ੴ सतिगुर प्रसादि॥
चलते-चलते. . . .
(टीम खोज-विचार की पहेल)
अनुभव लेखन–गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब जी: एक परिचय
अनुभव लेखन—
चरन चलउ मारगि गोबिंद॥
मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद॥
(अंग क्रमांक 281)
अर्थात् अपने चरणों से गोविंद के मार्ग पर चलो। एक क्षण भर के लिए भी हरि का जाप करने से पाप मिट जाते हैं।
गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब जी वह पावन, पुनित, रमणीक और प्राकृतिक सोंदर्य से ओत–प्रोत स्थान है जहाँ हिमनदों का बर्फीला पवीत्र जल, एक विशाल जलकुंड का निर्माण करते है, हेमकुंड एक संस्कृत नाम है अर्थात् हेम (बर्फ) और कुंड (कटोरा) है| इसी स्थान पर करुणा, कृपाण और कलम के धनी, अमृत के दाते, सन्त–सिपाही, बलकार योद्वा, सर्वंशदानी, महान तपस्वी एवं तेजस्वी, विद्वान, दार्शनिक, युगांतकारी कवि एवं समाज सुधारक ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ महाराज ने अपने पूर्व जन्म में लम्बे समय तक अकाल पुरख (ईश्वर) की तपस्या एवं साधना इस प्रकार की कि, अकाल पुरख (परमेश्वर) ने प्रसन्न होकर संसार में हो रहे जुल्म, अधर्म एवं अन्यायों की समाप्ती एवं लोक कल्याण, इंसानियत की भलाई के लिये एक नया धर्म चला कर, इस धर्म के द्वारा अधर्म और जुल्म को समाप्त कर सत्य एवं इंसानियत की ज़मीर की रक्षा के लिये, आपको अपने परम सेवक के स्वरूप में इस धरती पर अवतारित किया था| इस धरती पर अवतारित दशम् पातशाह जी का आलौकीक स्वरूप इस स्थान पर की गई कठिन तपस्या का ही परिणाम था| इस कारण से ही संपूर्ण सिख समुदाय की इस स्थान पर अगाध श्रृध्दा है| प्रत्येक वर्ष तमाम कठिनाइयों को सहन कर, सिख श्रृध्दालु इस स्थान पर नतमस्तक होते है| दशमेश पिता, गुरु पातशाह जी ने आप अपने रचित दशम ग्रंथ साहिब जी के बिचित्र नाटक में अंकित किया है—
चौपई॥
अब मै अपनी कथा बख़ानो॥ तप साधत जिह बिधि मुहि आनो॥
हेमकुंट परबत है जहाँ॥ सपतस्रिंग सोभित है तहाँ॥1॥
सपतस्रिंग तिह नामु कहावा॥ पंडु राज जह जोगु कमावा॥
तह हम अधिक तपसिआ साधी॥ महाँकाल कालका अराधी॥2॥
इह बिधि करत तपसिआ भयो॥ द्वै ते एक रूप ह्वै गयो॥
तात मात मुर अलख अराधा॥बहु बिधि जोग साधना साधा॥3॥
तिन जो करी अलख की सेवा॥ ता ते भए प्रसंनि गुरदेवा॥
तिन प्रभ जबु आइस मुहि दीया॥ तब हम जनम कलू महि लीया॥4॥
चित न भयो हमरो आवन कहि॥ चुभी रही स्रुति प्रभु चरनन महि॥
जिउ तिउ प्रभ हम को समझायो॥ इम कहि कै इह लोक पठायो॥5॥
अकाल पुरख बाच इस कीट प्रति॥
समुद्र की सतह से लगभग 15,215 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह पवित्र गुरुद्वारे का स्थान एवं इस स्थान पर पहुंचने का रास्ता अधिकतम समय बर्फ से ढका रहता है और संगत के दर्शनार्थ थोड़े समय के लिये ही खुलता है, उस थोड़े समय में विश्व भर से लाखों श्रद्धालु प्रति वर्ष इस अत्यंत ऊंचाई वाले स्थान पर पहुंचने के लिये कठिन यात्रा कर, नतमस्तक होकर, दशम पातशाह जी को अपने श्रद्धा के सुमन अर्पित कर गुरु महाराज की खुशियां प्राप्त करते हैं। इस कठिन यात्रा को करने हेतु उत्तम स्वास्थ्य के साथ–साथ दृढ़ निश्चयी होना अत्यंत आवश्यक है। इस पवित्र सरोवर के आस–पास के निवासी इस स्थान को लोकपाल के नाम से भी संबोधित करते है, जिसका अर्थ है लोगों का निर्वाहक! यह सरोवर लगभग 400 गज लंबा और 200 गज चौड़ा है साथ ही यह सरोवर चारों और से हिमालय की 7 पर्वत श्रृंखलाओं की चोटी से घिरा हुआ है, विशेष इन पर्वत श्रृंखलाओं की चोटी का रंग वायुमंडल की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार लगातार बदलता रहता है, कभी यह बर्फ सी सफेद तो कभी यह लाल एवं सुनहरे रंग की या कभी भूरे-नीले रंग की दिखाई पड़ती है। इसका निरंतर रंग बदलना सचमुच प्रकृति का अद्भुत–अलौकिक नजारा है| इस पवीत्र स्थान का ज़िक्र रामायण में भी आता है, ऐसा माना जाता है कि लक्ष्मण जी ने भी यहां पर शेषनाग के अवतार के रूप में कठिन तप किया था| ‘श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी’ ने अपनी आत्मकथा बिचित्र नाटक में इस स्थान के संबंध में काव्यात्मक रूप में जानकारी प्रदान की है| दशम ग्रंथ के अनुसार इस स्थान पर पांडव राजा योगाभ्यास करते थे| प्रसिद्ध सिख इतिहासकार भाई संतोख सिंह जी ने (सन् 1787 – 1843 ई.) इस स्थान का विस्तृत वर्णन दुष्ट – दमन नामक रचना में अपनी कल्पना से किया है उन्होनें इस महान रचना में गुरु शब्द को ‘बुराई के विजेता’ के रूप में चुना है। पंडित तारा सिंह जी नरोत्तम जो की उन्निसवी सदी के महान निर्मले पंथ के विद्वान थे उनके द्वारा सन् 1884 ई. में रचित श्री गुरु तीरथ संग्रह नामक ग्रंथ में इस स्थान का विस्तार से वर्णन किया गया है उन्होनें इस ग्रंथ में 508 सिखों के धार्मिक स्थलों का वर्णन किया है। इस संबंध में प्रसिध्द सिख विद्वान भाई वीर सिंह जी की खोज भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भाई वीर सिंह जी की खोज का वर्णन पढ़कर ही संत सोहन सिंह जी जो कि निवृत्त फ़ौजी थे उन्होंने इस स्थान की खोज स्थानीय लोगों की मदद से सन् 1934 ई. में की थी उन्होंने ही अपनी खोज की पुष्टि सप्तश्रृंग पर्वत श्रृंखलाओं की चोटियों को आधार मान कर हेमकुंड के सरोवर को खोजा था। इस स्थान पर सन् 1937 ई. में ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ का प्रकाश किया गया था| सन् 1939 ई. में सरदार सोहन सिंह जी जब अकाल चलाना (पंचतत्व में विलीन) कर गये तो आप जी ने भविष्य की सेवा–संभाल सरदार मोहन सिंह जी को सौंप दी थी उन्होंने स्वयं की देखरेख में ही गुरुद्वारा गोविंद धाम के निर्माण (उसारी) का कार्य किया गया। आप जी ने सन् 1960 ई. में पंचतत्व में विलीन होने से पूर्व एक सात सदस्यीय कमेटी गठित कर, इस तीर्थ यात्रा के संचालन की जवाबदारी उस कमेटी को सौंपी थी।
गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब जी मैनेजमेंट ट्रस्ट की और से इस यात्रा के लिये आने वाले प्रत्येक यात्री की यात्रा का समुचित प्रबंध उत्तम तरीके से किया जाता है। यात्रा के समय यात्रियों की समस्त सुख–सुविधाओं के लिये ट्रस्ट प्रयत्नशील एवं वचनबद्ध भी है। कमेटी के द्वारा हरिद्वार, ऋषिकेश, श्रीनगर, जोशीमठ, गोविंद घाट और गोविंद धाम में स्थित गुरुद्वारों में समस्त आगांतुक यात्रियों की भोजन, निवास और चिकित्सा की उत्तम व्यवस्था की जाती है| कमेटी के द्वारा यह कामना की जाती है कि, आपकी यात्रा आसान एवं सुखमय हो इसके लिये ‘गुरु पंथ ख़ालसा’ के अनेक सेवादार दिन रात यात्रियों के लिये कठिन परिश्रम कर अपनी बहुमूल्य सेवाएं अर्पित करते है।
नोट—1. श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के पृष्ठों को गुरुमुखी में सम्मान पूर्वक अंग कहकर संबोधित किया जाता है।
2. गुरुवाणी का हिंदी अनुवाद गुरुवाणी सर्चर एप को मानक मानकर किया गया है।
3.लेखक ने स्वयं सहपरिवार दिनांक 03/07/2022 से लेकर दिनांक 10/07/2022 तक गुरुद्वारा श्री हेमकुंड साहिब की यात्रा कर गुरु महाराज की खुशियां प्राप्त की है।
साभार–लेख में प्रकाशित गुरुवाणी के पद्यो की जानकारी और विश्लेषण सरदार गुरदयाल सिंह जी (खोज–विचार टीम के प्रमुख सेवादार) के द्वारा प्राप्त की गई है।
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