ੴ सतिगुर प्रसादि॥
(अद्वितीय सिख विरासत/गुरबाणी और सिख इतिहास)
(टीम खोज–विचार की पहेल)
गुरुवाणी और कर्मकांड: एक विवेचना— (भाग–2)
संपूर्ण विश्व में सिख धर्म को सबसे आधुनिक धर्म माना जाता है। सिखों ने विश्व में अपनी सेवा, सिमरन, त्याग, इंसानियत और देश भक्ति के जज्बे से अपनी एक अलग विशेष पहचान ‘विश्व पटल’ पर निर्माण की है। निश्चित ही ‘गुरु पंथ खालसा’ सब मतों से न्यारा है परंतु इस धर्म के अनुयायी हमेशा ही दूसरे धर्म के मानने वालों का उतना ही आदर-सत्कार कर उन्हें विशेष सम्मान प्रदान करते हैं। इस मार्शल सिख कौम के उपदेश, सिख विरासत, सिख इतिहास और गुरुवाणी के संदेशों को आम जन समुदाय में पहुंचाने का प्रयास टीम ‘खोज-विचार’ के द्वारा निरंतर किया जा रहा है। सिख धर्म के अनुयायी जात-पात, छूत-छात, पितृ, पिंड, पत्तल, दिया, क्रिया, कर्म, होम, यज्ञ, तर्पण, सिखा सूत, भादों, एकादशी, पूर्णिमा के व्रत, तिलक, जनेऊ, तुलसी माला, गौरमड़ी मठ, कब्र, मूर्ति, पूजा आदि भ्रम-रूप कर्मों पर विश्वास (Faith) नहीं रखते है। इन कर्मकांड़ो का गुरुवाणी में किस तरह से खंडन-मंडन किया गया है? इस आलेख के भाग–2 में की गई विवेचना से समझने का प्रयास करेंगे।
गौरमड़ी मठ-
हम देखते हैं कि जब किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो उसकी कब्र पर दीपक जलाए जाते हैं। एक गाँव का एक व्यक्ति की किसी दुर्घटना में मृत्यु हो गई। कुछ दिन बाद उसकी पत्नी ने एक किलो घी उनकी कब्र पर उड़ेल दिया। पूछने पर उसने बताया कि मेरे पति घी बहुत खाते थे। जब यह खुराक आत्मा की नहीं, शरीर की है एवं शरीर का तो अग्नि संस्कार हो चुका होता है फिर यह एक किलो देसी घी कब्र में गिरा कर बर्बाद करने का क्या फायदा? यह बेवकूफी नहीं तो और क्या है? जिसे गुरुवाणी में इस तरह से अंकित किया गया है—
जागति जोति जपै निस बासुर एक बिना मन नैक न आनै॥
पूरन प्रेम प्रतीत सजै ब्रत गोर मड़ी मठ भूल न माने॥
(33 सवये)
इसी संदर्भ में गुरुवाणी का फरमान है–
जगु परबोधहि मड़ी बधावहि॥
आसणु तिआगि काहे सचु पावहि॥(अंग क्रमांक 903)
अर्थात हे जोगी! तू जगत् को उपदेश देता है परंतु पेट पूजा द्वारा अपना तन रूपी मठ निरंतर बढ़ रहा है, तू अपना आसन त्याग कर सत्य को कैसे प्राप्त कर सकता है? इसी संदर्भ में गुरुवाणी का फरमान है–
दुबिधा न पड़उ हरि बिनु होरु न पूजउ मड़ै मसाणि न जाई॥
(अंग क्रमांक 634)
अर्थात मैं किसी दुविधा में नहीं पड़ता हूँ, उस प्रभु-परमेश्वर के बिना किसी और की पूजा नहीं करता हूँ और न ही किसी समाधि या श्मशान घाट पर जाता हूँ| गुरु साहिब ने गुरुवाणी में स्पष्ट वचन कर कहा था कि, सिखों को केवल गुरुवाणी को मानना चाहिए। यह नहीं हो सकता है कि गुग्गा पीर भी मानते रहें और रीति, रस्में, व्रत भी करते रहें, कब्रें भी पूजते रहें एवं गुरुद्वारे भी चले जाएं तो क्या उनको सिक्खी दात् मिल जायेगी? यह कदापि नहीं हो सकता है।
