श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी का संक्षिप्त जीवन परिचय–

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(टीम खोज-विचार की पहेल)

ੴ सतिगुर प्रसादि॥

श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी के 460 वें प्रकाश पर्व पर विशेष _

श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी का संक्षिप्त जीवन परिचय–

तेरा कीआ मीठा लागै॥ हरि नामु पदारथु नानकु माँगै॥

श्री गुरु नानक देव जी की ज्योति, सिख धर्म में शहीदों की परंपरा की नींव रखने वाले प्रथम शहीद, शहीदों के सरताज, महान शांति के पुंज, गुरु वाणी के बोहिथा (ज्ञाता/ सागर), सिख धर्म के पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव साहिब जी एक महान कवि, लेखक, देशभक्त, समाज सुधारक, लोकनायक, परोपकारी और ब्रह्मज्ञानी ऐसी अनेक प्रतिभा से संपन्न गुरु हुए हैं। आप का जीवन शक्ती, शील, सहजता, पराक्रम और ज्ञान का मनोहारी चित्रण था, सिख धर्म में गुरु जी के इस कार्यकाल को गुरुमत का मध्यान्ह माना जाता है। आप ने शहादत का जाम पीते समय अपने शीश पर डाली गई गर्म रेत की तपस को सहजता से सहन किया, उबलती हुई देग (उबलते हुए पानी का बड़ा बर्तन) में उन्हें बैठाया गया और तो और तपते हुए तवे पर आपने बैठकर, उस अकाल पुरख के भाणे को मीठा मानकर, स्वयं शहादत प्राप्त कर ली परंतु अपने धर्म के उसूलों पर आंच तक नहीं आने दी थी। श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में अंकित है—

तेरा कीआ मीठा लागै॥ 

हरि नामु पदारथु नानकु माँगै॥

(अंग क्रमांक 394)

अर्थात हे प्रभु-परमेश्वर तेरे द्वारा किया हुआ प्रत्येक कार्य मुझे मीठा लगता है। है नानक! तुझसे तेरा यह भक्त हरिनाम रूपी पदार्थ की दात मांगता है। गुरु पातशाह जी ने इस अत्यंत कठोर सजा को भी उस अकाल पुरख की रवायत मानकर दुनिया में ‘शहीदों के सरताज’ के रूप में एक अनोखी शहादत की मिसाल कायम की थी। श्री गुरु अर्जुन देव जी का प्रकाश (अविर्भाव) 15 अप्रैल सन् 1563 ई. को गोइंदवाल की पवित्र धरती पर, गुरु बेटी माता भानी जी के कोख से हुआ था। आप को विरासत से गुरमत की दात प्राप्त थी, आप के पिता सिख धर्म के चौथे गुरु, श्री गुरु रामदास जी के द्वारा आप को शिक्षा-दीक्षा और धार्मिक संस्कारों की परिपक्वता प्राप्त हुई थी एवं आप के नाना सिख धर्म के तीसरे गुरु, श्री गुरु अमरदास साहिब जी थे। आप को श्री गुरु अमरदास साहिब जी से ‘दोहिता वाणी का बोहिथा’ अर्थात ‘दोहता वाणी का ज्ञाता’ के रूप में आशीर्वाद प्राप्त था, इस आशीर्वाद के कारण ही आप के भविष्य के अस्तित्व का संज्ञान नजर आ रहा था। आप ने अपना बचपना 11 वर्ष की आयु तक गोइंदवाल साहिब जी में निवास कर ही बिताया था। पश्चात आप अपने पिता श्री गुरु रामदास जी के साथ ‘गुरु के चक’ श्री अमृतसर साहिब जी में निवास हेतु आ गये थे, इसी निवास स्थान को ‘गुरु के महल’ के नाम से संबोधित  किया गया है। (यही वह स्थान है, जहाँ सिख धर्म के नौवें गुरु, श्री गुरु तेग बहादुर जी का भविष्य में प्रकाश हुआ था), इसी स्थान से ही श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी की बारात निकली थी एवं ग्राम मऊ तहसील फिल्लौर के निवासी भाई संगत राय जी की सुपुत्री, ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ को अपनी महान सेवाएँ अर्पित करने वाली माता गंगा जी का साथ, जीवन संगिनी के रूप में प्राप्त हुआ था। साथ ही उस अकाल पुरख, वाहिगुरु जी की मेहर से आप को माता गंगा जी की कोख से महाबली योद्धा के रूप में संत-सिपाही सुपुत्र ‘श्री गुरु हरगोबिन्द जी’ की दात प्राप्त हुई थी।

‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ की अपने बड़े भाई पृथ्वी चंद से गृह कलह थी, पृथ्वी चद ने येन-केन-प्रकारेण गुरु गद्दी को प्राप्त करने हेतु सभी प्रकार के नकारात्मक कार्यों को आप के विरुद्ध अंजाम दिये थे।

भाई पृथ्वी चंद ने आप से सभी कुछ लूट लिया था, एक समय ऐसा भी आया कि 3 दिनों तक लंगर (भोजन प्रसादी) मस्ताना रहा। जगत माता और आप की सुपत्नी ने सारा घर खोज के बड़ी मुश्किल से जैसे-तैसे घर में बचे हुए बेसन की दो रोटिया (प्रसादे) तैयार कर परोस दी और जब दो सुखे प्रसादे (रोटी) गुरु पातशाह जी के समक्ष परोसी तो माता गंगा जी की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगी थी, उस समय में ब्रह्म ज्ञान के प्रतीक ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने अपनी पत्नी को संबोधित करते हुए वचन किये, जिसे ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में इस तरह अंकित किया गया है—

रुखो भोजनु भूमि सैन सखी प्रिअ संगि सूखि बिहात॥ (अंग क्रमांक 1306)

अर्थात् हे सखी! अपने पति-प्रभु के साथ रूखा-सूखा भोजन एवं भूमि पर शयन इत्यादि ही सुखमय है, यदि भाई पृथ्वी चंद सब कुछ लूट कर ले गये तो क्या हुआ? इन सभी वस्तुओं को देने वाला मेरा वाहिगुरु मेरे अंग-संग सहाय है। उस अकाल पुरख वाहिगुरु जी को तो कोई लूट नहीं सकता, वह तो मेरे पास हमेशा ही है। आप अत्यंत धीरजवान, क्षमा की मूर्ति और निर्माण की प्रतिमा थे। प्रभु के प्रति प्यार आपके रोम-रोम में पुलकित होता था। आप ने अपनी वाणी में अंकित किया है—

इक घड़ी न मिलते ता कलिजुगु होता॥ 

हुणि कदि मिलीऐ प्रिअ तुधु भगवंता॥

              (अंग क्रमांक 96)

अर्थात् है अकाल पुरुख! यदि मैं तुझे एक क्षण भर भी नहीं मिलता तो मेरे लिए कलयुग उदय हो जाता है, हे मेरे प्रिय भगवंता! मैं तुझे अब कब मिलूंगा? यदि प्रभु-परमेश्वर का मिलाप हो तो सतयुग है और यदि बिछोडा है तो कलयुग है!

‘श्री गुरु अर्जुन देव जी’ को 31 अगस्त सन् 1581 ई. को सिख धर्म के पांचवें गुरु के रूप में मनोनीत कर गुरु गद्दी पर सुशोभित किया था, ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने अपने संपूर्ण जीवन काल में इंसानियत के लिए अनेक समाज उपयोगी और धार्मिक कार्यों को अंजाम दिया था।

