गुरु पंथ खालसा की सशक्त भुजा: निर्मल पंथ (संप्रदाय)

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ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
चलते-चलते. . . .
(टीम खोज-विचार की पहेल)

गुरु पंथ खालसा की सशक्त भुजा: निर्मल पंथ (संप्रदाय)

गुरु पंथ ख़ालसा की सशक्त भुजा: निर्मल पंथ (संप्रदाय)

निर्मल पंथ, ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ की सशक्त भुजा, वास्तव में साधु, संत, महंत और विद्वानों का संप्रदाय है। इस संप्रदाय के गुरु सिखों ने पुरातन समय से ही अनेक प्रकार से ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ की सेवा की है। सिख इतिहास और गुरमत साहित्य की सेवा–संभाल करने में इस संप्रदाय के विद्वानों का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। इस संप्रदाय के विद्वानों ने’श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के समय से लेकर, समस्त गुरु साहिबान से संबंधित गुरु स्थानों की खोज कर, उन्हें चिन्हित कर, उन स्थानों का इतिहास तो लिखा ही है, अपितु उन स्थानों पर भव्य गुरुद्वारों/धर्मशालाओं की (उसारी) निर्माण कार्य कर, अपनी उत्तम सेवा की मिसाल कायम की है। साथ ही देश–विदेश के दूरदराज इलाकों में सिख धर्म का प्रचार–प्रसार कर, सिक्खी के परचम को लहराया है। इन विद्वानों ने आम जन समुदाय को कर्मकांड और कुरितीयों से बचाकर, गुरुवाणी के ज्ञान के प्रकाश से उनकी बुद्धि और विवेक को जागृत कर सत्य के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी है। ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के समय से ही निर्मल पंथ मानवता के प्रति समर्पित होकर अनेक लोक–कल्याण के कार्यों को अंजाम दे रहा है। इस दुनिया में ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ का प्रकाश मानवता के कल्याण के लिए हुआ था। गुरु पातशाह जी आप स्वयं उस अकाल पुरख, निरंकार का स्वरूप थे, ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी का फरमान है— 

आपि नराइणु कला धारि जग महि परवरियउ॥

निरंकारि आकारु जोति जग मंडलि करियउ॥

जह कह तह भरपूरु सबदु दीपकि दीपायउ॥

जिह सिखह संग्रहिओ ततु हरि चरण मिलायउ॥

(अंग क्रमांक 1395)

अर्थात्(श्री गुरु नानक देव साहिब जी) आप स्वयं ही नारायण का रूप है। जो अपनी शक्तियों को रच के जगत में प्रवृत्त हुए है। निरंकार ने (‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’) का आप स्वयं आकार रूप का होकर के (रूप धारण करके) जगत् में ज्योति प्रकट की है। (निरंकार ने) अपने सबद् (नाम) को, जो हर जगह हाजर–नाजर है। (‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी के रूप में) दीपक के द्वारा प्रकट की है। जिन सिखोंं ने इस शब्द को ग्रहण किया है। (‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने) तुरंत (उनको) हरी के चरणों में जोड़ दिया है।

‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ ने स्वयं सुल्तानपुर लोधी (ज़िला कपूरथला) सुबा पंजाब में पवित्र वेई नदी में प्रवेश कर, जब पुन: प्रकट हुए तो आप जी ने सर्वप्रथम मूल मंत्र का पाठ—

ੴ सतिनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि॥ का उच्चारण अपने मुखारविंद से किया था। अर्थात् (सबका मालिक एक है, उसका नाम सत्य है, वह सृष्टि की रचना करने वाला सर्वशक्तिमान, निर्भय, निर्वेर, अकालमूर्ति, अयोनि एवं स्वयंभू है, जिसकी उपलब्धि गुरु की कृपा से होती है।) की सौगात इस विश्व को प्रदान की थी आप भी ने सर्वप्रथम मूल मंत्र का पाठ भाई भागीरथ जी को प्रदान किया था इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना से ही निर्मल पंथ (संप्रदाय) का उदय हुआ और भाई भागीरथ जी इस दुनिया के सर्वप्रथम निर्मल संत हुए थे। वर्तमान समय में वेई नदी का वह घाट जहां ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ प्रकट हुए थे गुरुद्वारा संत घाट के नाम से प्रसिद्ध है।

