ੴ सतिगुर प्रसादि॥
प्रासंगिक: श्री गुरु हरि राय साहिब जी के प्रकाश पर्व पर विशेष—
(अद्वितीय सिख विरासत/गुरबाणी और सिख इतिहास,https://arsh.blog/) (टीम खोज–विचार की पहेल)
श्री गुरु हरि राय साहिब जी का संक्षिप्त जीवन परिचय—
नैंह मलेश को दरशन देहैं॥ नैंह मलेश के दरशन लेहैं॥
श्री गुरु नानक देव जी की ज्योति, शांति की मूर्ति, कोमल हृदय के स्वामी, आयुर्वेद के महान चिकित्सक, प्रकृति प्रेमी, और पशु पक्षियों के प्रति हमदर्दी रखने वाले सिख धर्म के सातवें श्री गुरु गुरु हरि राय जी का प्रकाश (आविर्भाव) 30 जनवरी सन् 1630 ई. में किरतपुर, जिला रोपड़, सुबा पंजाब में माता निहाल कौर जी की कोख से हुआ था। आप के पिता बाबा गुरुदित्ता जी श्री गुरु हरगोविंद जी के जेष्ठ पुत्र थे। आप की धार्मिक, शारीरिक और आध्यात्मिक शिक्षाएँ श्री गुरु हरगोविंद जी एवं भाई गुरुदास जी के मार्गदर्शन में संपन्न हुई थी। जहाँ पर आपको भक्ति की विरासत और धरोहर ने कोमल हृदय, भावुक और उदार बनाया, वहीं पर शक्ति की विरासत और धरोहर ने आपको साहसी निर्भीक और धर्म योद्धा बनाया था। आप को ‘गुरु के महल’ के रूप में बीबी किशन कौर (बीबी सुलखनी जी) की प्राप्ति हुई थी। आप के दो पुत्र बाबा राम राय जी और श्री गुरु हर कृष्ण साहिब जी हुये है।
श्री गुरु हरगोविंद जी को 5 पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई थी, जिसमें सबसे ज्येष्ठ बाबा गुरदित्ता जी, बाबा अनि राय जी, बाबा अटल जी, बाबा सूरजमल जी एवं भावी गुरु, श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी थे। आप की एक सुपुत्री बीबी वीरों थी, उस समय में परिस्थितियों अनुसार दूरदर्शिता का परिचय देते हुए भविष्य की गुरु गद्दी आप ने अपने पौत्र श्री गुरु हरि राय जी को बक्शीश करने का योग्य फैसला लिया था। सिख धर्म की यह अद्वितीय घटना है कि भविष्य में आठवीं पातशाही श्री गुरु हर कृष्ण जी ने भविष्य की गुरु गद्दी अपने दादा जी के छोटे भाई दादा समान श्री गुरु तेग बहादुर जी को बक्शीश करी थी अर्थात दादा ने अपने पौत्र को गुरु गद्दी पर विराजमान किया और भविष्य में पौत्र ने अपने दादा को गुरु गद्दी पर सुशोभित किया था।
शांति की मूर्ति और कोमल हृदय के स्वामी श्री गुरु हरि राय जी बचपन से ही संवेदनशील और शांत स्वभाव की गंभीर प्रकृति के थे| गुरु दरबार की सभी मर्यादा और सिद्धांतों का भली-भांति आप अनुपालन करते थे। श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी का भावी श्री गुरु हरि राय साहिब जी से अत्यंत स्नेह था। भावी श्री गुरु हरि राय साहिब जी भी अपने दादा श्री गुरु हरगोविंद जी के नक्शे कदमों पर चलकर जीवन सफल कर रहे थे। आप के जीवन का अधिकतम समय कीरतपूर के सुरम्य प्राकृतिक वातावरण में व्यतीत हुआ था, इसलिए आप की प्रकृति कोमल, दयालु, भावुक और संवेदनशील हो गई। आप एकांत प्रिय परमात्मा की भक्ति में लिप्त होकर हमेशा दान-पुण्य के कार्यों की सेवा करते थे।
उस समय में किरतपुर में गुरु ‘श्री हरगोविंद साहिब जी के कर-कमलों से सुंदर बगीचे को लगाया गया था। नित्य-नेम की हाजिरी एवं संगत से मुलाकात के पश्चात गुरु जी इस सुंदर बाग में टहलने जाते थे। गुरु पातशाह जी के साथ ही उनके पौत्र भावी श्री गुरु हरि राय जी चहलकदमी करते थे। एक दिन भावी श्री गुरु हरि राय साहिब जी के लंबे चोले के कारण बाग का एक फूल टूट गया था। जब श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी ने जानकारी लेते हुए पूछा कि इस फूल को तोड़कर ‘कुदरत का विनाश’ किसने किया? तो उस समय ज्ञात हुआ कि फूल भावी श्री गुरु हरि राय जी के लंबे चोले के कारण पेड़ की टहनी के अटकने