पहाड़ियों की पुकार

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पहाड़ियों की पुकार

सूरज की पहली किरणों ने जैसे ही दार्जिलिंग की वादियों से धुंध की चादर हटाई, बिकी ने अपनी पुरानी विश्वस्त टाटा सूमो की पिछली सीट पर जगह बना ली। वह इस बार न किसी पर्व, न किसी निमंत्रण से बँधा था। वह तो जा रहा था सुषा से मिलने, एक निःशब्द वादे की कसौटी पर………

रास्ता उबड़-खाबड़ था, लेकिन पहाड़ियों की हर थरथराहट में जैसे बचपन की धड़कनें बसी थीं। पेशोक पार करते ही ड्राइवर ने एक सड़क किनारे की ढाबेनुमा स्थान पर पेड़ की छांव में वाहन रोक दिया। बिकी ने गाड़ी से उतर कर, बिना सोचे गर्म मोमोज़ की थाली उठाई और साथ ही थाली की तीखी चटनी ने स्मृतियों के किसी भूले तहखाने का द्वार खोल दिया, एक चटख रंग की सजीव स्मृति: स्वाद ऐसा जैसे मां के हाथों की गरमागरम थपकी!

कुछ दूर आगे, एक वृद्धा से खरीदे हुए चिपचिपे कलिम्पोंग लॉलीपॉप ने उसे स्कूल के दिन याद दिला दिए, जब जेब में सिक्के कम होते थे पर स्वाद के ख्वाब ज्यादा बड़े!

फिर आया एक ठहराव—कावरी की सौंधी खुशबू और स्वाद ने उसे नानी के बरसाती आँगन में खींच लिया, मिट्टी की सौंधी गंध और ताँबे की थाली में परोसी गर्म कावरी के साथ नानी की ममता!

चाय की एक कुटिया में रखे सुनहले सेलरोटी को देखकर उसके हाथ अनायास ही बढ़ गए, एक उसके लिए, एक उस स्त्री के लिए जो अब केवल किसी विशेषण से परिभाषित नहीं होती, वह थी उसकी सुषा!

जब वह कलिम्पोंग पहुँचा, उसके पाँव थके थे, पर मन हल्का था। सुषा पुरानी बाजार की राह पर खड़ी थी, बाँहें मोड़े, होंठों पर चिर-परिचित व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए।

“तुमने मेरे बिना सब कुछ खा लिया, है न?”

बिकी मुस्कराया, और धीरे से सेलरोटी उसकी ओर बढ़ा दी।

“कुछ नहीं बदला,” वह बोला। “तुम अब भी आख़िरी कौर की साझेदार हो।”

वे दोनों एक सीढ़ीनुमा मोड़ पर बैठ गए, सामने पहाड़ों की चुप्पी थी और भीतर हृदय की प्रेमल मधुर गूंज!

“एक दिन,” बिकी ने क्षीण स्वर में कहा, “चलो जी, हम अपना छोटा-सा रेस्टोरेंट खोलते हैं—जहाँ मोमोज़ हों, कावरी हो, वो लॉलीपॉप हों और तुम्हारी मुस्कान भी।”

सुषा हँसी, उसकी नज़रों में हल्की नमी और होंठों पर मीठी चुनौती थी,
“तब शर्त यह होगी कि रसोई तुम संभालोगे और मुसाफिरों के स्वागत की ज़िम्मेदारी मेरी।”

बिकी ने सिर झुका दिया—मौन स्वीकृति प्रदान कर दी।

उस समय हवा में चाय, चटनी और संभावनाओं की महक तैर रही थी। कलिम्पोंग की उस सुबह ने उन्हें कुछ दिया था, जिसे शब्दों में नहीं अपितु बस स्वाद और साथ में बाँटा जा सकता था।

उपरोक्त कथानक पुणे स्थित “येती द मॉन्क” रेस्टोरेंट से संदर्भित है।


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