विश्व हिंदी साहित्य सेवा संस्थान: एक परिचय
भगवत गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 47 में लिखा है-
कर्म करने का अधिकार मनुष्य का है, लेकिन कर्मों के फल का अधिकार नहीं। इन पंक्तियों को लेकर ही हम आगे बढ़ते है। संस्थान का सदैव यह प्रयास रहा है कि अच्छे कर्म करते रहो, फल क्या होगा इसकी चिंता नहीं। वैसे भी संस्थान का सूत्र वाक्य है ”चरैवेति, चरैवेति“ यानि चलते जाओ, चलते जाओ। अगर हम चलते रहेंगे तो निश्चित ही मुकाम तक पहुंचेगे। कुछ कार्यो को अंजाम तक पहुंचाने के लिए हमारे कुछ पदाधिकारी यह कहते है कि कैसे करें? कोई जूड़ना नहीं चाहता, लोग कहते है बहुत दूर है स्नेहाश्रम, बहुत मुश्किल है कैसे होगा? एक गाना है कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना’ हमें इन वाक्यों को दरकिनार कर यह प्रण लेना चाहिए कि कैसे नहीं होगा। अच्छे कार्यो में कठिनाई बहुत आती है। अगर सब लोग कर लेते तो सब महान हो जाते, सब लोग याद किए जाते। लेकिन ऐसा नहीं होता। कुछ ही लोग है जो अपने कार्यो के बल पर अमिट छाप छोड़ जाते है और इतिहास में सदा-सदा के लिए अमर हो जाते है। किसी की ये पंक्तियॉ हैः-
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
बैठो रहने वालों की कभी जय-जयकार नहीं होती।
हमारे निवर्तमान अध्यक्ष स्व0 डॉ॰ शहाबुद्दीन शेख इसके साक्षात् ज्वलंत उदाहरण है। 15 जून 1996 को जब इस संस्थान की नीव रखी गई थी उस समय ही इसका राष्ट्रीय स्वरुप था। बिहार, मध्य प्रदेश, मेघालय, उड़ीसा, कर्नाटक के लोग प्रारब्ध से ही जूड़ गए थे। शुरुआती दिनों में मेरे तलक अजीज दोस्त मो0 तारिक ज्या, संस्थान की संस्थापक संरक्षिका स्व0 राजरानी देवी, संस्थापक अध्यक्ष स्व0 पवहारी शरण द्विवेदी, राष्ट्रीय कार्यसमिति की सदस्या लेफ्टिनेंट जया शुक्ला, ज्योति, जागृति नगरिया ने विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया तो आगे चलकर कर्नाटक के स्वर्गीय एस.बी.मुरकुटे, हिन्दी बहन सुश्री जे.वी.नागरत्नमा, राजस्थान के स्व0 मुखराम माकड़ ‘माहिर’, नई दिल्ली की डॉ0 राज बुद्धिराजा, बंगलौर, कर्नाटक से मेरी हिरिया सहोदरी बहन स्व0 बी0एस0शांताबाई, और आगे बढ़े तो स्व0 डॉ॰ शहाबु्दीन शेख जी के अमूल्य योगदान को कैसे विसराया जा सकता है। दुष्यंत कुमार की पंक्तियाँ है :-
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर
हम सफर मिलते गए और कारवां बनता गया।
संस्थान के स्थापना के समय सिर्फ 7 सदस्य थे, आज हम 29वर्षो की यात्रा के बाद 700 सदस्यों के साथ लगभग 18 राज्यों व कुछ अन्य देशों में पांव पसार चुके है। इस पड़ाव पर संस्थान को पहुंचाने में तमाम हिन्दी प्रेमियों, समाज सेवियों, संस्थान के पूर्व व वर्तमान के पदाधिकारियों, सदस्यों की महत्ती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। किसी ने कुछ कम, किसी ने कुछ ज्यादे योगदान दिया। सितम्बर 2001 में संस्थान ने अपनी मासिक पत्रिका ‘विश्व स्नेह समाज’ का प्रकाशन प्रारंभ किया। उस वक्त सभी शुभचिन्कों ने मुझे मना किया कि पत्रिका निकालना बहुत कठिन कार्य है। लेकिन मैंने इस चुनौती को भी स्वीकार किया यह पत्रिका आज 25 वर्ष पूर्ण कर चुकी है और रजत वर्ष विशेषांक लेकर आए है। 