प्रसंग क्रमांक 4: सिख धर्म की प्रथम लेखिका: बीबी रूप कौर जी
(सफ़र-ए-पातशाही नौंवीं — शहीदी मार्ग यात्रा)
संगत जी, वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!
1. श्री आनंदपुर साहिब से कीरतपुर साहिब तक : दिव्यता से भरपूर सफर
प्रसंग क्रमांक 3 में हमने जाना था कि 25 मई 1675 ई. को कश्मीरी पंडित अपना दुःख लेकर गुरुद्वारा थड़ा साहिब, चक नानकी में श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के चरणों में पहुँचे थे। उसी स्थान पर गुरु साहिब जी ने उनकी व्यथा सुनी, उन्हें सांत्वना दी और धर्म तथा मानवता की रक्षा के लिए अपने जीवन का समर्पण करने का निर्णय लिया।
आज से 47 दिन बाद, गुरु साहिब जी उसी स्थान से अपने ऐतिहासिक शहादत-मार्ग पर प्रस्थान करते हैं। हमारी यात्रा भी उसी पावन तल से आरंभ होती है-
गुरुद्वारा थड़ा साहिब → गुरुद्वारा शीशगंज साहिब के दर्शन → मुख्य द्वार → सड़क से सटी नहर का किनारा → कीरतपुर साहिब शहर।
पार्श्व-गायन: “समय की धूल हटाती-सी एक मार्मिक धुन, मन में वह इतिहास जगा देती है जिसमें गुरु साहिब के पावन कदमों की आहट आज भी सुनाई देती है…”
2. कीरतपुर साहिब : जहां इतिहास सांस लेता है
11 जुलाई 1675 ई. धन्य-धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी इसी पवित्र स्थान कीरतपुर साहिब पहुँचे थे। यह वो ही धरा है जहाँ छठे पातशाह श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने अपने सुपुत्र बाबा गुरदित्त्ता जी को एक नया नगर बसाने के लिए भेजा था। सबसे पहले बाबा गुरदित्ता जी ने इसी स्थान पर विश्राम किया, इस स्थान पर ही उनके द्वारा इस भूमि को क्रय करने की चर्चा हुई और यहीं से कीरतपुर साहिब नगर की आधारशिला रची गई। आज यही स्थान गुरुद्वारा मंजी साहिब के रूप में सुशोभित है।
3. गुरुद्वारा मंजी साहिब : बीबी वीरो जी और बीबी रूप कौर की विरासत
गुरुद्वारे के हेड-ग्रंथि से प्राप्त जानकारी के अनुसार- यह स्थल मिरी-पीरी के मालिक श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी की सुपुत्री बीबी वीरो जी तथा सातवें पातशाह श्री गुरु हर राय साहिब जी की सुपुत्री बीबी रूप कौर जी से संबंधित है। यहाँ अनेक पुरातन निशानियां आज भी उनकी तपस्या और सेवा की गवाही देती हैं। यही वह पावन स्थान है जहाँ—
- बाबा गुरदित्ता जी ने निवास किया,
- कीरतपुर नगर बसाने की योजना बनी,
- और आगे चलकर श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी, अपने पूर्वजों की स्मृति में नतमस्तक होकर, दिल्ली-प्रस्थान से पहले यहाँ पहुँचे।
पार्श्व-गायन: “इतिहास की परतें खुलती जाती हैं… और मन गुरु चरित्र की महिमा में डूबता जाता है…”
4. सिख धर्म की प्रथम लेखिका – बीबी रूप कौर जी
संगत जी, इस पावन स्थल पर खड़े होकर एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान देना आवश्यक है जिसे आज भी बहुत कम संगत जानती है-
बीबी रूप कौर जी सिख धर्म की प्रथम महिला लेखिका थीं।
बीबी रुप कौर सातवें पातशाह श्री गुरु हर राय साहिब जी की सुपुत्री थीं। उन्हें गुरु पातशाह जी ने गोद लिया था- एक पुत्री के रूप में, एक सेविका के रूप में, और एक साधिका के रूप में। उन्होंने श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी की पवित्र संगत में रहकर “गुरु की सखियाँ” अर्थात आध्यात्मिक-ऐतिहासिक प्रसंग लिखे।
यह तथ्य सिख इतिहास की अमूल्य धरोहर है- कि सिख धर्म की पहली महिला साहित्यकार / लेखिका, बीबी रूप कौर जी का संपूर्ण जीवन इस स्थान पर व्यतीत हुआ था।
5. स्मृतियाँ, चरण-चिह्न और गुरु साहिब की आशीष-
गुरुद्वारा मंजी साहिब के सामने खड़े होकर ऐसा प्रतीत होता है मानो—
