द्वितीय विश्व युद्ध में विक्टोरिया क्रॉस (वीसी) जीतने सिख सैनानी-
विक्टोरिया क्रॉस (वीसी) ब्रिटिश सशस्त्र बलों का सर्वोच्च और सबसे प्रतिष्ठित अलंकरण है। यह “शत्रु की उपस्थिति में” वीरता के लिए प्रदान किया जाता है। इसकी स्थापना 29 जनवरी 1856 को महारानी विक्टोरिया द्वारा क्रीमियन युद्ध (1854-1856) के दौरान प्रदर्शित वीरता को सम्मानित करने के लिए की गई थी।
यहां विक्टोरिया क्रॉस के बारे में कुछ मुख्य बातें दी गई हैं:
* यह दुश्मन के सामने अत्यंत बहादुरी के युद्ध करने के लिए दिया जाता है।
* यह किसी भी रैंक या पृष्ठभूमि के व्यक्ति को दिया जा सकता है।
* यह मरणोपरांत भी प्रदान किया जा सकता है।
* पदक कांस्य का बना होता है, जिसे क्रीमियन युद्ध में पकड़ी गई रूसी तोपों से ढाला गया माना जाता है।
* पदक के अग्रभाग पर शाही मुकुट पर खड़ा एक शेर और नीचे “FOR VALOUR” (वीरता के लिए) शब्द अंकित हैं।
* पदक एक गहरे लाल रंग के रिबन से लटका होता है (सन 1918 ई. तक नौसेना के पुरस्कारों के लिए नीला रिबन था)।
* पदक के पीछे वीरता की तारीख और प्राप्तकर्ता का नाम, रैंक और इकाई अंकित होती है।
विक्टोरिया क्रॉस को ब्रिटिश सम्मान प्रणाली में सभी अन्य आदेशों और पदकों से ऊपर प्रथम क्रमांक की वरीयता दी जाती है, और प्राप्तकर्ता अपने नाम के बाद “VC” अक्षर जोड़ सकते हैं। इसकी स्थापना के बाद से, सन 1358 ई. से विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किए गए हैं।
विक्टोरिया क्रॉस जीतने वाले सिख-
कैप्टन ईशर सिंह
विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित प्रथम सिख सैनिक की अमर गाथा
जब इतिहास के पृष्ठों में वीरता की मिसालें खोजी जाती हैं, तब कुछ नाम स्वर्णाक्षरों में स्वयं को अंकित कर लेते हैं। ऐसा ही एक नाम है, कैप्टन ईशर सिंह, जो ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा प्रदत्त सर्वोच्च युद्ध सम्मान विक्टोरिया क्रॉस से विभूषित होने वाले प्रथम सिख सैनिक थे। उनकी यह गाथा केवल पदक तक सीमित नहीं, बल्कि साहस, सेवा, समर्पण और सिख परंपरा के गौरव की ऐसी जीवंत कथा है, जो आज भी जनमानस को प्रेरणा देती है।
एक सपूत का जन्म और सैन्य जीवन की शुरुआत
कैप्टन ईशर सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत की पुण्य भूमि पर हुआ था, जहाँ सेवा और शौर्य को जीवन का ध्येय माना जाता था। एक सिख परिवार से आने वाले ईशर सिंह में बचपन से ही सेवा, संयम और साहस के बीज अंकुरित थे। उन्होंने सेना में 28वीं पंजाब रेजिमेंट के सिपाही के रूप में सेवा प्रारंभ की, उस दौर में जब भारत के 13 लाख से अधिक युवाओं ने ब्रिटिश साम्राज्य की सेना में स्वेच्छा से भर्ती होकर विश्वयुद्ध के मोर्चों पर डटकर युद्ध लड़ा।
वीरता का पराक्रम: वज़ीरिस्तान अभियान
10 अप्रैल 1921– यह दिन इतिहास के पन्नों में एक अद्भुत शौर्यगाथा के रूप में अंकित हो गया। उत्तर-पश्चिम सीमा पर स्थित हैदरी कच (वज़ीरिस्तान) के मोर्चे पर जब 28वीं पंजाब रेजिमेंट की टुकड़ी पर घातक हमला हुआ, तब 25 वर्षीय सिपाही ईशर सिंह एक लुईस गन सेक्शन में तैनात थे।
शत्रु की घातक गोलीबारी के दौरान उन्हें छाती पर गंभीर गोली लगी और वे ज़मीन पर गिर पड़े। स्थिति अत्यंत विकट थी उनके अधिकांश अधिकारी और हवलदार या तो मारे गए थे या घायल। इसी बीच शत्रु ने उनकी लुईस गन भी कब्जे में ले ली।
बहादुर परन्तु, ईशर सिंह उठे। लहूलुहान अवस्था में भी उन्होंने दो और साथियों को बुलाकर दुश्मन पर धावा बोला, गन को पुनः कब्जे में लिया और मोर्चे पर पुनः स्थापित किया। इस अदम्य साहस ने न केवल उनकी टुकड़ी की रक्षा की, बल्कि युद्ध के परिणाम को भी प्रभावित किया।
