चार साहिबज़ादे

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चार साहिबज़ादे

ੴ सतिगुर प्रसादि॥

चलते-चलते. . . .

सफर-ए-शहादत

(टीम खोज-विचार की पहेल)

सिख धर्म के गुरु साहिबान ने अपने सिखों को जीने के मार्ग की जुगत ही नहीं सिखाई अपितु सर्वप्रथम उन्होंने स्वयं प्रदान की हुई शिक्षाओं का अनुसरण भी किया। गुरु साहिबान ने स्पष्ट किया कि यदि मन आंतरिक और बाहरी तौर पर परिपक्व है तो ही आप आध्यात्मिक विकास की ओर अग्रसर हो सकते हैं। गुरु साहिबान के इस दर्शनशास्त्र ने ही आम लोगों में विश्वास पूर्वक चेतना जागृत करने का कार्य किया। उस तात्कालिक समय में लोक-कल्याण के लिए केवल गुरु साहिब  ज्ञान ही नहीं दे रहे थे अपितु उनके परिवार के सभी सदस्यों ने भी उनका पूरा साथ दिया था, ऐसी एक बेहतरीन मिसाल हमें करुणा  कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ के पूरे परिवार से प्राप्त होती है। दशम गुरु साहिब के संपूर्ण परिवार ने गुरुमत के उद्देश्य को धारण किया और सामाजिक चेतना को जागृत करने का महान कार्य करते हुए सदैव ही समाज को एक नई आशा की किरण प्रदान की। ऐसा इसलिये भी संभव हो सका कि गुरुमत में आयु की हद्द इस काम में रुकावट बन नहीं सकती, जिसकी जीती-जागती मिसाल साहिबज़ादों की शहीदी से निरूपित होती है।

साका सरहिंद का इतिहास सिख इतिहास में एक सेवक के विश्वासघात, मुगल शासकों की अमानवीय क्रूरता एवं सिखों के त्याग और बलिदान के उच्च संस्कारों की परीक्षा का ज्वलंत इतिहास है। माता गुजरी जी और दोनों छोटे साहिबज़ादों, साहिबजादा जोरावर सिंह (जन्म:28 नवंबर सन् 1696 ईस्वी. स्थान: श्री आनंदपुर साहिब जी) और साहिबजादा फतेह सिंह जी (जन्म:12 दिसंबर सन् 1698 ईस्वी. स्थान: श्री आनंदपुर साहिब जी) को जब गुरुघर का रसोइया गंगू उर्फ गंगाराम अपने घर लाया तो उनके ज़ेवरात, आभूषण, सोने की मोहरें इत्यादि क़ीमती समान देखकर और सरकारी इनाम के लालच में उसका ईमान डोल गया। उसने मोरिंडा के थानेदार से मुखबिरी कर उन्हें ग़िरफ्तार करवा दिया। थानेदार ने उन्हें सरहिंद के नवाब वजीर ख़ान के पास भेज दिया। जहां रात भर उन्हें दिसंबर की भीषण ठंड में एक ठंडे बुर्ज में रखा गया। धैर्य, साहस और समर्पण की मूर्ति माता गुजरी को होनी का पूर्वाभास हो गया था। रात भर उन्होंने साहिबज़ादों को धर्म और न्याय के लिये ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ और ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के महान बलिदानों की साखियां सुनाई और उनका मनोबल बढ़ाया। साथ ही किसी भय या लालच में आकर अपने धर्म से विचलित न होने की सीख दी।

अगले दिन दोनों साहिबज़ादों को नवाब वजीर ख़ान की कचहरी में पेश किया गया। जब दीवान सुच्चा नंद ने साहिबज़ादों से नवाब साहब को झुक कर सलाम करने का कहा तो उनका उत्तर था, ‘हमारा शीश केवल अकाल पुरख के अलावा किसी के सामने नहीं झुक सकता! साम, दाम, दंड और भेद के उपायों द्वारा साहिबज़ादों को धर्म  परिवर्तन कर, इस्लाम कबूल करने के लिये उकसा कर, प्रयत्न किये गये और बडे़ साहिबज़ादों एवं गुरु पातशाह की मृत्यु की ग़लत सूचना दी गई। सुख-सुविधाओं और ऐशो आराम के प्रलोभन दिये गये। दीवान सुच्चा नंद ने नवाब को भड़काया साहिबज़ादों को बागी के बागी पुत्र कहा। उनके जीवन को मुगल सल्तनत के लिये भावी खतरा बताया और उन्हें सजा-ए-मौत देने का सुझाव दिया परंतु क़ाजी का सुझाव था कि इस्लाम में बच्चों को सजा की अनुमति नहीं हैं, तब नवाब वजीर ख़ान ने साहिबज़ादों को निर्णय लेने के लिये समय दिया। दो दिन तक पुनः भय और प्रलोभन द्वारा साहिबज़ादों के धर्म परिवर्तन का प्रयास किया गया, परंतु वे रंचमात्र भी भयभीत नहीं हुए थे कारण जगत् माता गुजरी जी ने आपको गुरुवाणी का निम्न फरमान अच्छी तरह से दृढ़ करवा दिया था, गुरु वाणी का फरमान है–