- छठे पातशाह का तेज,
- सातवें पातशाह की करुणा,
- और नौवें पातशाह की शहादत का दिव्य उच्चार इस परिवेश में आज भी गूंज रहा है।
यह वही स्थान है जहाँ कभी श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी का निवास रहा करता था। उनके चरणों की पवित्र गंध आज भी कीरतपुर की मिट्टी में बसती है और संगत को नतमस्तक कर देती है।
6. इस प्रसंग का सार
सफ़र-ए-पातशाही नौंवीं की इस चौथी कड़ी में हमने- चक ननकी के थड़ा साहिब से लेकर, कीरतपुर के गुरुद्वारा मंजी साहिब तक, गुरु तेग बहादुर साहिब जी के कदमों के निशान और सिख धर्म की प्रथम लेखिका बीबी रूप कौर जी की अमूल्य विरासत इन सबका पवित्र साक्षात्कार किया।
कीरतपुर साहिब की इस पावन धरा पर इतिहास के ऐसे अध्याय अंकित हैं, जिनकी महिमा सदियों बाद भी उतनी ही उज्ज्वल दिखाई देती है। यही वह स्थान है जहाँ षष्टम पातशाह धन्य–धन्य श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी– अकाल बुंगे, अमृतसर से प्रस्थान कर, करतारपुर की जंग लड़ने के पश्चात पधारे थे।
गुरु साहिब जी की यह रणनीतिक उपस्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण थी। जंग समाप्त होने के बाद वह तुरंत इस स्थान पर आए, ताकि शत्रुओं के मन में यह भ्रम न हो जाए कि- “श्री गुरु हरगोबिंद साहिब शांत हो गए हैं या युद्ध से पीछे हट गए हैं।” बल्कि उनकी यह यात्रा इस बात का दिव्य संदेश थी कि सच का मार्ग और न्याय का संघर्ष निरंतर है, अविचल है।
मीरी–पीरी तख़्त की स्थापना – इतिहास का वह गहरा मोड़
कीरतपुर साहिब में वही ऐतिहासिक तख़्त सुशोभित है, जिसकी चर्चा पवित्र साइन बोर्ड और पुरातन तख्तियों में मिलती है। जब हम कवि संतोख सिंह जी (लेखक — श्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ) के ग्रंथ पढ़ते हैं, तो वह स्पष्ट लिखते हैं—“षष्ठम पातशाह श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने मीरी–पीरी के तख़्त की स्थापना की।” इसी कारण हम आज भी उन्हें अत्यंत श्रद्धा के साथ “मीरी–पीरी दे मालिक, श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी” कहकर संबोधित करते हैं। किन्तु एक अद्भुत तथ्य यह भी है कि- गुरु साहिब जी ने इसी स्थल पर पीरी–मीरी नामक तख़्त की स्थापना की थी।
इस तख़्त पर विराजमान होकर:
- गुरु हरगोबिंद साहिब जी लगातार 11 वर्षों तक संगत को दिव्य उपदेश देते रहे।
- यही से हुक्मनामे एवं फरमान संगत तक पहुँचते थे।
- यही पर धर्म–राजनीतिक न्याय और सुरक्षा से जुड़े निर्णय लिए जाते थे।
इसी तख़्त पर:
- सातवें पातशाह धन्य श्री गुरु हर राय साहिब जी विराजमान रहे और संगत के निर्णय किए।
- इसी तख़्त पर आठवें पातशाह श्री गुरु हरकिशन साहिब जी ने लगातार दो वर्षों तक दीवान सजाए और हुक्मनामे जारी किए। यह धरा केवल एक ऐतिहासिक स्थल नहीं- गुरु परंपरा का जीवंत साक्ष्य है।
जब कीरतपुर नगर बसाया जा रहा था, उस समय इसी पवित्र स्थल पर श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का निवास हुआ करता था। आप जिस ड्योढ़ी के सामने खड़े होकर दर्शन करते हैं, वह उसी समय की स्मृति है- जहाँ से होकर गुरु साहिब जी का आगमन और प्रस्थान नित्य होता था। इस ड्योढ़ी को पार करते ही जिस स्थान के दर्शन आपको होते हैं, वहाँ पहले एक प्राचीन गुरुद्वारा साहिब सुशोभित था। समय के प्रवाह में आज वहाँ छोटी मंजी साहिब – गुरुद्वारा दमदमा साहिब के रूप में एक पवित्र स्मारक विद्यमान है। पास ही ऊँचे निशान साहिब हवा में झूमते हुए गुरु-राज का अखंड संदेश दे रहे हैं। इसी स्थान पर सातवें पातशाह श्री गुरु हर राय साहिब जी पावन दीवान सजाते थे।
