ੴसतिगुर प्रसादि॥
चलते-चलते. . . .
(टीम खोज-विचार की पहेल)
स्तुति(उसत्तत): श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी
दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ की महान शख्सियत के संबंध में यदि दुनिया की समस्त नियामत और विशेषताओं के सभी गुण एकत्र किया जाए तो भी उनकी स्तुति करनी एक क़लमकार के लिए अत्यंत कठिन ही नहीं अपितु ना-मुमकिन है। किसी भी क़लमकार की कैफ़ियत ही नहीं कि है कि वह गुरु साहिब के बहुपक्षीय जीवन को अपनी क़लम के शब्दों में समाहित कर सकें। गुरु साहिब का जीवन गुणों का खजाना था, किसी एक व्यक्ति में एक साथ इतने गुणों का होना असंभव है। निश्चित ही आपका जीवन एक बिजली की चमक की तरह था। आसमान में चमकती हुई बिजली की आयु भले ही लंबी तो नहीं होती है परंतु जितनी भी होती है उसमें कणखर चमक और कर्कश आवाज होती है, जो सभी का ध्यान आकर्षित करती है। अपनी छोटी सी आयु में उन्होंने जो असंभव से महान कार्यों को अंजाम देकर कर दिखाया, वह किसी इंसान की तौफ़ीक के बाहर है। निश्चित ही गुरु साहिब साक्षात अकाल पुरख का अवतार थे। ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ की बहुपक्षीय शख़्शीयत, सच्चाई के प्रकटीकरण एवं ज़िंदगी को सद्मार्ग पर चलने का दिशा संकेत देता है। गुरु साहिब का जीवन एक ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जो सत्य के पथ से भटके लोगों एवं भावी पीढ़ियों के नव-जीवन निर्माण में अपनी यादगार भूमिका निभाता है। ऐसे महान गुरु साहिब की स्तुति करना अर्थात जीवन को शिखरों की ओर उन्मुख करना है। इस सार्थक संदर्भ में गुरु साहिब जी की बहुपक्षीय शख़्शीयत शानदार परंपराओं एवं कालजयी शहीदियों का कोश है।
गुरु साहिब की शख्सियत ने मानव जाति को सच्चाई, पवित्रता, प्रेम और न्याय का पाठ दृढ़ करवाया था, विनय, त्याग, दक्षता, शुचिता, स्थिरता आदि सभी वंदनीय गुणों की पराकाष्ठा उनके चरित्र में मिलती है, नेतृत्व और अनुयायित्व, विद्रोह और क्षमा, कठोरता और करुणा, शस्त्र और शास्त्र, कृपाण और काव्य आदि परस्पर विरोधी तत्वों के सम्मिश्रण से उस महान शख्सियत का निर्माण हुआ। उनके चुंबकीय व्यक्तित्व ने सभी को आकर्षित किया था उन्होंने शहंशाह को ललकारा था एवं शक्तिहीनों को बलशालीयों के सम्मुख खड़ा होने का बल दिया था। आप जी ने एक आम इंसान में अपने अधिकारों और सत्य हेतु लड़ने की प्रेरणा जागृत की थी, पाखंडी और दंभियों को फटकारा था, भ्रम जालों को झिंझोड़ा था एवं मनुष्य की बुद्धि से सांप्रदायिकता का काला चश्मा उतार कर उसे स्वतंत्रता की भावना से रोशन कर मानवता को विकास पथ पर अग्रसर किया था। उन्होंने मनुष्य की महानता और मानवता के संदेश को संप्रेषित किया था। वह मनुष्य मात्र को ‘एक पिता एकस के हम बारिक’ समझते थे, तभी तो उन्होंने बड़े ही आत्मविश्वास से ‘मानस की जात सभै एको पहचानबो’ की घोषणा की थी।