प्रभ किरपा ते प्राणी छुटै॥ 

जिसु प्रभु राखै तिसु नाही दूख॥

    (अंग क्रमांक 293)

अर्थात् प्रभु की कृपा से ही जीव की मुक्ती होती है। जिसकी प्रभु-परमेश्वर रक्षा करता है उसे कोई दुख नहीं लगता है।

अंततः क्रूर नवाब ने क़ाजी के सुझाव पर दोनों साहिबज़ादों को जीवित दीवार में चुनवा देने का अमानवीय एवं क्रूरतम आदेश दिया। इस सरहिंद की कचहरी में उस समय में मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद ख़ान भी उपस्थित थे और उन्होंने उस समय में वजीर ख़ान को ऐसी नीच हरकत करने के लिये बहुत लताड़ा था और इस सजा का डटकर विरोध किया था, जबकि नवाब के दोनों सगे भाई नाहर ख़ान और खीजर ख़ान चमकौर के युद्ध में सिखों के हाथों से मारे गये थे। नवाब शेर मोहम्मद ख़ान ने जो वचन सरहिंद की कचहरी में कहे थे, वह निम्नलिखित है–

वैर गुरु दे संग तुमारा, इन मासुमों ने किआ बिगाड़ा॥ 

शीरखोर मत बालक मारो, ना हक जुलम करो नबारो॥

वजीर ख़ान ने एक ना सुनी और दीवार में जीवित चुनते समय जहां उन्हें इस्लाम स्वीकार कराने के प्रयास किए गए वहां दोनों साहिबज़ादे वाहिगुरु के नाम का जाप करते रहे। दीवार के कंधों तक आने पर दीवार गिर गई, तब तक दोनों साहिबज़ादे बेहोश हो चुके थे। बाद में कुरान के विरुद्ध वजीर ख़ान के आदेश पर जल्लाद साशल बेग व बाशल बेग द्वारा साहिबज़ादों के गले रेत दिए गये।(शहीदी: 26 दिसंबर सन् 1705 ईस्वी.) साहिबज़ादों की शहादत का दुःखद समाचर माता गुजरी जी के लिये हृदय विदारक सिद्ध हुआ और उन्होंने उस अकाल पुरख का ध्यान कर, अपने प्राण त्याग कर ब्रह्मलीन (अकाल चलाना) हो गई।

अमर शहादत के इस पवित्र स्थल पर सुशोभित है ‘गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब’ जी। जगत माता गुजरी जी और साहिबज़ादों के अंतिम संस्कार की घटना भी उल्लेखनीय है। गुरुदेव के एक श्रद्धालु दीवान टोडरमल को अंतिम संस्कार के लिये इस शर्त पर अनुमति दी गई कि वे आवश्यक ज़मीन के क्षेत्रफल के बराबर सोने की मोहरें खड़ी कर (बिछाकर नहीं) उसका मूल्य चुकाएंगे। अंतिम संस्कार स्थल पर सुशोभित है, ‘गुरुद्वारा श्री जोती (ज्योति) सरूप (स्वरूप) साहिब।

बडे़ साहिबज़ादों का इतिहास–

सरसा नदी के तट पर हुए छलपूर्वक युद्ध के समय गुरु परिवार बिछड़ गया। गुरु पातशाह जी दो ज्येष्ठ साहिबज़ादों, साहिबजादा अजीत सिंह जी (जन्म:11 फरवरी सन् 1687, स्थान: पाउंटा साहिब जी, हिमाचल प्रदेश) और साहिबजादा जुझार सिंह जी (जन्म:14 मार्च सन् 1691 ईस्वी. स्थान: श्री आनंदपुर साहिब जी) और पंज प्यारों सहित मात्र 40 सिखों के साथ चमकौर की कच्ची गढ़ी में पहुंचे। कच्ची गढ़ी में मोर्चाबंदी की गई, शत्रुओं की 10 लाख की विशाल सशस्त्र संगठित सेना उनका पीछा करती हुई चमकौर पहुंची और गढ़ी को चारों दिशाओं से घेर लिया।

