इस प्रस्तुत श्रृंखला के प्रसंग क्रमांक 64 के अंतर्गत ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ग्राम धमतान नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस पूरे इतिहास से संगत (पाठकों) को अवगत कराया जाएगा।
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपने धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा हेतु ग्राम महासिंह वाला से चलकर हरियाणा राज्य के नगर धमतान साहिब में पहुंचे थे। इस स्थान पर गुरु पातशाह जी अपनी जीवन यात्रा में दो बार पधारे थे। कुछ साहित्यिक स्त्रोत अनुसार गुरु पातशाह जी खेमकरण, भाई की डरोली और साबो की तलवंडी से चलकर सन् 1665 ई. को बैसाखी दिवस पर आप जी धमतान साहिब नामक स्थान पर पधारे थे। दूसरे समय आप जी नवंबर महीने के दिवाली दिवस पर इस धमतान नगर में आए थे। इस तरह से गुरु पातशाह जी ने दो बार अपने चरण कमलों से इस धरती को पवित्र किया था।
गुरु पातशाह जी के धमतान नगर पहुंचने के लिए विद्वानों की अलग-अलग राय है। श्रृंखला के रचयिता का सभी विद्वानों और साहित्यकारों से निवेदन है कि ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने जो सुबा पंजाब की इस मालवा की धरती पर प्रचार-प्रसार किया था उन सभी मार्गों पर एवं स्थानों पर एकमत से इन मार्गों के नक्शे को तैयार करने की आवश्यकता है। ताकि इतिहास में इस संबंध में जिन उलझनों का आम पाठकों को सामना करना पड़ता है वह सभी उलझने दूर हो सके। इस विषय के इतिहास के संबंध में बहुत अधिक मेहनत करने की आवश्यकता है। पंथ के विद्वानों ने इस संबंध में मिल बैठकर सर्वमान्य हल को निकालने की आवश्यकता है। इस श्रृंखला के रचयिता को स्रोतों से एवं इतिहास से जो जानकारियां उपलब्ध हुई है उन जानकारियों को समक्ष रखकर प्राप्त जानकारियों अनुसार इस स्वर्णिम इतिहास को पुनः एक बार सही-सटीक और शुद्ध लिखने का प्रयास किया जा रहा है।
जब हम इस धमतान के इतिहास को दृष्टिक्षेप करें तो जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ इस स्थान पर पहुंचकर इस स्थान को सिख धर्म प्रचार-प्रसार का प्रमुख केंद्र के रूप में गुरु जी, इस स्थान को निरूपित करना चाहते थे। गुरु जी इस स्थान पर निवास कर सिख जत्थेबंदी भी कायम करना चाहते थे। इस इलाके के चौधरी भाई दगो जी ने गुरु पातशाह जी को अपनी सेवाएं अर्पित की थी।
गुरु जी ने भाई दगो जी को बुलाकर इस इलाके में सिख धर्म को प्रचारित-प्रसारित कर, प्रफुल्लित करने हेतु कुछ धन भी प्रदान किया था। साथ ही गुरु जी ने इस उपलब्ध धन से बगीचे, कुएं और यात्रियों के रहने के लिए सराय बनाने की जरूरत पर जोर दिया था। जिस से इस इलाके के निवासियों को सभी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध हो जाएगी। इस स्थान पर बगीचे कुएं और सराय बनाने हेतु गुरु पातशाह जी ने भाई दगो जी को आवश्यकता अनुसार धन प्रदान किया था। वर्तमान समय में हम उस दिये हुये धन का अनुमान भी नहीं लगा सकते हैं।
इस संपूर्ण कार्य को अंजाम देने हेतु गुरु पातशाह जी ने जरूरत के अनुसार सारा धन भाई दगो जी के सुपुर्द कर दिया था। गुरु पातशाह जी से प्राप्त इस धन के कारण भाई दगो जी के मन में लालच उत्पन्न हो गया था। क्योंकि–
पापु बुरा पापी कउ पिआरा॥ (अंग क्रमांक 935)
अर्थात् जो पापी इंसान होता है जिस के दिल में पाप होता है उसे पापी ही प्यारा लगता है।
गुरु जी ने यह भी वचन किए हैं कि–
लोभी का वेसाहु न कीजै जे का पारि वसाइ॥ (अंग क्रमांक 1417)
अर्थात जो लोभी लोग हैं उन पर कभी भी भरोसा मत करो। कुछ कह नहीं सकते लोभी व्यक्ति तो गुरु के साथ भी धोखा कर जाते हैं। यह वह लोग हैं जो ईश्वर को बेचकर खा जाते हैं। इस भाई दगो ने कुएं, बगीचे और सराय बनाने के लिए जमीन तो ले ली परंतु वह सारी जमीन स्वयं के व्यक्तिगत नाम पर करवा ली थी। साथ ही सारा धन स्वयं के पास रख लिया था।
जब गुरु तेग बहादुर साहिब जी पुनः इस स्थान पर पधारे और जब गुरु जी को ज्ञात हुआ कि भाई दगो जी ने दगा करके पैसा स्वयं के पास रख लिया है। गुरु जी ने इस भाई दगो जी को पुनः प्यार से समझाया कि तेरी बहुत बड़ी गलती है। हमने तुम्हें जो धन लोक-कल्याण हेतु दिया था वह संपूर्ण धन पर तुम ने कब्जा कर लिया है। दगो जी ने गलती को मान कर कहा कि इस समय मेरे पास कोई धन नहीं है। गुरु जी ने वचन किए जो जमीन-जायदाद तुमने अपने नाम की है और सारा धन स्वयं ही पर लगा दिया है। गुरु जी ने फिर वचन कर कहा था कि इस बेईमानी की जमीन पर गलती से तंबाकू की खेती मत करना।
इस भाई दगो जी ने दोबारा गलती कर जमीन में तंबाकू की खेती करना प्रारंभ कर दिया था। सच जानना वर्तमान समय में भाई दगो जी की जमीन बंजर हो गई है। उस पर अक अर्थात आक/ मंदार (CALOTROPIS GIGANTEA) की झाड़ियां लगी हुई है। जो गुरु से धोखा करता है वह कभी बख्शा नहीं जा सकता। उस व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतना ही पड़ता है। यदि दूसरी और देखें तो जो गुरु घर की सेवा करता है उसे भी निश्चित ही उत्तम फल की प्राप्ति होती है। गुरु के वचन है–
पतित पावनु हरि बिरदु सदाए इकु तिल नही भंनै घाले॥
(अंग क्रमांक 784)
अर्थात पतितों को पावन करना उसका वर कहलाता है, तुम्हारे द्वारा एक तिल के बराबर भी गुरु घर की, की हुई सेवा व्यर्थ नहीं जाती है। गुरु घर में की गई सेवाओं का निश्चित ही परमार्थ प्राप्त होता है। गुरु घर में की गई सेवाओं से निश्चित ही बक्शीश प्राप्त होती है।