समर्पण और त्याग की मूर्ति जगत् माता गुजरी जी

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समर्पण और त्याग की मूर्ति जगत् माता गुजरी जी

सो किउ मंदा आखीऐ जितु जंमहि राजान॥
(अंग क्रमांक 473)

यदि किसी देश, धर्म या कौम के इतिहास को अवलोकित करना हो तो उसका आधार उस स्थान पर विकसित समाज पर निर्भर करता है और उस समाज का आधार होता है उस स्थान पर निवास करने वाले परिवार। परिवार का आधार परिवार के व्यक्तियों पर निर्भर करता है। किसी व्यक्ति के सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों की धरोहर होती है बचपन में प्राप्त हुई माँ की गोद! माँ से प्राप्त संस्कारों से ही व्यक्ति एक उत्तम नागरिक में परिवर्तित होता है। बचपन में माँ से प्राप्त संस्कार, भविष्य के संपूर्ण जीवन की रूपरेखा होते हैं। संसार की आम रिवायत है कि जब हम किसी आदर्श व्यक्ति से रु-ब-रु होते हैं तो कहते है कि धन्य है, इन्हें जन्म देने वाली माँ! विचार करने वाली बात यह है कि दशमेश पिता श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब को संपूर्णता का शिखर प्रदान करने वाली जगत् माता गुजरी जी कितनी महान और धन्य होगी? इस महान और गौरवशाली इतिहास को लिखने के लिये शायद दुनिया के किसी भी लेखक की क़लम की परिपक्वता इसे सोच नहीं सकती है।

बीबी गुजरी जी (जिन्हें सिख संगत अत्यंत सम्मान पूर्वक माता गुजरी जी कहकर संबोधित करती हैं), भावी गुरु श्री गुरु तेग बहादुर साहिब की सुपत्नी ‘गुरु के महल’ के रूप में सन् 1633 ई. में गुरु पातशाह जी के जीवन में आई थी और सन् 1705 ई. लगभग 72 वर्षों तक आप जी ने एक बहू, पत्नी, बहन, माता, चाची और दादी के रूप में गुरु घर की 5 पीढ़ियों को अपनी महान सेवाएँ अर्पित कर, शहीदी प्राप्त की थी।

रुहानी व्यक्तित्व की धनी, माता गुजर कौर जी का जन्म करतारपुर साहिब में गुरु घर के अनन्य भक्त भाई लालचंद जी के गृह में माता बिशनकौर की कोख से हुआ था। युवावस्था की दहलीज़ पर आप जी का परिणय बंधन (आनंद कारज) बाबा त्याग मल जी अर्थात् भावी गुरु श्री गुरु तेग बहादुर साहिब से 4 फरवरी सन् 1633 ई. में संपन्न हुआ था। आप जी का जीवन 6 वें गुरु पातशाह जी से लेकर 10 वें गुरु पातशाह जी एवं चार साहिबज़ादों के जीवन से आत्मिक रूप से संबंधित रहा है। विश्व में यह अनूठा उदाहरण है कि आप जी ऐसी जगत् माता हुई है, जिसके पति शहीद, भाई शहीद, पुत्र शहीद, पौत्र शहीद और आप स्वयं भी शहीद! महत्वपूर्ण इतिहास यह भी है कि आप जी ननद बीबी वीरों जी, जो श्री गुरु तेग बहादुर साहिब की इकलौती बहन थी, के तीन पुत्र भी शहीद हुए। सचमुच इस संसार में न ऐसी नारी शक्ति पैदा हुई है और न होगी!