से टूट गया था। श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी ने उस समय अपने पौत्र भावी श्री गुरु हरि राय जी को मृदु भाषा में स्नेहित होकर समझाया था कि पुत्र जी जब आप बड़े चोला धारण करते हो तो उसे संभालकर आगे कदम रखना चाहिए। इस वाक्य का भावार्थ था कि जब जीवन में बड़ी जवाबदारी को निभाना हो तो दामन को संभालकर, सुरक्षित होकर कदम बढ़ाना चाहिए। इस वचन को भावी श्री गुरु हरि राय जी ने तहजीवन एक मंत्र के रूप में अपनाया और आप हमेशा अपने चोले को संभालकर, सुरक्षित कर चलते थे। आप ने सदैव गुरु घर की गरिमा और मर्यादाओं को संज्ञान में रख कर अपना जीवन व्यतीत किया था। किरतपुर की धरती पर श्री गुरु हरगोविंद जी ने एक दिन भरे दरबार में फ़रमान जारी किया था। जिसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है–
श्री गुरु हरिगोविंद आगिया कीन, पुरनमासी महि दिन तीन।
तिस दिन होइ है दरस हमारा इतना करो मंगल कारा॥
अर्थात् पुरनमासी (पूर्णिमा) को अभी तीन दिवस शेष है और आप सभी संगत उस दिन मित्र परिवार और रिश्तेदारों के साथ दरबार में आमंत्रित हैं। तीन दिनों पश्चात पूर्णिमा के दिवस सजे हुए बड़े पंडाल में विशाल जनसमूह (संगत) के समक्ष बाबा बुड्डा जी के पुत्र भाई भाना जी के कर-कमलों से ‘गुरता गद्दी’ की समस्त रस्मों को पूर्ण कर श्री गुरु हरि राय साहिब जी को ‘गुरु गद्दी’ का उत्तराधिकारी नियुक्त किया गया था। उस समय श्री गुरु हरगोविंद जी ने जिन वचनों को उद्गारित किया था, उन वचनों को इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है–
पुन सभ को ,गुरू कही सुनाइ मम सति अबि जोन हरि राये॥
अर्थात् आज के पश्चात ‘श्री गुरु नानक साहिब जी की ज्योति श्री गुरु हरि राय जी में समाहित हो चुकी है। उपस्थित संगत को बहुत बधाइयाँ! आज के पश्चात श्री गुरु हरि राय जी सिख धर्म के 7 वें गुरु होंगे और गुरु ‘श्री हरगोविंद साहिब जी’ स्वयं प्रथम ‘गुरु गद्दी’ के समक्ष नतमस्तक हुए थे। भाई भाना जी ने ‘गुरता गद्दी’ के तिलक को श्री गुरु हरि राय साहिब जी के कपाल पर लगाया था।
गुरु पुत्रों में से एक भावी श्री गुरु तेग बहादुर जी ने 14 वर्ष की आयु के श्री गुरु हरि राय जी जो कि रिश्ते में आपके भतीजे लगते थे और आप से आयु में 10 वर्ष छोटे थे। भावी श्री गुरु तेग बहादुर जी ने स्वयं आगे होकर शीश झुकाकर नतमस्तक की मुद्रा में अभिवादन किया था। उपस्थित सभी संगत ने भी नतमस्तक होकर गुरु पातशाह जी का अभिवादन किया था। इस समय माता नानकी जी ने श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी को निवेदन किया था कि पातशाह जी वर्तमान समय से करीब 24 से 25 वर्षों पूर्व आपने वचन किए थे कि भावी श्री गुरु तेग बहादुर जी कोई साधारण बालक नहीं है। भविष्य में यह बालक ‘गुरु गद्दी’ के उत्तराधिकारी हो सकते हैं परंतु सच्चे पातशाह जी आपकी यह महिमा समझ में नहीं आई! श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी ने अपनी सौभाग्यवती पत्नी को वचन स्वरूप जो उत्तर दिया उसे इतिहास में इस तरह से अंकित किया गया है–
श्री गुरु कहि तुम चित तज’समां पाइ तुम आइ।
तुम सुत नंदन अमित बल सभ जग करै सहाइ॥
(उपरोक्त बाणी गुरु बिलास पातशाही 6 वीं में अंकित है।)
आप ने भावी श्री गुरु तेग बहादुर जी के भविष्य के संबंध में उपरोक्त वचन उद्गारित किए थे। इस प्रकार से श्री गुरु हरि राय जी की ‘गुरु गद्दी’ विराजमान हुए थे।
