खालसा राज के शिल्पकार: शेर-ए-पंजाब: महाराजा रणजीत सिंह
सिख इतिहास में अंकित गौरवशाली अध्यायों में से एक है शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का स्वर्णिम शासनकाल, जिसे खालसा राज के नाम से जाना गया। इस राज की नींव शुकरचकिया मिसल के सरदार नोध सिंह जी के वंशजों द्वारा रखी गई थी, जिनके महान व्यक्तित्व और नेतृत्व ने पंजाब को अभूतपूर्व शौर्य और समृद्धि प्रदान की।
बाबा बुड्ढा सिंह और शुकरचकिया मिसल की स्थापना
इस गौरवशाली वंश की शुरुआत बाबा भाग मल जी के सुपुत्र बुड्ढा मल जी से होती है। श्री गुरु हरि राय साहिब जी की सेवा में समर्पित बाबा बुड्ढा मल जी ने श्री गुरु गोविंद सिंह जी से खंडे बाटे का अमृत पान कर ‘बुड्ढा सिंह’ के नाम से खालसा पंथ में दीक्षा ली। बाबा जी ने गुरु साहिब के नेतृत्व में कई युद्धों में भाग लिया, जिस कारण से उनके शरीर पर 43 घावों के निशान बने। उनकी वीरता की कथा तब अमर हो गई, जब उन्होंने अपनी देसां नामक घोड़ी पर बैठकर 50 बार झेलम नदी पार की। इन्हीं अद्वितीय कारनामों के कारण उन्हें ‘देसां बाबा बुड्ढा सिंह’ के नाम से ख्याति मिली।
उनके पुत्र चंदा सिंह जी को संधावालिया मिसल का प्रमुख नियुक्त किया गया, जबकि दूसरे पुत्र नोध सिंह जी ने शुकरचकिया मिसल की स्थापना की। सरदार नोध सिंह जी के पुत्र सरदार चड़त सिंह जी एक शूरवीर योद्धा थे, जिन्होंने अहमद शाह अब्दाली जैसे क्रूर आक्रांता को युद्ध में हराया। उनके पुत्र सरदार महा सिंह जी ने इस विरासत को आगे बढ़ाया और उनकी पत्नी राज कौर जी की कोख से 1780 ईस्वी में रणजीत सिंह का जन्म हुआ।
शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह का बचपन
महाराजा रणजीत सिंह का बचपन कठिनाइयों से भरा था। चेचक के कारण उनकी एक आंख की रोशनी चली गई, लेकिन उनकी वीरता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। 13 वर्ष की आयु में ही उन्होंने हसमत खान जैसे दुश्मन को मार गिराया, और इसी साहसिक घटना के बाद उन्हें शेर-ए-पंजाब की उपाधि से नवाजा गया।
खालसा राज की स्थापना
रणजीत सिंह ने सन 1801 ई. में सिंहासन पर बैठकर अपने राज्य का नाम सल्तनत-ए-खालसा रखा। उनके शासन में सिक्कों पर श्री गुरु नानक देव जी और श्री गुरु गोविंद सिंह जी के नाम अंकित किए गए। उन्होंने पंचायती राज व्यवस्था लागू की और अपने साम्राज्य को एक लाख वर्ग किलोमीटर तक विस्तारित किया।
धार्मिक सहिष्णुता और समाज सुधार
शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह एक धर्मनिरपेक्ष और न्यायप्रिय शासक थे। उन्होंने सभी धर्मों के प्रति सम्मान प्रदर्शित किया। श्री ननकाना साहिब और पंजाब के अन्य प्रमुख गुरुद्वारों के लिए जागीरें लगाईं। उन्होंने ज्वालामुखी, काशी और हरिद्वार के मंदिरों में सोना दान कर पुनर्निर्माण करवाया। मुस्लिम मजारों और हजरत दातागंज की दरगाह की मरम्मत भी उनके शासनकाल में हुई।
कोहिनूर और खायबर दर्रा
शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह ने दो लाख स्वर्ण मुद्राओं में कोहिनूर हीरे को खरीदा और उसे अपनी राजगद्दी की शान बनाया। उन्होंने खैबर दर्रा पर कब्जा कर भारत में विदेशी आक्रमणों का मार्ग बंद कर दिया। जमरोद किले का निर्माण उनके दूरदर्शी नेतृत्व का प्रमाण है।
न्यायप्रिय और उदार शासक
शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में न तो कोई व्यक्ति फांसी पर चढ़ाया गया, न ही कोई साम्प्रदायिक दंगा हुआ। एक बार जब राज्य में अकाल पड़ा, तो उन्होंने अपने भरे गोदामों को जनता के लिए खोल दिया।
अकाल तख्त की सजा
शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह सिख मर्यादा के पालन में अत्यंत निष्ठावान थे। एक बार जब उन्होंने अनुशासन का उल्लंघन किया, तो अकाल तख्त के जत्थेदार अकाली फूला सिंह जी ने उन्हें कोड़े मारने की सजा सुनाई। महाराजा ने इस सजा को खुशी-खुशी स्वीकार किया और अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
अंतिम समय
40 वर्षों के स्वर्णिम शासन के बाद 1839 ईस्वी में शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह जी इस दुनिया से विदा हो गए। उनकी धार्मिकता, पराक्रम, और न्यायप्रियता सिख इतिहास में अमर है। शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह सिख धर्म की विरासत का गौरवपूर्ण प्रतीक हैं।