श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में भक्त कबीर–

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श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में भक्त कबीर–

भूमिका—

ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरप्रसादि॥जपु॥

अब तउ जाइ चढे सिंघासनि मिले है सारिंगपानी॥
राम कबीरा एक भए है कोइ न सकै पछानी॥ (अंग क्रमांक 969)

भक्त कबीर जी कहते है! अब परमात्मा की प्राप्ति हो गई है और हृदय रूपी सिंहासन पर चढ़कर उसके संग हम बैठ गए हैं। अब कबीर एवं राम दोनों एक रूप हो गए हैं और कोई भी पहचान नहीं सकता कि कबीर कौन है? और राम कौन है? भारत के भक्ति काल के इतिहास में भक्त कबीर जी का आगमन अलौकिक है| भक्तों की श्रेणी में भक्त कबीर जी सर्वश्रेष्ठ है, जीवन के हर पहलू पर आपने अपने विचारों से समाज को नई दशा और दिशा दी है| फिर चाहे वह सामाजिक जीवन हो, या धार्मिक, या राजनीतिक! आडंबर, बिंब, पाखंड और अंध श्रद्धा का आपने खुलकर विरोध किया था| आप जी ने धर्म की बुनियाद को सच, दया और संतोष माना था|
आविर्भाव—

जेठ महीने की पूर्णिमा विक्रमी संवत 1455 ई. को बनारस में भक्त कबीर का आविर्भाव नीमो और नीरा नामक जुलाहे के गृहस्थ जीवन में हुआ था| यह परिवार मुस्लिम धर्म का अनुयायी था परंतु भक्त कबीर जी के संस्कार हिंदू/मुस्लिम से परे थे उन्होंने स्वयं अपनी वाणी में उद्धृत किया है—
ना हम हिंदू ना हम मुसलमान|| अलह राम के पिंडु परान||

(अंग क्रमांक 1136)

अर्थात राम का नाम लेने में मुझे कोई एतराज नहीं और ना ही अल्लाह के नाम लेने से मुझे इंकार है परंतु मैं ना हिंदू और ना ही मुसलमान! जैसे सूर्य का प्रकाश सभी के लिए समान होता है ठीक वैसे ही कबीर के विचार सर्व सांझे है, संपूर्ण कायनात के लिए है, मानवता के लिए है| भक्त कबीर का जन्म अत्यंत रहस्यमय ढंग से हुआ था, आप हंसते हुए इस जगत में आए थे| महापुरुषों की यह पहचान होती है कि वह हंसते हुए दुनिया में आते हैं और हंसते हुए जीते हैं, हंसते हुए ही इस संसार से रुखसत हो जाते हैं| अपनी तमाम उम्र में हंसी बांटना खुशियों को बांटना यहीं तो महापुरुषों के जीवन का मनोरथ होता है, लक्ष्य होता है| नींमो और नीरा दंपति अपनी इस अद्भुत संतान को देखकर फूले नहीं समाते थे| बाल्यकाल से ही आप आध्यात्मिक विचारों को अपने दृष्टिकोण से रखते थे| आप जी बचपन से ही बंदगी करने लगे और भक्ति में लीन हो जाते थे| वैदिक मंदिरों और धार्मिक मंदिरों के द्वारा आपके लिए बंद थे कारण आपने नीच जाति के जुलाहे के घर जन्म लिया था| उस समय आप जी का मंदिरों में प्रवेश वर्जित था एवं आप जी को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार भी नहीं था भले ही आपके लिए मंदिरों के द्वारा बंद थे परंतु आपने अपने अद्भुत सहजोन्मेष से लोगों के लिए ज्ञान के मंदिर के द्वारा खोले थे| आपने अपने आत्मज्ञान से दुनिया में प्रकाश किया था| आप जी को अपने शुद्र होने का अभिमान था आपने कभी भी अपनी जात को छुपाया नहीं था आप जी गर्व से कहते थे कि–
कबीर मेरी जाति कउ सभु को हसनेहारु॥
बलिहारी इस जाति कउ जिह जपिओ सिरजनहारु॥

