गुरु तेग बहादर जी’ की बाणी को स्वयं आप दशमेश पिता गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने ‘श्री आदि ग्रंथ’ में अंकित की थी। गुरु ‘श्री गोबिंद सिंघ साहिब जी’ ने ‘श्री आदि ग्रंथ’ को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ संबोधित कर महाराष्ट्र की पवित्र धरती ‘श्री अबचल नगर हजूर साहिब’ नांदेड़ में युगो – युग अटल ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की जागती – ज्योत, जोहरा – जहूर, हाजरा – हजूर की उपाधि से सुशोभित कर गुरु स्थान का सम्मान दिया था।
‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ की संपादना में बाणीयों को अनुक्रमित किया गया है। जिससे इसमें किसी भी प्रकार की मिलावट की कोई संभावना नहीं रहती है। हर एक बाणी को इस तरहां से अंकित किया गया है कि उसके क्रमांक से जिन गुरुओं की या भक्तों की बाणी है तुरंत पता चल जाता है। इस तरहां से जिन रागों में बाणी को अंकित किया गया है उनको भी नाम से दर्शाया गया है। साथ ही उन रागों के कौन से घर / ताल (PITCH) में शबद (पद्य) का उच्चारण करना है, उसे भी वर्णित किया गया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में हर एक पढ़ी जाने वाली बाणी की विशेषता को भी पढ़ने के पहले अंकित किया गया है।
“श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में प्रभु – परमेश्वर (अकाल पूरख) के कई पर्यायवाची नाम अंकित है, जैसे;- राम, हरि, अल्लाह, अकाल पुरख, किशन, मुरारी, रहीम इत्यादि। इस प्रकार ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ ज्ञान का अथाह समुंदर है। अखंड भारत के सभी अलग – अलग प्रांतों के भक्तों की बाणीयों को और सभी धर्मों के उपदेशों के निचोड़ को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में संकलित किया गया है। इसलिए चंवर,तख्त के मालिक ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ को संपूर्ण कायनात का गुरु माना जाता है। इसमें अंकित बाणी इंसानियत की बाणी है। कायनात में स्थित हर प्राणी के कल्याण के लिए ही ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ की स्थापना हुई है।
‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ की इन्हीं विशेषताओं के कारण हर धर्म, मजहब और पंथ के व्यक्ति बहुत ही आदर – सत्कार के साथ विनम्रता पूर्वक अपना शीश झुकाकर ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ को प्रणाम करते हैं और प्यार के साथ कीमती वस्तुओं को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ को भेंट स्वरूप अर्पित करते हैं। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ सांझी वालता (सर्वधर्म समभाव) के सबसे बड़े प्रतीक है। इसका श्रेष्ठ उदाहरण है, सऊदी अरब के एक हमारे मुस्लिम धर्मीय भाई ‘हाजी मोहम्मद मस्कीन’!
इनकी श्रद्धा हम सभी के लिए एक आदर्श है। आप जी ने ‘नौ मन चौदह सेर’ अर्थात ३५० किलो कीमती लाल चंदन की लकड़ी के तने को लेकर अल्लाह – ताला और खुदा के नाम को स्मरण कर एक – एक बारीक रेशे को उस तने से अपने तकनीकी ज्ञान को लगाकर अलग किया। अलग किए गए रेशों को स्वच्छ कर तैयार किया गया। इस पूरे कार्य को अंजाम देने के लिए ५ वर्ष ७ महीने का समय लगा और जब इन बहुमूल्य रेशों की गिनती की गई तो वो १०૪५००० (एक लाख पैंतालीस हजार) थे। इन सभी रेशों को एकत्रित कर एक बेशकीमती अमूल्य चंवर (गुरूमुखी में जिसे चौर साहिब कहकर उच्चारित किया जाता है) तैयार किया।
‘हाजी मोहम्मद मस्कीन’ ने ऐलान किया कि इस ‘चंवर साहिब’ को उस राजा के शीश पर लहराया जाएगा, जो सभी को एक जैसा प्यार बांटता हो। सभी धर्मों को बराबरी का दर्जा देकर सम्मान करता हो। पूरी दुनिया में खोज करने पर ऐसा कोई राजा नहीं मिला। जब गहराई से अध्ययन किया तो ज्ञात हुआ की केवल ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ ही ऐसे हैं, जो राजाओं के भी राजा है। ‘हाजी मोहम्मद मस्कीन’ ने निर्णय कर उस बेशकीमती अमूल्य चंवर (चौर साहिब) को लेकर ‘श्री दरबार साहब जी, अमृतसर में उपस्थित हुआ। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के आगे इन्होंने सजदा कर कीर्तन श्रवण किया, ३१ दिसंबर १९२५ के दिन इन्होंने उस समय के रागी सिंघों से मिलकर अपने आने का उद्देश्य बताया और इनके द्वारा निर्मित बहुमूल्य, बेशकीमती चंवर को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ को अर्पित किया। यह अमूल्य ‘चंवर साहिब’ आज भी ‘श्री हरमंदिर साहिब जी दरबार साहिब’ में सुशोभित है। दरबार साहिब के तोशे खाने में इसे सुशोभित कर के रखा गया है। इस ‘चंवर साहिब’ के प्रत्येक वर्ष संगतोंं को दर्शन कराए जाते हैं।
इससे पता चलता है कि ‘श्री गुरु ग्रंथ साहब जी’ की महानता और सांझी वालता को दुनिया ने स्वीकार किया है।
मानवता और इंसानियत के महान गुरु धन्य – धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ और उनकी सेवा में अमूल्य चंवर साहिब समर्पित करने वाले ‘हाजी मोहम्मद मस्कीन’ को सादर नमन !
इस अनमोल – स्वर्णिम सिक्ख इतिहास को पुस्तक के रुप में लिखकर धन्य – धन्य गुरु ‘श्री तेग बहादर साहिब जी’ के ૪०० वें प्रकाश पर्व पर उन्हें समर्पित किया गया है।
इस पूरे इतिहास से आप इसे पढ़कर और समझकर भलीभांति परिचित हो सकते हैं। इस इतिहास के माध्यम से धन्य – धन्य गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ के मार्ग पर चलकर उनके उपदेशों का पालन कर अपना जीवन सफल करें।
नोट:-१. इस पुस्तक को प्रकाशित करने वाले लेखक द्वय सिक्ख धर्म के कट्टर अनुयायी है। लेखकों का विशुद्ध रुप से मकसद है कि इस अनमोल – स्वर्णिम सिक्ख इतिहास से संगतोंं (पाठकों) को अवगत करवाना है।
२. इस इतिहास को लिखकर प्रकाशित करने में यदि कोई त्रुटि हो जाती है तो गुरु महाराज के अंजान बच्चे समझकर बक्शना जी। ‘संगत बक्शनहार है’।
भुलण अंदरि सभु को अभुलु गुरू करतारु ||
(अंग क्रमांक ६१)
अर्थात् सभी गलती करने वाले है, केवल गुरु और सृष्टि की सर्जना करने वाला ही अचूक है।
वाहिगुरु जी का खालसा , वाहिगुरु जी की फतेह॥

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