शोध-पत्र: सारागढ़ी का महायुद्ध
एक अद्वितीय, अनुपम, परंतु उपेक्षित वीरगाथा
(सारागढ़ी युद्ध की 128वीं जयंती (12 सितंबर सन 2025 ई.) को समर्पित)
प्रस्तावना
भारतीय इतिहास में अनेक युद्ध ऐसे घटित हुए हैं, जो वीरता और आत्मबलिदान की पराकाष्ठा के प्रतीक हैं, किंतु समय की धूल में उनकी गौरवगाथा ओझल हो गई। ऐसे ही एक अपूर्व साहस, अटूट निष्ठा और असाधारण सैन्य कौशल का जीवंत दस्तावेज है, सारागढ़ी का महायुद्ध। यह युद्ध महज एक सैनिक संघर्ष नहीं था, अपितु यह भारतीय सिख सैनिकों की उस शौर्य-गाथा का ज्वलंत उदाहरण है, जिसमें 21 सिख रणबांकुरों ने दस हज़ार से अधिक सशस्त्र पठानों के विरुद्ध “मरते दम तक” युद्ध किया और इतिहास के अमर पृष्ठों में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित कर गए।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: समाना पर्वतमाला और खैबर दर्रा
समाना पर्वतमाला, उत्तर-पश्चिम सीमांत पर स्थित वह पर्वतीय श्रृंखला है, जो सहस्राब्दियों से भारतवर्ष के लिए सामरिक दृष्टि से अत्यंत संवेदनशील रही है। यही वह प्रवेशद्वार था, जहाँ से आर्यों का आगमन, सिकंदर की चढ़ाई, ग़ज़नी और गोरी के आक्रमण, और अंततः बाबर का आगमन हुआ। इस भूखण्ड पर रण का तांडव और व्यापार का उत्सव साथ-साथ चलता रहा, कभी तलवारों की झंकार, कभी बाज़ारों की चहल-पहल।
19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, जब रूस और ब्रिटेन के मध्य मध्य एशिया पर प्रभुत्व की होड़, ‘द ग्रेट गेम’ तीव्र हुई, तो ब्रिटिश साम्राज्य ने समाना क्षेत्र में सैन्य संरचनाएँ स्थापित कर रणनीतिक नियंत्रण हेतु किले और संचार केंद्रों की स्थापना प्रारंभ की।
सिखों की सैन्य परंपरा और 36वीं सिख रेजीमेंट का गठन
सिख इतिहास में 17वीं शताब्दी से ही युद्ध कौशल, आत्म-बलिदान और धर्मरक्षा की परंपरा प्रतिष्ठित रही है। शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह और जनरल हरि सिंह नलवा जैसे रणवीरों ने उत्तर-पश्चिम सीमांत को लांघकर पठानों को उन्हीं की धरती पर परास्त किया था। इस वीरगाथा की निरंतरता में, ब्रिटिश शासन ने जब पंजाब को अपने अधीन कर लिया, तब सिख सैनिकों की वीरता से प्रभावित होकर, 23 मार्च 1887 ई. को जालंधर छावनी में 36वीं सिख रेजिमेंट का गठन किया गया।
इस रेजीमेंट में बंगाल इन्फेंट्री और पंजाब फ्रंटियर फोर्स की श्रेष्ठतम कंपनियों से चुने गए 225 वीर सिखों को सम्मिलित किया गया। 5 फीट 8 इंच की ऊँचाई और 36 इंच की छाती वाले योद्धा — ये थे राष्ट्र की रक्षा के लिए चयनित सपूत।
सैन्य तैनाती और सारागढ़ी की स्थापना
प्रशिक्षण के उपरांत यह रेजीमेंट दिल्ली, मणिपुर, और अंततः पेशावर से होकर कोहाट पहुँची। 2 जनवरी सन 1897 ई. को समाना की श्रृंखला में स्थित फोर्ट लॉकहार्ट, फ़ोर्ट गुलिस्तान और सारागढ़ी सहित पाँच सैन्य चौकियों पर दायाँ दल तैनात हुआ। यह क्षेत्र दुर्गम, शत्रु-बहुल और संवेदनशील था, परंतु सिख सैनिकों की निर्भीकता अपराजेय थी।