निश्चिती ही निर्मल संप्रदाय का उदय ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के समय हुआ था परंतु इस संप्रदाय का विस्तार, संवर्धन, विकास और कायाकल्प ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ के कार्यकाल में हुआ। करुणा, कलम और कृपाण के धनी दशमेश पिता जी के श्री आनंदपुर साहिब जी के दरबार में 52 कवि और 36 लेखक, 24×7, साहित्यिक रचनाएं कर, अपनी सेवाएं निभा रहे थे। इसके अतिरिक्त उस तत्कालीन समय में अनेक लेखक, विद्वान और अन्य कवि श्री आनंदपुर साहिब में पहुंचकर अपनी उत्तम साहित्यिक कृतियों को गुरु महाराज के चरणों में समर्पित कर अपनी–अपनी विद्वता प्रदर्शित करते थे। उस तत्कालीन समय में श्री आनंदपुर साहिब जी के दरबार में प्रतिदिन सुबह–शाम उपनिषद, वशिष्ठ भागवत गीता, रामायण, महाभारत एवं अन्य ब्रज भाषाओं में रचित ग्रंथों की कथा होती थी। आध्यात्मिक विचारों का आदान–प्रदान और विश्लेषण किया जाता था। साथ ही उस समय के विद्वान इन सभी ग्रंथों और साहित्यिक रचनाओं का विशेष रूप से गुरुमुखी में अनुवाद भी करते थे। इस महत्वपूर्ण साहित्य–संपदा का अनुवाद शीघ्र अति शीघ्र हो, इसके लिए इन ग्रंथों के विभिन्न भागों को अनेक विद्वानों को अनुवाद करने की सेवा दी जाती थी। दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ आप स्वयं एक उत्तम कवि और उच्च कोटि के साहित्यकार थे। आप जी इन सभी विद्वानों का अत्यंत मान–सम्मान कर उन्हें सूखे मेवे और अनेक क़ीमती वस्तुएं एवं भरपूर माया भेंट करते थे। इतिहास गवाह है कि दशमेश पिता ने सन् 1686 ईस्वी. में पांउटा साहिब जी में एक साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया था। इस सम्मेलन में आप जी ने विद्या की महानता को स्पष्ट कर, विद्या के महत्व को दर्शाने के लिये अपने व्याख्यान में उपदेशित किया था कि दुनिया में आए सभी प्राणी मात्र को विद्या प्राप्त करना ही चाहिए। आप जी ने उस समय में गुरुवाणी और भाषा के पांच वरिष्ठ विद्वानों का चुनाव कर उन्हें काशी (वाराणसी) में जाकर संस्कृत भाषा की विद्या ग्रहण करने की आज्ञा दे कर आशीर्वाद दिया कि, जो विद्या जन साधारण 12 वर्षों में प्राप्त करते हैं उसी विद्या को आप 12 महिनों प्राप्त करेंगे। श्री गुरु पंथ प्रकाश नामक ग्रंथ में अंकित है—

पढ़ो अबै तुम कांशी जाए। निगमागम विदया मन लाए॥

और पढत जो बरसन मैं है। तुमै महीनयों मैं सो अैहै ॥

जोतिक बिदया सभि जग मै है। गुरु घर मैं अबि आए सु रैहै॥

(श्री गुरु पंथ प्रकाश, पृष्ठ 1394)

‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ की आज्ञा का पालन करते हुए यह पांचो सिख दूसरे दिन अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) में तैयार–बर–तैयार होकर, भगवा वस्त्र धारण कर, खड़ाऊ पहन कर और कमंडल एवं चिमटा हाथ में लेकर गुरु पातशाह जी की हजूरी में हाजिर हो गए थे। गुरु पातशाह जी ने प्रसन्नता पूर्वक इन पांचों संतो को अनेक आशीर्वाद प्रदान कर, इन्हें काशी प्रस्थान करने की आज्ञा दी थी। इन पांचों संतों ने गुरु पातशाह जी के चरणों में नमस्कार कर, परिक्रमा की एवं काशी के लिए रवाना हो गए थे।

