ੴ सतिगुर प्रसादि॥
प्रासंगिक– श्री गुरु रामदास साहिब जी के प्रकाश पर्व पर विशेष–
(अद्वितीय सिख विरासत/गुरबाणी और सिख इतिहास/टीम खोज-विचार की पहेल)
श्री गुरु रामदास साहिब जी का संक्षिप्त परिचय
सिख धर्म के प्रथम गुरु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की चौथी ज्योति ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ रुहे ज़मीं पर, महापुरुषों की दुनिया में एक अवतारी गुरु हुये है, आप का आविर्भाव (प्रकाश) 25 सितंबर सन् 1534 ई. को चुना मंडी लाहौर (पाकिस्तान) में हुआ था। सोढ़ी कुल में जन्मे ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ अपने माता-पिता की प्रथम संतान और परिवार में ज्येष्ठ होने के कारण आप को भाई जेठा जी कहकर भी संबोधित किया जाता था। आप की आयु जब 7 वर्ष की थी तो आप के जीवन में एक बड़ा वज्रपात हुआ और आप के माता-पिता जी का देहांत हो गया था। आप के पिता जी का नाम भाई हरिदास जी एवं माता जी का नाम माता दया कौर जी (बीवी अनूपी जी) था, भविष्य के पालन-पोषण हेतु आप की नानी जी आप को उनके नौनिहाल बासरके नामक ग्राम में ले आई थी। आप अपनी आयु के 9 वें वर्ष में ही ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ के सानिध्य में आ गए थे और गुरु पातशाह जी की मेहर दृष्टि के कारण आप का ह्रदय प्रेम के रंग में सराबोर होने लगा था, दिन-प्रतिदिन आध्यात्मिक आभा मंडल की उन्नति होने लगी थी, आप की गिनती उनके प्रमुख सिखों में होने लगी थी, उस समय में आप घुंगणिआँ (चने) बेचने का व्यवसाय करते थे और जीवन के शेष समय में आप ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ की सेवा में समर्पित रहते थे। आप के लिए गुरु का हुकुम सर्वोपरि था। भविष्य में आप नये बसे हुए नगर गोइंदवाल साहिब जी में स्थानांतरित हो गए थे।
‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की सेवा और प्रेमा भक्ति पर प्रसन्न होकर ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने अपनी पुत्री बीबी भानी जी का विवाह (आनंद कारज) आप के साथ संपन्न किया था। गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुये, बीबी भानी जी की कोख से आप को 3 पुत्र रत्न बाबा पृथ्वी चँद जी, बाबा महादेव जी, और भावी ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ की प्राप्ति हुई थी। एक दिन गुरु पातशाह जी ने अपने दामाद भाई जेठा जी से कहा कि आपने हमसे दहेज में कुछ मांगा नहीं है, यदि आपको कुछ हमसे मांगना है, तो मांग लो? उस समय में आप ने जो गुरु पातशाह जी से जो मांग की थी, उसे गुरबाणी में इस तरह अंकित किया गया है–
हरि प्रभु मेरे बाबुला हरि देवहु दानु मै दाजो।।
हरि कपड़ो हरि सोभा देवहु जितु सवरै मेरा काजो।।
(अंग क्रमांक 78)
अर्थात है मेरे बाबुल! मुझे दहेज में हरि प्रभु के नाम का दान दो, वस्त्रों के स्थान पर हरि का नाम दो और शोभा बढ़ाने वाले आभूषणों इत्यादि के स्थान पर प्रभु का नाम ही दो, उस प्रभु के नाम से मेरा गृहस्थ जीवन संवर जायेगा।