‘गुरु का चक’ (अमृतसर) शहर की उसारी (भव्य निर्माण) का कार्य ‘श्री गुरु रामदास जी’ ने सन् 1570 ई. में प्रारंभ किया था। इस निर्माण कार्य में ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने भी अपना महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया था। इस शहर की उसारी का कार्य सन् 1588 ई. को समाप्त हुआ था। उस समय में पीने के पानी की अत्यंत बड़ी समस्या थी, इस समस्या का निदान करने के लिए आप ने स्वयं अपने कर-कमलों से प्रथम संतोखसर सरोवर एवं पश्चात अमृतसर सरोवर का भव्य निर्माण सन् 1588 ई. में पूर्ण किया था। इस अमृतसर सरोवर के नाम के कारण ही इस शहर का नाम ‘गुरु का चक’ से बदल कर अमृतसर हो गया था। 15 अप्रैल सन् 1590 ई. में आप ने तरनतारन शहर की स्थापना कर, इस स्थान पर सरोवर का निर्माण करवाया था एवं कोड़ से पीड़ित रोगीयों के लिये उत्तम चिकित्सालय का निर्माण भी किया था। जालंधर शहर के समीप करतार पुर नामक शहर को भी बसाया था एवं ब्यास नदी के किनारे बसा हुआ शहर हरगोबिन्द पुर भी आपकी ही देन है। संगीत और कविता आप के रोम-रोम में समायी हुई थी कारण आप कीर्तन के रसिक और आशिक थे। सच जानना, जब कोई ह्रदय संपूर्ण रूप से परमात्मा की भक्ती में लीन हो जाता है तो अंतर्मन से स्वयं राग उद्बोधित है। जब परमात्मा के नाम-स्मरण की परम खूशी ह्रदय से प्राप्त होती है तो ह्रदय में स्वयं ही संगीत के झरनों का प्रवाह प्रस्फुटित होता है, विश्व का इतिहास गवाह है कि संगीत और साजों का अविष्कार संत महात्माओं ने किया है। आप ने सिरंदा नामक साज का स्वयं अविष्कार किया था और आप को सिरंदा साज बजाने में महारत हासिल थी। निश्चित ही आप गीत और संगीत की अद्भूत प्रतिमा थे। आप के द्वारा रचित वाणियां: सुखमनी साहिब जी, बावन अखरी, बारह माहा, गुणवंती ते दिन रैन,  वारां: 6 गउड़ी, जैतसरी, रामकली मारु और बसंत राग में है। आप के समकालीन शासक शहंशाह अकबर (सन् 1556 ई. से सन् 1605 ई.), शहंशाह जहाँगीर  (सन् 1605 ई. से सन् 1626 ई.) थे। प्राप्त सिख इतिहास के स्त्रोतों के अनुसार उस समय में आप ने अपने सिखों को घोड़ो के आयात-निर्यात व्यवसाय करने हेतु प्रोत्साहित किया था।

संपूर्ण कायनात के ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का संपादन सिख धर्म के संस्थापक प्रथम गुरु, ‘श्री गुरु नानक देव जी’ से ही प्रारंभ हो चुकी थी। ‘श्री गुरु नानक देव जी’ ने समकालीन सभी भक्तों, संतों और विद्वानों की वाणी का संकलन प्रारंभ किया। प्रमुख रूप से इन वाणीयों में एक अकाल पुरख की महिमा का वर्णन किया गया है। इस आदि ग्रंथ की बीड़ की बंदीश में उन भक्तों की वाणियों को ही संग्रहीत किया गया है जो सच और यथार्थ के अनुकूल है, जो निर्गुण की भक्ति कर एक प्रभु-परमात्मा अर्थात एकेश्वरवाद में विश्वास रखते हो, इस सारे बहुमूल्य खजाने की विरासत आप ने दूसरे गुरु, श्री गुरु अंगद देव जी को सौंपी थी।  श्री गुरु अंगद देव जी ने इन वाणीयों का छोटी-छोटी पुस्तकों के रूप में प्रचार-प्रसार किया। इसके पश्चात ‘श्री गुरु नानक देव जी’ की वाणी और ‘श्री गुरु अंगद देव जी’ द्वारा रचित वाणीयों का संकलन तीसरे गुरु, ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ को विरासत के रूप में मिला। इस तरह से इन वाणीयों का संकलन चौथे गुरु, ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ के कार्यकाल से होते हुए पांचवें गुरु, ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ को अनमोल ज्ञान का यह सागर खजाने के रूप में प्राप्त हुआ। इन सभी वाणीयों की प्रमाणिकता ठीक रहे और उनमें कोई मिलावट ना हो इसलिए पांचवे गुरु ‘श्री अर्जुन देव साहिब जी’ ने भाई गुरदास जी की सहायता लेकर इन सारी वाणीयों को रामसर नामक स्थान पर क्रमानुसार संकलित कर, ‘श्री आदि ग्रंथ’ साहिब जी की स्थापना की थी। इस स्थापना दिवस को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के प्रथम प्रकाश पर्व के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाता है और इसी दिन ‘श्री हरमंदिर साहिब जी’ अमृतसर में ‘श्री आदि ग्रंथ’ को सुशोभित किया गया था एवं बाबा बुड्डा जी को प्रथम हेड ग्रंथी के रूप में मनोनीत किया गया था। ‘श्री आदि ग्रंथ’ की वाणीयों का प्रचार-प्रसार कर समाज में अज्ञानता को दूर कर, ज्ञान का प्रकाश इन वाणीयों के ज्ञान से किया जाता था। ‘श्री आदि ग्रंथ’ में सिख धर्म के प्रथम 5 गुरुओं की वाणी अंकित है और समकालीन 15 भक्तों की और 11 भटों की एवं तीन गुरु सिखों की वाणीओं का संकलन किया गया है। जिन 15 भक्तों की वाणीयों का भी संकलन किया गया है। वह सभी भक्त स्वयं मेहनत, मजदूरी कर किरत करते थे एवं परमात्मा के सच्चे नाम का प्रचारप्रसार करते थे। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के संपादन में वाणीयों को इस तरह से अनुक्रमित किया गया है। जिससे इसमें किसी भी प्रकार की मिलावट की कोई संभावना नहीं रहती है। हर एक वाणी को इस तरह से अंकित किया गया है कि उसके क्रमांक से जिन गुरुओं की या भक्तों की वाणी है तुरंत पता चल जाता है। इस तरह से जिन रागों में वाणी को अंकित किया गया है उनको भी नाम से दर्शाया गया है। साथ ही उन रागों  के कौन से घर/ताल (PITCH) में सबद (पद्य) का उच्चारण करना है, उसे भी वर्णित किया गया है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में हर एक पढ़ी जाने वाली वाणी की विशेषता को भी पढ़ने के पहले अंकित किया गया है, इस कारण से चंवर-तख़्त के मालिक ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ को संपूर्ण कायनात का गुरु माना जाता है। इसमें अंकित वाणी इंसानियत की वाणी है। कायनात में स्थित हर प्राणी के कल्याण के लिए ही ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की स्थापना हुई है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की इन्हीं विशेषताओं के कारण हर धर्म, मजहब और पंथ के व्यक्ति बहुत ही आदर-सत्कार के साथ विनम्रता पूर्वक अपना शीश झुकाकर ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का अभिवादन करते हैं।

‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने इस महान, अनमोल, अद्वितीय और अलौकिक ग्रंथ का संपादन कर, इस महान ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ को अपने स्वयं के अधीन ना रखते हुए, इसे इंसानियत की भलाई के लिए हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब अमृतसर में सुशोभित कर दिया था और ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के समक्ष नतमस्तक होकर वचन किये—

वाणी गुरु गुरु है वाणी विचि वाणी अंम्रितु सारे॥

गुरु वाणी कहै सेवकु जनु मानै परतखि गुरु निसतारे॥                                                                            (अंग क्रमांक 982)

कथनी और करनी के महाबली गुरु पातशाह जी ने अपनी सेवाओं के माध्यम से अपनी प्रखर-प्रज्ञा के ज्ञान का जगत् को आभास करवा दिया था। उस समय में भट्टों की वाणी में गुरु पातशाह जी की प्रशंसा में वचन किये—

जब लउ नही भाग लिलार उदै तब लउ भ्रमते फिरते बहु धायउ॥

कलि घोर समुद्र मै बूडत थे कबहू मिटि है नही रे पछुतायउ॥

ततु बिचारु यहै मथुरा जग तारन कउ अवतारु बनायउ॥

जपुउ जिन् अरजुन देव गुरु फिरि संकट जोनि गरभ न आयउ॥

                  (अंग क्रमांक 1409)

अर्थात जब तक माथे पर भाग्योदय नहीं हुआ, तब तक हम बहुत भटकते रहे। कलयुग के घोर समुद्र में डूब रहे थे और संसार समुद्र में डूबने का पश्चाताप कभी मिट नहीं रहा था। भाट मथुरा का कथन है कि, सच्ची बात यह है कि दुनिया का उद्धार करने हेतु ईश्वर ने ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ के रूप में अवतार धारण किया है उन्होंने ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ का जाप किया वह पुनः गर्भ योनि के संकट में नहीं आये।

