श्रृंखला क्रमांक 2: पंडित कृपा राम जी के नेतृत्व में पंडितों के शिष्टमंडल का श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी से फरियाद करना|  

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श्रृंखला क्रमांक 2: पंडित कृपा राम जी के नेतृत्व में पंडितों के शिष्टमंडल का श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी से फरियाद करना|  

सफ़र-ए-पातशाही नौवीं के अंतर्गत शहीदी मार्ग यात्रा की श्रृंखला क्रमांक-2 में आज हम उस पवित्र और निर्णायक ऐतिहासिक प्रसंग को जानेंगे, जिसमें पंडित कृपा राम जी और उनके 16 सदस्यीय शिष्टमंडल ने श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के चरणों में पहुँचकर हिंदूओं के धर्म की रक्षा हेतु पुकार लगाई थी।  

संगत जी, वाहिगुरु जी का खालसा, 

वाहिगुरु जी की फतेह!

गुरु-प्रेमी साध-संगत जियो, धन्य हैं श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी- जिनका जीवन मानवता, धर्म और आत्मबल का अमिट प्रतीक है। आज हम उनके शहीदी मार्ग और शीश मार्ग की उस ऐतिहासिक यात्रा पर चल रहे हैं, जहाँ-जहाँ गुरु साहिब जी के चरण पड़े, वहाँ भूमि पवित्र हो उठी और संगत एक सूत्र में बंध गई।  

इस समय हम जिस पावन स्थान के दर्शन कर रहे हैं, वह है गुरुद्वारा गुरु के महल साहिब। हमारी टीम खोज-विचार यहाँ पहुँची और गुरुद्वारे के हेड ग्रंथी जी के साथ गुरुद्वारा साहिब के आंतरिक दर्शन किए। इस परिसर में एक अद्भुत स्थान स्थित है- भौंरा साहिब, जो एक तपस्थान (तलघर नुमा) है। यह स्थान ग्रीष्म ऋतु में शीतलता और शीत ऋतु में ऊष्मा प्रदान करता है। पुराने समय में ऐसे भौंरे ध्यान और एकांत साधना के लिए बनाए जाते थे।  

यह वही स्थान है जहाँ श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने अपना निवास बनाया था। यहाँ एक प्राचीन कुआँ भी है, जिससे पानी भरा जाता था, और उसके आसपास अनेक अन्य कुएँ भी हैं, जिनका निर्माण स्वयं गुरु साहिब जी के समय हुआ था।  

गुरु निवास और ऐतिहासिक परंपरा-  

इस परिसर के भीतर स्थित गुरुद्वारे के दर्शन करते हुए हमें बताया गया कि कभी यहाँ श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का वास्तविक निवास था। समय की विभीषिका और अत्याचारियों की हुकूमत ने इस पवित्र स्थल को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। जब श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी ने आनंदपुर साहिब को छोड़ा, तब जालिमों ने पूरे नगर को तहस-नहस कर दिया। किंतु आज वो ही स्थान संगत की सेवा और श्रद्धा से पुनः जीवंत है।  

एक अन्य स्थानीय सेवादार ने बताया—  

“वाहिगुरु जी का खालसा,

वाहिगुरु जी की फतेह!”  

गुरुद्वारा दमदमा साहिब, गुरु के महल के भौंरा साहिब परिसर का हिस्सा है। यहीं पर भाई राम कुंवर जी (जो बाबा बुड्ढा जी के वंशज थे) ने धन्य-धन्य श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी को तिलक लगाकर, गुरु गद्दी पर विराजमान किया था। इसी स्थान पर गुरु साहिब जी संगत के प्रतिनिधियों से मिलते थे और मसंदों की परख भी होती थी, साथ ही जो मसंद भ्रष्ट पाए जाते थे उन्हें दंड भी यहीं से दिया जाता था। यह पवित्र स्थान गुरु के महल परिसर की पश्चिम दिशा में स्थित है।  

