ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
चलते-चलते. . . .
(टीम खोज-विचार की पहेल)
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ||
प्रासंगिक— श्री गुरु रामदास जी के प्रकाश पर्व पर विशेष-
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ||
(अंग क्रमांक 968)
सिख धर्म के चौथे गुरु ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की ज्योत ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ रुहे जमीं पर, महापुरुषों की दुनिया में एक अवतारी गुरु हुये है, आप जी का आविर्भाव (प्रकाश) 25 सितंबर सन् 1534 ईस्वी. को चुना मंडी लाहौर (पाकिस्तान) में हुआ था| सोढ़ी कुल में जन्मे ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ अपने माता–पिता की प्रथम संतान और परिवार में ज्येष्ठ होने के कारण आप जी को भाई जेठा जी कहकर संबोधित किया जाता था| आप जी की आयु जब 7 वर्ष की थी तो आप जी के जीवन में एक बड़ा वज्रपात हुआ और आप जी के माता–पिता जी का देहांत हो गया था| आप जी के पिता जी का नाम भाई हरिदास जी एवं माता जी का नाम माता दया कौर जी (बीवी अनूपी जी) था, भविष्य के पालन–पोषण हेतु आप जी की नानी जी आप जी को उनके ननिहाल बासरके नामक ग्राम में ले आई थी| आप जी अपनी आयु के 9 वें वर्ष में ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ के सानिध्य में आ गए थे और गुरु पातशाह जी की मेहर दृष्टि के कारण आप जी का ह्रदय प्रेम के रंग में सराबोर होने लगा था, दिन–प्रतिदिन आध्यत्मिक आभा मंडल की उन्नती होने लगी थी, आप जी की गिनती उनके प्रमुख सिखों में होने लगी थी, उस तत्कालीक समय में आप जी चने (घुंगणिआं) बेचने का व्यवसाय करते थे और जीवन के शेष समय आप जी ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ की सेवा में समर्पित रहते थे| आप जी के लिए गुरु का हुकुम सर्वोपरि था| भविष्य में आप जी नये बसे हुए नगर गोईंदवाल साहिब जी में स्थानांतरित हो गए थे|
‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की सेवा और प्रेमा भक्ति पर प्रसन्न होकर ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने अपनी सुपुत्री बीबी भानी जी का विवाह (आनंद कारज) आप जी के साथ संपन्न किया था| गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुये, बीबी भानी जी की कोख से आप जी को 3 सुपुत्र रत्न बाबा पृथ्वी चंद जी, बाबा महादेव जी, और भावी गुरु ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ की प्राप्ति हुई थी| एक दिन गुरु पातशाह जी ने अपने दामाद भाई जेठा जी से कहा कि आपने हमसे दहेज में कुछ मांगा नहीं है, यदि आपको कुछ हमसे मांगना है, तो मांग लो? उस समय में आप जी ने जो गुरु पातशाह जी से जो मांग की थी, उसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है–
हरि प्रभ मेरे बाबुला हरि देवहु दानु मै दाजो||
हरि कपड़ो हरि सोभा देवहु जितु सवरै मेरा काजो||
(अंग क्रमांक 78)
अर्थात् है मेरे बाबुल! मुझे दहेज में हरि प्रभु के नाम का दान दो, वस्त्रों के स्थान पर हरि का नाम दो और शोभा बढ़ाने वाले आभूषणों इत्यादि के स्थान पर प्रभु का नाम ही दो, उस प्रभु के नाम से मेरा गृहस्थ जीवन संवर जायेगा|
