श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी का संक्षिप्त जीवन परिचय

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ੴ सतिगुर प्रसादि॥

चलते-चलते. . . .

(टीम खोज-विचार की पहेल)

प्रासंगिक– श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी के 367 वें प्रकाश पर्व (11 जुलाई) पर विशेष–

स्री हरिक्रिसनि धिआईऐ जिसु डिठे सभु दुखु जाइ॥

श्री गुरु नानक देव जी की ज्योति, आस्था व श्रद्धा के पुंज, बाला प्रीतम जिनके दर्शन एवं स्मरण मात्र से मनुष्य के दैहिक, दैविक और भौतिक सभी प्रकार के दुखों का निवारण हो जाता है, ऐसे सिख धर्म के 8 वें (अष्टम) गुरु श्री गुरु हरकृष्ण साहिब जी का प्रकाश (आविर्भाव) ‘श्री गुरु हरि राय साहिब जी’ के गृह में माता कृष्ण कौर जी की कोख से 7 जुलाई सन् 1656 ई. को किरतपुर साहिब, जिला रोपड़, सूबा पंजाब में हुआ था।

सन् 1661 ई. में जब सिख धर्म के सातवें गुरु ‘श्री गुरु हरि राय जी’  का अंतिम समय निकट आया तो आप ने गुरु पुत्र ‘श्री हरकृष्ण साहिब जी’ को गुरु गद्दी पर विराजमान करने का निर्णय लिया था कारण श्रद्धा और विश्वास का संबंध श्रद्धेय के गुणों और विशेषताओं पर आधारित होता है। श्रद्धेय की आयु से उसका कोई नाता नहीं होता है और यदि श्रद्धा ‘गुरु पंथ खालसा’ की महान गुरु परंपरा के प्रति हो, जिसमें प्रथम गुरु पातशाह जी की ज्योति को अन्य गुरुओं में समाहित माना जाता है, तो आयु इत्यादि तथ्य गौण हो जाते है।

अमृतवेले (ब्रह्म मुहूर्त) के समय ‘आसा जी की वार’ के कीर्तन के पश्चात भरे पंडाल में उपस्थित संगत  के समक्ष ऊंचे तख्त पर विराजमान कर ‘बाबा बुड्ढा जी’ के पौत्र  भाई ‘गुरदित्ता जी के कर-कमलों से गुरता गद्दी की समस्त रस्मों को विधिवत पूर्ण कर गुरता गद्दी के तिलक को ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ के कपाल पर सुशोभित कर गुरुआई की बख्शीश की थी।

प्रसिद्ध सिख धर्म के इतिहासकार प्रोफेसर साहिब सिंह जी के अनुसार उस समय ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ की आयु केवल 5 वर्ष 3 महीने की थी। उपस्थित संगत ने नतमस्तक होकर नमस्कार कर आपको गुरु रूप में स्वीकार कर लिया था। बड़े भ्राता गुरु पुत्र राम राय जी को जब यह सूचना मिली कि गुरु गद्दी पर मेरे छोटे भ्राता ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ विराजमान हो चुके हैं तो उन्होंने षड्यंत्र करने प्रारंभ कर दिए थे। उन्होंने अपने इस रचित षड्यंत्र को पूर्ण करने के लिये लगातार दिल्ली की यात्रा कर बादशाह औरंगज़ेब की मदद लेने का प्रयास किया था परंतु उस समय औरंगज़ेब कश्मीर की यात्रा पर था।

सन् 1664 ई. में जब औरंगज़ेब कश्मीर से लौटकर दिल्ली पहुँचा तो गुरु पुत्र राम राय ने   औरंगज़ेब से बड़ा बेटा होने के नाते गुरता गद्दी के हक की मांग रखी थी। इस ‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ की गद्दी का केवल मैं ही वारिस हो सकता हूं। इस प्रकार की दबाव पूर्ण मांग बादशाह औरंगज़ेब के समक्ष प्रस्तुत की थी। औरंगज़ेब अपनी कुटिल राजनीति में कामयाब हो गया था, वह यही चाहता था कि गुरु गद्दी राम राय जी को ही  मिलना चाहिए क्योंकि एहसानमंद राम राय औरंगज़ेब की सभी बातों को मानते थे इससे संपूर्ण सिख जगत में उसका दबदबा और प्रभाव हो जाता।

