प्रसंग क्रमांक 83: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा के समय ग्राम कट्टू, ग्राम सोहिआना एवं ग्राम हंडियाना का इतिहास।

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इस श्रृंखला के विगत प्रसंग क्रमांक 81 में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के इतिहास से संबंधित भाई संघा जी के इतिहास से अवगत हुए थे। इसी इतिहास से संदर्भित ग्राम खीवां कला में गुरु जी की स्मृति में गुरुद्वारा साहिब सुशोभित है। इसी श्रृंखला में जब हम आगे बढ़ते हैं तो गुरु जी अपनी धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा हेतु ग्राम कट्टू नामक स्थान पर पहुंचे थे।

जब गुरु जी ग्राम कट्टू नामक स्थान पर पहुंचे तो इस स्थान पर एक साधु निवास करता था। जिन्हें भाई ध्याना जी या भाई धन्ना जी या प्रेम-पूर्वक भाई ध्यानू जी कहकर भी संबोधित किया जाता था। जब भाई ध्यानू जी गुरु जी के दर्शन-दीदार करने हेतु पहुंचे तो भाई ध्यानू जी को गुरु जी ने सच्ची युक्ति के रूप में गुरबाणी से उपदेशित किया था. जिसे इस तरह से अंकित किया गया है–

काहे रे बन खोजन जाई॥

सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई॥रहाउ॥

(अंग क्रमांक 684)

अर्थात हे बंदे तू प्रभु-परमेश्वर को खोजने वनों में क्यों जाता है? ईश्वर तो निर्लेप है, वह हर स्थान पर व्यापक है और तेरे साथ तेरे हृदय में ही बसता है।

गुरु जी ने साथ ही भाई ध्यानु जी को उपदेशित कर कहा–

बंदे खोजु दिल हर रोज ना फिरु परेसानी माहि॥ (अंग क्रमांक 727)

अर्थात है इंसान उस प्रभु-परमेश्वर को अपने दिल के अंदर खोज और घबरा के भ्रमों में मत भटक।

गुरु जी भाई ध्यानू जी को उपदेशित कर कहते हैं–

फरिदा जंगलु जंगलु किआ भवहि वणि कंडा़ मोड़ेहि॥

वसी रबु हिआलीऐ जंगलु किआ ढूढेहि॥

(अंग क्रमांक 1378)

अर्थात् फरीद तु जंगल-जंगल में भटक कर वृक्षों के कांटे क्यों तोड़ता फिरता है। प्रभु तो ह्रदय में बसता है, तु जंगलों में क्यों ढूंढ रहा है?

जब गुरु जी ने गुरबाणी की उपरोक्त पंक्तियों को उपदेशित किया तो भाई ध्यानू जी ने गुरु जी से सिक्खी को ग्रहण कर लिया था।

गुरु पातशाह जी ने गुरबाणी के द्वारा उपदेशित कर भाई ध्यानू जी को सच्ची भक्ति का मार्ग दिखाया था। जिसे अंकित किया गया है–

सचै मारगि चलदिआ उसतति करे जहानु॥

(अंग क्रमांक 136)

अर्थात दुनिया उनकी प्रशंसा करती है जो सच के मार्ग पर चलते हैं। भाई ध्यानु जी के साथ-साथ आसपास के इलाके की संगत ने भी सिक्खी को ग्रहण किया था। पास ही ग्राम कुंभलवाड़ की एक माई ने भी गुरु जी की दूध और लस्सी के प्रसाद के द्वारा सेवा की थी।

जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ इस स्थान से चलकर आगे जाने लगे तो गुरु जी के घोड़े ने आगे जाने से इंकार कर दिया था। इस यात्रा में इस पूरे काफिले का नेतृत्व गुरु जी स्वयं सबसे आगे रहकर कर रहे थे। जब गुरु जी ने देखा कि घोड़ा आगे नहीं जा रहा है तो जरूर इसके पीछे कोई तो कारण होगा? गुरु जी ने सेवादारों को वचन किए कि आगे जाकर जांच-पड़ताल करो कि हमारा घोड़ा आगे क्यों नहीं जाना चाहता है? जब सेवादार जांच-पड़ताल करके वापस आए और उन्होंने जानकारी दी कि गुरु पातशाह जी आगे किसी ने खेतों में तंबाकू की खेती को बीज के रखा हुआ है। सच जानना इस कारण से गुरु जी के घोड़े ने आगे जाने से इनकार कर दिया था। वर्तमान समय में इस स्थान पर भव्य विलोभनीय गुरुद्वारा अडी़सर साहिब जी पातशाही नौवीं सुशोभित है।

