ੴ सतिगुरु प्रसादि॥
दीपावली शुभचिंतन
दीपावली भारत का ऐसा महत्वपूर्ण उत्सव है, जिसे देश के प्रायः सभी प्रान्तों तथा विविध धर्मावलम्बी अत्यन्त हर्ष और उल्लास के साथ मनाते हैं। यह वस्तुतः सर्व-सामाजिक एवं सर्व-धर्म-संगम का पर्व है, जो हमारी राष्ट्रीय एकता की दृढ़ नींव का प्रतीक बन चुका है। दीपावली के उद्भव और उसके प्रारंभिक स्वरूप को लेकर विद्वानों में मतभेद अवश्य हैं। एक मतानुसार इस पर्व की परम्परा महाबुद्ध काल से भी पूर्व प्रचलित थी। किंतु इस भिन्नता के होते हुए भी यह तथ्य निर्विवाद है कि दीपावली सबकी है- सर्वजन-स्वीकार्य, सर्व-हृदयस्पर्शी और सर्वतोमुखी लोकोत्सव।
दीपावली, दीपमाला अथवा दीवाली- कार्तिक अमावस्या के दिन मनाया जाने वाला यह अखिल-भारतीय पर्व विभिन्न मान्यताओं से आबद्ध है। हिन्दू परम्परा में यह स्मृति-पर्व है मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के उस पुनीत आविर्भाव का, जब चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण कर तथा रावण-वध कर वह माता सीता और भ्राता लक्ष्मण सहित अयोध्या पधारे। उस रात्रि अयोध्यावासियों ने हर्षोन्माद में दीयों की असंख्य पंक्तियाँ प्रज्वलित कीं। दीपमाला का यही आरम्भ आगे चलकर दीपावली कहलाया। फ़ारसी में दीपमाला को “चिराग़” कहा गया है और चिराग़ भी दीपक का ही पर्याय है।
हिन्दू विश्वास अनुसार यह लक्ष्मी-पूजन का पर्व भी है। भारत के अधिकांश प्रांतों में लोग इस रात्रि धन-लक्ष्मी की आराधना करते हैं; वहीं बंगाल में यह तिथि काली-माता की उपासना के रूप में मनायी जाती है। वहाँ विविध कलात्मक पंडाल सजाए जाते हैं और दीप-प्रकाश की नयनाभिराम व्यवस्था की जाती है। देश के अन्य भू-भागों में यह पर्व भिन्न-भिन्न ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक प्रसंगों से अनुप्राणित है।
दीपावली का गौरवशाली स्थान सिख इतिहास में भी प्रतिष्ठित है। सिख पंथ की अनेक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएँ दीपावली से सम्बद्ध हैं। सन् 1610 में, छठे पातशाह श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी को संगत की अपार श्रद्धा देखकर मुगल बादशाह जहाँगीर ने दिल्ली बुलाकर छलपूर्वक ग्वालियर के क़िले में बंदी बना दिया। वहाँ देश के 52 राजे विद्रोह के अभियोग में पहले से ही कारागार में थे। कुछ समय पश्चात जब जहाँगीर को अपने कृत्य पर पश्चाताप हुआ, तो उसने गुरु जी को रिहा करने की इच्छा व्यक्त की।
परोपकारी एवं सबके उद्धारक गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने शर्त रखी कि क़ैद 52 राजाओं को भी मुक्त किया जाए। जहाँगीर ने कहा- “जितने राजा आपके चोले को पकड़कर निकल आएँगे, उन्हें छोड़ दिया जाएगा।” तब गुरु जी ने 52 कलियों वाला एक विशाल चोला सिलवाया; 52 राजे उसकी कलियाँ पकड़कर बाहर आए और “दाता बन्दी छोड़” श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने जब अमृतसर की पावन धरती पर चरण रखे, तो संगत ने दीपमालाएँ जला कर, आतिशबाज़ी करके और मिठाइयाँ बाँटकर उनका अभिनन्दन किया। इसी दिन बाबा बुढ्ढा जी ने दीपमाला की परम्परा का आरम्भ किया और तभी से दीपावली “दाता बन्दी छोड़ दिवस” के रूप में भी मनाई जाने लगी।
