ੴ सतिगुर प्रसादि॥
चलते-चलते. . . .
(टीम खोज-विचार की पहेल)
श्री गुरु अमरदास साहिब जी के 544 वें प्रकाश पर्व पर विशेष
श्री गुरु अमरदास साहिब जी का संक्षिप्त जीवन परिचय–
‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की ही ज्योति सिख धर्म के तीसरे गुरु ‘श्री गुरु अमरदास जी’ का आविर्भाव (प्रकाश) 5 मई सन् 1479 ई. में ग्राम बासरके ज़िला अमृतसर सूबा पंजाब नामक स्थान पर हुआ था। सेवा और समर्पण के प्रतीक ‘श्री गुरु अमरदास जी’ के पिता जी का नाम भाई तेजभान जी था और आप की माता जी का नाम माता लक्खो जी (सुलखनी जी) था। आप का परिणय बंधन (आनंद कारज) भाई देवी चंद जी की पुत्री बीबी मनसा देवी जी से संपन्न हुआ था। आप के 2 साहिबज़ादे बाबा मोहन जी एवं बाबा मोहरी जी थे, साथ ही आप की 2 साहिबजादी (पुत्री) बीबी दानी जी एवं बीबी भानी जी भी थी।
श्री गुरु अंगद देव जी की साहिबजादी बीबी अमरो जी का परिणय बंधन (आनंद कारज) भावी गुरु श्री अमरदास साहिब जी के भ्राता माणिक चंद जी के पुत्र अर्थात भतीजे भाई जस्सू जी से संपन्न हुआ था। बीबी अमरो जी अमृत वेले की धारणी और अत्यंत मधुर, सुरीली एवं ऊंची आवाज में गुरुवाणी का पाठ नित्य करती थी, एक दिन बीबी अमरो ने निम्नलिखित गुरुवाणी के पद्य को अपने मुखारविंद से उच्चारण करते हुए वचन किये कि—
मारू महला 1 घरु 1॥
करणी कागदु मनु मसवाणी बुरा भला दुइ लेख पए॥
जिउ जिउ किरतु चलाए तिउ चलीऐ तउ गुण नाही अंतु हरे॥
चित चेतसि की नही बावरिआ॥
हरि बिसरत तेरे गुण गलिआ॥ रहाउ॥
जाली रैनि जालु दिनु हूआ जेती घड़ी फाही तेती॥
रसि रसि चोग चुगहि नित फासहि छूटसि मूड़े कवन गुणी॥
काइआ आरणु मनु विचि लोहा पंच अगनि तितु लागि रही॥
कोइले पाप पड़े तिसु ऊपरि मनु जलिआ संनी् चिंत भई॥
भइआ मनूरु कंचनु फिरि होवै जे गुरु मिलै तिनेहा॥
एकु नामु अंम्रितु ओहु देवै तउ नानक त्रिसटसि देहा॥
(अंग क्रमांक 990)
अर्थात आचरण क़ाग़ज एवं मन स्याही की दवात है और बुरा-भला दो प्रकार के कर्म तकदीर में लिखे हैं। हे परमेश्वर! तेरे गुणों का तो कोई अंत नहीं है, जैसे-जैसे कर्म करवाता है, वैसे ही चलना पड़ता है। हे बावले जीव! मन में परमात्मा को याद क्यों नहीं करता? भगवान को विस्मृत करने से तेरे गुण क्षीण हो जाते हैं। तुझे फँसाने के लिए रात्रि जाली और दिन जाल बना हुआ है, जितनी घड़ियाँ है, उतनी ही मुसीबत है। तू नित्य स्वाद लेकर विषय-विकार रूपी दाना चुगता रहता है और फँसता जा रहा है। अरे मूर्ख! किस गुण से भला तेरा छुटकारा हो सकता है? शरीर एक भट्टी बना हुआ है, जिसमें मन लोहे के समान है और काम, क्रोध, मोह, लोभ एवं अहंकार रूपी पंचाग्नि इसे जला रही है। पाप रूपी कोयले इसके ऊपर पड़े हुए हैं, यह मन जल रहा है और तेरी चिंता छोटी चिमटी बनी हुई है। यदि गुरु मिल जाए तो लोहा रूपी मन स्वर्ण हो सकता है। हे नानक! यदि वह तुझे नामामृत प्रदान कर दे तो तेरे शरीर में रहने वाला मन स्थिर हो सकता है।