चक माता नानकी का इतिहास-  

गुरुद्वारे के हेड ग्रंथी साहिब जी ने अपने उद्बोधन में बताया— “गुरु-प्यारी, गुरु-सवारी साथ-संगत जी! आज हम जिस स्थान के दर्शन कर रहे हैं, यह श्री आनंदपुर साहिब की पवित्र धरती है। इसे श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने सन् 1665 में राजा दीपचंद जी की रानी चंपा रानी से खरीदकर बसाया था। गुरु साहिब जी ने इसका नाम रखा चक माता नानकी जी, जो आगे चलकर श्री आनंदपुर साहिब के नाम से प्रसिद्ध हुआ।”  

यही गुरु के महल भौंरा साहिब वह स्थान है, जहाँ सतगुरु जी खुले दीवान सजाते थे और संगत को उपदेश प्रदान करते थे। इस दीवान स्थल को गुरुद्वारा थड़ा साहिब कहा जाता है।  

फरियाद का क्षण-  

यहीं उस समय का वह अद्भुत क्षण घटित हुआ जब मुगल अत्याचारों से त्रस्त कश्मीरी पंडित, किसी भी सहारे के अभाव में, धर्म की रक्षा की आस लिए श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी के दर पर पहुँचे। इस गुरुद्वारा थड़ा साहिब पर उपस्थित होकर उन्होंने निवेदन किया- “सच्चे पातशाह जी, बांह हमारी पकड़िए, हर गोविंद के चंद!” 

अर्थात- “हे सच्चे पातशाह जी, हमारी बांह थाम लीजिए, हमारे हिंदू धर्म की रक्षा कीजिए।” 

ऐतिहासिक संदर्भ-  

प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ के अनुसार, 25 मई 1675 ईस्वी को यह शिष्टमंडल आनंदपुर पहुँचा था। ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि यह 16 प्रमुख पंडितों का समूह था, जो भारत के विभिन्न मंदिरों के मुख्य पुजारी थे। इस शिष्टमंडल के प्रमुख थे पंडित कृपा राम जी।  

हम अक्सर केवल इतना कहते हैं, “पंडित कृपा राम आए,” किंतु इस प्रसंग का विस्तार हमें भट्ट-वहीयों (भट्टों की वंशावलियों) से ज्ञात होता है।  

दरअसल, यह परंपरा बहुत पुरानी थी। जब श्री गुरु नानक देव साहिब जी कश्मीर पधारे थे, तब वहाँ मटन नामक स्थान पर पंडित ब्रह्मदत्त नामक विद्वान रहते थे, जिन्हें अपने ज्ञान पर अत्यधिक गर्व था। उन्होंने पूरे भारतवर्ष को चुनौती दी थी, “यदि कोई मुझसे बड़ा विद्वान है, तो शास्त्रार्थ करे। जो पराजित होगा, वह विजेता का शिष्य बनेगा।”  

यही वह परंपरा थी, जिसका आध्यात्मिक उत्तर सदियों बाद श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने दिया- जब धर्म संकट में था, तब उन्होंने शहादत देकर उस शास्त्रार्थ का अंतिम, अमर उत्तर प्रदान किया।  

पंडित ब्रह्मदत्त से बीबी सरस्वती तक- शास्त्र और शस्त्र का संगम

उस समय संपूर्ण भारतवर्ष में पंडित ब्रह्मदत्त जी की विद्वता का डंका बज रहा था। जब श्री गुरु नानक पातशाह जी कश्मीर के मटन नगर पहुँचे, तो उनकी भेंट इस विद्वान पंडित से हुई। दोनों के मध्य कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला। पंडित ब्रह्मदत्त अपने ज्ञान के गर्व में चूर थे, किंतु जब गुरु नानक पातशाह जी की वाणी की गहराई में डूबे, तो उनका अहंकार तिरोहित हो गया।  

उसी क्षण गुरु नानक साहिब जी ने भाई मरदाना को आदेश दिया- “भाई मरदाना, रबाब बजाओ!”