करुणा, कलम और कृपाण के धनी, संत-सिपाही, जॅग के माही, इंसानियत के रहबर, पॅथ बाग के माली, अमृत के दाते, रॅबी रंग राते, साहिब ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’, शहीदों के पिता एवं शहीद के पुत्र ही नहीं अपितु शहीद पुत्रों के पिता भी थे। ऐसे गुरु जिन्होंने अपने चारों प्यारे पुत्रों को देश, धर्म और इंसानियत के लिए शहादत का जाम पीने की प्रेरणा दी थी। जब गुरु साहिबान के महल (सु-पत्नी) ने आपको साबो की तलवंडी (श्री दमदमा साहिब) में भरे दरबार में पूछा कि साहिबजादे कहां है? तो उस कलगीधर पातशाह ने ‘गुरु पंथ खालसा’ को अत्यंत सम्मान देते हुए बड़े ही फ़ख्र से फ़रमाया था—
इन पुत्रन के सीस पर वार दिए सुत चार।
चार मुए तो क्या हुआ? जीवित कई हजार।।
दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ आप स्वयं एक उत्तम कवि और उच्च कोटि के साहित्यकार थे। आप जी ने उस समय के सभी विद्वानों एवं साहित्यकारों का अत्यंत मान-सम्मान किया था और उन्हें सूखे मेवे और अनेक कीमती वस्तुएँ तथा भरपूर माया भेंट स्वरुप प्रदान करते थे। इतिहास गवाह है कि दशमेश पिता ने सन् 1686 ई. में पांवटा साहिब जी में एक साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया था। इस सम्मेलन में आप जी ने विद्या की महत्ता को स्पष्ट कर, विद्या के महत्व को दर्शाने के लिये अपने व्याख्यान में उपदेशित किया था कि दुनिया में आए सभी प्राणी मात्र को विद्या प्राप्त करनी ही चाहिए। आप जी ने उस समय में गुरुवाणी और भाषा के पाँच वरिष्ठ विद्वानों का चुनाव किया था उनके नाम क्रमश: 1. भाई राम सिंह जी 2. भाई कर्म सिंह जी 3. भाई वीर सिंह जी 4. भाई गंडा सिंह जी और 5. भाई शोभा सिंह जी थे। इन 5 सिखों को गुरु पातशाह जी ने हिंदू धर्म ग्रंथों के अध्ययन के लिये काशी भेजा था। इन विद्वान सिखों ने काशी (वाराणसी) में जाकर संस्कृत भाषा की विद्या ग्रहण करने की आज्ञा देकर आशीर्वाद दिया कि, जो विद्या जनसाधारण 12 वर्षों में प्राप्त करते हैं उसी विद्या को आप 12 महीनों प्राप्त करेंगे। श्री गुरु पंथ प्रकाश नामक ग्रंथ में अंकित है—
पढ़ो अबै तुम कांशी जाए। निगमागम विदया मन लाए॥
और पढत जो बरसन मैं है। तुमै महीनयों मैं सो अैहै॥
जोतिक बिदया सभि जग मै है। गुरु घर मैं अबि आए सु रैहै॥
(श्री गुरु पंथ प्रकाश, पृष्ठ 1394)
‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ की आज्ञा का पालन करते हुए यह पाँचो सिख दूसरे दिन अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) में तैयार होकर, भगवा वस्त्र धारण कर, खड़ाऊँ पहन कर और कमंडल एवं चिमटा हाथ में लेकर गुरु पातशाह जी की हजूरी में हाजिर हो गए थे। गुरु पातशाह जी ने प्रसन्नतापूर्वक इन पाँचों संतो को अनेक आशीर्वाद प्रदान कर, इन्हें काशी प्रस्थान करने की आज्ञा दी थी। इन पाँचों संतों ने गुरु पातशाह जी के चरणों में नमस्कार कर, परिक्रमा की एवं काशी के लिए रवाना हो गए थे।