बीबी अमरो जी के मुख से ‘श्री गुरु नानक देव जी’ की दिव्य वाणी को सुनकर ओर प्रभावित होकर वैदिक धर्मावलंबी भावी गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ अपने मन की तलब, प्राणों की खींच और आत्मा की लगन की पूर्ति हेतु ‘श्री गुरु अंगद देव जी’ की शरण में आये और उनके अंतर्मन ने सच की तलाश में एक महान उमंग को प्रकट किया था और अपना मस्तक अपने तथाकथित समधी और दो जहान के मालिक ‘श्री गुरु अंगद देव जी’ के क़दमों में रखकर, उन्हीं के हो गये। उस समय में भावी गुरु ‘श्री गुरु अमर दास जी’ की आयु 62 वर्ष की थी एवं ‘श्री गुरु अंगद देव जी’ की आयु केवल 36 वर्ष की थी। सेवा में समर्पित, समर्पण और सेवा के प्रति भावी गुरु ‘श्री अमरदास साहिब जी’ ने एक आदर्श शिष्य बनकर, लगभग 15 वर्षों तक प्रतिदिन व्यास नदी से अपने गुरु ‘श्री गुरु अंगद देव जी’ के स्नान हेतु जल की गागर भर के लाते रहे थे, एक रात को रात के दूसरे पहर में जब आप ब्यास नदी से जल की गागर भर कर लौट रहे थे तो रास्ते में झोपड़ी में रहने वाले जुलाहे ने शोर सुनकर जोर से कहा इतनी रात को कौन है? तो उसकी जुलाहन ने उत्तर दिया होगा वह ही अमरो निथावां! ऐसे महान सेवा की मूर्ति और सिमरन के पुंज अमरु निथावां के हृदय में ‘श्री गुरु नानक देव जी’ की ज्योति ने जब प्रवेश किया तो आप ‘श्री गुरु अंगद देव जी’ के रूप में परिवर्तित हो गये थे! आप निथावां की थां, निमाणिआं के माण, निताणिआं के ताण, निओटिआं की ओट, निआसरिआं के आसरे, निगतिआं की गत, निपत्तिआं की पत्त, सर्व शक्तीमान, दो जहान के मालिक के रूप में, लोक-कल्याण और परोपकार करने हेतु गुरु गद्दी पर विराजमान हुये थे। ‘श्री गुरु अंगद देव जी’ ने आपको ब्यास नदी के किनारे एक नए नगर श्री गोइंदवाल साहिब जी को बसाने की हिदायत दी थी और आप ने गुरु पातशाह जी की हिदायत को सम्मान देकर गोइंदवाल साहिब जी नामक शहर को बसा कर, इस शहर को सिख धर्म के प्रमुख प्रचार-प्रसार केंद्र के रूप में निरूपित किया था। आप को ‘श्री गुरु अंगद देव जी’ ने 29 मार्च सन् 1552 ई. को खडूर साहिब नामक स्थान पर, गुरु गद्दी पर सुशोभित किया था। आप भी सन् 1552 ईस्वी से लेकर सन् 1574 ई. तक अर्थात 22 वर्षों तक गुरु पद पर विराजमान रहे थे।
गुरु गद्दी पर आसीन होते ही धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में क्रांति करने हेतु, ‘श्री गुरु अमरदास जी’ ने अपने कार्यकाल में प्रचलित लंगर की प्रथा को बहुआयाम देकर उस समय में जात-पात और छुआ-छूत को जड़ से समाप्त कर दिया था। राजा और रंक एक हो गये, गरीबी और अमीरी की दीवार को आप ने तोड़ दिया था। गुरु दरबार में हाजिर होने से पूर्व प्रत्येक श्रद्धालु को पंगत में बैठकर लंगर छकना (भोजन प्रसाद ग्रहण करना) अनिवार्य था, ऐसा आदेश आप ने पारित किया था ताकि जात-पात और भेद-भाव के ग्रहण को समाज में से मिटाया जा सके। आप ने गुरुवाणी में फ़रमान किया है—
जाति का गरबु न करि मूरख गवारा॥
इसु गरब ते चलहि बहुतु विकारा॥1॥ रहाउ॥
(अंग क्रमांक 1127)
हे मूर्ख! गवार, जात का गर्व मत कर, इस गर्व के कारण अनेक विकारों में वृद्धि होती है।
‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ के वचनों का सम्मान करते हुए उस समय में शहंशाह अकबर जलालुद्दीन ने भी गुरु दरबार में हाजिर होने से पूर्व पंगत में बैठकर लंगर को ग्रहण कर स्वयं का जीवन सफल किया था। मुगल-ए-आजम शहंशाह अकबर ने इस प्रथा से प्रभावित होकर विस्मय बोध में आकर कुछ जागीरें भेंट करने का गुरु पातशाह जी के समक्ष प्रस्ताव रखा था, गुरु पातशाह जी ने बड़ी दृढ़ता और प्यार से इस प्रस्ताव को ना मंजूर कर दिया था एवं वचन किए थे कि गुरु का लंगर जागीरों से नही अपितु परमात्मा की बक्शीश और सिखों की नेक किरत-कमाई से ही चलता है।