(अंग क्रमांक 1364)
अर्थात कबीर जी कथन करते हैं कि मेरी (जुलाहा) जाति पर हर व्यक्ति हँसी उड़ाता था परन्तु मैं इस जाति पर बलिहारी जाता हूँ, जिसमें मैंने जीवन गुजार कर उस रचनहार परमेश्वर का भजन किया है|
आपने अपनी वाणी में अंकित किया है–
जाति जुलाहा मति का धीरु ॥
सहजि सहजि गुण रमै कबीरु॥

(अंग क्रमांक 328)
मैं जाति से जुलाहा हूँ और वर्ण से शूद्र हूं परन्तु स्वभाव से धैर्यवान हूँ। इसलिए मैं जगत में मनुष्य से ना कोई वर्ण जोड़ना चाहिए और ना ही जात जोड़नी चाहिए| कबीर धीरे-धीरे (सहज ही) राम के गुणों स्तुति करते है और कहते है—
गरभ वास महि कुलु नही जाती॥
ब्रहम बिंदु ते सभ उतपाती॥

(अंग क्रमांक 324)
वर्ण और जात का जन्म तो शरीर के साथ होता है परंतु मैं तो शरीर के जन्म लेने से पहले ही भी था इसलिए जात और वर्ण को मेरे साथ जोड़ना ठीक नहीं है आपने स्पष्ट रूप से कहा था कि—
जौ तूं ब्राहमणु ब्रहमणी जाइआ॥
तउ आन बाट काहे नही आइआ॥
तुम कत ब्राहमण हम कत सूद॥
हम कत लोहू तुम कत दूध॥

(अंग क्रमांक 324)
अर्थात यदि (हे पण्डित!) तुम सचमुच ब्राह्मण हो और तुमने ब्राह्मणी माता के गर्भ से जन्म लिया है तो तुम किसी दूसरे मार्ग द्वारा क्यों नहीं उत्पन्न हुए? (हे पण्डित!) तुम ब्राह्मण कैसे हो? और हम किस तरह शूद्र हैं? हमारे शरीर में रक्त ही तो है? तुम्हारे शरीर में क्या रक्त के स्थान पर पर दूध निकलता है? वहां से भी रक्त ही निकलेगा| मेरे शरीर में हाड़-मांस और दुर्गंध इत्यादि है तो तुम्हारे शरीर में भी तो यही सब कुछ है| शारीरिक रूप से तुम ब्राह्मण होकर कैसे श्रेष्ठ हो? इसका क्या सबूत है? कि तुम्हारे और मेरे बीच में अंतर है और क्या अंतर है? अंतर तो केवल मन का होता है, विचारों का होता है, अंतर तो सोच का है और मेरी सोच में परमात्मा है, सच है, ईश्वर है, मेरी सोच में ब्रह्म है, आप जी ने कहा कि–
कहु कबीर जो ब्रहमु बीचारै॥
सो ब्राहमणु कहीअतु है हमारै॥

(अंग क्रमांक 324)
हे कबीर ! जो ब्रह्म का चिंतन करता है, हम केवल उसी को ब्राह्मण कहते हैं|विचारों से ही आदमी बड़ा या छोटा हो सकता है|


सुन्नत—

जब मौलवी ने कबीर जी के पिताजी से कहा कि आपका पुत्र 9 वर्ष का हो गया है इसलिए इसकी सुन्नत करना आवश्यक है जिससे कि यह शरियत का धारणी हो सके| उस समय कबीर जी ने सुन्नत करने से स्पष्ट इनकार कर दिया और वचन किए जिसे श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में इस तरह अंकित किया गया है—
सकति सनेहु करि सुंनति करीऐ मै न बदउगा भाई॥
जउ रे खुदाइ मोहि तुरकु करैगा आपन ही कटि जाई॥
सुंनति कीए तुरकु जे होइगा अउरत का किआ करीऐ॥
अरध सरीरी नारि न छोडै ता ते हिंदू ही रहीऐ॥
(अंग क्रमांक 477)