इन पाँचों संतो ने काशी पहुँचकर जतने ब्राह्मण के वटवृक्ष के नीचे अपने आसन लगा लिए एवं उस स्थान पर घास-फूस की झोपड़ियाँ बना कर निवास करने लगे, यह ‘जतन मठ’ ही बाद में ‘चेतन मठ’ के नाम से निर्मल संप्रदाय का प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान बना। उस समय में काशी में पंडित सदानंद जी प्रसिद्ध उच्चकोटि के संस्कृत के विद्वान थे। विद्या अनुरागी इन पाँचों संतो को महान विद्या के दाता पंडित सदानंद जी के पास ही उनके पढ़ने का प्रबंध हो गया था। पंडित जी स्वयं एक उत्तम और योग्य शिक्षक थे। उन्होंने अपने इन योग्य विद्यार्थियों को मेहनत और लगन से पढ़ाना प्रारंभ कर दिया था। पंडित जी ने अपने इन योग्य विद्यार्थियों को अथाह स्नेह एवं अत्यंत प्रेम दिया। जिस कारण से इन विद्यार्थियों का पंडित जी से उत्तम तालमेल बैठ गया था और इन पाँचों विद्यार्थियों ने भी अपनी शिक्षा, मेहनत और लगन से प्रारंभ कर दी थी। इस कारण से पूरे काशी में इन पंजाबी विद्यार्थियों की ख्याति फैल चुकी थी। कारण जिस विद्या को सीखने में वर्षों का अभ्यास करना पड़ता है, उसी विद्या को यह पंजाबी विद्यार्थी किसी चमत्कार के तहत थोड़े ही समय में सीख जाते थे। दशमेश पिता जी के आशीर्वाद के कारण ही इन उत्साही विद्यार्थियों ने व्याकरण, वेद, वेदांत, न्याय वेदांत और सभी संस्कृत भाषाओं में रचित ग्रंथों को कंठस्थ कर, शीघ्र ही उनके ज्ञाता बन गए थे।लगभग 13 वर्षों तक संस्कृत भाषा का कठिन अभ्यास कर, पूर्ण रूप से पंडित मनोनीत होकर, अपने विद्या दाता पंडित सदानंद जी से आज्ञा प्राप्त कर, इन पाँचों संतो ने पुनः पंजाब की ओर प्रस्थान किया था।
जब ये पाँचों संत पुन: ‘श्री आनंदपुर साहिब जी’ में पहुंचे तो गुरु पातशाह जी का दरबार सुशोभित था, उपस्थित अपार संगत उपदेशों को श्रवण कर रही थी। शूरवीर योद्धा, शस्त्रधारी सिख अपने-अपने आसनों पर आसीन थे। ऐसे भरे हुए दरबार में ये पाँचों भगवाधारी संत हाथों में ग्रंथ, कमंडल एवं पैरों में खड़ाऊँ पहने हुए कलगीधर दशमेश पिता के समक्ष उपस्थित होकर, दातुन के पुष्प को भेंट कर, गुरु पातशाह जी के चरणों में दंडवत प्रणाम किया, तत्पश्चात् इन संतों ने सावधान होकर दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज की भूरी-भूरी प्रशंसा में निम्नलिखित श्लोकों (अनुष्टुप) का शुद्ध संस्कृत भाषा में उच्चारण किया था।
शुद्धाय बुद्धाय निरंजनाय संसारमायापरिवर्जिताय संचिन्तनाय स्वहृदि स्थिताय गोबिन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।1।
भावार्थ– महाराज श्री शुद्ध और प्रबुद्ध मन से, द्रवित हृदय के हैं। जिन्हें संपूर्ण संसार की माया भी नहीं छू सकती है, सद्बुद्धि सहित जिनके हृदय में सज्जनों के हित का चिंतन सदा निवास करता है! ऐसे ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज को सदा नमस्कार है।
आधाय चान्तयाय च मध्यगाय आद्यन्तहीनाय निरंकुशाय ज्योतिस्स्वरूपाय शुभप्रदाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।2।