इन पांचों संतो ने काशी पहुंचकर जतने ब्राह्मण के वटवृक्ष के नीचे अपने आसन लगा लिए एवं उस स्थान पर घास–फूस की झोपड़ियां बना कर निवास करने लगे, यह ‘जतन मठ’ ही पश्चात ‘चेतन मठ’ के नाम से निर्मल संप्रदाय का प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान बना। उस तत्कालीन समय में काशी में पंडित श्री मान सदानंद जी माने हुए उच्च कोटि के संस्कृत के विद्वान थे, विद्या अनुरागी इन पांचों संतो को महान विद्या के दाता पंडित श्री मान सदानंद जी के पास ही इनके पढ़ने का प्रबंध हो गया था। पंडित जी स्वयं एक उत्तम और योग्य शिक्षक थे। उन्होंने अपने इन योग्य विद्यार्थियों को मेहनत और लगन से पढ़ाना प्रारंभ कर दिया था, पंडित जी ने अपने इन योग्य विद्यार्थियों को अथाह स्नेह एवं अत्यंत प्रेम दिया। जिस कारण से इन विद्यार्थियों का पंडित जी से उत्तम तालमेल बैठ गया था और इन पांचों विद्यार्थियों ने भी अपनी शिक्षा मेहनत और लगन से प्रारंभ कर दी थी। इस कारण से पूरे काशी में इन पंजाबी विद्यार्थियों की ख्याति फैल चुकी थी कारण जिस विद्या को सीखने में वर्षों का अभ्यास करना पड़ता है, उसी विद्या को यह पंजाबी विद्यार्थी किसी चमत्कार के तहत थोड़े ही समय में सीख जाते थे। दशमेश पिता जी के आशीर्वाद के कारण ही इन उत्साही विद्यार्थियों ने व्याकरण, वेद, वेदांत, न्याय वेदांत और सभी संस्कृत भाषाओं में रचित ग्रंथों को कंठस्थ कर, शीघ्र ही उनके ज्ञाता बन गए थे।

लगभग 13 वर्षों तक संस्कृत भाषा का कठिन अभ्यास कर, पूर्ण रूप से पंडित मनोनीत होकर, अपने विद्या दाता पंडित श्री मान सदानंद जी से आज्ञा प्राप्त कर, इन पांचों संतो ने पुनः पंजाब की और प्रस्थान किया था।

जब यह पांचों संत पुन: ‘श्री आनंदपुर साहिब जी’ में पहुंचे तो गुरु पातशाह जी का दरबार सुशोभित था, उपस्थित अपार संगत उपदेशों को श्रवण कर रही थी। शूरवीर योद्धा, शस्त्र धारी सिख अपने-अपने आसनों पर आसीन थे। ऐसे भरे हुए दरबार में यह पांचों भगवाधारी संत हाथों में ग्रंथ, कमंडल एवं पैरों में खड़ाऊ पहने हुए कलगीधर दशमेश पिता के समक्ष उपस्थित होकर, दातुन के पुष्प को भेंट कर, गुरु पातशाह जी के चरणों में दंडवत प्रणाम किया, उपरांत इन संतों ने सावधान होकर दशमेश पिता ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ की प्रशंसा (स्तुति) में निम्नलिखित श्लोकों का शुद्ध संस्कृत भाषा में उच्चारण किया था।

शुद्धाय बुद्धाय निरंजनाय संसारमायापरिवर्जिताय संचिन्तनाय स्वहृदि स्थिताय गोबिन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।1।

भावार्थ:- महाराज श्री शुद्ध और प्रबुद्ध मन से, द्रवित हृदय के हैं। जिन्हें संपूर्ण संसार की माया भी नहीं छू सकती है, सद्बुद्धि सहित जिनके हृदय में सज्जनों के हित का चिंतन सदा निवास करता है! ऐसे श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज को सदा नमस्कार है।

आधाय चान्तयाय च मध्यगाय आद्यन्तहीनाय निरंकुशाय ज्योतिस्स्वरूपाय शुभप्रदाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।2।

भावार्थ:- महाराज श्री शुद्ध और प्रबुद्ध मन से, द्रवित हृदय के हैं। जिन्हें संपूर्ण संसार की माया भी नहीं छू सकती है, सद्बुद्धि सहित जिनके हृदय में सज्जनों के हित का चिंतन सदा निवास करता है! ऐसे श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज को सदा नमस्कार है।

आदित्यवंशाय पुरंदराय संसारसाराय स्वयं प्रभाय। रत्यादिहीनाय जनप्रियाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।3।

भावार्थ:- आप जी सेवा भाव में सूर्य के वंशज के समान है। सूर्य के प्रकाश से जगत् को आलोकित और प्रज्वलित करते हैं! ऐसे श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज को सदा नमस्कार।

वेदान्तवेद्याय महेश्वराय सोऽहं स्वरूपाय जनेश्वराय। शेषादिगीताय कृताखिलाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।4।

भावार्थ:- सभी ज्ञान ग्रंथों, वेदों, पुराणों को जानने वाले, जिनमें स्वयं महेश्वर के अलौकिक स्वरूप की सांसे, एक जन नायक के रूप में विद्यमान है। अखिल स्वरूप शेषनाग नाथने वाले, गीता रचने वाले, प्रभु का तेज उनके स्वरूप में है! ऐसे श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी को नमस्कार है।