कर्तव्य की पराकाष्ठा
जब उनके जमादार ने उन्हें पीठ पीछे हटकर चिकित्सा सहायता लेने को कहा, तब उन्होंने उस आज्ञा का भी त्याग कर दिया। वह घायल साथियों की देखभाल, उन्हें पानी पिलाने और उनकी स्थिति की जानकारी देने में लग गए। दुश्मन की लगातार हो रही गोलीबारी के बीच वे अनेक बार नदी तक गए और लौटे, केवल इसलिए कि किसी प्यासे घायल सैनिक को राहत मिले।
एक घायल सैनिक की मरहम-पट्टी कर रहे चिकित्सा अधिकारी को ढाल देने के लिए उन्होंने स्वयं को उसके सामने खड़ा कर दिया। तीन घंटे तक वह अपने कर्तव्य की पराकाष्ठा करते रहे, और जब अंततः उन्हें निकासी के लिए ले जाया गया, तब वे रक्त की अत्यधिक हानि के कारण निःशक्त हो चुके थे।
विक्टोरिया क्रॉस का सम्मान
25 नवम्बर 1921 को लंदन गजट के विशेष परिशिष्ट में प्रकाशित हुआ वह प्रशस्ति-पत्र, जिसने ईशर सिंह को विक्टोरिया क्रॉस के सम्मान से विभूषित किया। यह पदक केवल ‘दुश्मन के सामने’ असाधारण साहस दिखाने वाले सैनिकों को दिया जाता है, और ईशर सिंह इसके लिए पूर्णतः योग्य सिद्ध हुए।
ब्रिटिश सम्राट की ओर से प्रदान किया गया यह सम्मान न केवल उनके व्यक्तिगत पराक्रम की स्वीकृति थी, बल्कि सिख वीरता की भी अंतरराष्ट्रीय मान्यता थी।
सिख परंपरा की गौरवशाली झलक
ईशर सिंह ने केवल युद्ध नहीं लड़ा, उन्होंने सिख धर्म के “सच्चा साहिबजादा” होने का परिचय दिया। साहस और सेवा की संगति ही सिख मर्यादा की आत्मा है — और उन्होंने इसे अपने रक्त से लिखा।
उनकी वंशज पीढ़ियाँ आज ऑस्ट्रेलिया के मेलबर्न और कैलगरी (कनाडा) में निवास करती हैं। वहाँ भी उनकी गाथा परिवारजनों द्वारा सम्मान और गर्व से सुनाई जाती है।
प्रशंसा की सीमाओं से परे वीरता
उनके अधिकारी कैप्टन बर्नार्ड ओडी ने स्वयं उन्हें विक्टोरिया क्रॉस हेतु नामित किया। युद्ध कार्यालय की आधिकारिक घोषणा में यह स्पष्ट कहा गया:
“उनकी वीरता और कर्तव्यपरायणता प्रशंसा से परे थी। उनका आचरण उन सभी को प्रेरित कर गया जिन्होंने उन्हें देखा।”
उच्च पद, उच्च सम्मान
बाद में वे कैप्टन के पद तक पदोन्नत हुए और द्वितीय विश्व युद्ध में भी सेवा की। इसके साथ ही उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ़ ब्रिटिश इंडिया, फर्स्ट क्लास’ से भी अलंकृत किया गया और ‘सरदार बहादुर’ की उपाधि प्राप्त हुई।
उनका विक्टोरिया क्रॉस पदक अब लॉर्ड एशक्रॉफ्ट के ऐतिहासिक संग्रह में संरक्षित है।
उपसंहार: एक अमर गाथा
कैप्टन ईशर सिंह का जीवन किसी भी प्रकार के संकोच, भय या आत्म-संवरण से परे था। वे जीवित रहे तो सिख धर्म की लाज रखी और जब घायल हुए तो दूसरों की सेवा में पीछे नहीं हटे। वह न केवल युद्धक्षेत्र में जीते, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के दिलों में भी।
उनकी गाथा हमें यह सिखाती है कि-
“वीरता वह नहीं जो केवल हथियारों से लड़ी जाए, वीरता वह है जो सेवा, सहानुभूति और कर्तव्य की भावना से जन्म ले।”
ईशर सिंह एक सैनिक नहीं, एक विचार हैं- जो हमें साहस के साथ मानवता का पाठ पढ़ाते हैं।

सूबेदार खुशहाल सिंह (मरणोपरांत), 27वीं बॉम्बे पायनियर