भावार्थ– महाराज श्री शुद्ध और प्रबुद्ध मन से, द्रवित हृदय के हैं। जिन्हें संपूर्ण संसार की माया भी नहीं छू सकती है, सद्बुद्धि सहित जिनके हृदय में सज्जनों के हित का चिंतन सदा निवास करता है! ऐसे ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज को सदा नमस्कार है।
आदित्यवंशाय पुरंदराय संसारसाराय स्वयं प्रभाय। रत्यादिहीनाय जनप्रियाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।3।
भावार्थ— आप जी सेवा भाव में सूर्य के वंशज के समान है। सूर्य के प्रकाश से जगत् को आलोकित और प्रज्वलित करते हैं! ऐसे ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज को सदा नमस्कार।
वेदान्तवेद्याय महेश्वराय सोऽहं स्वरूपाय जनेश्वराय। शेषादिगीताय कृताखिलाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।4।
भावार्थ–सभी ज्ञान ग्रंथों, वेदों, पुराणों को जानने वाले, जिनमें स्वयं महेश्वर के अलौकिक स्वरूप की सांसे, एक जन नायक के रूप में विद्यमान है। अखिल स्वरूप शेषनाग नाथने वाले, गीता रचने वाले, प्रभु का तेज जिनके स्वरूप में है! ऐसे ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज को नमस्कार है।
चिच्छक्तिरूपाय मनोरमाय संसारवारांनिधितारणाय। आनन्दकन्दाय शुचिप्रभाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।5।
भावार्थ– जो स्वयं आद्य शक्ति के मनोरम स्वरूप हैं। संसार में सभी के कष्टों को हरने और तारने वाले हैं, आनंद स्निग्धता और पवित्रता के ऐसे स्वरूप! ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज को नमस्कार है।
कैवल्यभुताय परात्पराय भोग्याय भोगाय भवाभवाय। प्रह्रादसिंहाय सुखंकराय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।6।
भावार्थ– ऐसे पृथ्वी वीर, जिन्होंने आद्य देवी, आद्य भौतिक, अध्यात्मिक भोगों के समक्ष, भाव भक्ति के अखंड भक्त, प्रहलाद जैसी भक्ति, स्वयं भक्ति के, स्वयं सिंह पुरोधा! ऐसे ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज को नमस्कार है।
ताराय पाराय परायणाय कालाय पालाय जगद्धिताय। शान्ताय कान्ताय नमोंतकाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।7।
भावार्थ– जिन्होंने दुखों का कारण किया, बाधाओं को पार किया, भक्ति भाव का पारायण किया, समय शास्त्र का पालन किया, जो स्वयं सिद्ध, शांति और क्रांतिमान स्वरूप हैं! ऐसे ‘श्री गुरु गोबिंद सिंह जी’ महाराज को सदा नमस्कार है।
सांख्यादितत्वप्रविवेचकाय वैकुंठनाथायरमारमय। श्रौताय सत्याय सुदैशिकाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।8।
भावार्थ:- सांख्य आदि समस्त दर्शन शास्त्रों, तत्वाधिक शास्त्रों के ज्ञाता, श्री हरि नारायण, श्री वैकुंठ अधिपति के ध्यान में रमे रहने वाले, सत्य सनातन के प्रेणता! ऐसे ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ महाराज को नमस्कार है।