पार्श्व गायन: (गुरबाणी-रस में डूबी हुई मंद, कोमल तान—मन को पूर्णतः नतमस्तक कर देती है…)
गुरुद्वारा शीश महल साहिब — दो पातशाहों का प्रकाश-स्थल
अब हम दर्शन करते हैं- गुरुद्वारा शीश महल साहिब जिसे बाबा गुरदित्ता जी का निवास-स्थान भी कहा जाता है। यही वह पवित्र स्थान है जहाँ—
सातवें पातशाह धन्य–धन्य श्री गुरु हर राय साहिब जी का प्रकाश हुआ और आठवें पातशाह धन्य–धन्य श्री गुरु हरकिशन साहिब जी का भी प्रकाश हुआ।
जिस प्रकार गुरु-गद्दी के तिलक स्थानों का महत्व असाधारण होता है, उसी प्रकार इन दोनों पातशाहियों के जन्म-स्थल भी आज सिख इतिहास की अमूल्य धरोहर के रूप में सुशोभित हैं।
पार्श्व-गायन: (धीमी तानों में तपस्या और यात्रा का निचोड़ छिपा है—स्वर आगे बढ़ते कदमों जैसे…)
कीरतपुर की धरा पर गुरु-परंपरा का अखंड प्रकाश
कीरतपुर साहिब का यह पूरा परिक्षेत्र सिख इतिहास के तीन महान कालों का संगम है-
- षष्ठम पातशाह – सर्वोच्च साहस और न्याय
- सातवें पातशाह – करुणा, सेवा और प्रकृति-प्रेम
- आठवें पातशाह – निर्मलता, शांति और दया और इसी धरा पर नौवें पातशाह का
चरण-स्पर्श और निवास भी अंकित है।
यात्रा का यह पड़ाव केवल एक कथा नहीं- गुरु-परंपरा की शौर्य-गाथा, इतिहास की धड़कन, और आत्मा को छू लेने वाली विरासत है।
मेरे पीछे सुशोभित यह दिव्य स्थान- सातवें पातशाह धन्य–धन्य श्री गुरु हर राय साहिब जी का पावन निवास है। इसी दरबार की छाया में, इसी धरा पर गुरु-कृपा के अनेक अध्याय अंकित हैं।
नौलखा बाग : सातवें पातशाह की करुणा का सजीव प्रतीक
जब गुरु हर राय साहिब जी का निवास कीरतपुर में था, तब आपने यहाँ नौलखा बाग स्थापित किया था- एक ऐसा सुमंगल उपवन, जिसकी सुगंध दूर-दूर तक गुरु-सेवा, गुरु-प्रेम और प्रकृति-संरक्षण की मिसाल बन गई।
ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, केवल यही उपवन नहीं था, इस स्थान पर आप जी के निर्देशन में 52 विशाल बाग लगाए गए थे। प्रत्येक बाग में औषधि, फल, फूल और प्राकृतिक वनस्पतियां संजोई गई थीं।
दारा शिकोह का उपचार – गुरु-वैद्य परंपरा की अनूठी मिसाल
इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना भी इसी स्थान से जुड़ी है। शाहजहाँ का पुत्र दारा शिकोह अत्यंत बीमार पड़ गया था। कहा जाता है कि- किसी ने छल से शेर की मूँछ का बाल उसे खिला दिया था, जिसका उपचार कोई भी वैद्य, हकीम या राज-चिकित्सक नहीं कर सका। आख़िर उसे सुझाव मिला- “यदि कहीं उपचार संभव है, तो केवल सातवें पातशाह श्री गुरु हर राय साहिब जी के दवाखाने में।”
दारा शिकोह जब कीरतपुर पहुँचा, उस समय गुरु पातशाह जी इसी तख़्त पर विराजमान थे। यहाँ एक निःशुल्क दवाखाना था, जहाँ कौड़ियों का भी बिना मूल्य उपचार किया जाता था। मानव ही नहीं- बीमार पशुओं और पक्षियों के लिए भी यहाँ एक छोटा-सा चिड़ियाघर और औषधालय बना था, जहाँ घायल पक्षियों को उपचार मिलता, उन्हें पुनः उड़ान मिलती। दारा शिकोह का उपचार इसी दिव्य दवाखाने में सफलतापूर्वक संपन्न हुआ।
आज का नौलखा बाग – इतिहास और वर्तमान का अंतर
संगत जी माफ़ करना- जहाँ कभी यह बाग औषधियों, जीवन और दया से भरा था, आज वहाँ केवल कुछ बूटे ही दिखाई देते हैं। जो स्थान कभी गुरु-पातशाह की प्राकृतिक औषधियों का केंद्र हुआ करता था, वहाँ आज साधारण सिरदर्द की भी दवा उपलब्ध नहीं। संगत जी…इतिहास कुछ और था, वर्तमान कुछ और है। सातवें पातशाह की स्मृति में पूरे विश्व में बड़े-बड़े दवाखाने होने चाहिए थे, जहाँ से निःशुल्क दवाइयाँ दी जातीं। परंतु समय ने परिस्थितियों को बदल दिया है।
गुरु तेग बहादुर साहिब जी – शहादत-प्रस्थान की प्रथम वेला (11 जुलाई 1675 ई.)