सूबेदार खुशहाल सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत (अब पाकिस्तान में) के एक छोटे से गाँव में हुआ था। उनकी जन्मतिथि और प्रारंभिक जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह ज्ञात है कि उन्होंने युवावस्था में ही ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती होकर अपने शौर्य और कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देना शुरू कर दिया था। उनकी शारीरिक क्षमता, अनुशासन और अटूट साहस ने उन्हें जल्द ही अपने साथियों और अधिकारियों के बीच सम्मान दिलाया।खुशहाल सिंह 27वीं बॉम्बे पायनियर का हिस्सा थे, जो ब्रिटिश भारतीय सेना की एक प्रतिष्ठित इंजीनियर रेजिमेंट थी। इस रेजिमेंट के जवान पुल बनाने, सड़कें दुरुस्त करने और अन्य महत्वपूर्ण निर्माण कार्यों में विशेषज्ञता रखते थे, अक्सर युद्ध के मैदान के करीब और शत्रु की सीधी गोलीबारी के खतरे के बीच। यह कार्य न केवल तकनीकी कौशल बल्कि अदम्य साहस और धैर्य की भी मांग करता था, और खुशहाल सिंह इन गुणों के प्रतीक थे।प्रथम विश्व युद्ध (1914-1918) के दौरान, 27वीं बॉम्बे पायनियर ने विभिन्न महत्वपूर्ण युद्ध क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दीं। खुशहाल सिंह ने इस दौरान कई चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में अपनी बहादुरी का प्रदर्शन किया। उनके साथी उन्हें एक शांत, दृढ़ निश्चयी और कर्तव्यपरायण सैनिक के रूप में याद करते थे, जो कभी भी मुश्किलों से घबराता नहीं था और हमेशा अपने साथियों की सहायता के लिए तत्पर रहता था।खुशहाल सिंह को मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस (VC) से सम्मानित किया गया था। विक्टोरिया क्रॉस ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल सेनाओं में दुश्मन के सामने प्रदर्शित असाधारण वीरता के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सैन्य सम्मान है। खुशहाल सिंह को यह सम्मान किस विशिष्ट कार्रवाई के लिए मिला, इसके बारे में ऐतिहासिक अभिलेखों में अलग-अलग विवरण मिलते हैं।कुछ स्रोतों के अनुसार, उन्हें यह सम्मान प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) में लड़ी गई एक महत्वपूर्ण लड़ाई में प्रदर्शित अद्वितीय साहस के लिए दिया गया था। कहा जाता है कि उनकी पलटन एक कठिन परिस्थिति में फंस गई थी, और दुश्मन की भारी गोलीबारी के बावजूद, खुशहाल सिंह ने न केवल अपने साथियों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया बल्कि अकेले ही दुश्मन के कई ठिकानों को निष्क्रिय कर दिया। इस कार्रवाई में उन्होंने अपनी जान की परवाह नहीं की और अंततः वीरगति को प्राप्त हुए।एक अन्य विवरण के अनुसार, उन्हें यह सम्मान किसी अन्य सैन्य कार्रवाई में उनकी असाधारण बहादुरी और नेतृत्व क्षमता के लिए दिया गया था, जहाँ उन्होंने अपने घायल साथियों की रक्षा करते हुए दुश्मन का डटकर मुकाबला किया था। सटीक घटना जो उनके विक्टोरिया क्रॉस का कारण बनी, भले ही अस्पष्ट हो, यह निर्विवाद है कि खुशहाल सिंह ने असाधारण वीरता और आत्म-बलिदान का प्रदर्शन किया, जो उन्हें सर्वोच्च सैन्य सम्मान का हकदार बनाता है।विक्टोरिया क्रॉस प्राप्त करने वाले भारतीय सैनिकों की सूची में सूबेदार खुशहाल सिंह का नाम हमेशा गर्व के साथ लिया जाता है। यह सम्मान न केवल उनकी व्यक्तिगत बहादुरी का प्रतीक है, बल्कि उन सभी गुमनाम नायकों को भी श्रद्धांजलि है जिन्होंने ब्रिटिश भारतीय सेना में अपनी सेवाएं दीं और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया।खुशहाल सिंह का जीवन और बलिदान हमें सिखाता है कि कर्तव्यनिष्ठा, साहस और आत्म-बलिदान किसी भी सैनिक के लिए सबसे महत्वपूर्ण गुण होते हैं। उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्य का पालन किया और अपने साथियों की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। उनकी कहानी आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेगी।सूबेदार खुशहाल सिंह का नाम भारतीय सैन्य इतिहास के अमर नायकों में हमेशा जीवित रहेगा। उनका विक्टोरिया क्रॉस उनकी अदम्य भावना और सर्वोच्च बलिदान का प्रतीक है, जो हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा कि वीरता और कर्तव्यनिष्ठा की कोई सीमा नहीं होती। उनकी स्मृति को शत-शत नमन।