मुसलमानों में स्त्री से आसक्ति-प्रेम के कारण सुन्नत करवाई जाती है लेकिन इसका संबंध अल्लाह के मिलन से नहीं है। है भाई! इसलिए मैं (सुन्नत पर) विश्वास नहीं करता। यदि अल्लाह ने मुझे मुसलमान बनाना था तो अपने आप ही सुन्नत जन्मजात हो जाती| यदि सुन्नत करने से कोई मुसलमान बनता है तो औरत का क्या होगा?
नारी तो अर्धांगिनी है, जो मनुष्य के शरीर का आधा भाग है, उसे कैसे छोड़ा जा सकता है? और यदि स्त्री अर्धांगिनी है तो आधा शरीर मुस्लिम और आधा हिंदू! यह कैसे संभव है? इसलिए हिन्दू बने रहना ही बेहतर है (सुन्नत का पाखंड नहीं करना चाहिए)| भक्त कबीर जी ने सुन्नत करने से स्पष्ट इनकार कर दिया था और कहा कि उस परमात्मा ने शरीर के सभी अंगों को पूर्ण कर भेजा है तो मैं अपने किसी भी अंग को कटवाने को तैयार नहीं हूं| इसी तरह से अपने जनेऊ संस्कार का भी विरोध कर अपनी वाणी में अंकित किया है—
हम घरि सूतु तनहि नित ताना कंठि जनेऊ तुमारे॥
तुम् तउ बेद पड़हु गाइत्री गोबिंदु रिदै हमारे॥
(अंग क्रमांक 482)

हे ब्राह्मण! हमारे घर में प्रतिदिन सूत का ताना ही तनता है परन्तु तुम्हारे गले में केवल सूत का जनेऊ ही तो है। जिसे तुम कंठ में डालकर ब्राह्मण बन जाते हो, तुम गायत्री-मंत्र का जाप एवं वेदों का अध्ययन करते रहते हो लेकिन हमारे हृदय में तो हमेशा गोविंद निवास करता है|

असहनीय कष्ट—

आप जी के ऐसे ज्वलंत विचार समय की हुकूमत को मंजूर नहीं थे| समय की हुकूमत ने आपको असहनीय कष्ट दिए और आपकी झोपड़ी को आग लगा दी थी आप जी गंगा किनारे अपनी भक्ति में लीन थे और जब आपके बेटे कमाल ने यह सूचना दी तो आपने तुरंत कहा—
राम जपत तनु जरि की न जाइ॥
राम नाम चितु रहिआ समाइ॥रहाउ॥

(अंग क्रमांक 329)

अर्थात है मेरे बेटे! यदि राम का नाम लेते हुए चाहे मेरा शरीर ही क्यों ना जल जाए परंतु मेरा मन तो राम के नाम में मन मे रमा रहेगा जिस मौज में और जिस आनंद में मैं बैठा हूं उसे कोई आग नहीं लगा सकता और ना ही कोई जला सकता है| मुझे तो राम नाम की मस्ती है कारण प्रभु ही आग है, प्रभु ही पानी है, प्रभु ही पवन स्वरूप है| आप जी ने वचन किया कि—
आपे पावकु आपे पवना॥
जारै खसमु त राखै कवना॥