11 फरवरी 1891 को ‘सारा’ नामक गाँव पर पठानों द्वारा किए गए हमले में पंजाब इन्फैंट्री के 150 सिखों ने वीरता से मोर्चा संभालते हुए पुनः नियंत्रण प्राप्त किया। इसी स्थल को बाद में ‘सारागढ़ी’ कहा गया। मई सन 1891 ई. में इस क्षेत्र में संचार केंद्रों, हेलिओग्राफ प्रणाली, और किलों की स्थापत्य योजना का औपचारिक अनुमोदन किया गया।
किलों का विवरण एवं सामरिक संरचना
फ़ोर्ट गुलिस्तान (6,152 फीट ऊँचाई)
मजबूत पत्थरों से निर्मित यह किला 200 सैनिकों के लिए उपयुक्त था। इसे कैवगनारी भी कहा जाता था, क्योंकि यहाँ जनरल कैवगनारी का प्रभुत्व था।
फ़ोर्ट लॉकहार्ट (पूर्व नाम फ़ोर्ट मस्तान, 6,743 फीट)
12–15 फीट ऊँची दीवारों, बुलेटप्रूफ द्वारों और संकरे प्रवेशद्वार से युक्त यह किला सामरिक दृष्टि से अजेय था।
सारागढ़ी पोस्ट
यह एक संचार केंद्र था जो दोनों किलों, किला लॉकहार्ट और किला गुलिस्तान के मध्य स्थापित किया गया था। हेलिओग्राफ के माध्यम से यह दोनों किलों को जोड़ता था, और यहीं इसका रणनीतिक महत्व था।
सारागढ़ी की वह दोपहर: जब 21 बने सवा लाख
इतिहास के गर्भ में ऐसे क्षण विरल होते हैं, जब मृत्यु के मुख में खड़े होकर मनुष्य अमरत्व का वरण करता है। 12 सितंबर सन 1897 ई, एक ऐसा ही दिन था, जब ‘गुरु पंथ खालसा’ के 21 वीरों ने रणभूमि में न केवल अपने धर्म और कर्तव्य की रक्षा की, बल्कि समस्त मानवता को साहस, निष्ठा और आत्मबलिदान का पाठ पढ़ाया।
सारागढ़ी पोस्ट की संरचना और सामरिक तैनाती
सारागढ़ी पोस्ट, समुद्र तल से 6,200 फीट की ऊँचाई पर स्थित एक संचार चौकी थी, जो फोर्ट लॉकहार्ट और फोर्ट गुलिस्तान के मध्य रणनीतिक रूप से स्थापित की गई थी। हवलदार ईशर सिंह के नेतृत्व में 20 सिख सैनिक और 1 गैर-युद्धक कर्मी (ख़ुदा दाद) यहाँ तैनात थे। यह चौकी भले ही आकार में छोटी थी, परंतु उसमें विराजमान हिम्मत का आयतन आकाश से भी विशाल था।
यह किला सूखे पत्थरों से निर्मित था। इसकी दीवारें 9 फीट ऊँची, 1 फीट मोटी तथा बंदूक की नाल निकालने हेतु 4 इंच की खिड़कियों से युक्त थीं। संदेश संप्रेषण हेतु दक्षिण दिशा में एक ऊँचा हेलिओग्राफ टावर भी निर्मित था। यह तकनीक उस समय अत्यंत आधुनिक मानी जाती थी, जो सूरज की किरणों से ‘मॉर्स कोड’ के संकेत भेजने में सक्षम थी।
पठानों का षड्यंत्र और युद्ध की पूर्वभूमि
25 अगस्त से 11 सितंबर सन 1897 ई तक, ओरकज़ई और अफरीदी पठानों ने कई पोस्टों पर आक्रमण किया। लेकिन जब उनका क्रोध, योजनाएं और हठ सब विफल होने लगे, तो उन्होंने अंतिम हमला सारागढ़ी पर केंद्रित किया। 12 सितंबर सन 1897 ई. को, दस हज़ार से अधिक पठानों ने तीन दिशाओं से पोस्ट को घेर लिया था, चौथी दिशा में गहरी खाई स्वाभाविक सुरक्षा थी।
पठानों ने एक संदेश भेजा:
“यदि तुम आत्मसमर्पण कर दो, तो तुम्हें सुरक्षित फोर्ट लॉकहार्ट भेज दिया जाएगा।”
परंतु उत्तर था “जो बोले सो निहाल… सत श्री अकाल!”
