गुरबाणी और अरदास
श्री गुरु नानक साहिब जी की पाँचवीं ज्योति, श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी महाराज ने अपनी अमूल्य वाणी में अनेक स्थानों पर गहरे आध्यात्मिक और जीवनोपयोगी सत्य प्रकट किए हैं। उनके एक श्लोक में वर्णित एक पौराणिक प्रसंग मानव जीवन की वास्तविकता को अत्यंत सरल किंतु गहन रूप में स्पष्ट करता है।
हिरणी और शिकारी का प्रसंग
गुरु साहिब लिखते हैं कि—
एक हिरणी शिकारी से बचने के लिए दौड़-दौड़ कर थक चुकी है। उसके सामने संकट की चारों दिशाएँ खड़ी हैं। एक ओर शिकारी ने जाल तान रखा है, दूसरी ओर शिकारी का कुत्ता घात लगाए बैठा है। तीसरी दिशा में आग जल रही है और चौथी ओर स्वयं शिकारी बंदूक ताने खड़ा है। इस प्रकार हिरणी के लिए निकलने का कोई मार्ग शेष नहीं बचा।
श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी ने इस स्थिति को गुरबाणी में इस प्रकार अंकित किया हैं—
म्रिगी पेखंत बधिक प्रहारेण लखु आवधह॥
अहो जसु रखेण गोपालह नानक रोम न छेद्वत॥
(सलोक महला 5, अंग 1354)
यह चित्रण केवल हिरणी का नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव जीवन का प्रतीक है। जब प्राणी चारों ओर से संकटों में घिर जाता है और हर ओर अंधकार ही अंधकार दिखाई देता है, तब उसे अपने छोटे-छोटे उपाय निष्फल प्रतीत होते हैं। ऐसे समय में जीव का अंतर्मन परमात्मा की शरण ग्रहण करता है। यही वह क्षण है जब सच्ची प्रार्थना (अरदास) जन्म लेती है।
सच्ची अरदास का प्रभाव
शिकारी हिरणी पर निशाना साधता है। परन्तु उसी क्षण अकाल पुरख की अदृश्य लीला घटित होती है। पीछे से एक साँप आकर शिकारी के पैर में डस लेता है। अचानक चली बंदूक की गोली कुत्ते को जा लगती है। आकाश में तेज़ आँधी उठती है और शिकारी का ताना हुआ जाल उड़ जाता है। उसी समय वर्षा प्रारंभ हो जाती है और प्रज्वलित आग बुझ जाती है।
कुछ ही क्षणों में जो संकट चारों दिशाओं से खड़े थे, वह सब मिट जाते हैं। हिरणी को चारों ओर से मार्ग खुला दिखाई देने लगता है। अब वह जिस ओर चाहे स्वतंत्रतापूर्वक जा सकती है। गुरु साहिब इस प्रसंग से यही शिक्षा देते हैं कि—
शिकारी ने तो हिरणी को शिकार बनाने का प्रयत्न किया था, परन्तु नियति ने अंततः शिकारी को ही शिकार बना डाला।
होनी और अनहोनी का रहस्य
गुरु साहिब इस प्रसंग के माध्यम से समझाते हैं कि संसार में जो कुछ घटित हो रहा है, वह किसी व्यक्ति के करने से नहीं, बल्कि ईश्वर की होनी के विधान से ही होता है। यहाँ कोई “अनहोनी” घटित नहीं होती। हम जिसे अनहोनी कहते हैं, वह वास्तव में हमारी इच्छाओं के विपरीत परिणाम मात्र होता है।
मनुष्य सोचता है कि जो चाहा वह नहीं हुआ और जो नहीं चाहा वही हो गया। इस पीड़ा को वह “अनहोनी” का नाम दे देता है। किंतु गुरबाणी स्पष्ट करती है कि सब कुछ होनी ही है। इसलिए रोना या चिंता करना व्यर्थ है।
चिंता का त्याग
श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की वाणी इस सत्य को और भी स्पष्ट करती है—
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन||
कहु नानक सुनि रे मना गिआनी ताहि बख़ानि||
(अंग क्रमांक 1427)
अर्थात—ज्ञानी वही है जो न किसी को डराता है और न ही किसी का भय मानता है। यदि वास्तव में अनहोनी संभव होती, तो चिंता करना उचित होता। किंतु जब सब कुछ होनी ही है, तब चिंता किस बात की?
निष्कर्ष
गुरबाणी हमें यह दिव्य संदेश देती है कि जीवन में चाहे कितने ही संकट आ जाएँ, मनुष्य को निराश नहीं होना चाहिए। जब वह अपने अंतर्मन से सच्ची अरदास करता है और अकाल पुरख पर पूर्ण विश्वास रखता है, तब होनी का विधान स्वयं उसके पक्ष में कार्य करता है।
जिस प्रकार हिरणी संकटों से घिरकर भी प्रभु की कृपा से मुक्त हो गई, उसी प्रकार मनुष्य भी उस अकाल पुरख की शरण लेकर जीवन की हर विपत्ति से उबर सकता है। यही गुरबाणी का उपदेश है—
अनहोनी कुछ नहीं, सब कुछ होनी ही है।
(विशेष: उपरोक्त आलेख पंजाब में आई बाढ़ से पीड़ित परिवारों को समर्पित किया गया है।)