(अंग क्रमांक 328)
भगवान स्वयं ही अग्नि है और स्वयं ही वायु है। यदि मालिक स्वयं ही (प्राणी को) जलाने लगे तो कौन रक्षा कर सकता है? आप जी के यह विचार उस समय की हुकूमत को खुली चुनौती थी| उस समय के हुक्मरान सिकंदर लोदी को यह मंजूर नहीं था| हुकूमत के आदेश पर कबीर जी को मौत की सजा सुनाई गई और उनकी मुश्कें बांध कर, उन्हें शराब के नशे में मस्त हाथी के सामने फेंक दिया गया था| महावत को आदेश दिया गया था कि हाथी के पैरों तले रौंद कर कबीर जी के जीवन को समाप्त कर दिया जाए| कमाल का था वह हाथी! उसने कबीर जी को सूंड में उठाकर नमस्कार किया और शांत चित खड़ा हो गया| इस घटना को कबीर जी ने अपनी वाणी में इस तरह अंकित किया है—
हसति न तोरै धरै धिआनु॥
वा कै रिदै बसै भगवानु॥
किआ अपराधु संत है कीना॥
बाँधि पोट कुंचर कर दीना॥
कुंचरु पोट लै लै नमसकारै॥
बूझी नही काजी अंधिआरै॥
(अंग क्रमांक 870)

अर्थात हाथी कबीर को मार नहीं रहा था अपितु परमात्मा के ही ध्यान में लीन था वह हाथी। उस हाथी के हृदय में भगवान ही बस रहे थे| देखने वाले लोग कह रहे थे कि इस संत ने क्या अपराध किया है? कि इसे पोटली में बांधकर इस हाथी के आगे डाल दिया गया? हाथी उस पोटली को देखकर, बार-बार प्रणाम करता था, हाथी समझ गया पर उस अंधे काजी ने परमात्मा की रजा को नहीं समझा था|
इस घटना से हताश होकर समय की हुकूमत ने कबीर जी को गंगा में फेंकने का आदेश किया था| उस समय भादो का महीना था और गंगा पूरे यौवन पर चढ़कर बह रही थी| गंगा की लहरों में अथाह पानी बह रहा था| ऐसी विकराल बाढ़ के समय में कबीर जी को उठाकर गंगा के गहरे पानी में फेंक दिया था| उस समय कबीर जी ने जो कहा, उसे श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में इस तरह अंकित किया गया है—
गंगा की लहरि मेरी टुटी जंजीर ॥
म्रिगछाला पर बैठे कबीर॥

(अंग क्रमांक 1162)

अर्थात गंगा की लहरों से मेरी जंजीर टूट गई और कबीर जी गंगा की लहरों से ऐसे सुरक्षित बाहर आ गए जैसे मृगछाला पर बैठकर आए हो। जो लहरें इंसान को डूबा देती है उन लहरों ने कबीर जी की जंजीरों को तोड़ दिया था| जब लहरे ही पार लगायेगी, तो कौन डूबायेगा? जिस व्यक्ति को दुख ज्ञान दे जाए, प्रेरणा दे जाए, और भवसागर से पार लगाये, सच जानना ऐसे व्यक्ति को दुख देना बहुत कठिन है, बहुत कठिन है, समझदार व्यक्ति जीवन के हर दुख से नई प्रेरणा लेता है, नया अनुभव लेता है, नई शिक्षा लेता है, नई दीक्षा लेता है, कबीर जी ने अपनी वाणी में कहा है—
मनु न डिगै तनु काहे कउ डराइ॥
चरन कमल चितु रहिओ समाइ॥रहाउ॥
(अंग क्रमांक 1162)

अर्थात जब मन नहीं डोलता तो फिर तन कैसे डर सकता है। कबीर का चित्त ईश्वर के चरण कमल में विलीन है| ऐह सिकंदर जब मन डोलता नहीं है तो तुम भले ही मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दो, मैं शरीर के तल से ऊंचा जीवन जी रहा हूं|