उस समय में सती प्रथा अपने चरम सीमा पर थी जिसका की ‘श्री गुरु अमरदास जी’ ने डटकर विरोध किया और हुकूमत से इस प्रथा को बंद करने के लिए फ़रमान भी जारी करवाया था। आप ने अपनी पुरजोर आवाज को बुलंद कर फ़रमान किया कि—
सतीआ एहि न आखीअनि जो मड़िआ लगि जलंनि्॥
नानक सतीआ जाणीअनि् जि बिरहे चोट मरंनि्॥
(अंग क्रमांक 787)
अर्थात उन स्त्रियों को सती नहीं मानना चाहिए जो पति की लाश के साथ जल कर मरती हैं। हे नानक! दरअसल वह ही स्त्री सती कहलाने की हकदार है, जो अपने पति के वियोग के दुख से मर जाती है।
आप ने घुंघट (पर्दा प्रथा) को भी बंद करवाया था। उस समय में बाल विधवाओं को दूसरा विवाह करने की इजाजत नहीं थी, इन बाल विधवाओं को अपनी तमाम उम्र तड़प कर, रो-रो कर, तन्हा रहकर जीवन व्यतीत करना पड़ता था। इन बाल विधवाओं का जीवन नर्क में जीवन बिताने के समान, जीवन व्यतीत करना पड़ता था। बाल विवाह के पुनर्विवाह हेतु आप ने विशेष सामाजिक उपक्रमों को आयोजित कर, बाल विधवाओं को बसाने का महत्वपूर्ण कार्य किया था इन बाल विधवाओं की दोजख भरी ज़िंदगी को आप ने स्वर्ग में/जन्नत में परिवर्तित करने का अभूतपूर्व प्रयास किया था। आप ने अपने कार्यकाल में विधवा विवाह की प्रथा को प्रारंभ किया था एवं उस समय में मृत्यु के पश्चात होने वाली समस्त कर्मकांड की बुराई वाली रस्मों को भी आप ने अग्रणी रहकर समाप्त करवाया था। गुरु पातशाह जी के द्वारा स्त्रियों के जीवन में बहुआयामी सुधार लाकर, बहुत बड़े परोपकार का कार्य किया गया था। आप ने मानवता का संदेश देकर सभी को एक परम-पिता-परमेश्वर की संतान माना एवं जात-पात के भेद को समाप्त कर दिया। उस समय में गोइंदवाल साहिब नगर में स्वच्छ पीने का पानी मुहैया कराने हेतु आपने एक बावड़ी भी बनवाई थी, 84 सीढ़ियों वाली यह बावड़ी वर्तमान समय में भी मौजूद है। उस समय में हिंदू तीर्थ यात्रियों पर ‘जजिया’ नामक कर हुकूमत के द्वारा लगाया जाता था जिसे आप ने अपने विशेष प्रयासों से समाप्त करवाया था।
‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उस समय में 22 मंजियाँ (आसान) स्थापित किये थे और इन 22 मंजियों (आसनों) पर एक-एक प्रमुख प्रचारक की नियुक्ति की थी एवं इन 22 मंजियों (आसनों) के मुखियाओं के अधीन 52 पेढ़ीयों की स्थापना कर, प्रचारकों की नियुक्ति की थी, विशेष इन धर्म प्रचारकों में स्त्रियों को भी सम्मान पूर्वक स्थान दिया गया था। इन प्रचारकों के कारण सिखी का बूटा प्रफुल्लित हुआ और सिख धर्म का विद्युतीय वेग से प्रचार-प्रसार हुआ था। हिंदू धर्मीयों और मुस्लिम धर्मीयों ने भी सिख धर्म को ग्रहण कर, गुरु जी के सिख बन गये थे। अफगानिस्तान निवासी व्यापारी अल्लाह यार ख़ान ने भी सिख धर्म को ग्रहण किया था, जिसे पश्चात गुरु पातशाह जी ने एक मंजी (आसन), सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बक्शीश की थी।