और तब गुरु साहिब के मुखारविंद से यह अमर वाणी निकली- 

 श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी से-

श्लोक महला १॥

पड़ि पड़ि गडी लदीअहि पड़ि पड़ि भरीअहि साथ ॥

पड़ि पड़ि बेड़ी पाईऐ पड़ि पड़ि गडीअहि खात ॥ 

पड़ीअहि जेते बरस बरस पड़ीअहि जेते मास ॥

पड़ीऐ जेती आरजा पड़ीअहि जेते सास ॥

नानक लेखै इक गल होरु हउमै झखणा झाख ॥१॥ (अंग क्रमांक: 487)

भावार्थ- चाहे गाड़ियों पर लादकर भी पुस्तकें पढ़ ली जाएँ, चाहे विद्या के ढेर लगा दिए जाएँ, चाहे जीवनभर अध्ययन में लगे रहो- किंतु, हे नानक! प्रभु के दरबार में एक ही बात गिनी जाती है: नाम-स्मरण। बाकी सब अहंकार में किया गया व्यर्थ प्रयास है।  

गुरु कृपा से परिवर्तन-  

यह वाणी सुनकर पंडित ब्रह्मदत्त का हृदय परिवर्तित हो गया। वह गुरु नानक देव जी के चरणों में झुक गया और क्षमा माँगते हुए बोला, “हे सतगुरु, अब मुझे सच्चे ज्ञान का प्रकाश मिल गया है।”  

गुरु साहिब ने उसे आशीर्वाद देकर कश्मीर क्षेत्र में धर्म प्रचारक नियुक्त किया और उसे गुरुसिख बनाया। यहीं से वह वंश प्रारंभ हुआ जिसने आगे चलकर सिख परंपरा में अमिट योगदान दिया।  

वंश परंपरा का विस्तार-  

पंडित ब्रह्मदत्त का वंश बढ़ता गया। उनके पुत्र नारायण दास ने सिख धर्म का प्रचार-प्रसार किया। नारायण दास के पुत्र अडूराम जी के समय यह वंश और भी पवित्र हो उठा। जब श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी कश्मीर गए, तो उन्होंने अडूराम जी का विवाह बीबी सरस्वती जी से करवाया।  

यह विवाह साधारण नहीं था- यह शास्त्र और शस्त्र के अद्भुत संगम का प्रतीक था। बीबी सरस्वती को शस्त्रों का गहन ज्ञान था, जबकि अडूराम जी शास्त्रों के प्रकांड पंडित थे। इस प्रकार श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने इस परिणय के माध्यम से मीरी-पीरी के सिद्धांत को व्यवहार में मूर्त रूप दिया।  

बीबी सरस्वती का ऐतिहासिक स्वरूप-  

इतिहास के गहरे अध्ययन से ज्ञात होता है कि बीबी सरस्वती कोई सामान्य नारी नहीं थीं। उनका नाम उस युग की वीरता, विद्या और नारी गरिमा का प्रतीक है। उनके इतिहास को जानने के लिए हमें चलना होगा उत्तराखंड के बिलासपुर नगर की ओर— जहाँ आज भी एक गुरु-सिख परिवार इस वंश की परंपरा को संजोए हुए है।  

इस परिवार के वंशज भाई चरणजीत सिंह छिब्बर जी से इस प्रसंग को जानने के लिए डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ ने मुलाकात की। उन्होंने नम्रता से फतेह बुलाकर पूछा- “भाई साहिब, कृपया संगत को बताइए कि- यह महान बीबी सरस्वती कौन थीं? उनका क्या संबंध था श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी से? और यह परिवार श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी से कैसे जुड़ा?”  

