भाई सुबेग सिंह जी और भाई शाहबाज सिंह जी
(जिन्हें चरखे पर सवार कर शहीद किया गया था)
भाई सुबेग सिंह गांव जम्बर (जिला लाहौर, पाकिस्तान) के निवासी थे। वे सुशिक्षित और फारसी के विद्वान थे। आप लाहौर में एक सरकारी ठेकेदार के रूप में कार्यरत थे और कुछ समय के लिए लाहौर शहर के कोतवाल भी रहे। आपके कार्यकाल में उस समय लाहौर में शांति और अमन-चैन था। उस समय का प्रशासन बागी सिखों से सुलह करने के लिए भाई सुबेग सिंह की मध्यस्थता चाहता था।
जिन सिखों के घर घोड़ों की काठी ऊपर हो, जो सिख जंगलों में निवास करते हों, जिन सिखों के अंग-संग गुरु साहिब स्वयं हों और अकाल पुरख जिनकी रगों में बसते हों, देश की आजादी और मिट्टी की आबरू के लिए रणक्षेत्र में जूझ मरने वाले ऐसे बहादुर सिखों को भला कौन समाप्त कर सकता था। अंततः जकरिया खान ने दिल्ली के तख्त से इजाजत लेकर सिखों से सुलह करने का सोचा और भाई सुबेग सिंह से मध्यस्थ की भूमिका अदा करने के लिए कहा।
हुकूमत ने खालसा को एक लाख सालाना की जागीर, कंगनवाल, झोबाल और देपालपुर परगना जैसे इलाके देने का प्रस्ताव रखा। सिखों को नवाबी का खिताब और कीमती वस्त्र देने का भी वादा किया गया। बदले में हुकूमत के खिलाफ जारी जंग को तुरंत बंद करने की शर्त रखी गई।
यह प्रस्ताव सिखों के प्रमुख सरदार दरबार सिंह को स्वीकार नहीं था। जब सरदार सुबेग सिंह ने निवेदन किया कि इस प्रस्ताव को स्वीकार कर कुछ समय के लिए शांति से जीवन व्यतीत करें और भविष्य में शत्रु से मुकाबले के लिए बेहतर तैयारी कर लें, तो हुकूमत का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। घोड़ों की लीद साफ करने वाले विनम्र सेवादार सरदार कपूर सिंह को नवाब के रूप में मनोनीत कर दिया गया।
कुछ समय शांति से गुजरने के बाद जकरिया खान ने फिर सिखों पर सख्ती प्रारंभ कर दी। सिख उत्तम मौके की तलाश में जंगलों में निवास करने लगे।
सरदार सुबेग सिंह का पुत्र शाहबाज सिंह लाहौर के एक काजी से फारसी भाषा की विद्या ग्रहण कर रहा था। 18 वर्षीय शाहबाज सिंह खूबसूरत, गबरू और बुद्धिमान जवान था। काजी उनके उच्च आचरण और बुद्धिमता से प्रभावित था। वह चाहता था कि शाहबाज सिंह इस्लाम कबूल कर ले और अपनी बेटी का निकाह उससे कर दे।
परंतु सच्चे गुरु-सिख शाहबाज सिंह ने काजी के सभी प्रस्ताव ठुकरा दिए। जब काजी को अपनी चाल कामयाब होती नहीं दिखी, तो उसने डराने-धमकाने की कोशिश की। इसमें भी असफल होने पर उसने झूठी शिकायतें करते हुए लाहौर के राज्यपाल जकरिया खान को शाहबाज सिंह के खिलाफ भड़काया।
ज़करिया खान ने भाई सुबेग सिंह और शाहबाज सिंह को गिरफ्तार कर लिया। दोनों को अलग-अलग काल कोठरियों में कैद कर इस्लाम कबूल करने के लिए प्रताड़ित किया गया। झूठी खबरें देकर और असहनीय यातनाएँ देकर उन्हें मजबूर करने की कोशिश की गई।
1 जुलाई सन 1745 ई. को ज़करिया खान की मृत्यु के बाद उसका पुत्र याहिया खान लाहौर का राज्यपाल बना। उसने पिता-पुत्र को इस्लाम कबूल करने की शर्त पर जान बख्शने का प्रस्ताव दिया, जिसे दोनों ने दृढ़ता से नकार दिया।
पिता-पुत्र को चरखड़ियों पर चढ़ाकर मौत की सजा सुनाई गई। तेज चाकुओं ने उनके शरीर को चीर कर रख दिया था, रक्त की धारायें बह निकली थी, उस समय अपने सिक्खी सिदक को संभाल कर, दोनों पिता-पुत्र ने गुरबाणी का पाठ करते हुए शहादत प्राप्त की।
उनकी यह वीरगति सिख धर्म और सिद्धांतों के प्रति उनकी अटूट आस्था का प्रतीक है।