सच का उपदेश—

भक्त कबीर जी ने उस समय सभी जाति, धर्म के लोगों को सच का उपदेश दिया था| वृद्धावस्था में आपने बनारस को छोड़ने का निर्णय लिया, जिसे गुरबाणी में इस तरह अंकित किया गया है—
सगल जनमु सिव पुरी गवाइआ॥
मरती बार मगहरि उठि आइआ॥

(अंग क्रमांक 326)
मैंने अपनी समस्त आयु शिवपुरी (काशी) में गंवा दी है। मृत्यु के समय (काशी) छोड़कर मगहर चला आया हूँ| कारण—
जउ तनु कासी तजहि कबीरा रमईऐ कहा निहोरा॥ ॥रहाउ॥
कहतु कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई॥

यदि कबीर अपना शरीर काशी (बनारस) में त्याग दे और मोक्ष प्राप्त कर ले तो इसमें मेरे राम का मुझ पर कौन-सा उपकार होगा?
कबीर जी का कथन है कि हे लोगो! ध्यानपूर्वक सुनो, कोई भ्रम में पड़कर भत भूलो; कबीर जी अपनी पत्नी लोई जी को संबोधित करते हुए कहते हैं कि–
कहत कबीर सुनहु रे लोई॥
राम नाम बिनु मुकति न होई॥

(अंग क्रमांक 481)
अर्थात कबीर जी कहते हैं, ध्यानपूर्वक सुनो! कोई भ्रम में पड़कर मत भूलो, जिसके हृदय में राम स्थित है, उसके लिए क्या काशी? क्या मगहर? अर्थात शरीर त्यागने के लिए दोनों स्थान एक समान ही है| स्थान का भेद कोई अहमियत नहीं रखता है, इस तरह के भ्रम जालों से कबीर जी ने मानव जाति को मुक्त किया|
निश्चित ही प्रत्येक महापुरुष, संत धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन से जुड़े रहते हैं| कबीर जी का जीवन एक संतुलित गृहस्थ जीवन था| धार्मिक तौर पर सर्वश्रेष्ठ संतों के जीवन के बाकी के पहलू बेदाग रहते हैं| भक्त कबीर जी का सामाजिक जीवन अत्यंत पावन और पुनीत था| आपके राजनैतिक विचार भी पवित्रता से ओत-प्रोत थे| आप जी का गृहस्थ जीवन एक आदर्श जीवन था|

ब्रह्मभोज—

एक बार आपसे ईर्ष्या रखने वाले लोगों ने आपको बेइज्जत करने के लिए आसपास के इलाके में ऐसे निमंत्रण भेज दिए की, आने वाली पूर्णिमा को भक्त कबीर जी के गृह में ब्रह्मभोज होगा और इस अवसर पर आने वाले सभी मेहमानों को कबीर जी की ओर से एक-एक स्वर्ण मुद्रा और सुंदर वस्त्र भी उपहार स्वरूप दिए जाएंगे| उस दिन जरूरतमंद साधु, संत और ब्राह्मण कबीर जी के निवास स्थान पर मेले के रूप में इकट्ठे हो गए थे परंतु ईश्वर की कृपा से कुछ लोग ऐसे भी आए थे जिन्होंने उस ब्रह्मभोज का संपूर्ण आयोजन सफलतापूर्वक किया| यह सब इंतजाम कबीर जी की आर्थिक सामर्थ्य के बाहर था|

आयोजन की समाप्ति पर जब चारों ओर से धन्य कबीर! धन्य कबीर! का शोर होने लगा तो आप जी ने जो कहा उसे गुरबाणी में इस तरह अंकित किया गया है—
कबीर ना हम कीआ न करहिगे ना करि सकै सरीरु॥
किआ जानउ किछु हरि कीआ भइओ कबीरु कबीरु॥

(अंग क्रमांक 481)

कबीर जी कहते हैं- न मैंने कुछ (अतीत में) किया है, न ही (भविष्य में) कुछ कर सकूंगा और न ही मेरा शरीर कुछ कर सकता है। मैं यह भी नहीं जानता कि यह किसने किया? सब परमात्मा ने ही किया, जिससे दुनिया में कबीर के नाम से प्रसिद्ध हो गया हूँ|