चिच्छक्तिरूपाय मनोरमाय संसारवारांनिधितारणाय। आनन्दकन्दाय शुचिप्रभाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।5।

भावार्थ:- जो स्वयं आद्य शक्ति के मनोरम स्वरूप हैं। संसार में सभी के कष्टों को हरने और तारने वाले हैं, आनंद स्निग्धता और पवित्रता के ऐसे स्वरूप! श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी को नमस्कार है।

कैवल्यभुताय परात्पराय भोग्याय भोगाय भवाभवाय। प्रह्रादसिंहाय सुखंकराय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।6।

भावार्थ:- ऐसे पृथ्वी वीर, जिन्होंने आद्य देविक, आद्य भौतिक, आध्यात्मिक भोगों के समक्ष, भाव भक्ति के अखंड भक्त, प्रहलाद जैसी भक्ति, स्वयं भक्ति के, स्वयं सिंह पुरोधा! ऐसे श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी को नमस्कार है।

ताराय पाराय परायणाय कालाय पालाय जगद्धिताय। शान्ताय कान्ताय नमोंतकाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।7।

भावार्थ:- जिन्होंने दुखों का कारण किया, बाधाओं को पार किया, भक्ति भाव का पारायण किया, समय शास्त्र का पालन किया, जो स्वयं सिद्ध, शांति और क्रांति मान स्वरूप हैं! ऐसे श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी को सदा नमस्कार है। 

सांख्यादितत्वप्रविवेचकाय वैकुंठनाथायरमारमय। श्रौताय सत्याय सुदैशिकाय गोविन्दसिंहाय नमोस्त्वजाय।8।

भावार्थ:- सांख्य आदि समस्त दर्शन शास्त्रों, तत्वाधिक शास्त्रों के ज्ञाता, श्री हरि नारायण, श्री बैकुंठ अधिपति के ध्यान में रमे रहने वाले, सत्य सनातन के प्रणेता! ऐसे श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी को नमस्कार है।

संस्कृत के श्लोकों के द्वारा की गई इन प्रशंसाओं से गुरु पातशाह जी अत्यंत प्रसन्न हुए थे, गुरु पातशाह जी ने जब इन पांचों संतों की संस्कृत भाषा में उच्च कोटि की प्रवीणता देखी तो अत्यंत हार्दिक प्रसन्न हुए, जिस कारण से इन पांच संतो को काशी में भेजा गया था वह अत्यंत सफल रहा था। इसलिए यह पांचों संत गुरु पातशाह जी की कृपा दृष्टि के सदैव पात्र रहे थे।

कुछ समय पश्चात इन पांचों संतों ने पांच (पंज) प्यारों में से दो प्यारे, भाई दया सिंह जी और भाई धर्म सिंह जी से खंडे–बाटे का अमृत (अमृत पान की विधि) छककर, उनसे सिक्खी के उपदेश को ग्रहण किया था। इस कारण से भाई दया सिंह जी और भाई धर्म सिंह जी निर्मल संप्रदाय के उपदेश गुरु माने जाते हैं। इसी कारण से निर्मल पंथ के सभी विभिन्न संप्रदाय के स्त्रोत इन दोनों प्यारों को ही माना जाता है।

निर्मल पंथ के विद्वान, संत महापुरुष और महंतों के द्वारा जनसाधारण की अनेक प्रकार की लोक कल्याण हेतु सेवाएं की जाती है, कथा, कीर्तन, राग, व्याख्यान, मंडलिया, शास्त्रार्थ, गुरमुखी, गुरुवाणी का प्रचार–प्रसार, योगाभ्यास, ज्योतिष शास्त्र का अभ्यास, पत्रकारिता,लेखन कार्य, संपादन, प्रकाशन और अनेक साहित्य रचनाओं के द्वारा ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के माध्यम से लोक कल्याण हेतु सेवाएं निर्मल संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा प्रदान की जाती हैं। निर्मल पंथ के निम्नलिखित विद्वान जिन्होंने ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ की साहित्य के माध्यम से अपनी महान सेवाएं अर्पित कर अपना नाम निश्चित इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित किया है, जिनमें से कुछ विद्वान, महापुरुषों के नाम निम्नलिखित हैं

