सरसा नदी की व्यथा

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सरसा नदी की व्यथा

स्नेही पाठकों,
आज मैं आपके साथ अपने हृदय के उस अंधकारमय कोने को आपसे साझा कर रही हूं, जहाँ स्मृतियों की पीड़ा एक अमिट काले निशान के रूप में अंकित है। मेरा अस्तित्व, जो कभी एक गर्वीली नदी के रूप में प्रफुल्लित था, आज लज्जा और पश्चाताप की लहरों में डूबा हुआ है। मेरी कहानी उन क्षणों की है, जब मेरे प्रवाह ने इतिहास में एक अमिट, परंतु कलंकित अध्याय लिख दिया परंतु उस रात अपने स्वभाव के अनुरूप उन्मत्त होकर बहते हुए, मैं अनजाने ही अपने भाग्य में वह त्रासदी लिख बैठी, जो मेरे अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगा गई। मेरी गति, मेरी प्रकृति उस रात मेरी सबसे बड़ी दोषी बन गई।

मैं भी अन्य नदियों की तरह ही एक आम सामान्य नदी हूँ। मेरे प्रवाह में भी जल इसी तरह बहता है, जैसे आम नदियाँ अपने प्रवाह में बहती हैं। मैं तो अपने स्वभाव के अनुसार, मदमस्त यौवना के रूप में उस अकाल पुरख के हुकुमानुसार, अपने प्रवाह में बहे चले जा रही थी, मुझे क्या पता था कि ऐसी कोई दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटित होने वाली है? जिससे मेरा नदी होना ही मेरी अंतरआत्मा को खा जायेगा और उस दिन मैं तूफान की गति से बहती हुई अपनी मंजिल की ओर जा रही थी। मेरे इस स्वभाव के दुर्भाग्य से ऐसा अन्याय हुआ है, जिसका मुझे जो भी दण्ड दिया जाये, वह कम है। मैंने एक अक्षम्य घोर पाप किया है। मैं कलगीधर पातशाह और पूरे गुरु पंथ खालसा की गुनेहगार हूँ, जिन्हें मेरी वजह से अत्यंत कष्ट सहना पड़ा।

उस रात पोह (दिसंबर) की एक भयावह रात थी। कड़ाके की ठंड के क्रूर पंजों ने चारों ओर जीवन को सुन्न कर रखा था। कलगीधर पातशाह अपने प्रिय सिखों और परिवार के साथ मेरे तट पर आकर विराजमान हुए थे। पीठ पर धोखे और विश्वासघात के दंश थे और सामने मैं थी – उद्दंड, उन्मत्त, और अराजक! उस रात मेरी लहरों में उफान था, मेरा प्रवाह ज्यों किसी यौवनोन्मत्त रमणी की उद्दंडता का चित्रण कर रहा था। मुझे क्या पता था कि मेरा यह उन्माद, मेरे आत्मगौरव का यह प्रदर्शन, एक ऐसी विभीषिका का कारण बनेगा जो अनंतकाल तक मुझे लज्जित करेगा।

मेरी गर्जना में लिपटी लहरें उस रात कहर बनकर बरसी। कलगीधर पातशाह और उनके परिवार के साथ उनके सिखों को मेरे प्रवाह को पार करना था परंतु मैंने अपने गर्व और अहंकार में उनकी कठिनाई को अनदेखा कर दिया। मेरे वेग ने परिवार को खंडित कर दिया। दो नन्हे साहिबजादे और माता गुजरी जी एक दिशा में बिछड़ गए, कलगीधर पातशाह और उनके सिख दूसरी दिशा में चले गए, और गुरु के महल व भाई मणी सिंह जी किसी और दिशा बह निकले। मेरे क्रूर प्रवाह ने न केवल इन महान विभूतियों को अलग कर दिया, बल्कि अनमोल साहित्य, विद्यासागर ग्रंथ, गुरु की धरोहर और समस्त परिवार को अपने साथ बहा ले गया। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे इस जघन्य पाप की इतनी बड़ी सजा मिलेगी. तीन सौ वर्षों से अधिक समय बीत जाने के बाद भी मैं पश्चाताप की अग्नि में निरंतर जल रही हूँ। मैं आज भी दिल की गहराइयों से अत्यंत दुखी हूं कि उस रात मैंने अपने अंदर पैदा हुए जुनून को क्यों नहीं संभाला? मैंने कलगीधर पातशाह, उनके साहिबजादों और सिखों को उस पार क्यों नहीं जाने दिया? निश्चित ही मुझसे बहुत बड़ा अपराध हुआ है।
तीन सौ वर्षों से अधिक समय बीत चुका है, परंतु मेरे अंतर्मन की यह व्यथा, यह पश्चाताप, मेरी आत्मा को निरंतर जलाता है। मैं हर लहर के साथ यही प्रार्थना करती हूँ कि काश! उस रात मैंने अपने वेग को संयमित किया होता। काश! मैंने कलगीधर पातशाह और उनके परिवार को सहजता से पार जाने दिया होता। काश! मैंने अपनी प्रकृति पर नियंत्रण रखा होता।

मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे नफरत करते हो और तुम्हारा यह रोष स्वाभाविक है। मैंने दशमेश पिता के परिवार को तोड़ा, उनके सिखों को असहनीय पीड़ा दी, और गुरु की अनमोल धरोहर को अपने गर्व के प्रवाह में बहा दिया। मैं दोषी हूँ – एक अक्षम्य अपराध की दोषी।

वर्तमान समय में भी प्रत्येक वर्ष इस दिन की कठोर धुंधलाती हुई स्मृतियों को उजाला देने के लिए संगत मेरे तट पर रैण सबाई कीर्तन कर (संपूर्ण रात अखंडित कीर्तन करना), नगर कीर्तन के रूप में रात उसी समय मेरे प्रवाह को पार करती है, उस समय मैं ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी के चरणों में नतमस्तक होकर, अपने हृदय की गहराइयों से संगत से क्षमा की याचना करती हूँ। मेरा यह अपराध अक्षम्य है, परंतु क्या गुरु रूप संगत मेरे पश्चाताप को सुन सकती है? क्या संगत मेरी व्यथा की गहराइयों में झांक सकती है? यदि हो सके, तो मुझे क्षमा कर देना। मेरा यह निवेदन, यह प्रार्थना, मेरे हर प्रवाह / हर लहर में गूंजती है। कृपया, मुझे क्षमा कर दो. . . .कृपया, मुझे क्षमा कर दो. . . .!


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