वाणी गुरु गुरु है वाणी विचि वाणी अंम्रित सारे॥
गुरु कहै सेवकु जनु मानै परतखि गुरु निसतारे॥
(अंग क्रमांक 982)
अर्थात् वाणी गुरु है और गुरु ही वाणी है, गुरु और वाणी में कोई अंतर नही है, गुरु की वाणी ही गुरु है और गुरुवाणी में सारे अमृत मौजूद है।
युग-युग अटल, संपूर्ण सृष्टि के गुरु “श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी” की संपादन सिख धर्म के संस्थापक प्रथम गुरु, ‘श्री गुरु नानक देव जी’ से ही प्रारंभ हो चुकी थी। ‘श्री गुरु नानक देव जी’ ने समकालीन सभी भक्तों, संतों और विद्वानों की वाणी का संकलन प्रारंभ किया। प्रमुख रूप से इन वाणीयों में एक अकाल पुरख की महिमा का वर्णन किया गया है। इस सारे बहुमूल्य खजाने की विरासत को आप ने दूसरे गुरु ‘श्री गुरु अंगद देव साहिब जी’ को सौंपी थी। ‘श्री गुरु अंगद देव साहिब जी’ ने इन वाणीयों की छोटी-छोटी पुस्तकों के रूप में प्रचार-प्रसार किया। इसके पश्चात ‘श्री गुरु नानक देव जी’ की वाणी और ‘श्री गुरु अंगद देव साहिब जी’ द्वारा रचित वाणीयों का संकलन तीसरे ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ को विरासत के रूप में मिला। इस तरह से इन वाणीयों का संकलन चौथे गुरु ‘श्री रामदास साहिब जी’ के कार्यकाल से होते हुए पांचवें गुरु, ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ को विरासत में मिला। इन सभी वाणीयों की प्रमाणिकता ठीक रहे और उनमें कोई मिलावट ना हो इसलिए पाँचवे गुरु ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने भाई गुरदास जी की सहायता लेकर इन सारी वाणीयों को क्रमानुसार संकलित कर ‘श्री आदि ग्रंथ’ की स्थापना की थी। इस स्थापना दिवस को श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के पहले प्रकाश पर्व के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाता है साथ ही इसी दिन श्री हरमंदिर साहिब जी अमृतसर में ‘श्री आदि ग्रंथ’ को सुशोभित किया गया था एवं उस समय में बाबा बुड्डा जी को प्रथम हेड ग्रंथी के रूप में मनोनीत किया गया था। ‘श्री आदि ग्रंथ’ की वाणीयों का प्रचार-प्रसार कर समाज में अज्ञानता को दूर कर, ज्ञान का प्रकाश इन वाणीयों से किया जाता था।
‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणीयों का महत्व उसके स्थापना काल से ही रहा है।आदर्श मानवीय जीवन को गुरुवाणी ने ने विशेष आयाम प्रदान किए है।अतीत के समय में भी गुरबाणी की उतनी ही सार्थकता की जीतने की वर्तमान समय में भी है।इसे समझने के लिए गुरुवाणी के निम्न पद्यों को समझकर वर्तमान जीवन में आत्मसात करने की आवश्यकता है जैसे कि —
1. पढ़ाई करते समय–-
विदिआ विचारी ताँ परउपकरी।। (अंग क्रमांक 356)
अर्थात् यदि विद्या का विचार-मनन किया जाए तो ही परोपकारी बना जा सकता है।
2. सेवा करते समय–-
सेवा करत होइ निहकामी॥
तिस कउ होत परापति सुआमी॥ (अंग क्रमांक 286)
अर्थात् जो सेवक निष्काम भावना से गुरु की सेवा करता है, वह प्रभु को पा लेता है।
3. धर्म-कर्म करते समय–
सरब धरम महि स्रेसट धरमु॥
हरि को नामु जपि निरमल करमु॥
(अंग क्रमांक 265)
अर्थात् समस्त धर्मों में सर्वोपरि धर्म है ईश्वर के नाम का जाप करना एवं पवित्र कर्मों को करना।
4. शराबी को सलाह देते समय–
जितु पीतै मति दूरि होइ बरलु पवै विचि आइ॥
आपणा पराइआ न पछाणई खसमहु धके खाइ॥ (अंग क्रमांक 554)
अर्थात् जिसका पान करने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और उन्माद दिमाग में आ जाता है, जिससे मनुष्य अपने व पराए की पहचान नहीं कर पाता और अपने मालिक प्रभु की ओर से धक्के खाता है।
5. अच्छे और बुरे दिनों पर विचार करते समय–
सतिगुर बाझहु अंधु गुबारु॥
थिती वार सेवहि मुगध गवार॥ (अंग क्रमांक 843)
अर्थात् सतगुरु के बिना जगत् में घोर अन्धेरा बना रहता है। मूर्ख गंवार व्यक्ति ही तिथियों एवं वारों को मानते हैं।
6.श्राद्ध करते समय–
जीवत पितर न मानै कोऊ मूएं सिराध कराही।।
पितर भी बपुरे कहु किउ पावहि कऊआ कूकर खाही॥
(अंग क्रमांक 332)
अर्थात् मनुष्य अपने पूर्वजों (माता-पिता) की उनके जीवित रहने तक तो सेवा नहीं करते परन्तु (उनके) मरणोपरांत पितरों का श्राद्ध करवाते हैं, बताओ, बेचारे पितर भला श्राद्धों का भोजन कैसे पाएँगे? इसे तो कौएं-कुत्ते खा जाते हैं।