इस स्थान से गुरु जी ग्राम सोहिआना नामक स्थान की ओर प्रस्थान कर गए थे और कीकर (बबूल/ACACIA NILOTICA) नामक वृक्ष से आप जी ने अपने घोड़े को बांधा था और कुछ समय पश्चात गुरु जी ने अपनी यात्रा को पुनः आरंभ कर दिया था। वर्तमान समय में इस स्थान पर गुरुद्वारा सोहिआना साहिब पातशाही नौवीं सुशोभित है। इसी मार्ग पर स्थित एक ग्राम हंडियाना ग्राम की स्थानीय संगत को ज्ञात हुआ कि ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी जिस भी स्थान को अपने चरण कमलों से स्पर्श कर पवित्र करते हैं उसी स्थान पर मानसिक रोगी तो ठीक होते ही हैं अपितु तन के रोगी भी स्वस्थ हो जाते हैं। ऐसी गुरु जी अपनी मेहर की बख्शीश करते थे। इस ग्राम झंडिआना पहुंचकर गुरु जी ने स्थानीय संगत को नाम-वाणी से जोड़ कर उनका उद्धार किया था। साथ ही गुरु जी ने स्थानीय लोगों में फैली गलघोटू की बीमारी (इस बीमारी में गले पर गिठाने पड़ जाती हैं और गला फुल कर मोटा हो जाता है) से मुक्त कर इस बीमारी से निजात दिलाई थी।

इसी स्थान पर पास ही एक पानी की छपड़ी (जल का स्त्रोत) थी परंतु इस पानी की छपड़ी का कोई उपयोग नहीं करता था। गुरु जी को भी स्थानीय लोगों ने इस पानी के उपयोग को वर्जित बताया था परंतु जब गुरु जी ने इसका कारण जानना चाहा तो उन्हें बताया गया कि इस स्थान पर स्थानीय चमार लोग अपने चमड़े को धोते हैं, इस कारण से हम इस पानी का उपयोग नहीं करते हैं। गुरु जी ने हंस कर उत्तर दिया और वचन कर कहा कि भाई इस जात-पात के कोड़ को समाप्त करना अत्यंत आवश्यक है। साथ ही गुरु जी ने सर्वप्रथम इस छपड़ी (जल स्त्रोत) में स्नान किया और पश्चात समूह साथ चलने वाली संगत ने भी स्नान किया था। गुरु जी ने वचन किये कि किसी एक जात की छपड़ी कहकर इसे लोगों से दूर कर दो, यह ठीक नहीं है। जिस अंकित किया गया है–

जाति जनमु नह पूछीऐ सच घरु लेहु बताइ॥

सा जाति सा पति है जेहे करम कमाइ॥

(अंग क्रमांक 1330)

अर्थात् प्रभु-परमेश्वर प्राणी की जात और पैदाइश के बारे में पूछताछ नहीं करता है। इसलिये प्रभु-परमेश्वर के सच्चे धाम की आराधना करना चाहिये। केवल इंसान का सच्चा वर्ण वह है जो वह अपने कर्मों से कमाता है। गुरु जी ने स्थानीय संगत के मनों से जात-पात के भ्रम को उपदेशित करते हुए दूर किया था। साथ ही गुरु जी ने इस छपड़ी (प्राकृतिक जल स्त्रोत) को खुदवा कर, साफ कर, बड़ा भी करवाया था। ताकि ज्यादा से ज्यादा संख्या में स्थानीय संगत इसका उपयोग कर सकें। किसी भी प्रकार के भ्रम और जात-पात की गुरु जी ने स्वयं उपदेशित कर निंदा की थी। वर्तमान समय में यह पुरातन छपड़ी भव्य सरोवर के रूप में सुशोभित है। जिस स्थान पर  गुरु पातशाह जी विराजमान हुए थे उसी स्थान पर बहुत ही सुंदर, विलोभनीय गुरुद्वारा गुरुसर साहिब पातशाही नौवीं गुरु जी की स्मृति में सुशोभित है।

प्रसंग क्रमांक 84: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा के समय ग्राम रुडे़ के कला, ग्राम केलों, ग्राम ढ़िलवां और ग्राम दुलमिकी का इतिहास।

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