श्री गुरु हरि राय साहिब जी ने अपने कार्यकाल में किरतपुर में निवास करते हुए अपने कर-कमलों से 52 सुंदर बगीचों का निर्माण करवाया था। इन सुंदर बगीचों में स्वयं के कर-कमलों से पेड़ों को लगाया गया था। विशेष रूप से इन 52 बगीचों में दुर्लभ जड़ी-बूटियों का रोपण भी किया गया था ताकि आने वाले समय में लोक-कल्याण हेतु इन दुर्लभ जड़ी-बूटियों का उपयोग किया जा सके। साथ ही आप ने जख्मी और बीमार पशु-पक्षियों की सेवा करने हेतु एक चिड़िया घर का भी निर्माण किया था। लोक-कल्याण और सेवा कार्यों को आगे बढ़ाते हुए उस समय के सभी ‘वैद्य राज’ और चिकित्सकों को आमंत्रित कर उपलब्ध जड़ी-बूटी और पास ही में स्थित शिवालिक पहाड़ियों से एकत्र जड़ी-बूटियों से आयुर्वेदिक औषधियों का निर्माण कर स्वयं के प्रारंभ किए हुए दवाखाना में रोगियों का रोग दूर कर महान सेवाएँ की जाती थी। इस दवाखाना के माध्यम से दुर्गम रोगों का भी सफलतापूर्वक इलाज किया जाता था। यह सभी सेवाएँ गुरु पातशाह जी मुफ्त में उपलब्ध करवाते थे। इसलिये भाई गुरदास जी ने गुरु पातशाह जी को संपूर्ण वैद्य कहा है जो शारीरिक रोगों के साथ काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार इत्यादि मनोविकारों का भी उपचार करता है।
श्री गुरु हरि राय जी ने अपने पिता श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी के वचनों का पालन करते हुए हमेशा 2200 घुड़सवारों की सेना को साथ में रखते हुए शस्त्रों के अभ्यास को अपनी जीवन यात्रा में प्रोत्साहित किया करते थे। सन् 1646 ई. में पंजाब में भीषण अकाल पड़ा था। इस मुश्किल समय में गुरु जी ने अकाल पीड़ितों की सेवा हेतु किरतपुर में स्थित अपने दवाखाने के दरवाजे अकाल पीड़ितों के लिए खोल दिये थे, स्वयं सेवा-सुश्रुषा करते हुए रोगियों का इलाज आप जी ने किया था। गुरु पातशाह जी के व्यक्तित्व में गजब का अलौकिक आकर्षण था, आप के दर्शन कर आम लोग सिखी की मुख्य धारा से तेजी से जुड़ने लगे थे। प्रसिद्ध सिख इतिहासकार प्रिंसीपल सतबीर सिंह जी ने लिखा है कि, गुरु पातशाह जी का यश और किर्ती चारों दिशाओं में सूर्य की किरणों की भांति फैल रही थी, आप के दरबार की सजावट अद्भुत और निराली थी। आप के चेहरे की नूरानी झलक उपस्थित संगत में जीवन-रस भर देती थी। आप के सिखों के द्वारा कई नगरों में धर्मशालाएँ, चिकित्सा सेवा केन्द्र, प्रचार केन्द्र इत्यादि स्थापित किये गये और लगभग 360 प्रचार केन्द्रों की स्थापना की गई थी साथ ही आप ने सिख धर्म के प्रचार के लिये 3 प्रमुख बक्शीश (प्रचार) केंद्र भी स्थापित किये जिसका दायित्व भाई सुथरे शाह जी, भाई भगत भगवान जी, भाई फेरू जी जैसे महान गुरु सिखों को सौंपा था। उस समय में दिल्ली के तख्त पर आसीन शाहजहाँ का पुत्र दारा शिकोह गंभीर रूप से बीमार हो गया था। दारा शिकोह की दुर्गम बीमारियाँ नाइलाज थी। उस समय के ‘वैद्य राज’ और चिकित्सकों ने शाहजहाँ को सूचित किया था कि बीमार दारा शिकोह का इलाज किरतपुर स्थित श्री गुरु हरि राय जी के दवाखाने में ही संभव है। दारा शिकोह जब किरतपुर से दवाखाने में उपस्थित हुआ तो श्री गुरु हरि राय साहिब जी ने अमूल्य जड़ी बूटियों से निर्मित औषधियों से दारा शिकोह का इलाज कर उसे रोग मुक्त किया था। इस कारण दारा शिकोह की गुरु घर पर अपार श्रद्धा थी।
सन् 1658 ई. में कुटिल नीतियों के महारत औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को नजर बंद करवा दिया था और अपने भाइयों के विरोध में बगावत का बिगुल फूंक दिया था। इस कारण दारा शिकोह पर भी आक्रमण हो चुका था। दारा शिकोह अपनी जान बचाने के लिए दिल्ली से लाहौर की और पलायन कर गया था। उस समय श्री गुरु हरि राय साहिब जी का किरतपुर से करतारपुर साहिब की और आगमन हुआ था। वहाँ से गुरु पातशाह जी बाबा बकाला नामक स्थान में भावी गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी को भेंट दे कर गोइंदवाल साहिब नामक स्थान पर पहुँचे थे। जब आप जी गोइंदवाल साहिब नामक स्थान पर संगत के बीच धर्म का प्रचार-प्रसार कर संगत को गुरु घर से जोड़ रहे थे तो उस समय दारा शिकोह ने गुरु जी के समक्ष उपस्थित होकर मदद की गुहार लगाई थी। गुरु पातशाह जी हमेशा 2200 घुड़सवारों की सेना से सुसज्जित रहते थे। इस घटना को इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है–