सन् 1783 में श्री हरिमंदिर साहिब के मुख्य ग्रंथी भाई मनी सिंह ने श्री अमृतसर में एक विराट जोड़ा–मेला आयोजित करने का संकल्प किया और दीपावली का पर्व श्रद्धा पूर्वक मनाने की चेष्टा की; किन्तु लाहौर के सूबेदार ज़क़रिया ख़ाँ ने इस मेले की अनुमति देने से इन्कार कर दिया। बाद में, (भाई रतन सिंह भंगू कृत “श्री गुरु पंथ प्रकाश” (पृ. 287) के अनुसार)- दस हज़ार रुपये का “मेला–कर” अधिरोपित कर दीपावली पर्व की अनुमति दे दी गई।
इसी बीच जब यह समाचार प्राप्त हुआ कि ज़क़रिया ख़ाँ ने दीपावली पर श्री अमृतसर में उमड़ने वाली विशाल संगत पर अकस्मात आक्रमण की योजना रची है, तब भाई मनी सिंह ने स्वयं संगत को अमृतसर आने से रोक दिया। फल यह हुआ कि न संगत आई और न ही कर चुकाने योग्य धनराशि एकत्र हो सकी। उधर सिख शक्ति के उभार से सहमे हुए ज़क़रिया ख़ाँ को तो दमन का बहाना चाहिए ही था उसके लिए इससे अनुकूल अवसर और क्या हो सकता था? उसने कर-अदायगी न होने के अपराध पर भाई साहिब को गिरफ़्तार कर लिया। दरबार में पहुँचते ही भाई मनी सिंह ने “फ़तेह” का घोष किया तो ज़क़रिया ख़ाँ और अधिक उबल पड़ा। शाही क़ाज़ी अब्दुल रज़्ज़ाक़ ने फ़रमान सुनाया-
“खाँ कहयो- होहु मुसलमान, तब छूटेगी तुमरी जान।”
यह सुनते ही भाई मनी सिंह ने निर्भीक उत्तर दिया —
“सिंह ने कहयो- हम सिदक न हारे, कई जनम सिदक से न्यारे।”
क़ाज़ी इस उत्तर से क्रोधातुर हो उठा और “अंग–अंग काटने” का हुक्म सुना दिया। जल्लाद उन्हें नखास चौक की ओर ले चले। इतने में लाहौर के सिख रुपये लेकर पहुँच गए कि किसी प्रकार भाई साहिब को छुड़ाया जाए; किन्तु भाई साहिब ने समझाया- “यदि आज तुम मुझे छुड़ा भी लोगे तो ये फिर किसी बहाने अवश्य मार देंगे, क्योंकि इनकी नीयत पूर्व से ही विकृत हो चुकी है।”
क़ाज़ी के आदेशानुसार जल्लादों ने दण्ड की क्रूर प्रक्रिया आरम्भ की। वह शरीर के केवल चार टुकड़े करना चाहते थे, किन्तु भाई साहिब ने स्वयं आदेश दिया- “बंद–बंद काटो।” और इस प्रकार 28 नवम्बर 1739 को लाहौर के मस्ती दरवाजे के बाहर भाई साहिब का अंग–अंग काटकर उन्हें शहीद कर दिया गया।
भाई मनी सिंह जी की पावन स्मृति में आज भी लाहौर के शाही क़िले के समीप “गुरुद्वारा शहीद गंज साहिब” विद्यमान है। अब यहाँ प्रश्न उठता है- एक ओर श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी की रिहाई का हर्ष और दूसरी ओर भाई मनी सिंह जी की शहादत का शोक? उत्तर स्पष्ट है- गुरबाणी सुख और दुःख दोनों को समदृष्टि से देखने का उपदेश करती है। इन्हीं ऐतिहासिक प्रसंगों के परिणामस्वरूप गुरू पंथ खालसा आज भी प्रतिवर्ष दीपावली के अवसर पर अमृतसर स्थित दरबार साहिब में परम श्रद्धा, प्रेम और उत्साह सहित “दाता बंदी छोड़ दिवस” के रूप में यह पर्व मनाता है।
दिवाली के पावन अवसर पर श्री हरिमंदिर साहिब (श्री दरबार साहिब) अमृतसर सहित विश्व के लगभग सभी गुरुद्वारों में ‘गुरु पंथ खालसा’ के वेदव्यास कहे जाने वाले भाई गुरदास जी की उन्नीसवीं वार की छठी पौउड़ी का कीर्तन अनिवार्य रूप से किया जाता है। इस पौउड़ी की प्रथम पंक्ति है- दिवाली दी राति दीवे बालीअनि॥