भाई चरणजीत सिंह छिब्बर जी ने भावपूर्ण शब्दों में उत्तर दिया, “बीबी सरस्वती उस समय की ऐसी तेजस्विनी नारी थीं जिनमें शौर्य और विद्या दोनों का संगम था। उनका यह मिलन, जो श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी के आशीर्वाद से संपन्न हुआ, आगे चलकर वही आध्यात्मिक परंपरा बना जिसने गुरु तेग बहादुर साहिब जी के समय में धर्म-रक्षा के महान आदर्श को जन्म दिया।”  

इस प्रकार पंडित ब्रह्मदत्त से लेकर बीबी सरस्वती तक की यह ऐतिहासिक यात्रा- शास्त्र, शस्त्र और श्रद्धा के संगम की अनोखी कथा है, जिसने आगे चलकर कश्मीर के पंडितों की फरियाद को श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी तक पहुँचाया और शहादत के उस अमर अध्याय की नींव रखी, जिसे आज हम श्रद्धापूर्वक शहीदी मार्ग के नाम से जानते हैं।  

भाई छिब्बर परिवार की गुरु परंपरा- बीबी सरस्वती से पंडित कृपा सिंह दत्त तक

भाई चरणजीत सिंह छिब्बर ने बताया- “मैं भाई मतीदास और भाई सतीदास के उसी परिवार से हूँ, जो भाई परागा जी के वंशज हैं। डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ जिस बीबी सरस्वती का इतिहास अवलोकित कर रहे हैं, वे हमारे कुल-पुरुष भाई गौतम सेन की सुपुत्री थीं।”  

यह परिवार धन्य श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी के समय से ही गुरु घर से जुड़ा रहा है। जब श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी कश्मीर की यात्रा पर थे, तब उन्होंने मटन नामक स्थान पर पड़ाव करते हुए भाई गौतम दास जी की पुत्री और भाई परागा जी की बहन- बीबी सरस्वती जी का विवाह भाई अडूराम जी से संपन्न करवाया।  

इस दिव्य परिणय से ही आगे चलकर एक पुत्र उत्पन्न हुआ- पंडित कृपा राम दत्त, जो आगे चलकर कृपा सिंह दत्त के नाम से प्रसिद्ध हुए।  

भाई छिब्बर परिवार की वंशावली-  

भाई गौतम दास जी के तीन संतानें थीं- 

1. भाई पैड़ा जी  

2. भाई पराग जी  

3. बीबी सरस्वती जी  

भाई पराग जी के सुपुत्र थे भाई द्वारका दास जी, और उनके पुत्र हुए भाई हीरानंद जी तथा भाई दरगाह मल जी।  

भाई हीरानंद जी के चार सुपुत्र हुए —  

– भाई मतीदास  

– भाई सतीदास  

– भाई जतिदास  

– भाई सखीदास  

ये चारों भाई अपने चाचा भाई दरगाह मल जी के परम स्नेही थे। भाई दरगाह मल जी की आगे की पीढ़ी में दो सुपुत्र हुए- भाई धर्मचंद जी और भाई साहिब चंद जी।  

भाई धर्मचंद जी के वंश में आगे चलकर भाई गुरबख्श सिंह जी और भाई केसर सिंह छिब्बर जी हुए।  

भाई केसर सिंह जी छिब्बर के पश्चात वंश में आए- भाई सेवा सिंह जी, भाई मेहताब सिंह जी, फिर भाई लाल सिंह जी, भाई संत सिंह जी, तत्पश्चात भाई अमर सिंह जी, भाई अजीत सिंह जी, और अंततः वर्तमान वंशज- भाई चरणजीत सिंह छिब्बर जी।  

यह वही वंश है जो सैकड़ों वर्षों से गुरु घर की सेवाओं में तत्पर है और आज भी उसकी विरासत जीवित है।  

गुरु घर की सेवाओं का गौरव-  

भाई चरणजीत सिंह छिब्बर के पिता, सरदार अजीत सिंह जी, ने भावनापूर्ण शब्दों में कहा- 

“हम डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ जी के अत्यंत आभारी हैं। उन्होंने हमारे परिवार का इतिहास पुनः खोज निकाला और संसार को दिखाया कि यह वंश आज भी गुरु घर की सेवा में समर्पित है। खोजी जी की निष्ठा, पंथ-सेवा और तपस्या प्रशंसनीय है- वे सच्चे अर्थों में खोजी है और पंथ की चढ़दी कला के वाहक हैं।”  

बीबी सरस्वती और राजा दाहिर सेन का ऐतिहासिक संबंध-  

डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ ने भाई चरणजीत सिंह जी से आगे पूछा- “भाई साहिब, बीबी सरस्वती का सिंध के अंतिम राजा दाहिर सेन से क्या संबंध था?”  

