‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ सुबा पंजाब के मालवा प्रांत में धर्म प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर यात्राएं कर रहे थे। इस यात्रा में आप जी के साथ 300 के करीब संगत और गुरु जी का परिवार भी यात्राएं कर रहे थे। इस धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा के तहत गुरु जी ग्राम गंडुआं में पहुंचकर एक सिख सेवादार के घर के सामने ठहर कर, अपने घोड़े से उतरकर, उस सिख सेवादार के घर के दरवाजे को खटखटाते हैं और आवाज देकर कहते हैं भाई मुगलू जी दरवाजा खोलो हम आपके पास आ गए हैं। जब उस वृद्ध सिख सेवादार ने दरवाजा खोला तो देखा कि आज से 31 वर्ष पूर्व जिस गुरु जी से वह बिछड़ कर आए थे, वह उनके सम्मुख खड़े थे। यदि इतिहास को परिप्रेक्ष्य करें तो यह वृद्ध सिख सेवादार भाई मुगलू जी वह ही सिख सेवादार थे जो छठी पातशाही ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के सिख थे एवं हमेशा उनके साथ में एक परछाई की तरह रहते थे।
सन् 1634 ई. तक ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने 4 युद्धों को लड़ा था परंतु जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की भाई मुगलू जी से मुलाकात हुई तो समय था सन् 1665 ई. अर्थात सन् 1634 ई. से लेकर सन् 1665 ई. तक पूरे 31 वर्ष हो चुके थे गुरु जी से बिछड़ कर!
जब ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ अपने समय में युद्धों में विशेष पराक्रम दिखाने वाले सिखों को मान-सम्मान देकर उन्हें गौरवान्वित कर रहे थे तो उस समय गुरु जी ने सम्मान पूर्वक भाई मुगलू जी को समीप बुलाकर वचन किए थे कि भाई मुगलू जी आप बहुत चपल, फुर्तीले, निडर और वीर योद्धा हो। प्रत्येक युद्ध में आपने शूरवीरता दिखाते हुए विशेष पराक्रम कर युद्ध को जीतने में अभूतपूर्व मदद की है। मैं आपकी सेवाओं से अत्यंत खुश हूं। आप आज मुझ से क्या मांगना चाहते हो? उस समय भाई मुगलू जी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया था कि गुरु पातशाह जी आप जी की असीम बक्शीश मेरे पर हैं। जब से मैं आपकी शरण में आया हूं, मैंने जाना है–
निरभउ जपे से निरभउ हौवे॥
अर्थात् उस दिन से ही गुरु पातशाह जी मुझे किसी का डर ही नहीं लगता है। यहां तक कि आप की शरण में आने के पश्चात मृत्यु का भी भय नहीं है। फिर भी पातशाह जी मेरा निवेदन है कि–
कबीर मुहे मरने का चाउ है मरउ त हरि के दुआर॥
अर्थात् गुरु पातशाह जी मेरा यह निवेदन है कि जब मेरी अंतिम सांस निकले तो मैं आप जी की झोली (गोदी) में सर रखकर मृत्यु को प्राप्त करना चाहता हूं।
‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने भाई मुगलु जी से वचन किए कि आना और जाना तो उस अकाल पुरख के हाथ में है, कह नहीं सकते कि हम आपसे पहले इस संसार को त्याग कर देवें। फिर भी हम वचन करते हैं कि जब भी आपका अंतिम समय होगा तो हमारी ज्योत निश्चित ही आपके समक्ष उपस्थित होगी।
पूरे 31 वर्षों के पश्चात वृद्ध भाई मुगलू जी का जब अंतिम समय आ गया तो ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के सुपुत्र ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अर्थात् ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की नौवीं ज्योत जो प्रथम 8 गुरुओं में समाहित होकर, आज ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के रूप में भाई मुगलू जी के दरवाजे पर खड़े होकर, दरवाजा खटखटा कर आवाज देकर भाई मुगलू जी को पुकार रही थी। जब भाई मुगलू जी ने दरवाजा खोला तो देखा कि ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ अपने पुत्र में समाहित हो कर सम्मुख खड़े थे। यह वह ही ज्योत थी, जो आज से 31 वर्ष पूर्व ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के रूप में दर्शन दे चुकी थी।
भाई मुगलू जी ने कांपते हाथों से ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को प्रणाम किया। भाई मुगलू जी ने वचन किए कि गुरु पातशाह जी आप मुझ पर कृपा करने हेतु पधार गए हो। अब मेरा जन्म-मरण कट चुका है। भाई मुगलू जी ने इतना निवेदन कर गुरु जी के चरणों में अपना शीश रखकर स्वयं के प्राण त्याग दिए थे।
उस समय ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने भाई मुगलू जी की सेवा और जीवन के संबंध में उपस्थित संगत को जानकारी दी थी। भाई मुगलू जी का गुरु जी के साथ अत्यंत निकट का संबंध और प्यार था। ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने अपने हाथों से भाई मुगलू जी का अंतिम संस्कार किया था।
वर्तमान समय में इस स्थान ग्राम गंडुआं (मानसा) में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ और भाई मुगलू जी की स्मृति में भव्य, विलोभनीय गुरुद्वारा साहिब जी सुशोभित है।