श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में अंकित वाणी—


कबीर जी की वाणी में धार्मिक उपदेशों को बड़े ही सुफियाना अंदाज में प्रस्तुत किया गया है| आपकी वाणी में श्लोक, छंद, सबद, पद्य लगभग सभी रागों में अंकित है| भक्ति वाणी में सबसे ज्यादा श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में भक्त कबीर जी की वाणी अंकित की गई है| जिस भी स्थानों पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में भक्त वाणियों का प्रारंभ होता है तो उन स्थानों पर प्रथम पद्य भक्त कबीर जी का ही अंकित होता है| आप जी की वाणी ने मानव जीवन के प्रत्येक पहलू पर उत्तम प्रकाश डाला है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में भक्त कबीर जी द्वारा रचित 229 पद्य गुरमत संगीत के 17 रागों में और 243 श्लोकों में संकलित है। (इन में 6 गुरु साहिबान के श्लोकों को भी संकलित किया गया) अर्थात कबीर वाणी की संख्या अन्य भक्तों की तुलना में सर्वाधिक है। इससे स्पष्ट है कि भक्त कबीर जी की मूल अवधारणा सिख गुरुओं की मान्यताओं के अनुसार एक समान अर्थात अभेद है। मानवीय जीवन शैली पर भक्त कबीर जी और सिख गुरुओं ने एक जैसे ही विचारों को प्रस्तुत किया है। इसी कारण से ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में भक्त कबीर जी के 243 श्लोकों के स्पष्टीकरण में एक श्लोक श्री गुरु अमर दास जी का और पांच श्लोक श्री गुरु अर्जन देव जी के भी शामिल है।
इस ग्रंथ के संपादन में श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी ने स्वयं की वाणी और चार गुरु साहिबान की वाणियों से अधिक संख्या में ‘कबीर वाणी’ को स्थान दिया है। इससे स्पष्ट है कि समान विचारधारा वाली वाणीयों से इस ग्रंथ के संपादन में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया था। इसलिए इस पावन-पुनीत ग्रंथ में 12 वीं शताब्दी के बाबा फरीद से लेकर 17 वी शताब्दी के श्री गुरु तेग बहादुर जी की वाणी को संग्रहित किया गया है।

सन् 1708 ई. में ‘श्री गुरु गोबिंद सिंह जी’ ने महाराष्ट्र की धरती अबचल नगर श्री हजूर साहिब नांदेड़ में देहधारी गुरु की परंपरा को समाप्त कर ‘शब्द गुरु’ के रूप में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की स्थापना कर उन्होंने इस ग्रंथ के प्रारंभ से ही ‘गुरु शब्द’ को जोड़कर ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के नाम को अधोरेखित किया था। उस समय से लेकर वर्तमान समय तक यही नाम प्रचलित है। जहां यह ग्रंथ सिख धर्म के अनुयायियों के लिए गुरु रूप में पूजनीय है, वही इस पावन ग्रंथ में अन्य 35 वाणी कारों को भी ‘शब्द गुरु’ के रूप में एक जैसा सम्मान और सत्कार प्राप्त है अर्थात् इस ग्रंथ में संकलित गुरुओं की वाणी ‘शब्द गुरु’ के रूप में है तो निसंदेह ‘कबीर वाणी’ को भी तो गुरु रूप ही सम्मान और सत्कार प्राप्त है।

