श्रृंखला क्रमांक 3: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का हिंदू धर्म-रक्षा हेतु शहादत का प्रण

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श्रृंखला क्रमांक 3: श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का हिंदू धर्म-रक्षा हेतु शहादत का प्रण


(सफ़र-ए-पातशाही नौंवीं- शहीदी मार्ग यात्रा)


संगत जी, वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!

शहीदी मार्ग यात्रा की श्रृंखला क्रमांक 2 का इतिहास पढ़ने के पश्चात यह संदेह निश्चय ही दूर हो गया होगा कि जिन्हें हम सदियों से “पंडित कृपाराम” कहकर पुकारते आए, वह वास्तव में पंडित नहीं, वरन् गुरसिख भाई कृपाराम थे।
भट्ट-वईंया और ऐतिहासिक ग्रंथों से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि-

“भाई किरपा राम बेटा अडू राम का पोता, नरैण दास का पड़पोता ब्रह्मदास का, बंस नानक दास की, दत्त गोतर मुंझाल ब्राह्मण, वासी मटन, देश कशमीर, संबत्त सतरा सौ बत्तीस, जेठ मासे सुदी इकादशी के दिहुँ, खोड़म ब्राह्मणों को गौल लै, चक नानकी, परगणा कहिलूर, गुरु तेग बहादर जी महल नावां के दरबार आइ फरियादी हुआ। गुरु जी ने इन्हें धीरज दई, बचन होआ, तुसां की रखिआ बाबा नानक करेगा”। (भट्ट मुलतानी सिंधी)

इसी इतिहास से ज्ञात होता है कि यह वही कृपाराम जी थे, जिनका जन्म भाई अडूराम जी और बीबी सरस्वती जी के पावन गृह में हुआ। आगे चलकर यही गुरूसिख, धन्य-धन्य श्री गुरु गोविंद सिंघ साहिब जी के शिक्षा-गुरु बने। चक नानकी से लेकर चमकौर की गढ़ी तक, उन्होंने अपनी सेवाधर्मिता, निष्ठा और वीरता से अमर नाम कमाया और अंततः युद्धभूमि में शहीद होकर इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों में अंकित हो गए।

जब 16-सदस्यीय शिष्टमंडल दरबार में प्रस्तुत हुआ…

कश्मीर के 16 सदस्यीय ब्राह्मण-शिष्टमंडल, जिसका नेतृत्व भाई कृपाराम कर रहे थे, श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के समक्ष उपस्थित हुआ। उनकी विनती थी—“हे सच्चे पातशाह!


हमारा डूबता धर्म बचाओ, बेड़ी बन्ने लाओ| -उद्धार करो।”

मुगल सत्ता के अत्याचारों ने उस समय हिंदू धर्म पर संकट की काली परछाइयाँ फैला दी थीं। मंदिरों के दीए बुझ रहे थे, धर्म-स्थल उजड़ रहे थे, और हजारों स्त्रियों-बच्चों का भविष्य अंधकार में डूब रहा था।

गुरु पातशाह ने गंभीर करुणा से उत्तर दिया— “गुरमुखो, यदि तुम्हारे धर्म में कोई संत, महापुरुष, नाम-जपने वाला, कुर्बानी देने को तैयार हो, तो धर्म की रक्षा हो सकती है।”

शिष्टमंडल ने हाथ जोड़कर कहा- “पातशाह जी, हम समूचे भारतवर्ष से मिलकर आए हैं। आज इस भूमि पर ऐसा कोई नहीं जो अपने प्राण न्यौछावर करने को तत्पर हो। आप ही कृपा करो…”

गोविंद राय जी की दिव्य संवेदना

यह ऐतिहासिक क्षण गुरु साहिब जी के बगल में बैठे उनके सुपुत्र गोविंद राय (भविष्य के गुरु गोविंद सिंह) भी सुन रहे थे। उनकी आयु उस समय केवल 9 वर्ष थी—पर हृदय वाणी की गहराई से भरा हुआ। उन्होंने मासूम पर अत्यंत गंभीर स्वर में प्रश्न किया-

  • “पिताजी, क्या एक शीश देने से हिंदू धर्म बच सकता है?”
  • “क्या एक शीश देने से मंदिरों के दीए जलते रह सकते हैं?”
  • “क्या एक शीश देने से लाखों बच्चे अनाथ होने से बच सकते हैं?”
  • “क्या इससे हिनदूओं की बोधियाँ सुरक्षित रह सकती हैं?”

गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने कहा—“हाँ पुत्र।”

तभी नन्हे गोविंद राय जी दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए- उनकी वाणी, भाव में सौदा-ए-धर्म की अद्भुत ज्योति धधक रही थी- “पिताजी, आज तक मैंने आपसे कभी कुछ नहीं माँगा।पाँच वर्ष की आयु में प्रथम दर्शन किए- कुछ नहीं माँगा। सात वर्ष की आयु में आनंदपुर पहुँचा- तब भी कुछ नहीं माँगा। पर आज मैं एक सौदा करना चाहता हूँ। इतिहास में एक सौदा श्री गुरु नानक पातशाह जी ने किया था- बीस बहलोली दिनार का। उसका ब्याज भी आज तक समाप्त नहीं हुआ…

यदि एक शीश देने से हिंदू धर्म बच सकता है, यदि एक शीश देने से माताएँ-विधवा होने से बच सकती हैं, यदि बच्चों की आँखों से अनाथ होने का आँसू पोंछा जा सकता है- तो मैं अनाथ होने को तैयार हूँ। यह शीश कोई और नहीं देगा- यह शीश मेरे पिता, धन्य-धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी अर्पित करेंगे।”

उस क्षण ब्रह्मांड साक्षी था- एक पुत्र अपने पिता को धर्म की रक्षा हेतु समर्पित कर रहा था। यही से शुरू होती है शहादत की वह असीम यात्रा, जिसने मानवता का इतिहास बदल दिया।

पार्श्व गायन: (त्याग, करुणा और शहादत की अनुभूति जगाने वाला गंभीर, मार्मिक संगीत-
जैसे किसी अदृश्य लोक से उठती धीमी, कंपन भरी पुकार…)

इतिहास के पन्नों में अंकित एक क्षण ऐसा है, जो आज भी करोड़ों हृदयों में कंपकंपी भर देता है- 9 वर्षीय गोविंद राय जी का वह अमर वचन, जिसने समूचे हिंदू धर्म की लौ को बुझने नहीं दिया।

गोविंद राय जी की उस दिव्य पुकार को इतिहास यूँ याद करता है—

“ना बात कहूँ अब की,
ना बात कहूँ तब की,
बात कहूँ मैं जब की— 

 अगर न होते गुरु गोविंद सिंह,
तो सुन्नत होती सबकी।”

निस्संदेह, यदि दशमेश पिता का अवतरण न होता, यदि कलगीधर की ज्योति न चमकती, तो यह विशाल देश, यह सनातन धर्म, यह सभ्यता, आज वैसी न होती, जैसी हमें विरासत में मिली है।

कश्मीरी पंडितों को गुरु तेग बहादुर साहिब का आश्वासन

श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने कश्मीरी पंडितों की करुण पुकार सुनकर वह ऐतिहासिक वचन किए, जिसने मुगल सत्ता की नींव हिला दी- “जाकर इफ्तियार खान से कह दो, शेर अफगान से कह दो, अपने गवर्नर से कह दो—

 क्यों शाखों के पत्ते तोड़ रहे हो?
एक बार पेड़ की जड़ पर वार करो!

यदि श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी इस्लाम स्वीकार कर लें- तो पूरा हिंदुस्तान अपना धर्म बदल लेगा।

इतिहास में किसी ने भी अत्याचार के विरुद्ध ऐसा निर्भीक और धर्म-वीरता से भरा संदेश नहीं दिया- जैसा गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने दिया। यही वह क्षण था जब कश्मीरी पंडित पूर्ण आश्वस्त होकर आनंदपुर साहिब से लौट गए। अब वे जान चुके थे—
धर्म की रक्षा के लिए अकाल पुरख ने अपने घर से ही शहादत का प्रकाश भेज दिया है।