उस समय ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ की आयु करीब 7 वर्ष की हो चुकी थी। इस छोटी आयु में गुरु पातशाह जी की ओर से बड़े-बड़े कार्यों को अंजाम दिया जा रहा था। गुरु पातशाह जी ने किरतपुर स्थान पर कई अचंभित कार्यों  को सहजता से अंजाम दिया था। औरंगज़ेब ने उस समय राजा जयसिंह को मध्यस्थ नियुक्त कर ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ को दिल्ली आमंत्रित करने के लिए पत्र द्वारा सूचित किया था। ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ का दिल्ली यात्रा का कोई कार्यक्रम नहीं था परंतु संगत  के दर्शन-दीदार करने के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया था। उस समय दिल्ली में राम राय गुरु बनकर स्वयं को स्थापित कर रहे थे और संगत को भी गुमराह किया जा रहा था। गुरु जी की सेवा में उपस्थित सिख संगत के आग्रह पर ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ ने किरतपुर से दिल्ली की ओर कूच कर दिया था। पालकी में सवार होकर सहपरिवार अपने 2200 घुड़सवारों  की सेना सहित गुरु पातशाह जी किरतपुर से गुरुद्वारा पंजोखरा साहिब जी  में पधारे थे। यह गुरुद्वारा साहिब अंबाला नामक शहर के करीब स्थित है।

इस स्थान पर आप ने विश्राम करते हुए अहंकारी पंडित लालचंद जी के घमंड को चकनाचूर किया था। इस पंडित लाल चँद ने संगत के समक्ष कहा था कि आप अपने आप को हरकृष्ण कहलाते हैं तो ‘गीता’ के किन्ही दो श्लोकों का अर्थ करके  दिखाइएगा। उस समय ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ ने मंदबुद्धि छज्जू झीवर नामक व्यक्ति से संपूर्ण गीता के श्लोकों का अर्थ करवाया था और घमंडी लालचंद के घमंड को तोड़ा था। इस पंडित लालचंद जी पर गुरु जी की ऐसी कृपा हुई थी कि वह अप्रैल सन् 1699 ई. में खंडे़-बाटे के अमृत को छक कर लाल सिंह  के रूप में  सज गया था। इस लाल सिंह ने चमकौर की गढ़ी में अपनी महान शहादत दी थी और छज्जू झीवर गुरु जी के आशीर्वाद से धर्म प्रचार-प्रसार के लिए उड़ीसा राज्य में प्रस्थान कर गया था। विशेष ऐतिहासिक तथ्य यह है कि छज्जू झीवर के परिवार में से ही भाई साहिब सिंह जी को पांच प्यारों में से एक के रूप में सजाया गया था। उल्लेखनीय है कि सिख धर्म में चमत्कारों को कोई स्थान नही दिया गया है परंतु यदि गुरु पातशाह जी की कृपा हो तो असंभव भी संभव हो जाता है। गुरु पातशाह जी पंजोखरा शहर से होते हुए दिल्ली पहुँचे थे। उस समय मध्यस्थ राजा जयचंद ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी की’ परीक्षा लेना चाहता था और जब गुरु पातशाह जी, जयचंद के महल में प्रवेश कर रहे थे तो राजा जयचंद ने अपनी रानियों के वस्त्र दासियों को परिधान करें एवं दासियों के वस्त्र रानियों को परिधान कर दिये थे। जब गुरु जी ने महल में प्रवेश कर दासियों के वस्त्र में रानियों को देखा तो जो वचन उदबोधित किये थे उसे इतिहास में इस तरह से अंकित किया गया है–

महाराज की तु पटरानी। कहां कपट करबे बिध ठानी॥

अर्थात ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ ने राजा जयचंद और रानियों को संबोधित करते हुए कहा कि आप को कपट करने की क्या आवश्यकता थी?

‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ ने दिल्ली में राजा जयसिंह  के बंगले में अपना निवास स्थान रखा था। इसी स्थान पर संगत भेंट देकर दर्शन-दीदार करने आती थी। इस स्थान पर जब औरंगज़ेब उनसे मिलने आया तो ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ उसके मुंह नहीं लगे थे। इतिहास में विभिन्न इतिहासकारों द्वारा अंकित किया गया है कि औरंगज़ेब आधी घड़ी से लेकर लगभग तीन घड़ी (आधुनिक गणितीय गणना के अनुसार एक घड़ी का समय लगभग 24 मिनट के बराबर होता है) समय तक दरवाजे के बाहर ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ से मिलने का इंतजार करता रहा परंतु 7 वर्ष की आयु के गुरु पातशाह जी ने इस हिंदुस्तान के बादशाह से न मिलते हुए उसे वापस भेज दिया था।

उस वक्त ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ ने अपने पिता ‘श्री गुरु हरि राय जी’ के वचन जो इस तरह से इतिहास में अंकित है–

नैंह मलेश को दरशन देहैं। नैंह मलेश को  दरशन लैं॥

इन उद्बोधित वचनों को पूरा करते हुए बादशाह औरंगज़ेब से मुलाकात नहीं की थी।

सन् 1661 ई. में ऐतिहासिक तथ्यों को देखा जाए तो जब ‘श्री गुरु हरि राय जी’ ज्योति-ज्योत समाये थे तो उस समय भावी गुरु ‘श्री तेग बहादुर साहिब जी’ धर्म के प्रचार-प्रसार के लिये उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर गए थे। सन् 1661 ई. के समय में जब हम ऐतिहासिक ग्रंथों को संदर्भित करेंगे एवं विभिन्न विद्वान इतिहासकारों को जब हम पढ़कर समझने की कोशिश करेंगे तो उस समय जब श्री गुरु हरि राय जी ज्योति-ज्योत समाये थे तो भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ धर्म प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर यात्रा कर रहे थे। आप उत्तर भारत के लखनऊ, कानपुर और बनारस नामक शहरों में धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे।

जब भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपनी  इन यात्राओं को समाप्त कर वापस दिल्ली पहुँचे तो आप ने दिल्ली स्थित गुरु घर के श्रद्धालु भाई कल्याणा जी के निवास स्थान पर निवास किया था। गुरु घर के सेवक भाई कल्याणा जी का निवास वह स्थान है जहाँ पर सिख धर्म के 6 वें गुरु ‘श्री गुरु हरगोविंद जी’ जो ग्वालियर के किले से वापसी की यात्रा करते समय इसी स्थान भाई कल्याणा जी के निवास स्थान पर ही आप ने विश्राम किया था।

इस निवास स्थान पर 21 मार्च सन् 1664 ई. से लेकर 23 मार्च सन् 1664 ई. तक 3 दिनों तक ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ और भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की मुलाकात होने का इतिहास में ब्यौरा मिलता है।

‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ और भावी ‘श्री गुरु तेग बहादुर जी’ की दिल्ली स्थित मुलाकात के जो ऐतिहासिक स्रोत हैं वह ‘गुरु की साखीआं’ में साखी क्रमांक 21 में अंकित है। प्रिंसिपल सतबीर सिंह जी रचित ‘अष्टम बलबीरा’  नामक पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक 108 में भी इस मुलाकात का स्रोत प्राप्त होता है। इसी प्रकार से जीवन गाथा ‘श्री हरकृष्ण जी’ के पृष्ठ  क्रमांक 12 (सिख  मिशनरी कॉलेज) में भी इस मुलाकात का जिक्र किया गया है।

‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ दिल्ली में राजा जयचंद के बंगले में निवास करते हुए स्थानीय संगत के दर्शन-दीदार कर रहे थे। सन् 1664 ई. में दिल्ली में अचानक से चेचक (चिकन पॉक्स) नामक संक्रमण की बीमारी का प्रादुर्भाव हो गया था। इस संक्रमण से लगभग पूरी दिल्ली के लोग संक्रमित हो गए थे। दिल्ली में इस संक्रमण की बीमारी ने हाहाकार मचा दी थी। प्रत्येक घर में मौत का तांडव शुरू हो गया था। दिल्ली में पीठासीन बादशाह   औरंगज़ेब ने आम लोगों से मुँह मोड़ लिया था। व्यथित जनता की पुकार सुनने वाला कोई नहीं था परंतु ‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ के घर की महिमा रहे श्री गुरु हरकृष्ण जी ने  इस संकट के समय दीन-दुखियों की सेवा करते हुए स्वयं का जीवन व्यतीत कर रहे थे।

‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ ने भी कोड़ियों की सेवा करके आम जन समुदाय को उपदेश दिया था। जिसे वाणी में इस तरह अंकित किया गया है–

जिउ तपत है बारो बार॥ तपि तपि खपै बहुतु बेकार॥

जै तनि वाणी विसरि जाइ॥ जिउ पका रोगी विललाइ॥

                                     (अंग क्रमांक 661)

इसी प्रकार से सिख धर्म के तीसरे गुरु ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने भी प्रेमा कोड़ी  का इलाज स्वयं के हाथों से किया था। गुरु ‘श्री अर्जुन देव साहिब जी’ के समय में जब अकाल पड़ा था तो आप ने स्वयं लाहौर में जाकर जन समुदाय की सेवा-सुश्रुषा कर लोगों के दुख दूर किए थे। उस समय ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ की आयु ढाई वर्ष की थी। ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने तरनतारन नामक स्थान पर कोड़ी खाना बनाकर स्वयं के हाथों से सेवा-सुश्रुषा कर कोडी़यों का इलाज किया था। इसी प्रकार सिख धर्म के सातवें गुरु ‘श्री गुरु हरि राय जी’ के द्वारा किरतपुर में संचालित एक बहुत बड़े दवाखाने में दुर्गम रोगों का इलाज जड़ी-बूटियों से किया जाता था। ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ इन सभी इतिहास से अवगत थे और अपने पिता ‘श्री गुरु हरि राय जी’ के सानिध्य में रहकर आप उन्हीं के पद चिन्हों पर चलकर समाज की सेवा-सुश्रुषा कर रहे थे। दिल्ली में जब चेचक का प्रकोप पूरे जोर पर था तो श्री गुरु हरकृष्ण जी ने ‘श्री गुरु नानक साहिब जी’ द्वारा स्थापित परंपराओं का पूर्ण रूप से निर्वाह किया था। इस संक्रमण के प्रकोप से चाहे जान चली जाए या शरीर साथ छोड़ दें परंतु दीन-दुखियों की सेवा से आप पीछे नहीं हटे थे।

‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ ने दिल्ली में सेवाएं करते हुए आम जन समुदाय को दिलासा प्रदान  की और संगत को दर्शन-दीदार भी दिए थे। जिसे इस तरह से इतिहास में अंकित किया गया है–

स्री हरिक्रिसनि धिआईऐ जिसु डिठे सभु दुखु जाइ॥

इसी प्रकार ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में अंकित है–

क्रिपा कटाख्य अवलोकनु कीनो॥ दास का दुखु बिदारिउ ॥

(अंग क्रमांक 681)

गुरु पातशाह जी ने जिस व्यक्ति पर दृष्टि देकर नजर मेहर करी उसके दुख तो वैसे ही तुरंत दूर हो गए थे। दिल्ली की गलियों में संक्रमित बीमारी से लाशों के ढेर लगे हुए थे। त्राहि-त्राहि मची हुई थी ऐसे संकट के समय में जन समुदाय का इलाज आप ने स्वयं किया था। स्वयं के दर्शन-दीदार से लोगों के हृदय में ठंडक पहुँचाई थी। दिल्ली स्थित जिस बंगला साहिब गुरुद्वारे में दर्शनाभिलाषी संगतो को जल (अमृत) पान करवाया जाता है, वर्तमान समय में उस स्थान पर आप ने स्वच्छ निर्मल जल का एक झरना बनवाया था। सारे संक्रमित लोगों को इस झरने के निर्मल जल का पान करवाया था। अपनी मेहर दृष्टि से आपने सभी जन समुदाय का इलाज किया था। इस संक्रमण की बीमारी से जो कार्य दिल्ली के बादशाह औरंगज़ेब से नहीं हो सका था। उन सभी कार्यों को आप ने सेवा के रूप में करके दिखाया था।