यही वह पावन स्थान है जहाँ 11 जुलाई 1675 ई. को श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी दिल्ली की ओर शीश देने के लिए प्रस्थान करते समय अपने परिवार और संगत से मिले थे। गुरु साहिब ने यहाँ वचन किया- “अब मेरे पीछे कोई नहीं आएगा।” यही वेला धर्म की रक्षा के लिए आत्म-शहादत के
महानतम अध्याय का प्रथम पृष्ठ था।
गुरुद्वारा पातालपुरी : छठे पातशाह की अंतिम स्मृति-स्थली
कीरतपुर से आगे बढ़ते हुए हम दर्शन करते हैं गुरुद्वारा पातालपुरी साहिब के, जहाँ षष्टम पातशाह श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी का अंतिम संस्कार हुआ था यह वही पवित्र धरा है जहाँ गुरु तेग बहादुर साहिब जी भी 11 जुलाई 1675 ई. को नतमस्तक हुए थे।
संपूर्ण विश्व से सिख अपने स्वजनों के अंतिम संस्कार के फूल आज भी यहाँ प्रवाहित करते हैं, यह स्थान मोक्ष, शांति और स्मृति का अखंड केंद्र है।
124 दिवसीय शहादत-मार्ग और कीरतपुर का महत्व
11 जुलाई 1675 ई. — 11 नवंबर 1675 ई. इन 124 दिनों में गुरु साहिब ने वह शहादत लिखी जिसने मानवता का भविष्य बदल दिया। गुरु साहिब का पवित्र शीश शहादत के पश्चात पुनः कीरतपुर साहिब लाया गया था- किस स्थान पर आया था? यह हम वापसी मार्ग में जानेंगे।
गुरुद्वारा जो चौबच्चा (प्राकृतिक झरना) साहिब
अब हम पहुँचते हैं उस स्थान पर जहाँ सातवें पातशाह का दरबार लगा करता था। यहाँ प्राकृतिक झरने (चश्मे) हैं- जिनका पानी गुरु साहिब के 2200 घुड़सवारों के घोड़ों की प्यास बुझाता था। आज पानी के वह झरने छोटे हो चुके हैं, परंतु इतिहास आज भी जीवित है।
यात्रियों के लिए संदेश
जब भी संगत जी कीरतपुर साहिब आए, तो नहर के पार स्थित ड्योढ़ी में प्रवेश करते ही गुरुद्वारा साहिब के दर्शनों का अद्भुत सौभाग्य प्राप्त होता है। यही वह धरा है जहाँ 11 जुलाई 1675 ई. को श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी भविष्य की यात्रा के लिए निकल पड़े थे।
आगे की यात्रा
अब प्रश्न यह है- धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी कीरतपुर से आगे किस स्थान की ओर गए थे? उसका इतिहास हम शहीदी मार्ग यात्रा — प्रसंग क्रमांक 5 में जानेंगे।
खोज–विचार टीम का प्रण
टीम खोज–विचार और चढ़दी कला टाइम टीवी
आपको—
- ऐतिहासिक गुरु धामों,
- प्रामाणिक स्रोतों,
- भूले-बिसरे स्थलों,
- और पवित्र गुरु-इतिहास से जोड़ते रहने का प्रण निभाते रहेंगे।
आपका अपना वीर- इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’
वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!
पार्श्व गायन: (धीमी, स्पर्श करती हुई धुन— मानो स्वयं धरती गुरु-स्मरण में राग छेड़ रही हो।)