उस समय के मुगल शासक जहाँगीर को गुरु जी द्वारा इंसानियत के गुरु, ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का संपादन मंजूर नहीं थी कारण वह चाहते थे कि संपादित ग्रंथ में उनकी तारीफ की जाए एवं किसी एक विशेष धर्म को विशेष मान-सम्मान दिया जाये परंतु ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने पूरी कायनात के गुरु के रूप में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का संपादन किया था। इस कारण से उस तत्कालीन मुगल साम्राज्य में गुरु जी को ‘यासा-ए-सियासत’ कानून के तहत शहीद करने की सजा सुनाई थी।

इस कानून के अंतर्गत उस समय के साधु-संतों, महात्माओं को ऐसी मौत की सजा दी जाती थी की, सजा देते समय इस पृथ्वी पर उनका रक्त गिरना नहीं चाहिए ताकि कोई रक्त बीज तैयार ना हो कारण ऐसा माना जाता था कि यदि ऐसा हुआ तो आम जनता में विद्रोह हो जाएगा और कई प्राकृतिक आपदाओं का भी सामना करना पड़ सकता है। इस कारण से गुरु जी के साथ तिक्ष्ण काशाघात कर उन्हें भी ‘यासा-ए-सियासत’ कानून के तहत मौत की सजा सुनाई गई थी।

‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ भविष्य में आने वाली घटनाओं से परिचित थे, इसलिए आप जब शहादत के प्रेम वाले मार्ग पर चल रहे थे तो आप ने गुरु गद्दी पर 25 मई सन् 1606 ई. को अपने होनहार, कर्म-धर्म योद्धा, महाबली सुपुत्र ‘श्री गुरु हरगोबिन्द जी’ को गुरु गद्दी पर विराजमान किया था।

गुरु जी को सुनाई गई सजा के तहत ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई थी, जिसके कारण उनके पूरे शरीर पर छाले पड़ गए थे। दूसरे दिन उन्हें उबलती देग (उबलते हुए पानी का बड़ा बर्तन) में उबाला गया था। जिससे आप का माँस शरीर से उखड़ गया था एवं इस सजा के चलते हुए तीसरे दिन आप को तपते हुए गर्म तवे पर बैठाया गया था, इतनी अत्यंत वेदना झेलने के पश्चात भी आप ने अकाल पुरख की रवायत को मीठा मान कर, 25 मई सन् 1606 ई. के (ज्येष्ठ सुधि चौथ) दिवस ‘शहादत’ को प्राप्त किया था। दुनिया के इतिहास में इतनी क्रूरता से किसी ने भी इतनी महान शहादत नहीं दी है। ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ऐसे महान शहीद थे जिनका रक्त ज़मीन पर नहीं गिरा था। आप ने ज़बरजस्त का मुकाबला सबर से किया था इसलिये तो उन्हें “शहीदों के सरताज” की उपाधि से विभूषित गया है। जिसे ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में इस तरह अंकित किया गया है—

सबर अंदरि साबरी तनु एवै जालेनि्॥

होनि नजीकि ख़ुदाइ दै भेतु न किसै देनि॥ 

             (अंग क्रमांक 1384)

अर्थात सहनशील व्यक्ति, सहनशीलता में रहकर कठिन साधना के द्वारा शरीर को जला देते हैं एवं उस अकाल पुरख (ख़ुदा) के निकट हो जाते हैं और यह भेद किसी को नहीं देते हैं।

‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने इंसानियत की रक्षा हेतु जो महान शहादत दी है, वह हमें शिक्षा प्रदान करने की बड़ी से बड़ी मुश्किल का भी सब्र की सहायता से निराकरण किया जा सकता है। इसलिये गुरु जी के महान शहीदी दिवस पर ठंडे जल का शरबत (कच्ची लस्सी) आम संगत में बाटकर, ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ को श्रद्धा के सुमन अर्पित किये जाते हैं। सिख इतिहास में अंकित है कि ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने बचपन में बाल लीलाओं का कौतुक करते हुए ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ के निवास का दरवाजा अपने शीश से धक्का देकर खोला था, समय आने पर आप ने धर्म का दरवाजा, धर्म की खातिर शहीद होकर खोला।

ऐसे महान शहीदों के सरताज ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ को सादर नमन!

नोट 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है एवं लेखों में प्रकाशित चित्र काल्पनिक है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

साभार लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी: श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी

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