‘श्री गुरु अमरदास जी’ ने परिणय बंधन (विवाह) करते समय, अपने होने वाले साथी के प्रमुख गुणों को सम्मुख रखने का उपदेश दिया था। आप ने अपनी साहिबजादी (पुत्री) बीबी दानी का विवाह (आनंद कारज) भाई रामा नामक एक साधारण से इंसान से संपन्न किया था। एवं अपनी दूसरी साहिबजादी पुत्री बीबी भानी जी का विवाह (आनंद कारज) चने बेचने वाले अनाथ गबरु जवान भाई जेठा जी (भावी श्री गुरु रामदास जी) से संपन्न किया था।
‘श्री गुरु अमरदास जी’ के ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में ‘महला 3’ के नाम से 18 रागों में 907 पद्य संग्रहित हैं। आप के द्वारा वारा जिनका नाम गुजरी, सूही, रामकली और मारु है, इन वाराओं को आप ने रचित किया गया है। आप की प्रमुख वाणीया आनंद साहिब जी और पट्टी है। आप के समकालीन शासक शहंशाह अकबर जलालुद्दीन (सन् 1556 ई. से लेकर सन् 1605 ई. तक) थे।
आप ने अपने सिखों को उपदेश करते हुए वचन किये कि समस्त समस्याओं का समग्र समाधान एक है! जो एक से नहीं जुड़ा, वह एकता को जन्म नहीं दे सकता है, फिर तो अनेकता बनी रहेगी। अनेकता में दुख है, अनेकता में अंधेरा है, अनेकता में दोजख है। एक स्वर्ग है, एक प्रकाश है, एक रोशनी हैं, एक में जीना आनंद में जीना है, अनेकता में जीना दुख में जीना है, अनेकता अंधकार में धकेलती है, एकता प्रकाश में विलीन करती है, जीवन का मुजस्मा है एकता! रस का स्वरूप है एकता! गुरुवाणी में अंकित है—
तै पढिअउ इकु मनि धरिअउ इकु करि इकु पछाणिओ॥
(अंग क्रमांक 1394)
अर्थात है गुरु अमरदास! आप ने एक परमेश्वर का ही मनन किया, मन में एक ओंकार का ही चिंतन किया, केवल एक परम-परमेश्वर को ही माना है।
गुरुवाणी का फ़रमान है—
एक वसतु बूझहि ता होवहि पाक॥
बिनु बुझे तूं सदा नापाक॥
(अंग क्रमांक 374)
अर्थात यदि तुम एक नाम रूपी वस्तु का बोध कर लोगे तो तुम पवित्र जीवन वाले हो जाओगे। प्रभु नाम की सूझ के बिना तुम सदैव ही नापाक हो, अनेकता क्षणभंगुर है, नाश है परंतु एक निश्चल है, सदैव है, जो एक से जुड़ जाता है, सदैव हो जाता है अमरत्व को प्राप्त हो जाता है, परम तत्व को प्राप्त हो जाता है, ‘श्री गुरु अमरदास जी’ की जहाँ तक दृष्टि गई, वहाँ तक आप ने केवल एक को ही देखा। आप के इन्हीं उपदेशों ने गुरु सिखों को आदर्शवादी बनाया।
‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ भावी गुरु ‘श्री गुरु रामदास जी’ की प्रेमा भक्ति और सेवा से अत्यंत प्रभावित हुए थे, आप ने भावी गुरु, ‘श्री गुरु रामदास जी’ को अपनी कई का कसौटियों पर परखा था, भावी गुरु, ‘श्री गुरु रामदास जी’ ने इन सभी कसौटियों की परीक्षाओं को प्रवीणता से पास किया था। ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने ‘श्री गुरु रामदास जी’ को अपना गुरु गद्दी का भविष्य का उत्तराधिकारी घोषित किया एवं आप 3 सितंबर सन् 1574 ई. को गोइंदवाल साहिब सुबा पंजाब में ‘श्री गुरु नानक देव जी’ की ज्योति में ज्योति-ज्योति समा गये थे।
नोट— 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।
2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
साभार— लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है एवं लेख के साथ प्रकाशित ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ का चित्र बहन डॉ॰ गुरदीप कौर की पुस्तक ‘सिख मिनिएचर पेंटिंग’ के पृष्ठ क्रमांक 56 से स्कैन कर लिया गया है।
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