ੴ सतिगुर प्रसादि॥
चलते-चलते. . . .
(टीम खोज-विचार की पहेल)
संतोषी, सर्वदा सुखी
विश्व में सिख धर्म को सबसे आधुनिक धर्म माना गया है, सिख धर्म को एक मार्शल धर्म भी माना जाता है। ऐसी क्या विशेषता है, इस धर्म की? जो सिख धर्म के अनुयायी है उनकी एक विशेष प्रकार की जीवन शैली होती है। उनके जीवन में विनम्रता, व्यक्तिगत स्वाभिमान और संतोष का अत्यंत महत्व है। प्रत्येक सिख ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के द्वारा कीरत करो, नाम जपो और वंड छको के सिद्धांत के अनुसार जीवन व्यतीत करता है, अर्थात कष्ट करो, प्रभु परमेश्वर का स्मरण करो और जो भी प्राप्त हो उसे बांट कर खाओ।
संतोष क्या है? प्राप्त पदार्थों का उपयोग कर, स्वयं का जीवन निर्वाह करना ही संतोष है। सच जानना. . . . . संतोष से बढ़कर कोई मानसिक सुख नहीं है। सिख जीवन शैली में गरीबी, भूख और बेकारी को कायम रखना संतोष नहीं है। उत्तम जीवन के निर्वाह के लिए स्वयं की आर्थिक स्थिति अनुसार, एक सार्थक जीवन व्यतीत करने का निरंतर प्रयत्न करना चाहिए और परिस्थितियों के अनुसार प्राप्त पदार्थों का उपयोग कर आनंदित होकर उत्साह से जीवन व्यतीत करना ही संतोषी होना है। तृष्णा, लालच और ईर्ष्या में फंस कर, या दूसरों के जीवन से प्रभावित होकर, हीन भावना से कुंठित होकर जीवन कदापि नही जीना चाहिए। निश्चित ही पाप की कमाई ना करनी ही संतोष है। सिख जीवन शैली, संतोषी जीवन की सीख देती है। अपनी आवश्यकताओं को कम करना ही आत्मिक सुख की ओर अग्रसर होना है। मानसिक सुख एक या दो अंको की तरह है। यदि इन 1 से 2 अंकों को या 1 से 4 अंकों को भाग (तकसिम) करोगे तो वह मूल से उतना ही घटता जाएगा।
इसके विपरीत भौतिकवाद कहता है कि, जिस दशा में आप हो उसमें संतोष कर लेना अर्थात स्वयं को स्थिर प्रज्ञ कर लेना है। इंसान को अपनी ज़रूरतें बढ़ानी चाहिए, हिंदी की प्रसिद्ध कहावत है—
‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’। निश्चित ही आवश्यकता के अनुसार आविष्कार होते हैं और इन आविष्कारों से मनुष्य अर्थाजन कर सुख के साधनों को बढ़ाने का यत्न करता है।
संतोष शब्द के अर्थ को ठीक तरह से ना समझने के कारण भौतिकवादियों ने उद्यमशीलता और पुरुषार्थ को त्याग दिया है। इन भौतिकवादियों ने संतोषी जीवन को त्याग कर अपनी आवश्यकताओं को बढ़ा लिया है। परिणाम स्वरूप वाद-विवाद, ईर्ष्या, सम्राज्ञी मनोवृत्ति और पूंजीवाद का जोर दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। सिख धर्म के अनुयायियों की जीवन शैली में विनम्रता, साहस और पुरुषार्थ कूट-कूट कर भरा हुआ होता है। सिख धर्म के श्रद्धालुओं ने अर्थाजन के साथ धर्म की किरत करने को भी अत्यंत महत्व दिया है। उन्होंने अपनी तृष्णाओं की हद से, अपनी आवश्यकताओं को बड़ाकर, जीवन को लूट-खसूट वाला जीवन नहीं बनाया है। ज़िंदगी संतोषी होकर, जीवन जीने में विश्वास रखना चाहिये, अतीत में तो केवल ग्लानि होती है और भविष्य के लिये हम हमेशा चिंतित होते है। संतोषी व्यक्ति इसलिये सर्वदा सुखी रहता है कि वह ग्लानि और चिंताओं से मुक्त रहता है।
गुरुवाणी में अंकित है—
सत संतोखि रहहु जन भाई॥
खिमा गहहु सतिगुर सरणाई॥
आतमु चीनि परातमु चीनहु गुर संगति इहु निसतारा हे ॥
(अंग क्रमांक 1030)
अर्थात है भाई! सत्य एवं संतोष में रहो, क्षमा-भावना रखो और गुरु की शरण में जीवन व्यतीत करो, स्वयं की आत्मा को पहचान कर, परमात्मा को पहचान लो, गुरु की संगत में ही उद्धार हो सकता है।
गुरुवाणी में अंकित है—
सहस खटे लख कउ उठि धावै॥
त्रिपति न आवै माइआ पाछै पावै॥
अनिक भोग बिखिआ के करै॥
नह त्रिपतावै खपि खपि मरे॥
बिना संतोख नही कोऊ राजै॥
सुपन मनोरथ ब्रिथे सभ काजै॥
(अंग क्रमांक 278)