कबीर वाणी की सार्थकता—

भक्त कबीर ने ऐसे भक्ति काल में जन्म लिया था कि आपकी भक्ति लहर से उस समय के अनेक संतों का आविर्भाव हुआ था, जैसे कि संत रविदास जी, संत नामदेव जी, संत सदना जी, संत सेन जी, संत भीखन जी इत्यादि| आप जी की वाणी का प्रचार-प्रसार समाज में चारों दिशाओं में बहुत तेजी से हुआ था| उस समय समकालीन संतों और भक्तों ने समन्वयशील दृष्टिकोण अपनाकर बौद्धिकता की भावना को साधना के क्षेत्र में प्रश्रय दिया। इन सभी ने भक्ति द्वारा जात-पात और अंधश्रद्धा के भूत को गाढ़ने की कोशिश की। कबीर जी की विचार धारा पर चलने वाले यह संत, भक्त अधिकांश अद्विज जातियों से थे। संभवत जाति हीनता से मुक्ति पाने के लिये यह सभी ईश्वर भक्ति में लीन हुए। ईश्वर भक्ति द्वारा, नीच समझे जाने वाले लोग भी ऊपर उठ जाते हैं, यह विश्वास भक्त कबीर जी में था और उनका यह विश्वास ही उन्हें उस युग के द्विज भक्तों में सर्वश्रेष्ठता की ओर ले गया ले गया। उनकी अनन्य भक्ति द्वारा ही उन्हें समाज में स्वीकृति मिली, ख्याति, प्रशंसा और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।

वर्तमान समय में भी यदि हमें कोई दार्शनिक विचार प्रस्तुत करना होता है तो कबीर वाणी का ही सहारा लिया जाता है| कबीर जी की वाणी में कहीं व्यंग है, कहीं हास्य रस है, कहीं रौद्र रूप है, तो कहीं आत्मा शांति है, कहीं पर तो अपने वीर रस से ओत-प्रोत रचनाएं भी लिखी है| आप जी की वीर रस की वाणी श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में इस प्रकार से अंकित है—

सलोक कबीर॥
गगन दमामा बाजिओ परिओ नीसानै घाउ॥
खेतु जु माँडिओ सूरमा अब जूझन को दाउ॥
सूरा सो पहिचानीऐ जु लरै दीन के हेत॥
पुरजा पुरजा कटि मरै कबहू न छाडै खेतु॥
(अंग क्रमांक 1105)

अर्थात् वह ही शूरवीर योद्धा है जो दीन दुखियों के हित के लिए लड़ता है। जब मन–मस्तिष्क में युद्ध के नगाड़ों की अनुगूंज होती हैं तो धर्म योद्धा निर्धारित कर वार करता हैं और मैदान–ए–ज़ंग में युद्ध के लिए ‘संत-सिपाही’ हमेशा तैयार–बर–तैयार रहता हैं। वह ‘संत–सिपाही’ शूरवीर हैं, जो धर्म युद्ध के लिए जूझने को तैयार रहते हैं।शरीर का पुर्जा–पुर्जा कट जाए परंतु आखरी सांस तक मैदान–ए–ज़ंग में युद्ध करता रहता है। भक्त कबीर जी द्वारा रचित यह बाणी ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में ‘मारू राग’ के अंतर्गत अंकित है।

ऐसे महान भक्त कबीर जी के चरणों में सादर नमन!

नोट:-1. उपरोक्त आलेख ‘राष्ट्रीय शिक्षक संचेतना उज्जैन (म.प्र.) द्वारा आयोजित 8 वें संत श्री कबीर जयंती महोत्सव में पुणे से प्रकाशित दैनिक भारत डायरी और टीम खोज-विचार (संस्थापक इतिहासकार, सरदार भगवान सिंह जी ‘खोजी’ पटियाला सुबा पंजाब) की और से प्रस्तुत किया गया है।

  1. गुरबाणी का हिंदी अनुवाद गुरबाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
    साभार:- आलेख में प्रकाशित गुरबाणी के पदों की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है। आलेख गुरु पंथ खालसा के महान विद्वान, कथा वाचक ज्ञानी संत सिंह जी मसकिन की कथा साखी भगत कबीर जी से अभिप्रेत है।

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