जो शरण आये तिस कंठ लावै॥
अर्थात जो गुरु की शरण में आ गया उसे गुरु पातशाह जी ने अपने कंठ (गले) से लगाना ही है।
गुरु पातशाह जी ने अपनी सैन्य शक्ति से दारा शिकोह की मदद की थी पश्चात चुगलखोर धीरमल ने औरंगजेब के कान भरे थे और कहा कि यदि श्री गुरु हरि राय साहिब जी मदद नहीं करते तो तुम अपने भ्राता दारा शिकोह को जान से मारने में कामयाब हो जाते थे। इस चुगलखोरी में धीरमल की विशेष भूमिका थी। श्री गुरु हरि राय जी की ओर से दारा शिकोह की मदद की गई थी और दरिया के किनारे उन्होनें अपनी सेना को तैनात कर औरंगजेब की सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया था। इस तरह से दारा शिकोह पलायन कर सुरक्षित लाहौर की ओर प्रस्थान कर गया था। तत्पश्चात ‘मसंद’ धीरमल के द्वारा औरंगजेब को सूचित कर शिकायत की थी कि दारा शिकोह की मदद श्री गुरु हरि राय साहिब जी ने की थी। औरंगजेब ने अपने पत्र के द्वारा श्री गुरु हरि राय साहिब जी को सूचित कर दारा शिकोह की जो मदद की गई थी उसका स्पष्टीकरण मांगा था परंतु श्री गुरु हरि राय साहिब जी ने निश्चय कर लिया था कि–
नैंह मलेश को दरशन देहैं॥ नैंह मलेश के दरशन लेहैं॥
अर्थात कि हम औरंगजेब के मुँह नहीं लगेंगे। गुरु ‘श्री हरि राय साहिब जी ने निश्चित किया था कि वो स्वयं औरंगजेब के समक्ष न जाते हुए अपने बड़े बेटे राम राय को औरंगजेब से मिलने के लिए दिल्ली भेजेंगे। राम राय जी को औरंगजेब के निमंत्रण पर दिल्ली भेजने का निश्चय किया और राम राय जी से कहा पुत्र जी हमारे स्थान पर आप दिल्ली जाएंगे। आपकी बाणी पर श्री गुरु नानक देव साहिब जी का वास होगा। आप जो शब्द कहोगे वो सच होंगे परंतु श्री गुरु नानक देव जी द्वारा निर्मित ‘गुरु मर्यादाओं’ की सीमा का उल्लंघन नहीं करना है।
श्री गुरु हरि राय साहिब जी ने गुरु पुत्र राम राय के साथ अपने कुछ मसंद भी दिल्ली भेजे थे। दिल्ली पहुंचकर राम राय जी ने गुरु घर की मर्यादाओं के विपरीत करामतों का प्रदर्शन प्रारंभ कर दिया था। राम राय जी बिना कहारों की सहायता से पालकी में बैठकर हवा में उड़ते हुए औरंगजेब के समक्ष हाजिर होते थे। औरंगजेब को खुश करने के लिए राम राय जी औरंगजेब के कहने पर विभिन्न प्रकार की 72 करामतों का प्रदर्शन भरे दरबार में कर चुके थे। गुरु पुत्र राम राय जी की बाणी पर श्री गुरु नानक देव जी का वास था। औरंगजेब के द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का राम राय जी सही-सटीक और निष्पक्ष जवाब देते थे। इससे औरंगजेब पर राम राय जी का उत्तम प्रभाव पड़ा था।
औरंगजेब के द्वारा गुरु पुत्र राम राय की उत्तम सेवाएँ की गई थी। दरबार में उपस्थित लोगों ने भी आपकी बहुत जय-जयकार की थी। इसका कारण यह भी था कि गुरु पुत्र राम राय भविष्य में भावी गुरु हो सकते थे।
इन सभी घटनाओं से गुरु पुत्र राम राय को इसका बहुत अहंकार हो गया था। अहंकारी राम राय ने भविष्य में ‘गुरु गद्दी’ के स्वप्न देखना प्रारंभ कर दिए थे। उस समय की नजाकत को देखते हुए औरंगजेब ने भरे दरबार में गुरु पुत्र राम राय से प्रश्न पूछा कि श्री गुरु नानक देव साहिब जी की बाणी में आता है–
मिटी मुसलमान की पेडै़ पई कुमि्आर॥ (अंग 466)
इस वाक्य का भावार्थ क्या है?