गुरु साहिब अपने वचनों पर अडिग रहे

गुरु साहिब ने जो कहा—उसे निभाया। अगले ही दिन उन्होंने अपना पावन शीश धर्म की रक्षा हेतु अर्पित करने के लिए प्रस्थान का निर्णय ले लिया। ऐतिहासिक अभिलेख बताते हैं कि- 25 मई 1675 ई. को कश्मीरी पंडित उनकी शरण में आए थे। यहीं वह स्थान है- जहाँ गुरुद्वारा दमदमा साहिब सुशोभित है- वह स्थान, जहाँ 8 जुलाई 1675 को गोविंद राय जी को गुरु गद्दी पर विराजित किया गया। इस पवित्र रस्म में बाबा बुड्ढा जी के वंश से भाई राम कुँवर जी ने गुरु साहिब को गुरता-गद्दी का तिलक किया।

इसके ठीक 47 दिन बाद, 11 जुलाई 1675 ई., धन्य-धन्य गुरु तेग बहादुर साहिब जी आनंदपुर साहिब से दिल्ली की ओर शहीदी मार्ग पर प्रस्थान कर गए। उस समय उनकी आयु 54 वर्ष थी।

शहीदी-प्रस्थान से पूर्व गुरु साहिब का परिवार से अंतिम मिलाप

11 जुलाई 1675 को प्रस्थान से पहले गुरु साहिब अपने परिवार से भेंट करते हैं। यह दृश्य मानवता के इतिहास में सबसे मार्मिक, सबसे उदात्त, सबसे पवित्र क्षणों में से एक है।

माता नानकी जी से अंतिम संवाद

गुरु साहिब अपनी माता—धन्य माता नानकी जी—की ओर देखते हैं और कहते हैं- “माँ, मैं शीश देने जा रहा हूँ। कोई अंतिम आदेश?”

माता नानकी जी की आँखों में हजार युगों की तपस्या उतर आती है। उन्होंने केवल इतना कहा-

“पुत्र, मैंने आज तक तुम्हें खुलकर हँसते हुए नहीं देखा। मैं तुम्हारा चेहरा हँसता हुआ देखना चाहती हूँ।”

गुरु साहिब ने उत्तर दिया- “माता जी, जब मेरे अंतिम दर्शन होंगे, मेरा चेहरा आपको हँसता हुआ ही मिलेगा।” यह वह मुस्कान थी, जो धर्म की आनंद-लहरी थी। यह वह मुस्कान थी, जो कालजयी चेतना थी।

माता गुजरी जी के वचन

माता गुजरी (गुजर कौर) जी, हाथ जोड़कर, शीश निंवा कर, आँखों में विराट संतोष और अद्वितीय साहस लिए उपस्थित थीं।

उन्होंने कहा- “साँईयां, जैसे आपकी निभी है, वैसे ही मेरी भी निभ जाए। मुझे भी शहीदी के मार्ग पर चलने का बल देना। सच जानना- माता गुजरी जैसी माता इस धरती ने नहीं देखी।” और सचमुच-यह वचन सत्य हुआ। माता गुजरी जी ने भी आगे चलकर शहादत का जाम पिया। इतिहास में ऐसी माता विरले ही हुई हैं।

पिता-पुत्र का अंतिम आलिंगन

अंत में 9 वर्षीय गोविंद राय जी अपने पिता से गले मिलते हैं। यह वह दृश्य है जहाँ आकाश भी रोया, पृथ्वी भी थरथराई- क्योंकि यह एक साधारण पिता-पुत्र का मिलन नहीं था। यह था- धरम की रक्षा हेतु पिता का पुत्र को अनाथ बनाना। मानवता को बचाने हेतु पुत्र का अपने पिता को समर्पित करना।

इतिहास गवाही देता है- जिस पिता ने लाखों बच्चों को अनाथ होने से बचाने की कसौटी पर अपने एकलौते पुत्र को अकेला छोड़ दिया- वह पिता कोई साधारण मनुष्य नहीं होता।

श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी से अंतिम बार आलिंगन करते हुए भविष्य की सबसे दिव्य ज्योत बन चुके थे।

पार्श्व-गायन- (करुणा और वीर-रस का अद्भुत संगम—मानो इतिहास स्वयं बोल रहा हो, वेदना और पराक्रम की तरंगें कानों में धीरे-धीरे उतर रही हों।

