नलकी
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के प्रथम प्रकाश पर्व (24 अगस्त सन 2025 ईस्वी.) को समर्पित-
“नलकी” — यह एक विशेष यंत्र है, पुरातन समय से ही जिसका प्रयोग तोते को पकड़ने हेतु किया जाता है। इसे बाँस की पतली नली से बनाया जाता है, जिसे एक सरिए में पिरोकर किसी जलपात्र अथवा कुण्ड के ऊपर लटकाया जाता है। जब कोई तोता इस नली पर बैठता है, तो वह नली घूम जाती है, जिससे तोता उल्टा होकर पानी के ऊपर लटक जाता है। पानी में डूबने के भयवश वह इस नली को नहीं छोड़ता। इस प्रकार, सरलता से उसे पकड़कर पिंजरे में डाल दिया जाता है।
यह ‘नलकी’ केवल एक पक्षी पकड़ने का यंत्र नहीं अपितु यह एक गहन प्रतीक है मनुष्य के अहंकार की गिरफ्त का।
जब मनुष्य अपने भीतर यह विचार पाल लेता है कि- “मैं कुछ बन गया हूँ,”
तब वह भी इसी प्रकार अहंकार रूपी नलकी पर जाकर बैठता है और उसी में उलझकर रह जाता है, जैसे वह भोला तोता चुग्गे के मोह में फँस जाता है।
जब कोई अपने को ‘भक्त’ या ‘ज्ञानी’ समझने लगता है, तो प्रभु की सच्ची दरगाह (सचखंड़) में उसकी भक्ति और ज्ञान को तनिक भी महत्त्व नहीं मिलता।
घमंड में यदि वह कहने लगे कि— “मैं उत्तम व्याख्याता हूँ,”
तो वह उस फेरीवाले व्यापारी की भाँति होता है, जो अपना माल बेचने हेतु नगर-नगर, गली-गली आवाज लगाता फिरता है। उसका माल तो बिकता है, मूल्य भी प्राप्त करता है, किंतु वह स्वयं उस माल का कोई सुख नहीं भोगता।
ठीक वैसे ही, यह व्याख्यान कर्ता भी शब्द बेचकर धन तो अर्जित कर लेता है, किंतु उसे आत्मिक शांति का कोई अनुभव नहीं होता।
परंतु —
जिसने साध-संगत की कृपा से अपने अहंकार (हौमै) को जला दिया है,
जिसने अपने भीतर की ‘मैं-ता’ को साधुजनों की संगति में समाप्त कर दिया है—
केवल वही प्रभु मुरारी की कृपा का पात्र बनता है।
गुरुबाणी से भावपूर्ण उद्धरण
(श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी, अंग 255)
जजा जानै हउ कछु हूआ ॥ बाधिओ जिउ नलिनी भ्रमि सूआ ॥
जउ जानै हउ भगतु गिआनी ॥ आगै ठाकुरि तिलु नही मानी ॥
जउ जानै मै कथनी करता ॥ बिआपारी बसुधा जिउ फिरता ॥
साधसंगि जिह हउमै मारी ॥ नानक ता कर मिले मुरारी ॥२४॥
(अंग क्रमांक 255)
भावार्थ –
जब कोई व्यक्ति यह सोचता है कि ‘मैं कुछ बन गया हूँ’, तो वह भ्रमवश उसी प्रकार बाँध लिया जाता है, जैसे तोता नलकी में फँस जाता है। यदि कोई स्वयं को भक्त या ज्ञानी समझे, तो प्रभु की दरगाह में उसकी कोई मान्यता नहीं होती। यदि कोई स्वयं को श्रेष्ठ वक्ता मान ले, तो वह उस व्यापारी के समान हो जाता है, जो पृथ्वी पर घूम-घूमकर व्यापार करता है, किंतु स्वयं अपने सौदे से कोई आनंद नहीं पाता।
हे नानक! जो साध-संगत की शक्ति से अपने अहंकार को मिटा देता है,
केवल वही मुरारी प्रभु को प्राप्त करता है।
धन्य हैं श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की दिव्य वाणी,
जो हमें भीतर के बंधनों को तोड़ने की राह दिखाती है।
अहंकार से मुक्ति, साध-संग की शक्ति और प्रभु से मिलन, यही सच्चा प्रकाश है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी को कोटि-कोटि वंदन!
उनकी वाणी की महिमा अपरंपार है।