नाइक नंद सिंह, 1/11वीं सिख रेजिमेंट
प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि:
नायक नंद सिंह का जन्म सन 1914 ई. में ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत (अब पाकिस्तान में) के बहादुरपुर गाँव में एक सिख परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार भोला सिंह और माता का नाम श्रीमती ईश्वर कौर था। बचपन से ही नंद सिंह शारीरिक रूप से मजबूत और साहसी स्वभाव के थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल में प्राप्त की। ग्रामीण परिवेश और सिख परंपराओं ने उनके चरित्र और मूल्यों को आकार दिया। उनमें बचपन से ही सेवा और बलिदान की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी, जो सिख धर्म के सिद्धांतों और योद्धा परंपरा से प्रेरित थी।
सैन्य सेवा में प्रवेश:
युवावस्था में, नंद सिंह ने ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती होने का निर्णय लिया। उनकी शारीरिक क्षमता और दृढ़ संकल्प को देखते हुए, उन्हें 1/11वीं सिख रेजिमेंट में शामिल किया गया। यह रेजिमेंट अपनी बहादुरी और युद्ध कौशल के लिए जानी जाती थी। नंद सिंह ने अपनी रेजिमेंट में कठोर प्रशिक्षण प्राप्त किया और एक कुशल सैनिक के रूप में उभरे। उन्होंने जल्द ही अपनी कर्तव्यनिष्ठा और अनुशासन से अपने साथियों और अधिकारियों का सम्मान अर्जित कर लिया।
द्वितीय विश्व युद्ध में योगदान:
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, 1/11वीं सिख रेजिमेंट को विभिन्न युद्ध क्षेत्रों में तैनात किया गया था। नायक नंद सिंह ने कई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में भाग लिया और अपनी वीरता का परिचय दिया। बर्मा अभियान के दौरान उनकी बहादुरी विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
बर्मा अभियान और विक्टोरिया क्रॉस:
मई सन 1944 ई. में, बर्मा के अराकन क्षेत्र में, 1/11वीं सिख रेजिमेंट जापानी सेना के खिलाफ एक महत्वपूर्ण लड़ाई में उलझी हुई थी। नायक नंद सिंह उस समय एक अग्रिम प्लाटून का नेतृत्व कर रहे थे। जापानी सेना ने रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण एक पहाड़ी पर मजबूत किलेबंदी कर रखी थी। इस पहाड़ी पर कब्जा करना मित्र देशों की सेना के लिए अत्यंत आवश्यक था।
नंद सिंह और उनकी प्लाटून को इस पहाड़ी पर हमला करने का आदेश दिया गया। दुश्मन की भारी गोलाबारी और मशीनगन की आग के बावजूद, नंद सिंह ने अदम्य साहस का प्रदर्शन करते हुए अपने सैनिकों का नेतृत्व किया। उन्होंने तीन दुश्मन बंकरों पर अकेले ही हमला किया। पहले बंकर पर ग्रेनेड फेंककर उन्होंने उसमें मौजूद दुश्मनों को मार गिराया। इस दौरान वे बुरी तरह से घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
अपने गंभीर घावों की परवाह किए बिना, नंद सिंह ने दूसरे बंकर पर धावा बोला और उसे भी नष्ट कर दिया। इस हमले में उन्हें और भी गंभीर चोटें आईं, लेकिन उनका हौसला चट्टान की तरह अडिग था। उन्होंने अपने सैनिकों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया।
अंत में, नंद सिंह ने तीसरे दुश्मन बंकर पर भी हमला किया और उसे अपने कब्जे में ले लिया। इस अंतिम हमले में उन्हें इतनी गहरी चोटें आईं कि वे कुछ ही देर बाद वीरगति को प्राप्त हो गए।