इस सेवा भाव वृत्ति के कारण चहुँ दिशाओं में ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ की जय-जयकार हो रही थी। इन सेवाओं के माध्यम से आप ने सिख समुदाय को मार्गदर्शन करते हुए, जान की परवाह न करते हुए, सेवा के लिए उपदेशित किया था। आप ने स्वयं इन सेवाओं में हिस्सा लेकर एक अनोखा उदाहरण प्रस्तुत किया था।श्री गुरु हरकृष्ण जी भी इस रोग के प्रकोप से संक्रमित हो गए थे। अपने संक्रमण की परवाह न करते हुए आप ने दिल्ली शहर में अपनी सेवा-सुश्रुषा से काफी हद तक इस रोग पर काबू पा लिया था। आप भी इस संक्रमण के रोग से बहुत ज्यादा बीमार हो गए थे।

‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ ने अपनी जीवन यात्रा के अंतिम समय को जानकर भविष्य में दी जाने वाली गुरता गद्दी का निर्णय कर लिया था। सन् 1664 ई. में जो दिल्ली में भयानक चेचक (चिकन पॉक्स) नामक रोग का संक्रमण हुआ था तो उस समय श्री गुरु हरकृष्ण जी ने दिल्ली में निवास करते हुए स्वयं के दर्शन-दीदार देकर चेचक के रोगियों का सफलतापूर्वक इलाज किया था। जिस बंगले में गुरु जी ने निवास किया था उस ही बंगले में गुरु जी ने अपने कर-कमलों से निर्मल जल (अमृत) के एक चश्में का निर्माण भी किया एवं इस चश्में के निर्मल जल (अमृत) को रोगियों को छका कर (पिला कर) चेचक के रोगियों को रोग से सफलतापूर्वक मुक्त किया था। इस संक्रमण के रोग  से गुरु जी स्वयं भी संक्रमित हो गए थे। अपनी रोगावस्था में आप ने अपने तख्त  पर विराजमान हो गए थे। आप बुरी तरह से चेचक के संक्रमण से ग्रसित हो गए थे। इस समय में भी  बादशाह   औरंगज़ेब आपसे मुलाकात करना चाहता था परंतु आप ने मिलने से साफ इंकार  कर दिया था एवं ज्योति-ज्योत समाने के पांच दिन पूर्व ही अपनी माता जी को आप ने जो वचन उद्गारित किए थे वो इस तरह से है–

हमरा तुरकन सौ मेल ना होइ। जो हर भावै होवै सोइ।

पांच दिवस इम बितत भइआ। अब हम परम धाम को जावै।

तन तज जोति जोत समावै। (संदर्भित ग्रंथ: महिमा प्रकाश)

जब गुरु जी ने  वचन उद्गारित किये की अब हमने ज्योति-ज्योत (अकाल चलाना) समा जाना है तो दिल्ली की संगत और सिखों के मन को आघात पहुँचा था। उस अंतिम समय में निकटवर्ती सिखों ने एकत्र होकर गुरु जी से निवेदन कर कहा कि गुरु पातशाह जी आप यह क्या भाणा वरता रहे हो (कौतुक दिखा रहे हो)? उपस्थित सिखों  में से एक सिख ने विनम्रता पूर्वक निवेदन किया कि पातशाह जी आप के पश्चात हम किसके सहारे जीवन यात्रा करेंगे? अर्थात्  भविष्य में हमारे गुरु कौन होंगे?