गुरु पुत्र राम राय ने विचार किया कि यदि मैंने इसका सही भावार्थ किया तो ऐसा ना हो कि औरंगजेब मुझसे नाराज हो जाए उस समय गुरु पुत्र ने गुरुवाणी के इस वाक्य रचना को ही बदल दिया था। भरे दरबार में राम राय ने औरंगजेब को उत्तर दिया कि शायद आप भ्रमित हो गए! इस वाक्य की रचना में तो ‘मिट्टी बेईमान की’ शब्द को लिखा गया है परंतु लेखक की गलती से इस वाक्य में ‘मिट्टी मुसलमान की’ शब्द अंकित हो गया है।
गुरु पुत्र रामदास के साथ जो भरोसे के सिख साथी गए थे। उनको यह वाक्य रचना में किया गया बदलाव सहन नहीं हुआ था। जब वापस आकर सिख सेवादारों ने श्री गुरु हरि राय साहिब जी को सूचित किया कि इस दिल्ली यात्रा में बाकी सब तो ‘गुरु मर्यादाओं’ के अनुसार हुआ परंतु राम राय जी ने जो करामात दिखाई और गुरबाणी की वाक्य रचना को ही बदल दिया, जो कि गुरु मर्यादाओं के विपरीत था। ठीक उसी समय श्री गुरु हरि राय साहिब जी ने वचन उद्धृत किए कि राम राय अब इस लायक नहीं है कि श्री गुरु नानक देव जी के उसूल (सिद्धांतों) की रक्षा कर सकें। राम राय को सूचित कर दो कि वो आज के बाद मेरा मुंह नहीं देखे! उसे जहाँ जाना है वो चला जाए। अहंकारी राम राय ने गुरु पातशाह जी के वचन सुनने के बाद कहा कि मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता है कारण मेरे साथ हिंदुस्तान का बादशाह औरंगजेब है। शातिर बादशाह औरंगजेब अपनी कुटिल कूटनीति में कामयाब हो चुका था उसने गुरु पुत्र राम राय को गुरु जी से और सिख धर्म की मुख्यधारा से अलग कर दिया था। राम राय पुनः भविष्य में गुरु पातशाह जी के मुँह नहीं लगा था। बादशाह औरंगजेब ने राम राय को देहरादून नामक स्थान पर जागीर दी थी। वर्तमान समय में इस स्थान पर राम राय का देहुरा (चबूतरा) बना हुआ है।
श्री गुरु हरि राय साहिब जी के समकालीन शासक शहंशाह शाहजहाँ (सन् 1627 ई. से सन् 1658 ई.) तक एवं शहंशाह औरंगजेब (सन् 1658 ई. से सन् 1707 ई.) तक थे|
श्री गुरु हरि राय साहिब जी के राम राय और भावी गुरु श्री गुरु हर कृष्ण जी नामक दो पुत्र थे। आपने अपनी जीवन यात्रा के अंतिम समय में अपने छोटे पुत्र श्री गुरु हर कृष्ण जी को श्री गुरु नानक देव साहिब जी की ज्योति के रूप में ‘गुरता गद्दी’ का अगला उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था और 6 अक्टूबर सन् 1661 ई. को आप ज्योति-ज्योत (अकाल चलाना) समा गये थे।