नायक नंद सिंह के इस अद्वितीय पराक्रम और आत्म-बलिदान के कारण उनकी प्लाटून पहाड़ी पर कब्जा करने में सफल रही। उनके इस असाधारण शौर्य और कर्तव्यनिष्ठा के लिए उन्हें मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। विक्टोरिया क्रॉस ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल सेनाओं का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार है।
विक्टोरिया क्रॉस प्रशस्ति पत्र:
नायक नंद सिंह को विक्टोरिया क्रॉस निम्नलिखित शब्दों में प्रदान किया गया था:
“यह गैलेंट्री के लिए प्रदान किया जाता है: –
नायक नंद सिंह का यह अद्वितीय पराक्रम और आत्म-बलिदान उनकी प्लाटून को अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सक्षम बनाया। उन्होंने कर्तव्य के प्रति अटूट निष्ठा और असाधारण वीरता का प्रदर्शन किया, जो भारतीय सेना की परंपराओं के अनुरूप है।”
विरासत और प्रेरणा:
नायक नंद सिंह का बलिदान और वीरता आज भी भारतीय सेना और पूरे देश के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनका नाम साहस और कर्तव्यनिष्ठा के पर्याय के रूप में इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उनकी कहानी युवा पीढ़ी को देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने की प्रेरणा देती है।
उनके सम्मान में कई स्मारक और संस्थान स्थापित किए गए हैं। उनकी बहादुरी की कहानियाँ सैन्य प्रशिक्षण संस्थानों में सुनाई जाती हैं ताकि सैनिकों में वीरता और बलिदान की भावना जागृत हो सके। नायक नंद सिंह का जीवन हमें सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी अटूट साहस और दृढ़ संकल्प से किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया, और वह हमेशा हमारी स्मृतियों में जीवित रहेंगे।

हवलदार प्रकाश सिंह, 8वीं पंजाब रेजिमेंट
हवलदार प्रकाश सिंह भारतीय सेना के एक ऐसे वीर योद्धा थे, जिन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अद्वितीय साहस और कर्तव्यनिष्ठा का परिचय देते हुए सर्वोच्च ब्रिटिश सैन्य सम्मान, विक्टोरिया क्रॉस (VC) प्राप्त किया। उनकी बहादुरी और बलिदान की कहानी आज भी भारतीय सैन्य इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज है।
प्रकाश सिंह का जन्म सन 1912 ई. में अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के रोपड़ जिले के चक 25 गाँव में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। बचपन से ही वे शारीरिक रूप से मजबूत और साहसी स्वभाव के थे। उनकी रगों में देशभक्ति का जज्बा कूट-कूट कर भरा था, और इसी भावना ने उन्हें भारतीय सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
युवावस्था में ही प्रकाश सिंह ब्रिटिश भारतीय सेना की 8वीं पंजाब रेजिमेंट में भर्ती हो गए। अपनी लगन, अनुशासन और शारीरिक दक्षता के कारण उन्होंने जल्द ही अपनी रेजिमेंट में एक विशिष्ट पहचान बना ली। उन्हें एक कर्तव्यनिष्ठ और कुशल सैनिक के रूप में जाना जाता था, जो हमेशा अपने साथियों की मदद के लिए तत्पर रहते थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, 8वीं पंजाब रेजिमेंट को बर्मा (वर्तमान म्यांमार) के मोर्चे पर तैनात किया गया था। यह मोर्चा मित्र राष्ट्रों और जापानी सेना के बीच एक महत्वपूर्ण युद्ध क्षेत्र था, जहाँ भीषण लड़ाइयाँ हो रही थीं। हवलदार प्रकाश सिंह अपनी यूनिट के साथ कई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में शामिल रहे और हर बार उन्होंने अदम्य साहस का प्रदर्शन किया।