समय-तिथि इत्यादि के विषय में–
हमारे समाज में बुरा वक्त, तिथि, वार इत्यादि का विचार किया जाता है। जिस तरह आम प्रचलित है कि बुधवार को पहाड़ों की और नहीं जाना चाहिए। पंजाबी सभ्याचार में लोकोक्ति भी है–
बुद्ध सनिचर जाईए पहाड़॥ जित्ती बाजी आईए हार॥
कपड़े एवं गहने पहनने पर भी लोकोक्ति है–
बुद्ध सनिचर कपड़ा, गहिणा ऐतवार।
कई कहते हैं कि यह कहावत भी बुजुर्गों ने कुछ तो सार निकालकर ही बनाई हैं परन्तु हमें ज्ञान गुरबाणी से ग्रहण करना है। गुरबाणी के अनुसार सारे दिन, वार, तिथि, महीने, साल उत्तम होते हैं। गुरुवाणी का फर्मान है–
थिती वार सेवहि मुगध गवार॥
नानक गुरमुखि बूझै सोझी पाइ॥
इकतु नामि सदा रहिआ समाइ॥
(अंग क्रमांक 843)
अर्थात मूर्ख गंवार व्यक्ति ही तिथियों और वारों को मानते है, हे नानक! जो गुरुमुख बनकर ज्ञान को प्राप्त करते है उन्हें ज्ञान प्राप्त हो जाता है और वह सदा परमात्मा के नाम में लीन रहता है।
सूतक–
आज भी सूतक का भ्रम हमारे समाज को दीमक की तरह खाए जा रहा है। अगर किसी घर में नवजात शिशु जन्म लिया हो तो कहा जाता है कि सवा महीना इस घर में सूतक है। कई तो यहां तक कहते सुने जाते हैं कि किसी जीवन के सूतक वाली जगह पर जाने पर उसे भूत आदि परेशान करते हैं इसके पश्चात लोगों को ताबीज आदि करवाने पड़ते हैं परंतु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ का गुरुवाणी में फर्मान है–
जे करि सूतकू मंनीऐ सभ तै सूतकु होइ॥
गोहे अतै लकड़ी अंदरि कीड़ा होइ॥ (अंग क्रमांक 472,आसा दी वार)
यदि सूतक रूपी वहम को सत्य मान लिया जाए तो सूतक सब में होता है, गोबर एवं लकड़ी में भी कीड़ा होता है। जब जन्म लेना और मरना ईश्वर का खेल है तो फिर सूतक कैसा?
सभो सूतकु भरमु है दूजै लगै जाइ॥
जंमणु मरणा हुकमु है भाणै आवै जाइ॥ (अंग क्रमांक 472, आसा दी वार)
भक्त कबीर जी का गुरुवाणी में फर्मान है—
जलि है सूतकु थलि है सूतकु सूतकु ओपति होई॥
जनमे सूतकु मूए फुनि सूतकु सूतक परज बिगोई॥ (अंग क्रमांक 331)
नैनहु सूतकु बैनहु सूतकु सूतकु स्त्रवनी होई॥
ऊठत बैठत सूतकु लागै सूतकु परै रसोई॥
फासन की बिधि सभु कोऊ जानै छूटन की इकु कोई॥
कहि कबीर रामु रिदै बिचारै सूतकु तिनै न होई॥ (अंग क्रमांक 331)
अर्थात नैनों में सूतक है, बोलने में सूतक है, कानों में भी सूतक है, उठते-बैठते हर समय प्राणी को सूतक लगता है| सुतक रसोई में भी प्रवेश करता है, हर एक प्राणी (सूतक के भ्रमों) में फंसने का ही ढंग जानता है परंतु इससे मुक्ति पाने का ज्ञान किसी विरले को ही है।कबीर जी कहते हैं कि जो व्यक्ति अपने हृदय में राम (अकाल पुरख) का स्मरण करता है उसे कोई सूतक नहीं लगता।
आरती-
गाँवों में थाली में दीपक जला कर आरती करने वाला पाखंड ज्यों का त्यों है और वर्तमान समय में यह पाखंड बढ़ता ही जा रहा है। इस आरती के विषय में गुरुवाणी का धनासरी महला 1 का सबद इस तरह है–
रागु धनासरी महला 1॥
गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती॥
धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती॥1॥
कैसी आरती होइ॥ भव खंडना तेरी आरती॥
अनहता सबद वाजंत भेरी॥1॥ रहाउ॥ (अंग क्रमांक 13)
अर्थात सम्पूर्ण गगन रूपी थाल में सूर्य व चंद्र दीपक बने हुए हैं, तारों का समूह जैसे थाल में मोती जड़े हुए हैं। इस प्रकृति में तेरी कैसी अलौकिक आरती हो रही है? सृष्टि के जीवों का जन्म-मरण नाश करने वाले हे प्रभु! प्रतिपल, हर समय एक रस वेद ध्वनि निरंतर उत्पन्न रही है, जैसे मानों नगाड़े बज रहे हैं। इस थाल के अर्थ को शायद आरती करने वाले नहीं जानते कि इस सबद् में जो उपदेश दिया जा रहा है, वह सबद् केवल पढ़ते ही जा रहे हैं एवं उस सबद् की शिक्षा के उलट मन्मथ किए जा रहे हैं। इस सबद् के द्वारा तो ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने जगन्नाथपुरी के मंदिर में उपदेश दिया था कि सूर्य तथा चन्द्रमा, आकाश रूपी थाल में दीपक के रूप में प्रकाशमान हो रहे हैं। तारों का मंडल मोतियों के रूप में शोभायमान है एवं अंत में गुरु साहिब जी ने वचन कर कहा है कि, इस बनावटी आरती की जरूरत नहीं। यह आरती तो ब्रहमांड में अपने आप ही हो रही है, जिसे भक्त रविदास जी ने गुरुवाणी में राग धनासरी में फरमान किया है—
नामु तेरो आरती मजनु मुरारे॥
हरि के नाम बिनु झूठे सगल पासारे ॥1॥रहाउ॥
नामु तेरो आसनो नामु तेरो उरसा नामु तेरा केसरो ले छिटकारे॥
नामु तेरा अंभुला नामु तेरो चंदनो घसि जपे नामु ले तुझहि कउ चारे॥
नामु तेरा दीवा नामु तेरो बाती नामु तेरो तेलु ले माहि पसारे॥
नाम तेरे की जोति लगाई भइओ उजिआरो भवन सगलारे॥
नामु तेरो तागा नामु फूल माला भार अठारह सगल जूठारे॥
तेरो कीआ तुझहि किआ अरपउ नामु तेरा तुही चवर ढोलारे॥
दस अठा अठसठे चारे खाणी इहै वरतण है सगल संसारे॥
कहै रविदासु नामु तेरी आरती सति नामु है हरि भोग तुहारे॥ (अंग क्रमांक 694)
अर्थात हे परमात्मा! तेरा नाम ही आरती है और यह ही पावन तीर्थ-स्थान है। हे ईश्वर! तेरा नाम ही सुंदर आसन है, तेरा नाम ही चन्दन घिसने वाला पत्थर है और तेरा नाम ही केसर है, जिसे जप कर तुझ पर छिड़का जाता है। तेरा नाम ही जल है और तेरा नाम ही चन्दन है। मैं इस चंदन को घिस कर अर्थात तेरे नाम को जप कर तेरे समक्ष भेंट करता हूँ| मैंने तेरे नाम की ही ज्योति प्रज्वलित की है, जिससे समस्त लोकों में प्रकाश हो गया है। तेरा नाम ही धागा है और तेरा नाम ही फूलों की माला है, अन्य सारी अठारह भार वाली वनस्पति झूठी है। हे प्रभु! तेरा उत्पन्न किया हुआ कौन-सा पदार्थ तुझे भेंट करूँ? तेरा नाम ही चंवर है परन्तु यह चंवर भी तू स्वयं ही मुझ से झुलाता है। समूचे संसार में यह ही व्यवहार हो रहा है कि लोग अठारह पुराणों की कथाएं सुनते रहते हैं, अड़सठ तीर्थों पर स्नान करते रहते हैं।
सिक्खी सच्ची सुच्ची, मन नीवां मति उच्ची–