हवलदार ईशर सिंह ने गर्जना करते हुए कहा:
“गुरु का खालसा आत्मसमर्पण नहीं करता, रणभूमि से पीठ नहीं फेरता!”
सारागढ़ी की रणगाथा
सुबह 9:00 बजे, ‘अल्लाह-हू-अकबर’ के नारों के साथ पठानों ने पहला हमला किया, लेकिन सिखों की गोलीबारी से 60 से अधिक पठान ढेर हो गए। सिग्नलमैन गुरमुख सिंह लगातार स्थिति की सूचना हेलिओग्राफ से कमांडर हॉटन को देते रहे। गोलीबारी, तोपों की कमी, और संचार की विफलता, हर बाधा के बीच सिखों ने मोर्चा नहीं छोड़ा।
दोपहर तक, राइफलों की गोलियाँ समाप्त होने लगीं, दरवाजे की लकड़ियाँ जलने लगीं और दीवारों की नींव को तोड़ा जाने लगा। लेकिन जब शत्रु भीतर प्रवेश करने में सफल हुआ, तब भी सिखों ने संगीनों से सीना तान कर युद्ध किया। घायल अवस्था में भी उन्होंने आखिरी सांस तक दुश्मनों को काट गिराया था।
अंतिम मोर्चा: गुरमुख सिंह की अमर बलिदान कथा
जब सब शहीद हो चुके थे, तब अकेले बचे गुरमुख सिंह ने हेलिओग्राफ केस बंद कर, अपनी बंदूक उठाई और मीनार पर चढ़कर अंतिम युद्ध लड़ा। पठानों ने उन्हें पकड़ने के लिए मीनार में आग लगाई, लेकिन उन्होंने अपने लिए एक अंतिम गोली बचाकर रखी थी। जैसे ही शत्रु पास आया, गुरमुख सिंह ने “जो बोले सो निहाल…” का जयघोष कर स्वयं को गोली मार ली, ताकि जीवन की अंतिम साँस भी आत्मसम्मान के साथ निकल सके।
सात घंटों में अमरता
यह युद्ध सुबह 9 बजे से लेकर अपराह्न 4 बजे तक चला। 21 सिखों ने 180–200 पठानों को मार गिराया, शेष को गंभीर रूप से घायल किया। हर सिख वीर ने साबित किया कि वे “एक सिख सवा लाख पर भारी” की परिभाषा मात्र नहीं, प्रमाण हैं।
युद्ध के बाद का दृश्य
जब ब्रिटिश सहायता दल पहुँचा, तो वह उस स्थान पर केवल शहीद सिखों के कटे-फटे शरीर, जलते अवशेष और बिखरे शव देख सके। पोस्ट की दीवारें खड़ी थीं, पर उसमें बस शौर्य की गूँज थी। एक आयरिश सिपाही जे. ए. लिंडसे ने अपनी पत्नी को लिखे पत्र में कहा:
“हर ओर रक्त, राख और वीरता के अवशेष फैले थे। पोस्ट एक समाधि बन चुकी थी, जहाँ 21 वीरों ने अमरत्व पाया था।”
स्मारक और श्रद्धांजलि
शहीदों के सम्मान में एक त्रिकोणीय ‘कैर्न’ स्मारक बनाया गया, जो आज भी वीरता का प्रतीक है। 122 वर्षों बाद, 8 जुलाई सन 2019 ई. को, डॉ. गुरिंदर पाल सिंह जोसन ने इस स्थान पर जाकर अरदास की और पहली बार ‘गुरु खालसा पंथ’ का केसरी निशान साहिब फहराया।
सारागढ़ी युद्ध के 21 शहीद सिख सैनिक एवं 1 कर्मी का विवरण
क्रम | सैन्य पद | नाम | पिता का नाम | ग्राम / स्थान | ज़िला / राज्य |
1 | हवलदार | ईशर सिंह | श्री दौला सिंह | चोड़ा, तहसील जगराांव | ज़िला लुधियाना |