भाई चरणजीत सिंह जी ने उत्तर दिया- “यदि हिस्ट्री ऑफ पंजाब का अध्ययन किया जाए, तो यह ज्ञात होता है कि राजा दाहिर सेन एक चक्रवर्ती सम्राट था। उसका शासन सिंध से लेकर कश्मीर तक विस्तृत था। यही वह राज्य था, जो मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण से टूटा और उसके बाद विदेशी हमलों का सिलसिला प्रारंभ हुआ।  

उसके वंश से आगे तीन छोटे राज्य बने- दिल्ली का वजीराबाद, सियालकोट, और कढ़ियाला। इन्हीं कढ़ियाला राज्य की वंश-रेखा से भाई गौतम दास जी थे, जो आगे चलकर श्री गुरु नानक देव साहिब जी की शरण में आए।”  

कृपा सिंह दत्त- एक गुरु-सिख, न कि मात्र पंडित  

सरदार चरणजीत सिंह जी ने एक भावुक टिप्पणी की-म “खोजी साहिब, मैं अक्सर सोचता हूँ कि हमारे इतिहासकारों ने कृपा राम जी को ‘पंडित कृपा राम दत्त’ कहकर सम्मानित किया, क्योंकि हमारे पूर्वज ब्राह्मण वंश से थे और विद्वान माने जाते थे। परंतु अफसोस- पंथ के अनेक प्रचारकों ने उन्हें बार-बार ‘पंडित’ कहकर पुकारा, जिससे एक सच्चे गुरु-सिख की गरिमा को ठेस पहुँची।  

यह तो वही घराना था, जिसे श्री गुरु नानक देव साहिब जी की बख्शिश प्राप्त थी। यह घराना जनेऊ धारण नहीं करता था, क्योंकि यह स्वयं गुरु घर का प्रचारक परिवार था, सिखों का अपना घराना।”  

कृपा सिंह दत्त की सेवाएँ और शहादत-  

जब पंडित कृपा राम जी (कृपा सिंह दत्त) कश्मीरी पंडितों के शिष्टमंडल के साथ श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की शरण में आए, तब गुरु साहिब ने धर्म की रक्षा का वचन दिया। उसके बाद कृपा सिंह दत्त कभी कश्मीर नहीं लौटे। उन्होंने जीवन भर गुरु परिवार की सेवा की।  

वे शस्त्र-विद्या और गुरबाणी दोनों में पारंगत थे। सन् 1699 ईस्वी की बैसाखी पर उन्होंने अमृत धारण कर सिंघ सजना स्वीकार किया।  

इतिहास यह भी दर्ज करता है कि- चमकौर की जंग में कृपा सिंह दत्त और उनके भाई मनसुख सिंह दत्त– इन दो वीर गुरु-सिखों ने शहादत प्राप्त की।  

इतिहास का समापन बिंदु-  

डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’ ने कहा- “यह वो ही परिवार है, जिसने चाँदनी चौक में भाई मतीदास और भाई सतीदास के रूप में शहादत की वह ज्योति प्रज्वलित की, जो आज तक अमर है। इस गौरवशाली छिब्बर वंश ने गुरु घर के लिए जो कुछ दिया, वह इतिहास के स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा।”  

इतिहास के इन पावन पृष्ठों को यहीं विराम देते हैं।  

मिलेंगे श्रृंखला के अगले भाग–3, “पंडितों की फरियाद से गुरु जी की शहादत तक” में।  

आपका अपना वीर-  

इतिहासकार डॉ. भगवान सिंह ‘खोजी’  

 


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