आप ने दुनियावी रिश्तों को तवज्जो ना देकर स्वयं को पूर्णतया सेवा कार्यों में समर्पित कर दिया था। जब गोइंदवाल शहर में बावड़ी (बाउली) के भव्य निर्माण का कार्य चल रहा था तो आप स्वयं के कर-कमलों से आगे रहकर, इस सेवा में हिस्सा लेते थे। आप जी की निष्काम सेवाओं से प्रसन्न होकर ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ कि आप पर विशेष आसक्ती थी।आप ने स्वयं को सिख धर्म की समस्त सेवाओं के लिए ढाल लिया था। ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने आप को कई कसौटियों पर परखा था और आप ने प्रत्येक कसौटी की परीक्षा को प्रवीणता से पास किया था, ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने आप को एक नए नगर का निर्माण करने का आदेश दिया और इस आदेशानुसार आप ने गुरु पातशाह जी के स्वप्नों और संकल्पों को साकार करना प्रारंभ कर दिया था।आप ने ‘गुरु का चक’ नाम के नगर का निर्माण किया और इस स्थान पर एक सरोवर का भव्य निर्माण किया, वर्तमान समय में इस सरोवर को श्री अमृतसर नाम से संबोधित किया जाता है एवं यहीं ‘गुरु का चक’ भी श्री अमृतसर शहर के नाम से सुप्रसिद्ध है, जो कि सिख धर्म की श्रद्धा, आस्था और प्रेमा भक्ति का एक महान पावन-पुनीत केंद्र है। आप के सेवा कार्यों की प्रसिद्धी चारों दिशाओं में फैल चुकी थी, आप की उपमा में भाटों (भट्ट) ने गुरुबाणी में अंकित किया है–
जनकु सोइ जिनि जाणिआ उनमनि रथु धरिआ।।
सतु संतोखु समाचरे अभरा सरु भरिआ।।
अकथ कथा अमरा पुरी जिसु देइ सु पावै।।
इहु जनक राजु गुर रामदास तुझ ही बणि आवै।।
(अंग क्रमांक 1398, भाट कलसहार के 13 सवैये संपूर्ण)
अर्थात् राजा जनक वो ही है, जिसने परम सत्य को जाना है और वृत्तीय को तुरीय पद में स्थापित किया है। सत्य-संतोष को अपनाया और खाली मन को नाम से भर दिया। अकथनीय कथा उसे प्राप्त होती है, जिसे ईश्वर देता है वो ही पाता है। यह जनक जैसा राज आप ही को शोभा देता है।
‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने 16 सितंबर सन् 1574 ई. को भरे दरबार में समूह संगत और अपने परिवार के सामने ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ को गुरु गद्दी पर सुशोभित किया था और उस समय तक एकत्र सभी गुरुओं की बाणियों और भक्तों की बाणियों को आप ने श्री गुरु रामदास जी को सौंप दी थी। ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ के समक्ष नतमस्तक हो कर, गुरु गद्दी सौंपी थी, उस समय में आप वैराग्य में आकर बोल उठे की है गुरु पातशाह जी! आप स्वयं जानते हैं कि मैं गरीब तो लाहौर की गलियों में सूखे पत्ते की तरह इधर-उधर कचरे के ढेर में पड़ा रहता था, मेरे अनाथ की कोई बाँह पकड़ने वाला नहीं था, गुरु पातशाह जी यह तो आपकी ही मेहर है कि मेरे जैसे कीड़े को प्यार से देखा और सहारा देकर आज ‘फर्श से अर्श’ तक पहुँचा दिया। आप सन् 1574 से लेकर सन 1581 तक लगभग 7 वर्षों तक गुरु स्थान पर विराजमान रहे थे।अपने कार्यकाल में सिख धर्म के चहुँमुखी प्रचार-प्रसार के लिए आप ने 22 मंजियों (आसनों) के अतिरिक्त मसंदों की प्रथा को कायम किया था, इन मसंदों ने सिख धर्म के प्रचार-प्रसार में अपना विशेष योगदान अर्पित किया था। आप ने अमृतसर शहर को एक व्यवसाय केंद्र में निरूपित करने के लिये अलग-अलग 52 कार्य क्षेत्रों में रोजगार के साधनों को उपलब्ध कराने हेतु योजनाबद्ध तरीके से विशेष प्रयास किए थे। आप ने सन् 1577 ई. में अमृतसर सरोवर का भव्य निर्माण प्रारंभ किया था, इस निर्माण कार्य को ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने अपने कार्यकाल में संपन्न किया था। इसके अतिरिक्त अमृतसर शहर का विकास, रामसर और संतोखसर सरोवरों के निर्माण में भी आप का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सिख धर्म के इस प्रमुख तीर्थ का भव्य निर्माण कर ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ ने जो जगत् को दिया है, वाकई इस तरह का तीर्थ रुहे ज़मीं पर ना बना है और ना ही बनेगा। इस महान तीर्थ की शोभा में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी में अंकित है–
डिठे सभे थाव नही तुधु जेहिआ।।
बधोहु पुरखि बिधातै ताँ तू सोहिआ।।
(अंग क्रमांक 1362)
अर्थात् हे गुरु राम दास जी की नगरी! मैंने सब स्थानों को देखा है लेकिन तेरे जैसी कोई नगरी नहीं है, दरअसल कर्ता पुरुष, विधाता ने स्वयं तुझे बनाया है, तो ही तू शोभा दे रही है। इस तरह का महान तीर्थ स्थान ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ ने बक्शीश किया है, इसके पश्चात यह तीर्थ स्थान बक्शीशे दे रहा है। लोक-कल्याण और परोपकार के लिये जो तामीरी रुचि ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ ने आत्मसात की थी, वो ही तामीरी रुचियां सिख श्रद्धालुओं में विशेष रूप से पाई जाती है, जैसे कि–धर्मशालाओं का निर्माण करना, लंगर लगाना, अस्पताल और विद्यालयों का निर्माण करना, गुरुधामों की उसारी (भव्य निर्माण) करना इत्यादि। इन बख्शीशों को, इन रहमतों को सिख श्रद्धालुओं ने ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ से प्राप्त की है उनके द्वारा प्रदान की गई प्रेरणाओं का ही परिणाम है कि सिख संगत में यह रुचियां वर्तमान और भविष्य में भी प्रबल रूप से उजागर होती रहेगी। इन तामीरी रुचियों के कारण ही गुरु पातशाह जी ने अमृतसर शहर में आरामगाह बनवायी, लंगर-पानी का इंतजाम किया है ताकि आये हुये तीर्थयात्रियों को सच की सोच और समझ पड़ सकें, उस अकाल पुरख की बँदगी कर सकें, इसलिए सुबह-शाम सत्संग और कीर्तन के प्रवाह का लंगर आठों पहर चलाया। ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की यह चौथी ज्योति श्री अमृतसर साहिब जी में जगमगाती रही और जगत को प्रकाश देकर रोशन करती रही, जगत को आनंद की अनुभूति करवाती रही, ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की बाणी ‘आसा दी वार’ के छंद और पद्यों का अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि आप सच का बोध रखते थे, अनुभव रखते थे, इन बाणियों की रचना से प्रतीत होता है कि आप का ह्रदय प्रेमा रस से सराबोर है। ज्ञान की गंगा का प्रवाह आप के अंतकरण में हो रहा है, आप इतने महान और परोपकारी थे कि सत्ता और बलवंडा नामक भाटों ने ने आप की उपमा को गुरबाणी में इस तरह अंकित किया है–
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ।।
पूरी होई करामाति आपि सिरजणहारै धारिआ।।
(अंग क्रमांक 968)
अर्थात हे गुरु रामदास! तू है, जिस ईश्वर ने तेरी रचना की है उसने ही तुझे यश प्रदान किया है, उस सर्जनहार और परमेश्वर की करामात तुझे गुरु रूप में सुशोभित करके पूरी हो गई है।
‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ के ‘महला 4’ के नाम से ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में 30 रागो में 679 पद्य संग्रहित हैं। आप ने अपनी रचनाओं में वारांओं को रचित किया है जिनके नाम– श्री राग, गउड़ी राग, वडहंस राग, सोरठ राग, बिलावल राग, सारंग राग और कानड़ा राग में अंकित है। आप की बाणी जीवात्मा-परमात्मा संबंधी अद्वैत दर्शन से प्रेरित है, आप के द्वारा रचित चार लावां (विवाह के फेरे) की बाणी अत्यंत प्रसिद्ध है, लावा फेरों की बाणी में आप ने जीवात्मा और परमात्मा के मिलन का अद्भुत वर्णन किया है। घोड़ीयां और अलाहणीयां नामक बाणी भी आप के द्वारा रचित की गई, आप के समकालीन शासक शहंशाह अकबर जलालुद्दीन (सन् 1556 ई. से सन् 1605 ईस्वी, तक) थे।
गुरुवाणी के महान ज्ञाता श्री गुरु रामदास जी के सम्मान में भाटों ने अरदास (प्रार्थना) की थी, जिसे गुरबाणी में इस तरह अंकित किया है–
हम अवगुणि भरे एकु गुणु नाही अंम्रितु छाडि बिखै बिखु खाई।।
माया मोह भरम पै भूले सुत दारा सिउ प्रीति लगाई।।
इकु उत्तम पंथु सुनिओ गुर संगित तिह मिलंत जम त्रास मिटाई।।
इक अरदासि भाट कीरति की गुर रामदास राखहु सरणाई।।
(अंग क्रमांक 1406)
अर्थात हे सतगुरु रामदास पातशाह जी! हम जीव अवगुणों से भरे हुये है, हमारे में एक भी गुण नहीं है, नामा कीर्तन अमृत को छोड़कर हम केवल विषय-वासनाओं का जहर सेवन कर रहे हैं। माया मोह के भ्रम में भ्रष्ट हो गये है, पुत्र एवं पत्नी के प्रति प्रीत लगाई हुई है। हम सुनते हैं कि गुरु की संगत मोक्ष का एक उत्तम रास्ता है, जिस के संपर्क से मौत का भय मिट जाता है। भाट किरत केवल यही अरदास (प्रार्थना) करते हैं कि हे गुरु रामदास! हमें अपनी शरण में रख लो।
‘श्री गुरु रामदास साहिब जी को अपने महाप्रयाण (ज्योति-ज्योति) के समय का आभास होने पर, आप ने अपने कनिष्ठ पुत्र ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी को अपना भविष्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और पंचम गुरु के रूप में गुरु गद्दी पर सुशोभित कर, आप 2 सितंबर सन् 1581 ई. को गोइंदवाल साहिब जी में ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की ज्योति में ज्योति-ज्योति समा गये थे।
वर्तमान समय में भी अमृतसर शहर की गलियों में ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की प्रेमा भक्ति की सुनामी मौजूद है, दरबार साहिब के परिसर में गुरु पातशाह जी के द्वारा रचित जीवात्मा और परमात्मा की बाणियों की लहरें मौजूद है। समूची दुनिया से जब तीर्थयात्री यहां पहुंचते हैं तो महसूस करते हैं कि जो सुख और चैन यहाँ पर मिलता है, दुनिया के किसी कोने पर नहीं मिलता। इस स्थान पर प्रभु की महिमा के कीर्तन का अखंड प्रवाह चल रहा है इसलिये तो यह स्थान कहलाता है, गुरु रामदास पुर! गुरु का चक! श्री अमृतसर! ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की यह महान बक्शीश संपूर्ण संसार में बक्शीश बाट रही है, रहमते बाट रही है, ज्ञान बाट रही है, आनंद की अनुभूति बाट रही है, जब भी कोई तीर्थ यात्री इस में शहर प्रवेश करता है तो वह स्वयं अपने मुख से प्यार भरी रसना को उच्चारित करता है, धन्य-धन्य ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’! धन्य-धन्य ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’! धन्य-धन्य ‘श्री गुरु राम दास साहिब जी’!
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