संस्कृत के श्लोकों के द्वारा भरे दरबार में, गुरु साहिब के समक्ष की गई इन स्तुतियों से गुरु पातशाह जी अत्यंत प्रसन्न हुए थे, उन्होंने जब इन पाँचों संतों की संस्कृत भाषा में उच्च कोटि की प्रवीणता देखी तो अत्यंत हार्दिक प्रसन्न हुए। जिस कारण से इन पाँच संतो को काशी में भेजा गया था, वह अत्यंत सफल रहा था। इसलिए यह पाँचों संत गुरु पातशाह जी की कृपा दृष्टि के सदैव पात्र रहे थे।
इसी तरह विभिन्न साधु-संप्रदाय लेखक और दार्शनिकों ने गुरु साहिब की स्तुति को अपने-अपने ढंग से कलमबद्ध किया है। गुरु साहिब की स्तुति में प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान और लेखक मोहम्मद लतीफ ने लिखा है कि, गुरु साहिब धार्मिक गद्दी पर विराजमान रूहानी रहबर है, तख़्त पर विराजमान शहंशाह के शहंशाह और मैदान-ए-जंग में महान योद्धा एवं संगत में बैठे हुए फकीर है। चाहे उनके शाही ठाठ-बाट है पर दिलो दिमाग से आप पर फकीरी छाई हुई है। इसलिए उन्हें बादशाह दरवेश कहकर भी संबोधित किया जाता है। गुरु साहिब ने इंसानियत के हर पक्ष को इस तरह से सजाया-संवारा और विकसित किया है कि, देखने-सुनने और परखने वाले आपके बहुपक्षीय जीवन से हैरान रह जाते हैं।
गुरु साहिब का ऊंचा-लंबा कद, नूरानी चेहरा, चक्षुओं में ऐसी चमक की लोगों के चक्षु चुंधिया जाए। कमाल के घुड़सवार, प्रकृति के प्रेमी, जब आप सजे हुए दरबार में प्रवेश करते तो कीमती लिबास और अस्त्र-शस्त्रों से लैस होकर बादशाह की तरह क़लगी सजा कर प्रवेश करते थे। गुरु साहिब जब शिकार पर जाते थे तो सुंदर तेज-तर्रार घोड़े की सवारी करते हुए बाएं हाथ पर बाज और उसके पैरों बंधी हुई डोरी, साथ ही घुड़सवारी करते हुए सवार सिख! क्या नजारा होता होगा?. . . . . इसकी केवल कल्पना की जा सकती है।
निश्चित ही गुरु साहिब एक महान जरनैल, उच्च कोटि के विद्वान, अज़ीम साहित्यकार, गुरुवाणी और संगीत के रसिया, सरबंस दानी, अमृत के दाते, भक्ति और शक्ति के मुजसमे, मर्दे-ए-मैदान, शस्त्र और शास्त्र के धनी, संत-सिपाही, साहिब-ए-कमाल, मर्द अगमंड़ा, दुष्ट-दमन, साहस-सिदक-सब्र-दृढ़ता और चढ़दी कला के मालिक, हिंदुस्तान की समेकित संस्कृति के रखवाले, आदर्श गृहस्थ आश्रम में जीवन व्यतीत करने वाले उत्तम सुपुत्र, प्यारे पिता, और नेक पति ऐसी अनेक विशेषताओं के आभूषण गुरु साहिब के संबंध में लिखते-लिखते अल्फ़ाज़ समाप्त हो गये, क़लम की स्याही समाप्त हो गई, क़लम टूट सकती है, शब्दों के संप्रेषण समाप्त हो गये परंतु ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ की स्तुति कभी भी समाप्त नहीं हो सकती है। गुरु साहिब के संबंध में यही कह सकते हैं कि–
तेरे कवन कवन गुण कहि कहि गावा।
तु साहिब गुणी निधाना।।
निश्चित ही आप जी निडर, बहादुर एवं ‘ना डरना और ना डराना’ वाली सोच रखते थे, फिर चाहे वह पहाड़ी राजे हो मुग़ल हुक्मरान, जुल्म और जबर से आपने कभी समझौता नहीं किया था। ऐसे महान गुरु के लिए गुरुवाणी का फ़रमान है–
गुर की महिमा अगम है किआ कथे कथनहारु।। (अंग क्रमांक 52)
अर्थात गुरु की महिमा अपरंपार है, कोई भी कथन करने वाला उनकी महिमा को कथन नहीं कर सकता है।
प्रसिद्ध फ़ारसी कवि हकीम अल्लाह यार ख़ान जोगी ने आप जी के संबंध में लिखा है–