श्रीमान पंडित गुलाब सिंह जी, चूड़ामणि महाकवि संतोख सिंह जी, पंडित तारा सिंह जी नरोत्तम, ज्ञानी ज्ञान सिंह जी, संत निहाल सिंह जी कविंद्र, संत निरंकार सिंह जी, संत संपूरण सिंह जी, ज्ञानी बदन सिंह जी सेखवां वाले, पंडित देवा सिंह जी देवपुरा, ठाकुर निहाल सिंह जी थोहा ख़ालसा, महंत गणेश सिंह जी, संत नारायण सिंह जी मेहरना कलां, पंडित गोविंद सिंह जी महंत दयाल सिंह जी लाहौर वाले इत्यादि।

इन अनेक पुरातन महापुरुष और विद्वानों के अतिरिक्त वर्तमान समय में संत, महंत और महापुरुष जैसे पंडित गुरदीप सिंह जी केसरी वाराणसी वाले, श्री महंत बलवीर सिंह जी शास्त्री पटना साहिब वाले, पंडित बलबीर सिंह जी वियोगी दिल्ली वाले, महंत बिशन सिंह जी क्रिट, महंत जगत सिंह जी अंबाले वाले, ज्ञानी मुख्त्यार सिंह जी सारंग गुरुद्वारा कोठा साहिब वाले और श्री मान ज्ञानी बलवंत सिंह जी कोठा गुरु इत्यादि। ऐसे अनेक विद्वान, महापुरुष ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ की साहित्यिक सेवा में समर्पित होकर, अनेक ग्रंथों की रचनाएँ संपादन / प्रकाशन और विविध विषयों पर व्याख्यान आदि आयोजित करते रहते हैं।

वर्तमान समय में अनेक साहित्यिक सेवा संबंधी कार्यों के लिए विशेष रूप से श्रीमान महंत तेजा सिंह जी खुड्डा, श्रीमान महंत जसविंदर सिंह जी शास्त्री (कोठारी जी) और श्री मान दर्शन सिंह जी शास्त्री बनारस वाले का नाम वर्णन करना आवश्यक है। विशेष रूप से श्री मान संत बाबा जोध सिंह जी महाराज निर्मल आश्रम ऋषिकेश वाले भी अनेक पुरातन और नवीन ग्रंथों का प्रकाशन कर अत्यंत महत्वपूर्ण सेवा समर्पित कर रहे हैं। इन निर्मल संप्रदाय के महापुरुषों ने ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ की विविध प्रकार से सेवा कर, देश की आज़ादी के आंदोलन में भाग लेकर, अनेक, अकहे कष्टों को सहन कर देश को स्वतंत्र करवाने में अपना बलिदानी योगदान भी दिया है। इनमें से प्रमुख श्री मान संत बाबा महाराज सिंह जी, संत बाबा वीर सिंह जी नौरंगाबाद वाले और संत बाबा ख़ुदा सिंह जी के नामों का विशेष उल्लेख करना होगा। आज़ादी के इस 75 वर्ष के अमृत महोत्सव में इन महापुरुषों को श्रद्धा के सुमन अर्पित करता ही सच्चे मायने में देशभक्ति है।

निर्मल संप्रदाय के संत, महंत, महापुरुष, विद्वान और साहित्यकार सभी प्रकार के लोक–कल्याण की सेवाओं में समर्पित होकर, जनसाधारण, आम लोगों में से जात–पात का भेद मिटा कर, सिख धर्म से जोड़ रहे हैं। यह सभी आप स्वयं अमृतधारी, गुरुवाणी के नितनेमी, पवित्र और उच्च कोटि के जीवन मानदंडों के अनुसार जीवन व्यतीत करने वाले, मांस–मदिरा और समस्त विकारों से रहित, अंधविश्वास से मुक्त, विवेक, बुद्धिजीवी, विद्वान और संत हैं। यह सभी साधारण वेशभूषा भगवा/सफेद वस्त्र धारण कर, दंभ पाखंड का निषेध करने वाले और अपना इष्ट केवल ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ को मानते हैं। ऐसे तत्ववेता, शूरवीर, विद्वान, महापुरुष और संत–महंतों के इस संप्रदाय को अर्थात ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ की इस सशक्त भुजा निर्मल पंथ (संप्रदाय) को सादर नमन!

नोट 1. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।

2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।

3.उपरोक्त लेख गुरुमुखी की पुस्तक निर्मल पंथ का संक्षिप्त इतिहास से प्रेरित है।

साभार लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यों की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।

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प्रासंगिक: श्री गुरु रामदास जी के प्रकाश पर्व पर विशेष-

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