7, संगत करते समय–-
वडभागी हरि संगति पावहि॥
भागहीन भ्रमि चोटा खावहि॥
(अंग क्रमांक 95)
अर्थात् भाग्यशाली व्यक्ती हरि की संगत प्राप्त करता है परंतु भाग्यहीन मनुष्य भ्रम में भटकते और चोट सहते हैं।
8. भाणा (उसकी रजा) मानते समय–
तेरा कीआ मीठा लागै॥
हरि नामु पदारथु नानकु माँगै॥
(अंग क्रमांक 394)
अर्थात् है भगवान्! तेरा किया हुआ प्रत्येक कार्य मुझे मीठा लगता है। नानक! तुझ से हरिनाम रूपी पदार्थ ही माँगता है॥
9. किसी से धोखा करते समय–
हरि बिसरत सदा खुआरी॥
ता कउ धोखा कहा बिआपै जा कउ ओट तुहारी ॥ रहाउ ॥
(अंग क्रमांक 711)
अर्थात् परमेश्वर को विस्मृत करने से मनुष्य सदैव ही दुखी रहता है। हे परमेश्वर! जिसे तुम्हारी शरण मिली हुई है, फिर वह कैसे धोखे का शिकार हो सकता है॥ रहाउ ॥
10. ना डरो, ना डराओ के सिद्धांत को अमल में लाते समय–
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन।।
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बखानि।।
(अंग क्रमांक 1427)
अर्थात् ना किसी व्यक्ति को डराओ और ना ही किसी का डर मानना है।। नानक का कथन है कि हे मन! सुन, उसी को ज्ञानी कहना चाहिए।।
11.बुरे लोगों की संगत के समय–
कबीर मारी मरउ कुसंग की केले निकटि जु बेरि ।।
उह झूलै उह चीरीऐ साकत संगु न हेरि॥
(अंग क्रमांक 1364)
अर्थात् कबीर जी कहते हैं कि बुरी संगत ही मनुष्य को मारती है, जब केले के निकट बेरी होती है तो
वह हवा से झूमती है, मगर केले का पेड़ उसके काँटों से चिरता है, अतः कुटिल लोगों की संगत मत करो, (अन्यथा बेकार में ही दण्ड भोगोगे)।
12.चिंता करते समय–
चिंता छडि अचिंतु रहु नानक लगि पाई।
(अंग क्रमांक 517)।
अर्थात् हे नानक! प्रभु के चरण-स्पर्श कर तथा चिन्ता छोड़कर अचिंत रहो।
13.किसी भी कार्य को प्रारंभ करते समय–
कीता लोड़ीऐ कंमु सु हरि पहि आखीऐ॥
कारजु देइ सवारि सतिगुर सचु साखीऐ॥
(अंग क्रमांक 91)
अर्थात् यदि कोई नवीन कार्य प्रारंभ करना हो तो उसकी सफलता के लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए। सतगुरु जी की प्राप्त शिक्षा के अनुसार सच्चा प्रभु अपने सेवक का कार्य आप संवार देता है।
14. दुख: के समय में —
केतिआ दूख भूख सद मार॥
एहि भि दाति तेरी दातार॥
(अंग क्रमांक 5)
अर्थात् कईयों को दुख व भूख की मार सदैव पड़ती रहती है, क्योंकि यह उनके कर्मों में ही लिखा होता है। किन्तु सज्जन लोग ऐसी मार को उस परमात्मा की बख्शिश ही मानते हैं। (इन्हीं कष्टों के कारण ही मानव जीव को वाहिगुरु का स्मरण होता है)।
15. महिलाओं को समानता का हक देते समय–
सो किउ मंदा आखीऐ जितु जंमहि राजान।।
(अंग क्रमांक 473)
अर्थात् वह नारी कैसे बुरा हो सकती है? जिसने बड़े – बड़े राजा, महाराजाओं एवं महापुरुषों को जन्म दिया है।
16.प्राकृतिक नजारों को देखते हुए–
बलिहारी कुदरति वसिआ ।।
तेरा अंतु न जाई लखिआ ॥1॥ रहाउ ॥
(अंग क्रमांक 469)
अर्थात् हे जगत-रचयिता अकाल पुरख ! मैं तुझ पर बलिहार जाता हूँ, तू अपनी कुदरत में निवास कर रहा है।
17.किसी अजनबी की मदद करते समय–
ना को बैरी नही बिगाना सगल संगि हम कउ बनि आई।।
(अंग क्रमांक 1299)
अर्थात् न कोई शत्रु है, न ही कोई पराया है, मेरा सब के साथ प्रेम बना हुआ है।
4. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ को नमन करते समय–
गुर मिलि चजु अचारु सिखु तुधु कदे न लगै दुखु।। (अंग क्रमांक 50)
अर्थात् गुरु की शरण में आकर शुभ आचरण एवं रहन-सहन की शिक्षा ग्रहण करें। इसके पश्चात तुम्हे कदाचित दुखी नहीं होना पड़ेगा।
अपनी प्रतिदिन की दिनचर्या को मधुर, आनंदित और उत्साह की ऊर्जा से संचालित करने के लिये, अपने जीवन के क्रियाकलापों को करते समय गुरुवाणी की इन पंक्तियों को आत्मसात करें तो निश्चित ही इस लोक के साथ-साथ परलोक भी सफल होगा एवं भविष्य का जीवन, जलप्रपात के झरने के द्वारा उत्पन्न कल-कल की ध्वनि की तरह अविरल, अविरत, अविराम, अलौकिक, आनंद की अनुभूति देने वाला होगा। गुरुवाणी कि इन वाणीयों से सिद्ध होता है कि, जितनी सार्थकता ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की अतीत में थी, उतनी ही सार्थकता वर्तमान है एवं उतनी ही सार्थकता भविष्य में होगी।