सिख धर्म के छठे गुरु ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने ‘गुरता गद्दी’ की महत्वपूर्ण जवाबदारी ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ को सौंपने के पश्चात आप जी ने अपने ‘सचखंड गमन’ की पूर्व तैयारी आरंभ कर दी थी और दीवान में आप जी ने गुरुवाणी के द्वारा उपस्थित संगत को उपदेशित किया था। आप जी ने इन गुरबाणी से संगत को धीरज देखकर समझाया था। उस समय आप जी ने सिख धर्म के पांचवें गुरु ‘श्री गुरु अर्जन देव साहिब जी’ की वाणी को अपने मुखारविंद से उच्चारित कर जो वचन कहे थे उसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है–
मारु महला 5 घरु 4 असटपदीआं
एक ओंकार सतिगुरु प्रसादि
चादना चादनु आँगनि प्रभ जीउ अंतिर चादना॥
आराधना अराधनु नीका हरि हरि नामु अराधना ॥
तिआगना तिआगनु नीका कामु क्रोध लोभु तिआगना॥
मागना मागनु नीका हरि जसु गुर ते मागना॥
जागना जागनु नीका हरि किरतन महि जागना॥
लागना लागनु नीका गुर चरणी मनु लागना॥
इह बिधि तिसहि परापते जा कै मसतिक भागना॥
कहु नानक तिसु सभु किछु नीका जो प्रभ की सरनागना॥
(अंग 1018)
अर्थात् भौतिक रूप से दीयों को जलाकर वातावरण में जो बाहरी रूप से प्रकाश होता है उससे उत्तम तो अपने अंतर्मन के ह्रदय में प्रभु-परमेश्वर के नाम का प्रकाश करना सबसे उत्तम है। अन्य नामों को जपने से उत्तम प्रभु-परमात्मा का नाम जपना सबसे सुंदर है। ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने गुरुवाणी के उपरोक्त पद्य के द्वारा उपस्थित सभी संगत को उपदेशित किया था और साथ ही ‘बाबा बुड्डा जी’ के सुपुत्र ‘भाई भाना जी’ को आपने अपने वचनों के द्वारा सूचित किया कि आप ‘रमदास’ नामक स्थान पर पुनः प्रस्थान करें और उस स्थान पर ‘बाबा बुड्डा जी’ के द्वारा संचालित गुरबाणी शिक्षा-दीक्षा के केंद्र को संभालते हुए सभी विद्यार्थी और संगत को गुरबाणी कंठस्थ करवाने का महत्वपूर्ण कार्य की देखरेख करे।
‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ के अत्यंत निकटवर्ती ‘ढ़ाढी वारां’ (गुरु वाणी और सिख इतिहास को लोक गीत और लोक संगीत के माध्यम से गाकर प्रस्तुत करने की परंपरागत विधि) को गाने वाले भाई नत्था और भाई अब्दुल्ला जी को आपने, अपने वचनों से उद्बोधन करते हुए कहा कि आप दोनों भी अपने निवास स्थान पर पुनः प्रस्थान करो और ‘ढाडी वारां’ कला के द्वारा संपूर्ण इलाके की संगत को गुरुवाणी और सिख इतिहास से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य निरंतर करते रहने का आग्रह किया था। साथ ही आप जी ने ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ को अपने अंतिम समय में उपदेशित करते हुए कहा कि ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की रीत और परंपराओं का प्रचार-प्रसार करते रहना एवं ‘शीतलता और शांति’ को जीवन के मूल मंत्र के रूप में आत्मसात करना और अंहकार से दूरी बनाकर रखनी है। 2200 घुड़सवारों की सेना को सदैव साथ में रखना है और जरूरत के अनुसार इस सेना का उपयोग भी करना है।
‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ ने अपनी सौभाग्यवती (सुपत्नी) को अंतिम समय में जो वचन उद्गारित किए थे उसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है–
अब मानो मम बाइ जाइ बकाले तुम रहु।
तिंह तां बस तुम जाइ सति गुरिआइ तोहि होइ॥
अर्थात् आप जी ने अपने मायके ‘बाबा-बकाला’ नामक स्थान पर प्रस्थान कर जाओ और सचमुच ही एक दिन आप के सुपुत्र ‘श्री तेग बहादुर जी’ को ‘गुरता गद्दी’ की बख्शीश अवश्य प्राप्त होगी। इस अंतिम समय में गुरु जी ने स्वयं के पास से तीन वस्तुएं बक्शीश की थी जिसमें प्रथम ‘कटार दूसरे क्रम में एक ‘रूमाल’ और तीसरे क्रम में ‘पोथी साहिब’ जी को भेंट स्वरूप दिया था।
भविष्य में यह रुमाल ‘धर्म की चादर’ के रूप में परिवर्तित हो गया और यही भेंट स्वरूप प्राप्त हुई कटार ‘धर्म को बचाने’ के लिए ‘तेग’ के रूप में परिवर्तित हो गई थी।
3 मार्च सन् 1647 ई. के दिवस ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ सांसारिक यात्रा को पूर्ण कर ज्योति-ज्योत समा गए थे। जिस स्थान पर आप का अंतिम संस्कार हुआ उसी स्थान पर गुरुद्वारा पातालपुरी सुशोभित है। आप जी का अंतिम संस्कार ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ ‘बाबा बुड्ढा जी’ के सुपुत्र ‘भाई भाना जी’ और सिखों में से प्रमुख रूप से भाई जोध राये जी और गुरु पुत्र ‘बाबा सूरजमल जी’ एवं भावी ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ इन सभी महानुभावों ने मिलकर किया था।
गुरु जी के ज्योति-ज्योत समा जाने के कुछ दिनों पश्चात ‘माता नानकी जी’ भावी गुरु ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ के साथ ‘बाबा-बकाला’ नामक स्थान पर प्रस्थान कर गई थी।