अकली किजै दान
लोक-कल्याण और परोपकार हेतु सात्विक और सेवा भाव की जो महती प्रेरणा श्री गुरु रामदास जी ने आत्मसात की, वही परोपकार की सात्विक प्रवृत्ति आज भी सिख श्रद्धालुओं में दृष्टिगत होती है। सिमरन, धर्मशालाओं का निर्माण, लंगर सेवा, अस्पताल एवं विद्यालयों का सृजन, तथा भव्य गुरु धामों का निर्माण इत्यादि| ये सभी ऐसे ही सेवा कार्य हैं जो श्री गुरु रामदास जी से प्राप्त प्रेरणाओं का परिणाम हैं। इन्हीं के आशीर्वादों एवं कृपा का प्रतिफल है कि सिख संगत में इस प्रकार की रुचियाँ वर्तमान में प्रबल हैं और भविष्य में भी उजागर होती रहेंगी। ऐसे ही निष्काम सेवा भाव की वृत्ति प्रत्येक मानव में होनी चाहिए, क्योंकि समाज के प्रति किए गए निष्काम सेवा कार्यों से ही तन और मन की पवित्रता का अभ्युदय होता है। भक्ति और सेवा को मुक्ति का सच्चा साधन माना गया है, और निष्काम सेवाएं आत्मिक उन्नति की प्रथम सीढ़ी होती हैं। ऐसी सेवाएँ जीवन को परिपूर्ण एवं प्रेम-सिक्त बनाती हैं। व्यक्तिगत जीवन में सर्वोच्च सेवा लोक-सेवा मानी गई है, जबकि लालच एवं स्वार्थ से प्रेरित सेवा मात्र चाकरी अथवा नौकरी का स्वरूप ग्रहण कर लेती हैं। मानव मात्र के प्रति की गई सेवा ही सच्ची निष्काम सेवा कही जाती है। गुरबाणी में अंकित है-कबीर सेवा कउ दुइ भले एकु संतु इकु रामु। रामु जु दाता मुकति को संतु जपावै नामु।। (अंग क्रमांक 1373)
अर्थात, कबीर जी कहते हैं कि सेवा के लिए दो ही श्रेष्ठ हैं – एक संत और दूसरा राम। राम मुक्तिदाता हैं और संत मुक्ति प्रदाता के नाम का जप करवाते हैं। निःसंदेह, निष्काम सेवा बिना दान के संभव नहीं हो सकती, इसलिए सामर्थ्यानुसार दान का धर्म अनिवार्य है। यह प्रकृति का अकाट्य नियम है कि जो हम दूसरों को देते हैं, वह समय के साथ कई गुना होकर हमें लौट आता है। यह भी सत्य है कि दिया हुआ दान कभी घटता नहीं, बल्कि उसमें वृद्धि होती है। मनुष्य के जीवन में तीन प्रकार की प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। पहली वह जिसमें दान देने की आदत होती है, बिना किसी प्रतिफल की लालसा के – यह मूल दानी कहलाता है। दूसरा वह जो देने को तैयार है पर बदले में कई गुना पाने की आकांक्षा रखता है, इसे व्यापारिक प्रवृत्ति कह सकते हैं। तीसरा वह जो सदैव केवल लेने की ही इच्छा रखता है, जिसे लोभी कहा जाता है। दान करते समय ध्यान देने योग्य बातें:जब भी दान करने का अवसर मिले तो उसे तत्काल करना चाहिए, क्योंकि मन में कोई न कोई बहाना बनाकर इसे रोकने का प्रयास होता है। अच्छे कार्य के लिए ‘अभी नहीं, तो कभी नहीं’ का सिद्धांत अपनाना चाहिए। गुरबाणी में उल्लेख है-नह बिलबं धरमं बिलंब पापं|
द्रिड़ंत नामं तजंत लोभं। (अंग क्रमांक 1353)
दान के समय साधारणतः मन में हजार गुना अधिक पाने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। आसा दी वार में अंकित है-
सतिआ मनि संतोखु उपजै देणै कै विचारि। दे दे मंगहि सहसा गूणा सोभ करे संसार।। (अंग क्रमांक- 466)
दान करते समय स्वयं को महान दानवीर समझने का भाव नहीं आना चाहिए। यथासंभव दान को गुप्त ही रखना उचित है। गुरु साहिब ने हमसे अपनी आय का दसवंद देने का उपदेश दिया है। अकबर के दरबारी कवि रहीम अपनी आय का नौवां हिस्सा दान में दे देते थे और मात्र एक हिस्सा अपनी आजीविका के लिए रखते थे। ऐसी विनम्र प्रवृत्ति के दानी कवि रहीम जब दान देते थे तो नजरें नीची कर लेते थे। उनका यह विनम्र भाव इस बात का प्रतीक था कि असल दाता परमेश्वर ही है। क्रोध में दिया गया दान फलदायी नहीं होता, दान तो प्रेम और आनंद से करना चाहिए। गुरबाणी में कहा गया है:अकली पडि् कै बुझीऐ अकली किजै दानु। नानकु आखै राहु एहु होरि गलाँ सैतानु।। (अंग क्रमांक 1245)
दान देते समय यह विचार करना चाहिए कि वह दान सही दिशा में जा रहा है या नहीं, अन्यथा किसी अनुचित कार्य को बढ़ावा मिलने की संभावना हो सकती है। दान करते समय यदि अभिमान उत्पन्न होता है तो वह दान निष्फल हो जाता है। गुरबाणी में अंकित है:तीरथ बरत अरु दान करि मन मै धरै गुमानु॥ नानक निहफल जात तिह जिउ कुंचर इसनानु।। (अंग क्रमांक 1428)
प्राचीन काल में दान के अतिरिक्त ‘दक्षिणा’ देने का भी रिवाज था। दक्षिणा का तात्पर्य होता था, “हे दान ग्रहण करने वाले, हमारे द्वारा एक नेक कार्य करने का धन्यवाद स्वीकार करें।” अहंकार से बचने के लिए दसवें पातशाह श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने हर गुरसिख को अपनी आय का दसवां हिस्सा अर्थात (दसवंद), समाज की सेवा हेतु समर्पित करने का आदेश दिया। उनके अनुसार, हर सिख को अपने समय का भी दसवां हिस्सा भी सेवा में लगाना चाहिए।