इन प्रश्नों के फलस्वरूप ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ ने गुरता गद्दी की विधि की समस्त सामग्रियों को मंगवाया था और उस समय जो घटित हुआ उसका उल्लेख भटवईयां रचित भट वही भादसों थानेसर’ नामक ग्रंथ में इस तरह अंकित है–

गुरु हरि कृष्ण जी महला अठमां बेटा गुरु हर राय जी का।

संमत सत्रां सो इकीस। मासे सुदी चउदस।

बुधवार के देहु। दीवान दरगाह मल के बचन कीआं।

गुरआई की सामग्री ले आउ। हुकम पाए दीवान जी लै आए।

सतिगुरां इस हाथ छुहाए। तीन दफां द‍ाई भुजा हिलाए।

धीमी आवाज से कहा–

इसे बकाला नगरी ले जाना। पांच पैसे नलीएर।

बाबा तेग बहादर आगै राख। हमारी तरफ से मसतक टेक देना।

इन वचनों से स्पष्ट हो चुका था कि बाबा कौन है? इस रोगावस्था में गुरु जी उठ नहीं सकते थे। इसलिए आप ने सुप्त अवस्था में ही गुरु गद्दी की थाली पर अपने दाहिने हाथ से तीन बार परिक्रमा कर, अपने वचनों से उपस्थित सिखों को उद्गारित कर कहा–

बाबा बसहि बकाले। बनि गुरु संगति सकल समाले।

एवं वचन कर इंगित किया ‘बाबा-बकाले’ ! अर्थात् हमारे पश्चात गुरता गद्दी के अधिकारी ‘बाबा-बकाला’ नामक स्थान पर होंगे। अपने अंतिम समय में गुरु जी ने अपनी शयनावस्था में ही गुरुवाणी के इन श्लोकों का उच्चारण किया था–

जो तुधु भावै साई भलीकार। तु सदा सलामत निरंकार।

                         (अंग क्रमांक 3)

इन गुरुवाणी के श्लोकों को उद्गारित करते हुए आप ज्योति-ज्योत समा गये थे।

जोति जोत रली संपुरन थीआ राम। (अंग क्रमांक 846)

‘बाबा बकाले’ नामक स्थान पर  ‘श्री गुरु तेग बहादुर जी’ को गुरता गद्दी प्रदान करने हेतु पुरातन स्त्रोत ग्रंथ ‘भाई केसर सिंह जी वंशावली नामा’ में इस तरह अंकित है–

वकत चलाणे सिखां कीती अरदास।

गरिब नवाज संगत छंड्डी किस पास। उस वकत बचन कीता बाबा बकालें ।

इसी संदर्भ में पुरातन ग्रंथ ‘गुर बिलास पातशाही दसवीं’ ग्रंथ के रचयिता क्रित सुखा सिंह जी ने इसे इस तरह से अंकित किया है–

संगत कही प्रभु जंग नाथा। बाबा सही बकाले आहै।

जो कहि करि सतगुरु बच आदि निज। सुख भीतर गये समाए।

गुरु पातशाह जी ने जीवन यात्रा के इस अंतिम समय में उपस्थित सभी संगत के दर्शन-दीदार देकर अपनी माता कृष्णा कौर जी (जो माता सुलखनी जी के नाम से भी जानी-जाती थी) की गोद में अपना शीश रखकर देह त्याग कर दिया था। आप का समकालीन शासक शहंशाह औरंगज़ेब था। (सन् 1658 ई. से सन् 1707 ई. तक)।

‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ के दिल्ली स्थित निवास स्थान पर वर्तमान समय में गुरुद्वारा बंगला साहिब सुशोभित है। गुरु पातशाह जी द्वारा स्थापित हुआ चश्मा जिसके निर्मल जल (अमृत ) से चेचक के रोगियों का इलाज हुआ था। उस चश्में के निर्मल जल को वर्तमान समय में उपस्थित दर्शनाभिलाषी संगतों को छकाया (पिलाया) जाता है।

जिस स्थान पर ‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ का अंतिम संस्कार किया गया था उस स्थान पर गुरुद्वारा ‘बाला साहिब’ सुशोभित है (‘श्री गुरु हरकृष्ण जी’ को संगत प्रेम पूर्वक ‘बाला प्रीतम’ के नाम से भी संबोधित करती है)।

नोट:-1. धन्य-धन्य ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

साभार– लेख में प्रकाशित गुरुवाणी  के पदों की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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स्तुति(उसत्तत): श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी

KHOJ VICHAR CHANNLE


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