मेरे शब्द: मेरी विरासत
मेरे द्वारा रचित शब्दों के संप्रेषण से ही मेरी पहचान है। मेरे शब्द ही मेरी धुंधली होती हुई यादों को पुनर्जीवित करेंगे। मेरा नाम तो कहीं खो जायेगा, शकल–सुरत मिट जायेगी, मेरे द्वारा रचित शब्द ही मेरी विरासत के रूप में अमर रहेंगे। जीवन की सांसों की डोर, इन शब्दों के साये में निरन्तर करवट बदल रही है। शब्दों के ज्ञान के दीप से ही अज्ञान का विहान दूर होता है।
वह शब्द ही है जो पक्षियों के कलरव की तरह बहने वाले एक निखिल झरने के समान होते है। जब आसमान में काली घटा छा जाती है और मोर बेबाक होकर अपने नृत्य के द्वारा प्रकृति के सौंदर्य की पूजा करता है तो शब्दों के संप्रेषण से ही उसे वर्णित किया जा सकता है। पहली बारिश के मृदगंध की सुगंध को शब्दों से ही संप्रेषित किया जा सकता है। शब्दों के विशेषण से ही प्राकृतिक सौंदर्य का अभूतपूर्व चित्रण किया जा सकता है। उर्वशी के घुंघरू की रुनझुन, सरस्वती की वीणा की झंकार और कृष्ण की मुरली की साद को यदि शब्दों के विशेषण ना मिलते तो निश्चित ही इन में एक रूखापन होता था।
एक गुरु सिख के जीवन में गुरुवाणी की महिमा की भूमिका गुरु के रूप में होती है। सिख जीवन में शब्द ही गुरु के समान है। ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में अंकित गुरुवाणी को यदि वाकई शब्दों के संप्रेषण से सम्मानित करना हो तो उन शब्दों को लिखने के लिए कमल के फूलों की डंडीयों में पाये जाने वाले रेशों (वह रेशा जिसकी बाती बनाकर दीप प्रज्वलित किये जाते है) की कलम को ओस की बूंदों की स्याही में डुबोकर एवं पवन की लहरों के समान हलके हाथो से, प्रात काल की पहली सूर्य की कोमल किरण के मध्य, गुलाब के फूलों की पंखुड़ियों पर लिखा हुआ सम्मान संदेश, एक खिले हुए गुलाब के ताजातरीन फुल के समान शब्दों के संप्रेषण के द्वारा गुरुवाणी को सम्मान अर्पित कर, ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ के समक्ष नतमस्तक हुआ जा सकता है।
मेरे द्वारा रचित शब्दों के संप्रेषण से ही मेरी पहचान है।
शेष फिर कभी. . . . . .
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