अर्थात् इन्सान हजारों कमा कर भी लाखों के लिए भाग-दौड़ करता है। धन-दौलत की तलाश में उसकी तृप्ति नहीं होती। इन्सान अधिकतर विषयविकारों के भोग में लगा रहता है, परन्तु वह तृप्त नहीं होता है और उसकी अभिलाषाएं कभी भी समाप्त नहीं होती है। संतोष के बिना किसी की भी तृप्ति नहीं हो सकती है।
हमें उस प्रभु-परमेश्वर (अकाल पुरख) पर पूरा भरोसा रखना चाहिए। इस संपूर्ण सृष्टि में वह अकाल पुरख (प्रभु-परमेश्वर) सभी का पेट भरता है। इसका श्रेष्ठ उदाहरण है रोख रूहान/मगरमच्छ पक्षी (EGYPTIAN PLOVER BIRD) नामक पक्षी! यह वह पक्षी है जिसका भोजन पृथ्वी, आकाश और जल कहीं भी उपलब्ध नहीं है| फिर भी वह प्रभु-परमेश्वर, इसका भी पेट भरता है। जब मगरमच्छ शिकार कर, पेट भर कर, नदी किनारे मुंह खोल कर आराम करता है तो यह रोख-रुहान पक्षी मगरमच्छ के दांतों में फंसे हुए मांस का भक्षण कर अपना पेट भरता है और यह मांस ही उसका भोजन है।
जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है—
रोज ही राज बिलोकत राजिक रोखि रूहान की रोजी न टारै॥2॥244॥
(अकाल उसतति)
अर्थात् यह प्रभु-परमेश्वर उसका भी पेट भरता है, जिसका भोजन धरती, आकाश व जल में कहीं भी उपलब्ध नहीं है।
गुरुवाणी में अंकित है—
देइ अहारु अगनि महि राखै ऐसा ख़समु हमारा॥
कुंमी जल माहि तन तिसु बाहरि पंख खीरु तिन नाही॥
पूरन परमानंद मनोहर समझि देखु मन माही॥
पाखणि कीटु गुपतु होइ रहता ता चो मारगु नाही॥
कहै धंना पूरन ताहू को मत रे जीअ डराँही॥
(अंग क्रमांक 488)
अर्थात हमारा प्रभु-परमेश्वर इतना दयालु है कि, वह माता के गर्भ में भी आहार देकर, गर्भ की अग्नि से हमारी रक्षा करता है। कछुआ जल में रहता है और उसके बच्चे जल के बाहर रहते हैं, उनकी रक्षा ना ही माता के पंखों से होती है और ना ही उनका पालन-पोषण उसके दूध से होता है। इसके पश्चात भी वह पूर्ण-परमानंद, मनोहर उन बच्चों का पालन-पोषण करता है। पत्थर में कीट छुपा रहता है उसके लिए बाहर आने-जाने का कोई मार्ग नहीं होता है। भक्त धन्ना जी कहते हैं कि फिर भी प्रभु-परमेश्वर उसका पालनहार है। हे जीव! तु भय मत कर, वह प्रभु-परमेश्वर, निश्चित ही तुम्हारा पालनहार है।
गुरुवाणी में अंकित है—
गिआनु धिआनु किछु करमु न जाणा सार न जाणा तेरी॥
सभ ते वड़ा सतिगुरु नानकु जिनि कल राखी मेरी॥
(अंग क्रमांक 750)
अर्थात हे परमात्मा! मेरे पास ज्ञान नहीं है, मैं एकाग्र होकर तेरा सुमिरन करने में असमर्थ हूं। मेरे पास अच्छे कर्म नहीं है, मुझे तेरी क़ीमत जानने का ख्याल भी नहीं है। बस मुझे तो अपने सतगुरु नानक जी पर पूरा भरोसा है, जिन्होंने मेरा लोक-परलोक दोनों ही सवारना है।
निश्चित ही हमें एक आशावादी की तरह अपने मालिक पर पूरा भरोसा रखना चाहिए। उस मालिक पर पूरा भरोसा रखकर, उसका आभार व्यक्त कर, अरदास (प्रार्थना) के माध्यम से हमें सतत उसके संपर्क में रहना चाहिए। कारण अरदास का यह अटूट नियम है कि जब हम जान -बूझकर किये हुये दोषों से मुक्त होने की याचना उस प्रभू-परमेश्वर से करते है तो अनजाने में हुए विस्मृत दोषों से भी मुक्त हो जाते है। निश्चित ही गुरुमत के ज्ञान ने इच्छाओं को शुभ इच्छाओं में परिवर्तित किया है, कामनाओं को शुभकामनाओं में परिवर्तित किया है, और इस तृष्णाओं भरे जीवन को संतोषी जीवन में परिवर्तित किया है।
(विशेष— टीम खोज-विचार द्वारा, सिख इतिहास और गुरुवाणी पर आधारित श्रृंखला ‘चलते-चलते’ में आज (दिनांक 18 मई सन् 2023 ईस्वी) को इस श्रृंखला के लेखक ने अपने 60 वें जन्मदिन पर विशेष रूप से सिख श्रद्धालुओं (संगत जी) और स्नेही पाठकों के लिए, इस लेख को लिखकर जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है)।
नोट 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।
2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
साभार लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।
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