यह विश्व के इतिहास का एकमात्र ऐतिहासिक अभूतपूर्व युद्ध था। जिसमें एक और दस लाख की विशाल सेना थी और दूसरी और मात्र 40 सैनिक मुगलों ने तीन दिशाओं से आक्रमण किया। गुरु पातशाह जी ने भी तीनों दिशाओं में तीरों की घनघोर बारिश कर दी थी। उन्होंने काफी समय तक अपने अचूक तीरों से शत्रु सेना को गढ़ी से दूर रखने का सफल प्रयास किया। पर सीमित संख्या के तीर जब समाप्त हुए तो शत्रुओं की सेना गढ़ी के दरवाजे तक पहुंच गई। गुरुदेव के निर्देश पर पांच  पांच ख़ालसा सैनिक ‘बोले सो निहाल: सत श्री अकाल’! का जयघोष कर बारी  बारी से गढ़ी से बाहर आते रहे और यथासंभव अत्यंत वीरता का प्रदर्शन कर, शत्रु सेना का भारी नुकासान कर वीरगति को प्राप्त होते रहे। सिखों ने गुरु पातशाह जी से साहिबज़ादों के साथ रात के अंधेरे में गढ़ी से बाहर सुरक्षित निकल जाने का निवेदन किया, पर गुरु पातशाह जी ने कहा कि आप सभी मेरे पुत्र हैं! उन्होंने पहले 17 वर्ष के ज्येष्ठ साहिबज़ादे अजीत सिंह को युद्ध के लिए स्वयं तैयार किया और आशीर्वाद देकर पांच सिखों के साथ रणभूमि में भेजा। रणभूमि में बाबा अजीत सिंह अपने शौर्य और युद्ध कौशल का अद्भुत परिचय देते हुए शहीद हुये। फिर मात्र 13 वर्ष की किशोरावस्था के साहिबज़ादे जुझार सिंह ने अपने भाई की वीरता से उत्साहित होकर रणभूमि में जाने की आज्ञा मांगी कारण इन दोनों ज्येष्ट साहिबज़ादों ने गुरुवाणी के निम्न फरमान को अपनी अंतरआत्मा में निहित कर लिया था, गुरुवाणी का फरमान है—

जिन निरभउ जिन हरि निरभउ धिआइआ जी तिन का भउ सभु गवासी॥

              (अंग क्रमांक 11)

अर्थात् जिन्होनें भय से मुक्त होकर उस अभय स्वरूप अकाल पुरख का ध्यान किया है, उनके जीवन का समस्त जन्म मरण का भय वह प्रभु-परमेश्वर समाप्त कर देता है और गुरु पिता का आशीर्वाद लेकर पांच सिखों के साथ साहिबजादा जुझार सिंह जी ने युद्ध भूमि में शत्रुओं का जमकर प्रतिकार कर शत्रु सेना के दांत खट्टे कर दिए। एक जुझारू योद्धा की तरह साहिबजादा जुझार सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए (शहीदी: 26 दिसंबर सन् 1705 ईस्वी.)| दोनों साहिबज़ादों की शहादत पर गुरु पातशाह न दुखी हुए और न उदास! पंचम गुरु शहीदों के सरताज ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ की रचित वाणी—

‘तेरा कीआ मीठा लागै॥ 

हरि नामु पदारथु नानकु माँगै॥ (अंग क्रमांक 394) का स्मरण कर उन्होंने अकाल पुरख का शुकराना किया और कहा, “दोनों साहिबज़ादे सिखी सिद्क में पूरे उतरे हैं और परीक्षा में पास हुए”। 

चमकौर का युद्ध इसलिए भी असामान्य है कि 10 लाख की विशाल सेना का प्रतिकार मात्र गुरु के 40 जांबाज सिखों द्वारा किया गया। यह गुरु पातशाह जी के एक कुशल राजनीतिज्ञ सेनानायक होने का भी प्रमाण है। गुरु पातशाह जी की प्रसिद्ध जोशीली वाणी ‘सवा लाख से एक लड़ाऊं तबै गोविंद सिंह नाम कहाऊं’ चमकौर के ऐतिहासिक युद्ध में ही प्रमाणित हुई।

“गुरु पंथ ख़ालसा” के इन महान शहीद चार साहिबज़ादों को सादर नमन!

नोट 1. ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है एवं लेखों में प्रकाशित चित्र काल्पनिक है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

साभार लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज-विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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समर्पण और त्याग की मूर्ति: जगत् माता गुजरी जी

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