दुर्भाग्य यह है कि कीर्तन के दिवानों में रागी सिंह इस पौउड़ी का भावार्थ प्रायः नहीं समझाते। संगत के मन में केवल यही प्रथम पंक्ति रह जाती है और उसका अर्थ केवल बाहरी प्रकाश—अर्थात दियों और रोशनी—तक सीमित कर दिया जाता है।
उक्त पौउड़ी इस प्रकार है —
6:चलण जुगत
दिवाली दी राति दीवे बालीअनि॥
तारे जाति सनाति अंबरि भालीअनि॥
फुलाँ दी बागति चुणि चुणि चालीअनि॥
तीरथ जाती जाति नैण निहालीअनि॥
हरिचंदउरी झाति बसाइ उचालीअनि॥
गुरमुखि सुख फल दाति सबदि समालीअनि॥
भाव यह कि दीपावली की रात जगमगाने वाले दीप कुछ समय बाद स्वतः बुझ जाते हैं; रात्रि में दीखने वाले असंख्य तारे प्रभात होते ही विलुप्त हो जाते हैं; बागों में खिले फूल शाश्वत नहीं रहते; तीर्थयात्रा पर गए लोग वहाँ स्थायी नहीं ठहरते; आकाश में दिखने वाले बादल-महल मिथ्या भ्रम मात्र हैं। परन्तु जो “गुरमुख” बनते हैं — वे इस संसार की समस्त नश्वरता को भली-भाँति पहचान लेते हैं और इन भ्रमों से अपने को बचाकर शब्द-बल पर टिके सुख के फल को धारण कर लेते हैं। अतः स्पष्ट है कि इस पौउड़ी का मूल संदेश केवल “दियों की लौ” नहीं अपितु “मानसिक और आध्यात्मिक जागरण” है। संगत जी! गुरवाणी को समझ कर ग्रहण करो- ज्ञान का दीप भीतर जलाओ; दीपावली को केवल सांसारिक दीयों के प्रकाश तक सीमित न करो।
इस पर्व से एक अन्य ऐतिहासिक प्रसंग भी संबद्ध है- इसी तिथि को उज्जयिनी के नरेश विक्रमादित्य राजा सिंहासन पर आसीन हुए। जनश्रुति है कि उसी दिन से “विक्रम संवत्” का प्रारम्भ हुआ। व्यापारी-वर्ग इस दिन को शुभ मान कर अपने लेखा-खातों का उद्घाटन किया करते थे; लेन-देन का पूर्व हिसाब समेटकर नवीन वर्ष का आरम्भ यहीं से माना जाता था। यद्यपि आधुनिक शासन-व्यवस्था में अब लेखा-वर्ष अप्रैल से मार्च तक निर्धारित है।
इस विशेष दिवस की एक सामाजिक परिणति यह भी है कि विभिन्न वर्गों के लोग इस दिन आपसी सद्भाव से मिठाइयाँ, वस्त्र और खिलौने बाँटते हैं। दशहरे की भाँति दीपावली भी मूलतः अधर्म पर धर्म और असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक मानी जाती है।
दीपावली की रात्रि में आतिशबाजी को उल्लास का माध्यम माना जाता है- यह विश्वास है कि इनके शब्दों से दुष्टात्माएँ दूर भागती हैं; किन्तु सावधानी न रखी जाए तो यही आतिशबाजी प्राणहानी, अग्निकांड और पर्यावरण-विनाश का कारण बनती है। पटाखों का धुआँ वायुमंडल को विषाक्त करता है अतः उससे बचना चाहिए। साथ ही इस पावन पर्व के साथ कुछ अनैतिक कुप्रथाएँ- जुआ, नशा और अवैध गतिविधियां- भी जुड़ गई हैं, जिससे अनेक परिवार विनाश का शिकार हो जाते हैं।
यदि यह त्यौहार संयम, सजगता और सामाजिक-सद्भाव के साथ मनाया जाए तो यह समाज को सौहार्द, शांति और कल्याण की दिशा में अग्रसर करता है। इस पर्व का वास्तविक सन्देश अज्ञान-अंधकार को मिटाकर अंतर में ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित करना है अन्यथा यह पर्व मात्र प्रदर्शन, अपव्यय और दुराग्रह का साधन बनकर रह जाता है। “शुभ दीपावली”!