आप जी ने दुनियावी रिश्तों को तवज्जो ना देकर स्वयं को पूर्णतया सेवा कार्यों में समर्पित कर दिया था| जब गोईंदवाल शहर में बावड़ी (बाउली) की उसारी (भव्य निर्माण) का कार्य चल रहा था तो आप जी ने स्वयं के कर–कमलों से आगे रहकर, इस सेवा में हिस्सा लेते थे| आप जी की निष्काम सेवाओं से प्रसन्न होकर ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ कि आप जी पर विशेष आसक्ती थी| आप जी ने स्वयं को सिख धर्म की समस्त सेवाओं के लिए ढाल लिया था| ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने आप जी को कई कसौटियों पर परखा था और आप जी ने प्रत्येक कसौटी की परिक्षा को प्रविणता से पास किया था, ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने आप जी को एक नए नगर का निर्माण करने का आदेश दिया और इस आदेशानुसार आप जी ने गुरु पातशाह जी के स्वप्नों और संकल्पों को साकार करना प्रारंभ कर दिया था| आप जी ने ‘गुरु का चक’ नाम के नगर का निर्माण किया और इस स्थान पर एक सरोवर की उसारी (भव्य निर्माण) किया, वर्तमान समय में इस सरोवर को ‘श्री अमृतसर’ नाम से संबोधित किया जाता है एवं यहीं ‘गुरु का चक’ भी श्री अमृतसर शहर के नाम से सुप्रसिद्ध है, जो कि सिख धर्म की श्रद्धा, आस्था और प्रेमा भक्ति का एक महान पावन–पुनीत केंद्र है| आप जी के सेवा कार्यों की प्रसिद्धी चारों दिशाओं में फैल चुकी थी, आप जी की स्तुति में भाटों (भट्ट) ने गुरुवाणी में अंकित किया है—
जनकु सोइ जिनि जाणिआ उनमनि रथु धरिआ||
सतु संतोखु समाचरे अभरा सरु भरिआ||
अकथ कथा अमरा पुरी जिसु देइ सु पावै||
इहु जनक राजु गुर रामदास तुझ ही बणि आवै||
(अंग क्रमांक 1398, भाट कलसहार के 13 सवैये संपूर्ण)
अर्थात् राजा जनक वह ही है, जिसने परम सत्य को जाना है और वृत्तीय को तुरीय पद में स्थापित किया है| सत्य–संतोष को अपनाया और खाली मन को नाम से भर दिया| अकथनीय कथा उसे प्राप्त होती है, जिसे ईश्वर देता है वह ही पाता है| यह जनक जैसा राज आप ही को शोभा देता है|
‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने 16 सितंबर सन् 1574 ईस्वी. को भरे दरबार में समूह संगत और अपने परिवार के सामने ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ को गुरु गद्दी पर सुशोभित किया था और उस तात्कालिक समय तक एकत्र सभी गुरुओं की वाणीओं और भक्तों की वाणीयों को आप जी ने ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ को सौंप दी थी| ‘श्री गुरु अमरदास साहिब जी’ ने ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ के समक्ष नतमस्तक हो कर, गुरु गद्दी सौंपी थी, उस समय में आप जी वैराग्य में आकर बोल उठे की है गुरु पातशाह जी! आप स्वयं जानते हैं कि मैं गरीब तो लाहौर की गलियों में सूखे पत्ते की तरह इधर–उधर कचरे के ढेर में पड़ा रहता था, मेरे अनाथ की कोई बांह पकड़ने वाला नहीं था, गुरु पातशाह जी यह तो आपकी ही मेहर है कि मेरे जैसे कीड़े को प्यार से देखा और सहारा देकर आज ‘फ़र्श से अर्श’ तक पहुंचा दिया| आप जी सन् 1574 ई. से लेकर सन 1581 ई. तक, 7 वर्षों तक गुरु स्थान पर विराजमान रहे थे|
अपने कार्यकाल में सिख धर्म के चहुंमुखी प्रचार–प्रसार के लिए आप जी ने 22 मंजियों (आसनों) के अतिरिक्त मसंदों की प्रथा को कायम किया था, इन मसंदों ने सिख धर्म के प्रचार–प्रसार में अपना विशेष योगदान अर्पित किया था| आप जी ने अमृतसर शहर को एक व्यवसायी केंद्र में तब्दील करने के लिये विभिन्न 52 कार्य क्षेत्रों में रोजगार के साधनों को उपलब्ध कराने हेतु योजनाबद्ध तरीके से विशेष प्रयास किए थे|