2003 से लगातार साहित्य मेले का आयोजन जिसमें अभी तक 250 से भी अधिक विद्वतजनों, समाज सेवियों व कलाकारों को सम्मानित किया जा चुका है। 2010 में इलाहाबाद के बाहर साहित्य यात्रा नाम से आयोजन प्रांरभ हुए। संस्थान द्वारा विविध विधाओं एवं विषयों से सम्बन्धित लगभग 250 पुस्तकों का प्रकाशन किया जा चुका है। संस्थान द्वारा कोरोना प्रकोप काल में जब दुनिया घरों में कैद थी तब बच्चों एवं बड़ो सबके लिए स्टेटस एवं आभासी प्रतियोगिताएं, आभासी चर्चा, परिचर्चा एवं काव्य गोष्ठियों का शुभारंभ किया गया। जिसके तहत अभी तक 350 आभासी राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियां हो चुकी है। जिसमें प्रत्येक माह के प्रथम रविवार को बाल संसद, तीसरे रविवार को युवा संसद, 15 तारिख को समाजिक विषयों पर केन्द्रीत चर्चा तथा 30 तारिख को हिन्दी साहित्य का इतिहास पर आयोजन होता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न राज्य इकाईयों द्वारा प्रत्येक माह सम्बन्धित राज्यों के साहित्यकारों, समाज सेवियों, पर्यटन स्थलों, आदि पर आयोजन होते रहते है। संस्कार को बढ़ावा देने के लिए संस्कारश्री और संस्कार गौरव स्टेटस प्रतियोगिता 2022 से प्रारंभ की गई जो अनवरत चल रही है। संस्थान द्वारा निराश्रित महिलाओं को आश्रित बनाने के उद्देश्य से पर्यावरणरोधी उपहार सामग्री, देवी-देवताओं की मूर्तियां तथा उनसे सम्बन्धित अन्य सामग्री, स्मृति चिह्न आदि बनाए जा रहे है। इसकी विशेषता यह है कि जब खराब हो जाए तो गमले में थोड़ी-सी मिट्टी खोदकर गाड़ दे, दो-तीन दिन पानी दे, उनमें तुलसी जी और औषधीय पौधे निकलेंगे, साथ ही वह नमी युक्त खाद का काम भी करेगा। संस्थान को इसरों द्वारा संचालित विभिन्न कोर्सो हेतु इंडिया स्पेस वीक से सम्बद्धता 2023 में मिल चुकी है। जिसमें पूरे भारत के किसी भी राज्य के कक्षा 3 से लेकर परास्नातक तक के बच्चे आभासी रुप से अंतरिक्ष के विभिन्न कोर्स कर सकते है।
वर्तमान समाज की सबसे बड़ी त्रासदी वृद्धों के लिए 2003 से संकल्पित जो अस्थायी रुप से संचालित था उसे स्थायित्व प्रदान करने के लिए स्नेहाश्रम (वृश्राश्रम, अनाथाश्रम, निराश्रित नारी, गौशाला, चिकित्सालय तथा पुस्तकालय एवं वाचनालय) इसके प्रथम चरण वृद्धाश्रम के लिए जमीन खरीद कर 14 अक्टूबर को उद्घाटन की राह देख रहा है। इस कार्य के लिए संस्थान व संस्थान के बाहर के कुछ सदस्य मासिक अंशदान तो कुछ सदस्य अपनी स्वेच्छानुसार एक बार सहयोग कर रहे है। आज के इस सत्र के अध्यक्ष पं0 जुगुल किशोर तिवारी जी ने भी एक लाख रुपये का अमूल्य अंशदान दिया है। अभी भी लगभग 50 प्रतिशत सदस्यों ने एक रुपये का भी सहयोग नहीं किया है। इस खर्चीली योजना को भी एक चुनौती के रुप में लेकर हम चल रहे है और दृढ़ संकल्पित है इसे पूर्ण करने को। इस कार्य को स्नेहाश्रम संचालन समिति पूरी तन्मयता के साथ अपना योगदान देने का प्रयास कर रही है। आज इस आयोजन से जूड़े हुए सभी सदस्यों, श्रोताओं से आग्रह है कि कम से कम एक रुपये का सहयोग अवश्य करें। इसके पीछे हमारा उद्देश्य है कि अधिक से अधिक लोगों का सहयोग रहे चाहें एक ईट की कीमत हो या एक कप चाय की। अपना घोषला तो चिड़िया भी बनाती है, आईए हम सब मिलकर दूसरों के लिए घोषला बनाए। जिसमें बेघर, निराश्रित आकर सकुन की जिंदगी जी सके।