उपरोक्त पंजाबी सभ्याचार की लोकोक्ति अनुसार सिख धर्म के अनुयायियों का जीवन दूध (अमृत) की तरह ही है। सिक्खों को प्राप्त सिक्खी की दात को दूध की तरह संभालने की आवश्यकता है, जिस तरह से दूध को संभालने के लिए बड़ी शुद्धता, स्वच्छता एवं निर्मलता की आवश्यकता है इस तरह ही सिक्खी की देखभाल के लिए ऊंचे एवं पवीत्र व्यवहार की जरूरत है। सिख धर्म की शुद्धता किसी अन्य के रसोईघर की तरह नहीं है, जो किसी तथाकथित छोटी जाति के व्यक्ति की दृष्टि पड़ने से अथवा हाथ लगने से अपवित्र हो जाता है। सिख दुनिया के हर मनुष्य के कर्म में गुरबाणी के महामंत्र डालने के लिए अथवा सुनाने के लिए लिए उत्सुक रहता है, गुरबाणी केवल सफेदपोश सिक्खों अथवा तथाकथित ऊंची जाति वालों का एकाधिकार नहीं हैं अपितु सिक्खी के स्थान एवं सिक्खी के निशान, जात-पात एवं वर्ण के अनुसार किसी की मलकियत नहीं है। तन की शुद्धता, रहन-सहन की स्वच्छता, सिख की प्रकृति है, वहम नहीं! सिख जीवन की सच्ची शुद्धता एक आदर्श है। निश्चित ही गुरुबाणी ने उस समय की प्रचलित रूढ़ियों, अंध-विश्वासों का विरोध करते हुये सत्य-शाश्वत परम्पराओं को विशेष आयाम दिये तथा उन्हें नये अर्थों से परिपूर्ण और व्यावहारिक बनाया। सिख गुरु साहिबान ने धर्म के नाम पर फैले वाक् छल और पाखंड के खिलाफ संघर्ष किया। कई प्रकार की धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों, अनावश्यक कर्मकांडों और अर्थ खो चुके प्रतीकों के बहिष्कार का आह्वान किया।धार्मिक प्रथाएं, तीर्थ स्नान, दान-पुण्य आदि तभी सार्थक है, जब इनमें सच्चाई हो। उच्च, पवित्र तथा श्रेष्ठ जीवन युक्ति का आधार सत्य ही है। जैसे-जैसे तकनीकी ज्ञान का विस्तार होता जा रहा है, भौतिक सुख सुविधा बढ़ती जा रही हैं, विज्ञान का लगातार विकास होता जा रहा है, वैसे-वैसे गुरबाणी की शिक्षाओं का महत्व भी पहले से अधिक बढ़ता जा रहा है। वर्तमान समय के विज्ञान के युग में भी गुरुबाणी की शिक्षायें न केवल महत्वपूर्ण हैं, अपितु प्रासंगिक भी हैं। मानवता की चर्चा करने वाले, मानवीय सेहत की चिंता रखने वाली हैं दमे, कैंसर तथा एड्स की भयानकता से चिंतित वैज्ञानिक, सिक्खी के रहन-सहन निर्धारित करने वालों की दिव्य-दृष्टि से हैरान हैं। कमाल है! ऐसी कौम का जो सारी की सारी तम्बाकू से बची हुई है। एड्स जैसी घातक बीमारी की पेचीदगियों से बचने के लिए सिक्खी की ‘एका नारी जती होए’ की शिक्षा ही सफल है। मन को मति के नियंत्रण में लाने का अभ्यास करने वाला जीव ही सिख है! मन से लगातार संघर्ष करना ही सिख जीवन शैली है। सिख का जीवन सहजता और सरलता की तरफ ले जाता है। सिक्खी जीवन वहमों-भ्रमों, कर्मकांडों, शंकाओं एवं पाप-पुण्य की चिंता के भार से दबा हुआ नहीं। सिक्खी की गंभीरता, सहजता, उदारता, सरलता, सजीवता और सदाशयता मनुष्य जीवन की पूर्णता के लिए अत्यंत आवश्यक है।
शेष फिर कभी. . . . .
(समाप्त)
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