इनसाफ करे जो जमाना तो यकीं है।
कहि दे की गोबिंद का सानी नहीं है।
करतार की सौगंध वा नानक की क़सम है।
जितनी भी हो गोबिंद की तारीफ वह कम है।
हर चंद मेरे हाथ मे पुर जोर क़लम है।
इक आँख से किआ बुलबुला कुल बहिर को देखें।
सागर के मझधार को या लहिर को देखे।
सूफी संत किबरिया ख़ान ने अपने अंदाज में लिखा है–
किआ दशमेश पिता तेरी बात कहूं जो तुने पर उपकार कीए।
इक खालस खालसा पंथ सजा, जातों के भेद निकाल दिए।
उस मुलक-ए-वतन की ख़िदमत में कहीं बाप दीआ कहीं लाल दीए।
साधु वासवानी मिशन के प्रमुख महान सिंधी संत ब्रह्म ज्ञानी साधु टी.एल. वासवानी जी ने गुरु साहिब जी की स्तुति में लिखा है कि आपकी शख्सियत इंद्रधनुष के सतरंगी रंगों से अभिभूत थी उन्होंने लिखा है कि गुरु साहिब में जितने पूर्व में पीर-पैगंबर हुए उन सभी के गुण और धर्म मौजूद थे। निश्चित ही आप जी में ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की मीठी ज्योत, ईसा मसीह की मासूमियत, बुद्ध का आत्म ज्ञान, हजरत मोहम्मद की तरह विद्वता का कोश, भगवान कृष्ण की चतुराई, प्रभु राम के समान मर्यादा-पुरुषोत्तम वाला जीवन, ऐसे अनेक विशेषणों से आप जी ने गुरु साहिब को आदरपूर्वक सम्मानित कर, उनकी स्तुति की है।
विदेशी लेखकों ने गुरु साहिब की स्तुति में लिखा है–
‘शहीद’ होना आसान है, लेकिन एक विचार की ख़ातिर निंदा सहते जीना कहीं ज़्यादा मुश्किल है’।
-जार्ज लुकाच
‘A thousand years Scarce Serve to form a State, An hour may lay it in the dust.’ -Lord Byron
‘The Past is never dead, it is not even past. -Gavin Stevense
यदि गुरु साहिब की विशेषताओं को समझना हो तो हमें गंज नामा नामक ग्रंथ का अध्ययन करना होगा। इस ग्रंथ में गुरु साहिब के दरबार में अपनी सेवाएं देने वाले 52 कवियों में से एक भाई नंद लाल जी की रचनाएं आलोककी और अद्भुत है। इन रचनाओं में भाई नंद लाल जी अत्यंत खूबसूरती से गुरु साहिब की शख्सियत को अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाने वाली राह का मार्गदर्शक बताया। गुरु साहिब की शख्सियत झूठ और कुमत की काली रात के अंधेरे को दूर कर मानवी जीवन को इंसानियत की रोशनी प्रदान करती है। इस ग्रंथ में उनकी 200 से अधिक (सिफ़त) गुणों को गुरु साहिब की स्तुति में कलमबद्ध करते हुए अंत में भाई नंद लाल जी ने लिखा है कि बस्स. . . . . मैं यह कह सकता हूं कि तेरे चरणों में अपना शीश रखकर मेरे प्राण निकल जाए। भाई नंद लाल जी गुरु साहिब की एक-एक (सिफ़त) गुण का इतना दीवाना था कि उसे गुरु साहिब की बहुपक्षीय शख्सियत के अतिरिक्त न कुछ दिखता था और न ही कुछ ध्यान आता था।