2 | नायक | लाल सिंह | श्री हरि सिंह | धुन्न, तरनतारन | ज़िला अमृतसर |
3 | नायक | चंदा सिंह | श्री रतियो सिंह | संधू, तहसील थांदे | ज़िला पटियाला |
4 | सिपाही | सुंदर सिंह | श्री सुध सिंह | बल्लियां, समराला | ज़िला लुधियाना |
5 | सिपाही | उत्तम सिंह | श्री लहणा सिंह | चढ़ाइक | ज़िला मोगा / फिरोज़पुर छावनी |
6 | सिपाही | राम सिंह | श्री भगवान सिंह | साधोपुर | ज़िला अंबाला |
7 | सिपाही | हीरा सिंह | श्री बरा सिंह | दुल्लाओरुल्ला | ज़िला लाहौर (अब पाकिस्तान) |
8 | सिपाही | दिया सिंह | श्री संगत सिंह | खड़ग सिंह वाला, चमन | ज़िला पटियाला |
9 | सिपाही | जीवन सिंह | श्री हीरा सिंह | संगतपुर, नकोदर | ज़िला जालंधर |
10 | सिपाही | नारायण सिंह | श्री गूजर सिंह | थालीवाल, नकोदर | ज़िला जालंधर |
11 | सिग्नलमैन | गुरमुख सिंह (814) | श्री गूजर सिंह | कमाना | ज़िला होशियारपुर |
12 | सिपाही | जीवन सिंह | श्री नूपा सिंह | थावल, बसी | ज़िला पटियाला |
13 | सिपाही | गुरमुख सिंह | श्री रण सिंह | धामुंडा | ज़िला जालंधर |
14 | सिपाही | राम सिंह | श्री सोहल सिंह | कंधोला | ज़िला जालंधर |
15 | सिपाही | भगवान सिंह | श्री हीरा सिंह | लोहगढ़ अमरगढ़ | ज़िला पटियाला |
16 | सिपाही | भगवान सिंह | श्री बीर सिंह | मुंडियाला | ज़िला लुधियाना |
17 | सिपाही | बुट्टा सिंह | श्री चढ़ाइक सिंह | शेरपुर, फिल्लौर | ज़िला जालंधर |
18 | सिपाही | जीवन सिंह | श्री कृपा सिंह | गूरिया, फिल्लौर | ज़िला जालंधर |
19 | सिपाही | नंद सिंह | श्री देवी दत्ता | अटवाल | ज़िला होशियारपुर |
20 | सिपाही | साहिब सिंह | श्री रण सिंह | चक 470, तहसील समुंदरी | ज़िला लाहौर (अब पाकिस्तान) |
21 | सिपाही | भोला सिंह | — | — | — |
22 | सफाई कर्मी (NCE) | खुदा दाद | — | नौशहरा | नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस (पाकिस्तान) |
नोट:
विशेष नोट- “इस शोध-पत्र की प्रेरणा डॉ. गुरिंदरपाल सिंह जोसन (यू.एस.ए.) द्वारा रचित पुस्तक ‘The Epic Battle of SARAGARHI’ से प्राप्त हुई है, जिसका प्रकाशन ‘सारागढ़ी फाउंडेशन’ द्वारा वर्ष 2022 में, सारागढ़ी युद्ध की 125वीं जयंती (12 सितंबर 2022) के शुभ अवसर पर विशेष रूप से किया गया था।”
क्रमांक 4 (सिपाही सुंदर सिंह): पट्टिकाओं में नाम की त्रुटि उल्लेखनीय है — फ़ोर्ट लॉकहार्ट पर “सुंदर सिंह”, जबकि अन्य स्मारकों पर “सुध सिंह, पुत्र सुंदर सिंह” अंकित है।
भोला सिंह (क्रम 21): उपलब्ध अभिलेखों में इनके पिता व ग्राम का उल्लेख नहीं है।