प्रसंग क्रमांक 78: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा के समय ग्राम धलेवां का इतिहास।

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‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ग्राम भोपाल से चलकर 17 किलोमीटर दूरी पर स्थित ग्राम धलेवां में पहुंचे थे। इस ग्राम में घने वृक्ष होने के कारण एक छोटा सा जंगल था। इस ग्राम में छठी पातशाही  ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के समय का एक सिख निवास करता था जिसका नाम तुलसीदास था। बाबा तुलसीदास जी हमेशा नाम-स्मरण और बंदगी में जुड़े रहते थे। अपने अंतिम समय में बाबा तुलसीदास जी ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के दर्शन करना चाहते थे। साथ ही उनकी मन की यह इच्छा भी थी कि जब मेरा अंतिम समय हो और मेरे प्राण छूटने वाले हो तो उस समय में ‘श्री गुरु नानक देव जी’ की ज्योत के दर्शन कर अपने प्राण को त्याग कर परलोक गमन करूं।

घट-घट की जानने वाले अंतर्यामी ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ स्वयं बाबा तुलसीदास जी को दर्शन हेतु पहुंच गए थे। गुरु जी ने आवाज देते हुए वचन किए कि बाबा तुलसीदास जी आंखें खोलो और जब बाबा तुलसीदास जी ने पलकों को खोल कर नेत्रों को ऊपर किया तो आप जी ने दर्शन किए की  ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ का ही दूसरा रूप उनके सुपुत्र ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ सामने खड़े होकर स्वयं दर्शन दे रहे हैं। बाबा तुलसीदास जी गुरु जी के दर्शन कर गदगद हो गए थे। आप जी ने उठकर गुरु जी की परिक्रमा की एवं नतमस्तक होकर वचन करते हुए आप जी ने अपने प्राण त्याग दिए थे।

‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने स्वयं बाबा तुलसीदास जी का अंतिम संस्कार किया था। उस समय उपस्थित संगत को संबोधित कर गुरबाणी का एक सबद् (पद्य) को अपने मुखारविंद से उच्चारित किया था। जिसे इस तरह से अंकित किया गया है–

एक ओंकार सतिगुरु प्रसादि

धनासरी महला 9

काहे रे बन खोजन जाई॥

सरब निवासी सदा अलेपा तोही संगि समाई॥1॥रहाउ॥

पुहप मधि जिउ बासु बसतु है मुकर माहि जैसे छाई॥

तैसे ही हरि बसे निरंतरि घट ही खोजहु भाई ॥1॥

बाहरि भीतरि एको जानहु इहु गुर गिआनु बताई॥

जन नानक बिनु आपा चीनै मिटै न भ्रम की काई ॥2॥1॥

(अंग क्रमांक 684)

अर्थात प्रभु परमात्मा को खोजने के लिए तुम क्यों जंगल में जाते हो? उस परमेश्वर का अस्तित्व तो सभी जगह पर है। वह निर्लेप है, वह प्रभु-परमेश्वर तो तेरे संग हमेशा तेरे साथ ही रहता है। वह परमात्मा तो तुम्हारे साथ ऐसे निवास करता है जैसे फूल के भीतर खुशबू होती है। जैसे आईने में छवि होती है। वह प्रभु परमात्मा भी तुम्हारे भीतर ही निवास करता है। केवल उस परमात्मा को खोजने की आवश्यकता है। बाहर निवास करने वाला और भीतर निवास करने वाला परमात्मा कोई और नहीं है। जो बाहर है, वह ही भीतर है परंतु अपने आप को खोजने के अलावा जो भ्रम का पर्दा, जो भ्रम की काई हमारे भीतर जमी हुई है, वह अपने आपको को खोज कर, जाने बिना ठीक नहीं होगी। प्रभु-परमात्मा को जंगलों में खोजने की कोई आवश्यकता नहीं है। परमात्मा को तो भीतर से ही खोजा जा सकता है।

‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने ग्राम धलेवां के स्थानीय निवासियों को उपदेशित कर वचन किए कि घर-गृहस्ती में रहकर ही प्रभु-परमात्मा का स्मरण किया जा सकता है। इसके लिए जंगलों में जाने की आवश्यकता नहीं है। हम स्वयं अपने गृहस्थ आश्रम में रहकर प्रभु-परमात्मा के नाम का स्मरण कर सकते है। गुरबाणी को भीतर से ही खोजा जा सकता है। उपरोक्त सबद् (पद्य) को ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने अपने मुखारविंद से ग्राम धलेवां में उच्चारित किया था।

वर्तमान समय में इस स्थान पर ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ की स्मृति में भव्य गुरुद्वारा साहिब पातशाही नौवीं सुशोभित है।

प्रसंग क्रमांक 79: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी अपनी धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा के समय ग्राम समाउ एवं ग्राम कनकवाल का इतिहास।

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