इस प्रस्तुत श्रृंखला के प्रसंग क्रमांक 61 में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ अपनी धर्म प्रचार-प्रसार यात्रा के अंतर्गत ग्राम घरांचों, ग्राम नागरे एवं ग्राम टल घनोड़ नामक स्थान पर पहुंचे थे। इस पूरे इतिहास से संगत को इस प्रसंग के अंतर्गत अवगत करवाया जाएगा।
इस श्रृंखला के पिछले प्रसंगों में इतिहास के उन प्रसंगों का जिक्र किया गया था। जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ग्राम काकंडा़ में पहुंचे थे। इस ग्राम में स्थानीय निवासी दीवान टोडरमल ने समर्पण भाव से आपकी सेवा की थी। दीवान टोडरमल है वह ही है, जिसने माता गुजरी और छोटे साहिबजादों का स्वयं के हाथों से अंतिम संस्कार किया था।
इस श्रृंखला के रचयिता सरदार भगवान सिंह जी ‘खोजी’ ने संगत (पाठकों) से निवेदन किया है कि इस श्रृंखला के पूर्ण होने के पश्चात इस श्रृंखला को रचित करने वाली समस्त टीम बहुत शीघ्र ही जिस तरह से प्रत्यक्ष गुरु के धामों और गुरु के स्थानों पर जाकर इतिहास की महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान कर रही है। ठीक उसी तरह श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी महाराज के प्रकाश से लेकर अबचल नगर श्री हजूर साहिब नांदेड़ तक अर्थात गुरु जी के ज्योति-ज्योत समाने तक का संपूर्ण इतिहास, जिसमें उन्होंने अकेले ही 14 युद्ध कैसे लड़े थे? कैसे ‘गुरु पंथ खालसा’ की सृजना हुई थी? इस संपूर्ण इतिहास को श्रृंखला के रूप में संगत (पाठकों) के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। यह इतिहास इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भाई दीवान टोडरमल जैसे अनेक गुरु जी के भक्त इतिहास में हुए हैं। जिन्होंने अपना तन-मन-धन और सर्वस्य गुरु चरणों में अर्पित किया था। ऐसे सारे गुरु के भक्तों के इतिहास को खोज कर संगत (पाठकों) के सम्मुख प्रस्तुत करने का अभिनव प्रयास सफर-ए-पातशाही नौवीं श्रृंखला को रचित करने वाले सरदार भगवान सिंह जी ‘खोजी’ और उनकी टीम के द्वारा किया जाएगा।
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने जब ग्राम फगूवाला में अपना निवास रखा हुआ था तो उस समय ग्राम घरांचों से कुछ संगत ने गुरु जी से निवेदन किया था कि गुरु पातशाह जी हम बहुत मजबूर हैं। हमारे निवेदन को आप जरूर सुने और हमारी मदद करों।
गुरु जी स्थानीय ग्रामीणों के निवेदन अनुसार ग्राम घरांचों में पहुंच गए थे। स्थानीय निवासियों ने गुरु जी की बहुत सेवा की थी। साथ ही आपके निवास के समुचित भी प्रबंध किए गए थे। स्थानीय सेवादार भाई देसों जी ने गुरु जी के साथ ही सभी संगत के रहने की उत्तम व्यवस्था की थी। इस स्थान पर डेरा स्थापित कर दीवान सजाए गए थे। शाम को भाई नत्थू रबाबी के द्वारा दीवान में कीर्तन की हाजिरी लगाई गई थी। आसपास के इलाकों की संगत भी जुड़ना प्रारंभ हो गई थी।
उस समय स्थानीय सेवादार भाई देसों जी ने समस्त संगत के साथ उपस्थित होकर निवेदन किया कि गुरु पातशाह जी जब ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ इस इलाके में पधारे थे तो हमने उस समय ही उनसे सिखी की दात प्राप्त कर सिख सज गए थे। ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ इस इलाके में आए थे इसलिए उनकी स्मृति में इस इलाके में गुरद्वारा अकोई साहिब और ग्राम कांजले में भी गुरु जी की स्मृति में भव्य गुरद्वारा साहिब भी सुशोभित है। इस पवित्र धरती पर छठी पातशाही ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ भी पधारे थे। और उनकी स्मृति में भी ग्राम कांजले में गुरुद्वारा साहिब जी सुशोभित है।
भाई देसों जी ने निवेदन किया कि गुरु पातशाह जी ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ से लेकर छठे गुरु पातशाही तक और तब से अभी तक हम सभी स्थानीय ग्रामवासी सिखी को धारण करने वाले पक्के सिख हैं। हम कीर्तन करते हैं और गुरु की संगत को एकजुट कर एकत्र करते हैं परंतु इस स्थान के कुछ मनमती लोग जिन्हें सुल्तानी कहकर संबोधित किया जाता है। यह वह लोग हैं जो सुल्तान की पूजा करते हैं। कब्रों को मानते हैं। वह हमें हमारी धार्मिक गतिविधियों को करने के लिए हमेशा रोकते हैं। सिख धर्म का प्रचार और कीर्तन करने पर भी प्रतिबंध लगाते हैं। इस कारण से हम स्थानीय संगत बहुत दुखी हैं।
‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने सभी स्थानीय संगत को समीप बुलाकर भाई देसों जी के सर पर अपना मेहर भरा हाथ रखा और वचन किया—
भै काहू कउ देत नहि,नहि भै मानत आन॥
(अंग क्रमांक 1429)
अर्थात ना डरो और ना डराओ! सारी संगत एकजुट होकर जत्थेबंदी लामबंद करो। जब तक जत्थे बंदी के रूप में आप लोग एक सूत्र में नहीं बंध जाओगे, तब तक एकता नहीं होगी एवं तब तक आजाद होकर नहीं चल सकोगे।
उस समय ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने इस ग्राम में स्वयं के कर-कमलों से निशान साहिब (सिख धर्म का ध्वज) को इस स्थान पर स्थापित कर दिया था। सुबा पंजाब के इस मालवा प्रांत का यह ऐसा प्रथम ग्राम था। जहां पर गुरु जी ने निशान साहिब स्थापित कर एकत्र होने का संदेश स्थानीय संगत को दिया था। साथ ही वचन किए कि यदि तुम्हें कोई तंग करता है या प्रभु-परमेश्वर की बंदगी से रोकता है या कीर्तन नहीं करने देता है तो फिर पीरी की कृपाण के स्थान पर मीरी की कृपाण को उठाना भी जायज है। तो ही इन मनमती लोगों के मुंह बंद होंगे।
विचार करने योग्य बात यह है कि श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी भविष्य के लिए सबसे बड़ी जत्थेबंदी को कायम कर रहे थे। गुरु जी के वचनों का पालन करते हुए स्थानिय सिखों ने अपनी जत्थेबंदी को कायम की थी। भाई देसों जी ने आसपास के इलाके भरपूर सिक्खी का प्रचार-प्रसार किया साथ ही गुरु पातशाह जी के वचनों को प्रचारित-प्रसारित कर मजबूत जत्थेबंदी का निर्माण किया था।
इसके पश्चात गुरु पातशाह जी सहपरिवार और साथी सिखों के साथ ग्राम नागरें की और प्रस्थान कर गए थे। इस ग्राम नागरें में भी गुरु जी की स्मृति में भव्य गुरुद्वारा साहिब जी सुशोभित है। इस स्थान के पश्चात गुरु जी ग्राम टल घनोड़ नामक स्थान पर गए थे। इस ग्राम का नाम टल घनोड़ क्यों है? इसका भी अभूतपूर्व इतिहास है। वैसे तो इस ग्राम का नाम घनोड़ है परंतु पुरातन समय में इस ग्राम के ऊपर दुश्मनों की और से अचानक आक्रमण किया जाता था। इस कारण स्थानीय ग्रामवासियों ने इस ग्राम के बाहर की और एक बड़ा टल (घंटा) बांध दिया था। जब भी कोई दुश्मन आक्रमण करता था तो इस घंटे को बजा दिया जाता था। जिससे ग्रामवासी सचेत हो जाते थे। इस कारण से इस ग्राम को टल घनोड़ के नाम से जाना जाता है। वर्तमान समय में इस स्थान पर गुरु जी की स्मृति में भव्य गुरुद्वारा साहिब जी सुशोभित है एवं इस गुरुद्वारे की परिक्रमा में एक पुरातन वृक्ष भी मौजूद है। इस पवित्र धरती को ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’, ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ और ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने अपने चरण-चिन्हों से पवित्र किया है। पहले दो गुरुओं ने इस स्थान पर सिखी का बूटा रोपित किया था परंतु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने स्थानीय संगत को एकत्र कर जत्थेबंदी का निर्माण किया था एवं (लामबंद) एकजुट कर संगत को नाम-वाणी से जुड़ा था। ताकि भविष्य में सिख संगत अपनी आजादी के हक को ले सकें।