तपते-तवे की दास्तान. . .
मैं सामान्य तवे की तरह ही एक तवा हूं। आम तवों की तरह. . . लोहे से बना. . .एक सामान्य तवा. . . पर, एक दिन मेरी जिंदगी में ऐसा तूफान आया, जिसने मेरी जिंदगी में उथल-पुथल मचा दी थी|
30 मई सन 1606 ई. का वह दिन! जिसे आज तक कोई नहीं भूल पाया है और ना ही कोई भूल पाएगा| आज ही के दिन लाहौर में शहीदों के सरताज, महान शांति के पुंज, गुरु वाणी के बोहिथा (ज्ञाता/ सागर), सिख धर्म के पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी एक महान कवि, लेखक, देशभक्त, समाज सुधारक, लोकनायक, परोपकारी और ब्रह्मज्ञानी ऐसी अनेक प्रतिभा से संपन्न गुरु जी को मुझ गरमा-गरम लाल तपते हुए तवे पर बैठा के असहनीय कठोर यातनाएं दी गयी। अत्याचारियों ने अमानवीय कृत्य को अंजाम देकर हैवानियत कि हद्द कर दीं थी। इस तरह की अमानवीय यातना, जो अब तक किसी ने न सुनी थी, न देखी थी|
मुझे आज भी वह दिन बहुत अच्छे से याद है, जिस दिन मैं और गरमा-गरम रेत एक दूसरे से लिपट कर खूब दहाडे़ मार-मारकर रोए थे, हमारी आंखों से आंसुओं कि सुनामी रुक ही नहीं रही थी, हम शर्म से जारो-जार हो रहे थे, वहां कोई नहीं था। हम चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे, गुरु साहिब पर अत्याचार करने के लिए हमारा इस्तेमाल एक शस्त्र की तरह किया जा रहा था। “जिस तन लागी सोई जाने” के अनुसार हमारी व्यथा, हमारा दर्द, हमारी मजबूरी केवल और केवल हम ही जानते थे, कोई और नहीं।