आप जी ने सन् 1577 ईस्वी. में अमृतसर सरोवर की उसारी (भव्य निर्माण) प्रारंभ किया था, इस निर्माण कार्य को ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ ने अपने कार्यकाल में संपूर्ण किया था| इसके अतिरिक्त अमृतसर शहर का विकास, रामसर और संतोखसर सरोवरों के निर्माण में भी आप जी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है| सिख धर्म के इस प्रमुख तीर्थ का भव्य निर्माण कर ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ ने जो जगत् को दिया है, वाकई इस तरह का तीर्थ रुहे ज़मीं पर ना बना है और ना ही बनेगा| इस महान तीर्थ की शोभा में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में अंकित है—
डिठे सभे थाव नही तुधु जेहिआ||
बधोहु पुरखि बिधातै ताँ तू सोहिआ||
(अंग क्रमांक 1362)
अर्थात् हे गुरु राम दास जी की नगरी! मैंने सब स्थानों को देखा है लेकिन तेरे जैसी कोई नगरी नहीं है, दरअसल कर्ता पुरुष, विधाता ने स्वयं तुझे बनाया है, तो ही तू शोभा दे रही है| इस तरह का महान तीर्थ स्थान ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ ने बक्शीश किया है| इस बक्शीश के पश्चात यह तीर्थ स्थान बक्शीशे दे रहा है| लोक–कल्याण और परोपकार के लिये जो तामीरी रुची ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ ने आत्मसात की थी, वह ही तामीरी रुचियां सिख श्रृध्दालुओं में विशेष रूप से पाई जाती है, जैसे कि धर्मशालाओं का निर्माण करना, लंगर लगाना, अस्पताल और विद्यालयों का निर्माण करना, गुरुधामों की उसारी (भव्य निर्माण) करना इत्यादि| इन बख्शीशों को, इन रहमतों को सिख श्रद्धालुओं ने ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ से प्राप्त की है उनके द्वारा प्रदित की गई प्रेरणाओं का ही परिणाम है कि सिख संगत में यह रुचियां वर्तमान और भविष्य में भी प्रबल रूप से उजागर होती रहेगी| इन तामीरी रुचियों के कारण ही गुरु पातशाह जी ने अमृतसर शहर में आरामगाह बनवायी, लंगर–पानी का इंतजाम किया है ताकि आये हुये तीर्थयात्रियों को सच की सोझ और समझ पड़ सकें, उस अकाल पुरख की बंदगी कर सकें, इसलिये सुबह–शाम सत्संग और कीर्तन के प्रवाह का लंगर आठों पहर चलाया| ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की यह चौथी ज्योत श्री अमृतसर साहिब जी में जगमगाती रही और जगत को प्रकाश देकर रोशन करती रही, जगत को आनंद की अनुभूति करवाती रही, ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी ‘आसा दी वार’ के छंद और पदों का अध्यन करने से ज्ञात होता है कि आप जी सच का बोध रखते थे, अनुभव रखते थे, इन वाणियों की रचना से प्रतित होता है कि आप जी का ह्रदय प्रेमा रस से सराबोर है| ज्ञान की गंगा का प्रवाह आप जी के अंतकरण में हो रहा है, आप जी इतने महान और परोपकारी थे कि सत्ता और बलवंडा नामक भाटों ने ने आप जी की स्तुति को गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया है—
धंनु धंनु रामदास गुरु जिनि सिरिआ तिनै सवारिआ||
पूरी होई करामति आपि सिरजणहारै धारिआ||
(अंग क्रमांक 968)
अर्थात् हे गुरु रामदास! तू है, जिस ईश्वर ने तेरी रचना की है उसने ही तुझे यश प्रदान किया है, उस सर्जनहार और परमेश्वर की करामात तुझे गुरु रूप में सुशोभित करके पूरी हो गई है|
‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ के ‘महला 4’ के नाम से ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में 30 रागो में 679 पद्य (सबद) संग्रहित हैं| आप जी ने अपनी रचनाओं में वारांओं को सर्जित किया है जिनके नाम श्री राग, गउड़ी राग, वडहंस राग, सोरठ राग, बिलावल राग, सारंग राग और कानड़ा राग में अंकित है| आप जी की वाणी जीवात्मा–परमात्मा संबंधी अद्वैत दर्शन से प्रेरित है, आप जी के द्वारा रचित चार लावां (विवाह के फेरे) की वाणी अत्यंत प्रसिद्ध है, लावा फेरों की वाणी में आप जी ने जीवात्मा और परमात्मा के मिलन का अद्भुत वर्णन किया है| घोड़ीयां और अलाहणीयां नामक वाणी भी आप जी के द्वारा रचित की गई, आप जी के समकालीन शासक शहंशाह अकबर जलालुद्दीन (सन् 1556 ईस्वी. से सन् 1605 ईस्वी, तक) थे|
गुरुवाणी के महान ज्ञाता ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ के सम्मान में भाटों ने अरदास (प्रार्थना) की थी, जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया है—
हम अवगुणि भरे एकु गुणु नाही अंम्रितु छाडि बिखै बिखु खाई||
माया मोह भरम पै भूले सुत दारा सिउ प्रीति लगाई||
इकु उत्तम पंथु सुनिओ गुर संगित तिह मिलंत जम त्रास मिटाई||
इक अरदासि भाट कीरति की गुर रामदास राखहु सरणाई||
(अंग क्रमांक 1406)
अर्थात् हे सतगुरु रामदास! हम जीव अवगुणों से भरे हुये है, हमारे में एक भी गुण नहीं है, नामा कीर्तन अमृत को छोड़कर हम केवल विषय–वासनाओं का ज़हर सेवन कर रहे हैं| माया मोह के भ्रम में भ्रष्ट हो गये है, पुत्र एवं पत्नी के प्रति प्रीत लगाई हुई है| हम सुनते हैं कि गुरु की संगत मोक्ष का एक उत्तम रास्ता है, जिस के संपर्क से मौत का भय मिट जाता है| भाट किरत केवल यही अरदास (प्रार्थना) करते हैं कि हे गुरु रामदास! हमें अपनी शरण में रख लो|
‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ को अपने महाप्रयाण (ज्योति–ज्योत) के समय का आभास होने पर, आप जी ने अपने कनिष्ठ पुत्र ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ को अपना भविष्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और पंचम गुरु के रूप में गुरु गद्दी पर सुशोभित कर, आप जी 2 सितंबर सन् 1581 ईस्वी. को गोईंदवाल साहिब जी में ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की ज्योत में ज्योति–ज्योत समा गये थे|
वर्तमान समय में भी अमृतसर शहर की गलियों में गुरु रामदास साहिब जी की प्रेमा भक्ति की सुनामी मौजूद है, दरबार साहिब के परिसर में गुरु पातशाह जी के द्वारा रचित जीवात्मा और परमात्मा की वाणीयों की लहरें मौजूद है| समूची दुनिया से जब तीर्थयात्री यहां पहुंचते हैं तो महसूस करते हैं कि जो सुख और चैन इस स्थान पर प्राप्त होता है, वह दुनिया के किसी कोने पर नहीं मिलता| इस स्थान पर प्रभु की महिमा के कीर्तन का अखंड प्रवाह चल रहा है इसलिये तो यह स्थान कहलाता है, गुरु रामदास पुर! गुरु का चक! श्री अमृतसर! ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’ की यह महान बक्शीश संपूर्ण संसार में बक्शीश बांट रही है, रहमते बांट रही है, ज्ञान बांट रही है, आनंद की अनुभूति बांट रही है, जब भी कोई तीर्थ यात्री इस शहर प्रवेश करता है तो वह स्वयं अपने होठों से प्यार भरी रसना को उच्चारित करता है, धन्य–धन्य ‘श्री गुरु रामदास साहिब जी’! धन्य–धन्य ‘श्री गुरु राम दास साहिब जी’! धन्य–धन्य ‘श्री गुरु राम दास साहिब जी!
नोट– 1. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।
2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
साभार लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।
000