गुरु तेग बहादुर साहिब जी का चक नानकी से शहादत-प्रस्थान

उस दिव्य क्षण में, जब धर्म के रक्षक पिता और धर्म-योद्धा पुत्र का भावना जन्य संवाद चल रहा था,
गुरु साहिब जी ने अपने नौनिहाल को अंतिम वचन किए- “पुत्र, सदा धर्म के मार्ग पर चलना। जिनके प्राण धर्म के लिए समर्पित हो जाएँ- वही इस सृष्टि के अमर दीपक बनते हैं।”

गोविंद राय जी जोड़कर विनम्र परंतु अंदर से वज्र के समान दृढ़ होकर वचन किए-

“पिताजी, कृपा करना। अपना हाथ मेरे शीश पर सदा रखना। मैं भी जीवन-भर चढ़दी कला में ही रहूँगा और उसी मार्ग पर चलूँगा जिस मार्ग पर आप आज प्रस्थान कर रहे हैं।” ये शब्द नहीं- मानो के काल-प्रवाह में पिघले हुए अमरत्व की गूँज थी।

गुरु साहिब का 11 जुलाई 1675 ई. का प्रस्थान

11 जुलाई, सन 1675 ई. गुरुद्वारा थड़ा साहिब, चक नानकी, से धन्य-धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी अपने परिवार को अंतिम प्रणाम कर दिल्ली की ओर शहीदी-मार्ग पर चल पड़ते हैं। उनके साथ पाँच प्रमुख और अमरवीर सिक्ख संगी थे—

  1. भाई मतीदास जी
  2. भाई सतीदास जी
  3. भाई दयाला जी
  4. भाई उदय जी
  5. भाई गुरदित्ता जी

ये पाँच नाम किसी सूची के अक्षर नहीं अपितु मानवता की नींव में जड़े हुए दिव्य स्तम्भ हैं।

किरतपुर साहिब में आखिरी रेखा

चक नानकी से लगभग 9 किलोमीटर आगे गुरु साहिब किरतपुर साहिब पहुँचे। यह वही पवित्र भूमि है जहाँ से सिख इतिहास की अनेक दिव्य धाराएँ फूटती हैं। इस स्थान पर गुरु साहिब ने एक सीधी लकीर खींची और दृढ़ स्वर में आदेश दिया- “अब न संगत में से, न मेरे परिवार में से कोई भी मेरे पीछे नहीं आएगा।”

पार्श्व संगीत- (गंभीर, अंतर्मुखी, हृदय को भेदता हुआ मार्मिक संगीत- जो संगत को चुपचाप इतिहास की गहराई में ले जाता है।)

उस लकीर के पार गुरु साहिब का मार्ग अब केवल शहादत की ओर था और पीछे रह गई संगत के आँसुओं से भीगी हुई सदा-सदा के लिए पवित्र हुई भूमि।

चार माह- 124 दिनों का अकेला सफ़र

कुल 124 दिनों, अर्थात लगभग चार महीनों का यह सफर- शहादत, साहस और अद्वितीय धैर्य का वह मार्ग है जिस पर गुरु साहिब ने अकेले-अकेले हर कदम मानवता की रक्षा के लिए बढ़ाया।

हम भी उसी मार्ग को पुनः चलेंगे- जैसे गुरु साहिब चले थे, वैसे ही खोज-विचार टीम आपको उन ऐतिहासिक स्थलों के दर्शन कराएगी और प्रत्येक स्थान की अद्भुत पावन स्मृतियाँ आपके मन में उतरेगी। संगत जी जुड़े रहना- यह शहीदी मार्ग, मानव इतिहास की सबसे महान शहादत की यात्रा है।

शहीद होने के बाद शीश का पुनः आगमन

शहादत के पश्चात धन्य श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का पावन शीश जिस मार्ग से पुनः श्री आनंदपुर साहिब लाया गया- वह भी इतिहास का पवित्र अध्याय है। उस मार्ग की यात्रा भी हम आप तक क्रमवार पहुँचाएँगे- कदम-दर-कदम, दर्शन-दर-दर्शन। संगत जी, जुड़े रहना-

आपका अपना वीर-इतिहासकार, डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’

पार्श्व संगीत- (इतिहास के गौरव, शहादत की पवित्रता और गुरु साहिब की दिव्य ज्योति को उजागर करती धीमी श्रद्धामयी धुन वातावरण में उतर रही है।)


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