संस्थान के सम्मानों की अपनी गुणवत्ता और गरिमा रही है। संस्थान से सम्मानित होने वालों में देश की नामी गिरामी हस्तियां रही है। आज भी जब हम सम्मानितों की सूची घोषित करते है तो प्रथम श्रेणी के अधिकारियों तक के सिफारिशें आती है। कुछ लोग सम्मान पाने के लिए लालच और धमकी साथ-साथ देते रहते है। लेकिन संस्थान ने कभी गुणवत्ता से समझौता करना गंवारा नहीं समझा।
न निकलना था न मुश्किल का कोई हल निकला,
जो समंदर में था बादल से वही जल निकला।
चाहे जितने सम्मान ले लो, लेकिन आपकी काबिलियत वही रहेगी जो वास्तव में आप हो। सम्मान हमें प्रोत्साहित करते है लेकिन एक बोझ लाद देते है ताकि हम अपने कार्य को और तन्मयता से करे। संस्थान कर्म को प्रधानता देता है, इंसान या उसके पद को नहीं। कोई भी संस्था त्याग से बनती है और चलती है। बिना त्याग के आप किसी संस्थान में चार दिन रह सकते है, चालीस दिन नहीं। संस्थान मासिक आयोजनों को सुचारु रुप से चलाने में विभिन्न राज्यों के प्रभारी एवं प्रकोष्ठ प्रभारियों की भूमिका भी सराहनीय है।
आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास भी है कि संस्थान के अन्य पदाधिकारी व सदस्य भी अपनी भूमिका को आगामी समय में महत्वपूर्ण बनाने में कोताही नहीं बरतेंगे। मेरा आप सभी से निवेदन है कि अपने जीवन में कुछ ऐसा करके दिखाओ जो संस्थान व समाज के इतिहास में अमर हो जाए।
मुक्कदर आदमी की मेहनत से बदल जाती है
बढ़के मुश्किलों में जो नित नया आगाज करता है।
कुछ अलग हटकर करिए। जहां भी जूड़िए, जिस संस्था से भी जूड़े अपना सर्वोच्च देने का प्रयास करें।
बहुत मुश्किल है सभी को खुश रख पाना
क्योंकि चिराग जलते ही अंधेरे रूठ जाते है।
कुछ लोग, सदस्य व पदाधिकारी अक्सर नाराज़ भी हो जाते है। सभी को प्रत्येक आयोजन में सम्मान मिले या मंच मिले यह संभव नहीं। ऐसा कुछ करिए बिना कहे सम्मान मिले, आपका नाम लिया जाए, मंच दिया जाए। हमें गर्व है कि “विश्व हिन्दी साहित्य सेवा संस्थान” परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने आप में लाजबाब है। हमारे पास ऐसी-ऐसी प्रतिभाऍ है जो चाह ले तो संस्थान अपने विकास व उद्देश्यों को चरमोत्कर्ष पर पहुंचा सकता है।
फितरत किसी की यूं ना आजमाया करो,
हर शख्स अपनी हद में लाजवाब होता है!
सभी सदस्यों की मेहनत का ही परिणाम है जो सभी राज्यों के प्रभारी, सदस्य अपने-अपने राज्यों में जी-जान लगाकर अधिवेशन कराने का प्रस्ताव देते रहते है। आगे बढ़कर कार्य करने को तत्पर रहते है। संस्थान के अधिकांश पदाधिकारी/सदस्य संस्थान से प्रीत रखते है-
प्रीत करो तो ऐसी करो जैसी करे कपास।
जीते जी या तन ढके मरे न छोड़े साथ।।
संस्थान का प्रत्येक पदाधिकारी एवं सदस्य संस्थान के प्रति अपनी मोहब्बत को कहता नहीं बल्कि करता है। ऐसा मैं समझता हूं। इसी के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूं। आप सबने मुझे धैर्य पूर्वक सुना इसके लिए हम आपके सहृदय आभारी है।
एक अरसा लगा हमें समझने में
फर्क़ है मोहब्बत कहने और करने में।
जय हिन्द, जय हिन्दी।
डॉ॰गोकुलेश्वर कुमार द्विवेदी-सचिव
विश्व हिंदी साहित्य संस्थान के पदाधिकारी-