उस समय में भाई नंद लाल जी औरंगज़ेब के पुत्र मुअज़म बहादुर शाह को फ़ारसी भाषा की शिक्षा देते थे। आप जी फ़ारसी भाषा के अत्यंत विद्वान थे। जब आप जी एक बार औरंगजेब के दरबार में फ़ारसी भाषा के एक पत्र का अनुवाद करने गए तो औरंगजेब भाई नंद लाल जी की विद्वता को देखकर दंग रह गया और उसने भरे दरबार में अपने कानों को हाथ लगाकर दरबारियों से उनका नाम जानना चाहा तो उसे ज्ञात हुआ कि भाई नंद लाल जी जात से हिंदू है तो उन्होंने उसी वक्त हुक्म दिया था कि या तो भाई नंद लाल जी को दिन-ए-इस्लाम कबूल करवाया जाए या उनका कत्ल कर दिया जाए! भाई नंद लाल जी अपना धर्म और जान बचाने हेतु ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ की शरण में आए थे। गुरु जी भी भाई नंद लाल जी की विद्वता से अत्यंत प्रभावित थे, भाई नंद लाल जी अपनी तमाम उम्र गुरु साहिब के सानिध्य में रहकर साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से अपनी सेवाएं समर्पित करते रहे थे।
ऐतिहासिक स्रोतों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि एक बार गुरु साहिब के साथ भाई नंद लाल जी और कुछ सेवादार सैर करने गए तो गुरु साहिब ने एक पत्थर उठाकर नदी में फेंक दिया एवं अपने सिखों से पूछा कि यह पत्थर क्यों डूब गया तो उन्होंने जवाब दिया था कि पत्थर भारी होने के कारण डूब गया। जब एक और पत्थर उठाकर गुरु साहिब जी ने नदी में फेंका और भाई नंद लाल जी से पूछा कि आप बताएं यह पत्थर क्यों डूब गया? उस समय भाई नंद लाल जी ने जवाब दिया था कि गुरु जी न मैंने पत्थर देखा न पानी! मुझे तो इतना पता है कि जो तुम्हारे हाथ से छूट गया, वह डूब गया। इतनी अधिक श्रद्धा और प्यार था भाई नंद लाल जी का गुरु साहिब से! एक बार गुरु साहिब ने भाई नंद लाल जी से वचन कि आप मुझसे कुछ मांग ले तो उन्होंने जवाब दिया था कि मुझे तो आपके नूरानी चेहरे में पूरी कायनात के दर्शन होते हैं और आपके केसों में मुझे लोक-परलोक दिखाई देते हैं और इससे अधिक मुझे क्या चाहिए? इस वार्तालाप के पश्चात भी जब गुरु साहिब ने फिर भी कुछ तो मांगने के लिए कहा तो आपने अपनी निष्काम सेवाओं को प्रकट करते हुए वचन किये कि है सच्चे पातशाह! बस्स. . . मेरी तो एक ही मांग है, जब मेरी मृत्यु हो तो मेरे तन की राख तुम्हारे चरणों के अतिरिक्त किसी और को न लगे। जब समय ने करवट बदली और गुरु साहिब जी को ‘श्री आनंदपुर साहिब जी’ का क़िला खाली करना पड़ा तो उस समय भाई नंद लाल जी ने वचन कि गुरु पातशाह मेरा भी दिल करता है कि मैं भी खंडे-बाटे की पाहुल छककर (अमृत पान की विधि) सिंह सज जाओ और कुछ नहीं तो मैं आपके खेमे का पहरेदार बन कर ही अपनी सेवाएं दूंगा। उस समय गुरु साहिब ने वचन किए थे कि तेग चलाने वालों को तेग जरूर चलानी चाहिए और अपने हाथ से एक क़लम आप जी भाई नंद लाल जी को देकर वचन कि, आपकी यह कलम एक सूरमा की तलवार की भांति चलनी चाहिए, एक सिपाही की खड़ग भुजा से सशक्त क़लम की ताकत अधिक होती है। वह कलम ही है जो नेकी, धर्म, सुमिरन, त्याग और शुभ आचरण सिखाती है और यह आपके लिए है। आप पुनः मुल्तान अपने (जद्दी) पैतृक गांव जाएं और धर्म की कीर्ति एवं यशगान करें। भाई नंद लाल जी की क़लम से गुरु साहिब के प्रति हुई निकली हुई सिफ़त इस प्रकार से है–
नासरो मनसूर गुरु गोबिंद सिंह. . .