19 जनवरी सन 1943 ई. को बर्मा के डोनब्युक क्षेत्र में एक निर्णायक लड़ाई के दौरान हवलदार प्रकाश सिंह ने वह असाधारण वीरता दिखाई, जिसके लिए उन्हें विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। इस दिन, उनकी पलटन जापानी सेना के एक मजबूत गढ़ पर हमला कर रही थी। दुश्मन की भारी गोलीबारी के कारण भारतीय सैनिक आगे बढ़ने में कठिनाई महसूस कर रहे थे।
इस नाजुक स्थिति में, हवलदार प्रकाश सिंह ने स्वयं पहल की और अपनी जान की परवाह किए बिना दुश्मन की मशीनगन पोस्ट की ओर अकेले ही दौड़ पड़े। उन्होंने अपनी राइफल और ग्रेनेड का इस्तेमाल करते हुए दुश्मन पर जोरदार हमला किया। उनकी अचानक और तीव्र कार्रवाई से दुश्मन अचंभित हो गया और उनकी मशीनगन खामोश हो गई।
हवलदार प्रकाश सिंह ने यहीं नहीं रुके। उन्होंने एक और दुश्मन की पोस्ट पर हमला किया और उसे भी निष्क्रिय कर दिया। उनकी इस बहादुरी के कारण उनकी पलटन को आगे बढ़ने और दुश्मन के गढ़ पर कब्जा करने में सफलता मिली। इस पूरी कार्रवाई के दौरान, हवलदार प्रकाश सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने अपनी चोटों की परवाह किए बिना लड़ना जारी रखा जब तक कि लक्ष्य हासिल नहीं हो गया।
हवलदार प्रकाश सिंह की इस अद्वितीय वीरता और निस्वार्थ बलिदान के लिए उन्हें मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया। विक्टोरिया क्रॉस ब्रिटिश और राष्ट्रमंडल सेनाओं का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार है, जो दुश्मन के सामने अत्यधिक बहादुरी दिखाने वाले सैनिकों को प्रदान किया जाता है।
हवलदार प्रकाश सिंह का विक्टोरिया क्रॉस गैजेट 9 मार्च सन 1943 ई. को लंदन गजट में प्रकाशित हुआ था। इस गैजेट में उनकी बहादुरी का विस्तृत विवरण दिया गया था, जिसमें उनके अदम्य साहस, नेतृत्व क्षमता और कर्तव्यनिष्ठा की सराहना की गई थी।
हवलदार प्रकाश सिंह का बलिदान भारतीय सेना के लिए एक प्रेरणा स्रोत बन गया। उनकी कहानी सैनिकों को कर्तव्यनिष्ठा, साहस और बलिदान की भावना से प्रेरित करती है। उन्हें हमेशा एक ऐसे वीर योद्धा के रूप में याद किया जाएगा, जिन्होंने अपने देश और अपने साथियों के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए।
स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने भी हवलदार प्रकाश सिंह के सम्मान में कई कदम उठाए। उनके गाँव और क्षेत्र में उनकी स्मृति में स्मारक बनाए गए, और उनके नाम पर स्कूलों और सड़कों का नामकरण किया गया। उनकी वीरता की कहानियाँ आज भी सैन्य अकादमियों और स्कूलों में सुनाई जाती हैं, ताकि नई पीढ़ी के लोग उनसे प्रेरणा ले सकें।
हवलदार प्रकाश सिंह का जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची वीरता शारीरिक शक्ति से कहीं बढ़कर होती है। यह कर्तव्यनिष्ठा, साहस और निस्वार्थ सेवा की भावना से आती है। उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी हार नहीं मानी और अपने प्राणों की आहुति देकर अपने साथियों और अपने देश को विजय दिलाई।
आज जब हम हवलदार प्रकाश सिंह जैसे वीर योद्धाओं को याद करते हैं, तो हमें उनके बलिदान का सम्मान करना चाहिए और उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। उनकी कहानी हमें यह याद दिलाती है कि स्वतंत्रता और सुरक्षा की कीमत अनमोल होती है, और इसे बनाए रखने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए।
हवलदार प्रकाश सिंह, 8वीं पंजाब रेजिमेंट के एक सच्चे सिपाही और विक्टोरिया क्रॉस के एक योग्य विजेता थे। उनका नाम भारतीय सैन्य इतिहास में हमेशा अमर रहेगा। उनकी वीरता और बलिदान की गाथा पीढ़ियों तक प्रेरणा देती रहेगी।

लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह जज (मरणोपरांत), वी.सी.
लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह जज का जन्म सन 1912 ई. में अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत के गुजरांवाला जिले के चक रामदास गाँव में हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय विद्यालय में प्राप्त की और फिर आगे की पढ़ाई के लिए खालसा कॉलेज, अमृतसर में दाखिला लिया। एक प्रतिभाशाली और उत्साही युवा के रूप में, करमजीत सिंह में नेतृत्व के गुण बचपन से ही दिखाई देते थे।
सन 1941 ई. में, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, करमजीत सिंह भारतीय सेना में शामिल हुए और उन्हें 4/15वीं पंजाब रेजिमेंट में कमीशन प्राप्त हुआ। अपनी निष्ठा, अनुशासन और त्वरित सीखने की क्षमता के कारण, उन्होंने जल्द ही अपने साथियों और वरिष्ठ अधिकारियों के बीच सम्मान अर्जित कर लिया। उन्हें एक साहसी और दृढ़ निश्चयी अधिकारी के रूप में जाना जाता था, जो हमेशा अपने सैनिकों का नेतृत्व करने के लिए आगे रहते थे।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, 18 मार्च सन 1945 ई. को बर्मा (वर्तमान म्यांमार) में इम्फाल की लड़ाई के दौरान लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह जज ने अद्वितीय वीरता और आत्म-बलिदान का प्रदर्शन किया। उनकी पलटन पर एक दृढ़ता से स्थापित जापानी चौकी पर हमला करने का कार्यभार सौंपा गया था। दुश्मन की भारी गोलाबारी और मशीनगन की आग के बावजूद, लेफ्टिनेंट जज ने व्यक्तिगत रूप से अपने सैनिकों का नेतृत्व करते हुए कई दुश्मन बंकरों पर धावा बोला।
एक महत्वपूर्ण क्षण में, जब उनकी पलटन दुश्मन की एक मजबूत स्थिति से भारी दबाव में थी, लेफ्टिनेंट जज ने अकेले ही आगे बढ़कर दुश्मन की मशीनगन पोस्ट पर ग्रेनेड फेंके और उसे निष्क्रिय कर दिया। इस साहसिक कार्रवाई के दौरान वे गंभीर रूप से घायल हो गए थे, लेकिन उन्होंने पीछे हटने से इनकार कर दिया और अपने सैनिकों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे। अपनी गंभीर चोटों के बावजूद, उन्होंने तब तक लड़ना जारी रखा जब तक कि दुश्मन की स्थिति पर कब्जा नहीं कर लिया गया।
लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह जज ने कर्तव्य की पुकार पर अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनकी अद्वितीय बहादुरी, दृढ़ संकल्प और निस्वार्थ नेतृत्व के लिए उन्हें मरणोपरांत विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया, जो ब्रिटिश साम्राज्य का सर्वोच्च सैन्य अलंकरण है। उनका बलिदान भारतीय सैन्य इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा और वे आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बने रहेंगे।
लेफ्टिनेंट करमजीत सिंह जज का नाम साहस और बलिदान के पर्याय के रूप में भारतीय सेना के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि कर्तव्य के प्रति समर्पण और निस्वार्थ सेवा किसी भी चुनौती पर विजय प्राप्त कर सकती है।