ऐजदी मंजूर गुरु गोबिंद सिंह. . .
हक हक मंजूर गुरु गोबिंद सिंह. . .
जूमला फैज़ीलूर गुरु गोबिंद सिंह. . .
नूर हर चशम गुरु गोबिंद सिंह. . .
हक हक आगाह गुरु गोबिंद सिंह. . .
शाहे शहिनशाह गुरु गोबिंद सिंह. . .
खालसे बे दीना गुरु गोबिंद सिंह. . .
हक हक आईना गुरु गोबिंद सिंह. . .
हक हक अंदेश गुरु गोबिंद सिंह. . .
बादशाह दरवेश गुरु गोबिंद सिंह. . .
इन सभी खूबियों से जग-जाहिर होता है कि ‘श्री गुरु गोविंद सिंह जी’ हिंदुस्तान की रुहानी शख्सियत थे। निश्चित ही उनका ऊंचा और पवित्र जीवन इंसानियत और प्यार के जज्बे से ओतप्रोत था जो किसी पैगंबर से कम नहीं था। जहां आपके जीवन में एक संत-सिपाही की प्रतिमा झलकती है, वहां आप जी समाज-सुधारक, कौमी-एकता की पहचान और महान जरनैल भी थे। आप जी निडर और लोभ-लालच से परे थे। आप जी का जीवन सेवा, त्याग, सुमिरन से ओतप्रोत था। आप जी ने कभी भी जर-जोरू और ज़मीन के लिए ज़ंग नहीं लगी थी और न ही किसी पर जुल्म कर दुख पहुंचाने के लिए जंग लड़ी थी निश्चित ही आपने जो जंग लड़ी थी वह ग़रीब और मज़लूमों की रक्षा के लिए और जोर-ज़बर के आतंक को समाप्त करने के लिए थी। आप जी ने न किसी की दौलत को लूटा था और न ही किसी की ज़मीन पर कब्जा किया था, न ही किसी बहू-बेटी की इज्जत को बे-आबरू किया था। आपने जो ज़ंग लड़ी वह केवल और केवल सिद्धांतों के लिए थी। सच और हक की रक्षा करने के लिए आपने उस समय ही कृपाण उठाई थी जब सारे समझौते और शांति के रास्ते बंद हो गए थे।
इस आलेख के अंत में गुरु साहिब की स्तुति में हकीम अल्लाह यार ख़ान जोगी की इस नज़म से उन्हें नवाज़ा जा सकता है–
शान का रुतबा तेरा अल्लाह ओह गनी है।
मसकीन ग़रीबों में दलेरों में जरीं है।
अंगद है अमरदास अरजन भी तू ही है।
नानक से लेकर तेग बहादर तू सभी है।
तीरथ नहीं कोई रुहे रोशन के बराबर।
दर्शन तेरे दस गुरुओं के दर्शन के बराबर।
है गुरु गोबिंद सिंह बहुत उपमा थोर कही तेरी उपमा बड़ी है।।
धन्य-धन्य ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ को टीम ‘खोज-विचार’ का सादर नमन!
(विशेष आभार— लेख में प्रकाशित संस्कृत के श्लोकों का भावार्थ मेरे सहपाठी पंडित श्री विजय रावल जी ‘ज्योतिषाचार्य’ (उज्जैन निवासी) ने किया है)।
नोट:-1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।
2. गुरवाणी का हिंदी अनुवाद गुरवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
साभार– लेख में प्रकाशित गुरवाणी के पद्यों की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।
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