सन् 1633 ई. में आप जी जब से छठे गुरु पातशाह जी की बहू बनकर आईं तो गुरु घर में आप जी को बेटियों की तरह प्यार मिला और आप जी ने भी अपनी सेवा-सुश्रुषा और समर्पण से सभी का दिल जीत लिया था। आप भी मृदुभाषी, मिलनसार और कोमल हृदय की गुरु चरणों में समर्पित सेवादारनी थीं। आप जी का संपूर्ण जीवन त्याग-तप और ध्यान की पराकाष्ठा था। कारण त्याग की भावना को विश्व की सर्वोच्य भावना माना गया है। ‘त्याग का मार्ग ही मुक्ति का मार्ग है’। सन् 1635 ई. में करतारपुर साहिब में छठे गुरु पातशाह जी का पैंदे खान से भयानक युद्ध हुआ था तो उस समय में अपने पति बाबा तेग बहादुर जी की तेग से दुश्मनों से झूझते हुये देखकर आप जी ने प्रोत्साहित करते हुए अपने पति की हौसला अफ़जाई की थी। इस युद्ध के पश्चात ही छठे गुरु पातशाह जी ने बाबा त्याग मल को बाबा तेग बहादुर की उपाधि से सम्मानित किया था। इस युद्ध के बाद छठे गुरु पातशाह जी कीरतपुर शहर में आकर बस गये थे, उस समय में बाबा तेग बहादुर जी को बकाले नामक स्थान पर सिख धर्म का केंद्र स्थापित करने के लिए एवं भविष्य के कठिन समय की तैयारी के लिए भेज दिया गया था। इस स्थान पर निवास करते हुए एवं इस स्थान को सिख धर्म के प्रचार-प्रसार का मुख्य केन्द्र बनाकर दूर-दराज़ के इलाकों में लगभग 25 वर्षों तक आप जी ने सिख धर्म का प्रचार-प्रसार करते हुये, एकांत प्रिय होकर, वैराग्य की मूरत बनकर, भक्ति करते हुए समय गुजारा ताकि भविष्य में धर्म की रक्षा और मिट्टी के स्वाभिमान के लिये, आप जी सृष्टि की चादर के रूप में स्वयं को परिपक्व कर सकें। इस कठिन समय में जगत् माता गुजरी जी ने एक साये की तरह अपने पति के उद्देश्य को पूर्ण करने हेतु तन-मन-धन से गुरु घर में समर्पित होकर अपना जीवन व्यतीत करती रही थी। जहाँ बाबा तेग बहादुर जी अत्यंत सुविज्ञ थे, वहीं माता नानकी जी (गुरु पातशाह जी की माता जी) एवं माता गुजरी जी अपनी जवाबदेही आम स्त्रियों को सिख धर्म से जोड़कर निभा रही थी।

जब सातवें गुरु श्री हरि राय जी को गुरु गद्दी पर विराजमान किया गया तो बाबा तेग बहादुर जी एवं माता गुजरी जी ने आयु में बड़े होने के पश्चात भी गुरु पातशाह जी को नमन कर, अपना शीश झुका कर, प्राप्त सेवाओं को बखूबी निभा रहे थे। जब आप जी को गुरु ‘श्री हरि राय जी’ से प्राप्त दायित्व के कारण सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल और उड़ीसा जाना पड़ा तो इस प्रचार दौरे में माता नानकी जी और माता गुजरी जी लंबे समय तक आपके साथ सदैव साथ रही थी एवं इस प्रचार दौरे में एक समर्पित सेवादार की तरह अपनी सेवाएँ अर्पित करती रही थीं।

श्री गुरु तेग बहादुर साहिब को जब गुरु गद्दी प्राप्त हुई तो आप जी अमृतसर और कीरतपुर साहिब में आये थे। आप जी ने श्री आनंदपुर साहिब शहर को बसाया था एवं आप समय की नज़ाकत को देखते हुए, अपने परिवार को पटना साहिब में छोड़कर बंगाल और असम की यात्रा पर रवाना हो गये थे, उस समय पटना शहर में सन् 1666 ई. में आप जी के गृह में साहिबज़ादा गोविंद राय जी का प्रकाश (आविर्भाव) हुआ था। माता गुजरी जी के प्रसव के कठिन समय में भी गुरु पातशाह जी मातृभूमि की एकता और अखंडता के लिए यात्रा कर रहे थे, तो भी माता गुजरी जी ने संयमित होकर माता नानकी जी की ठंडी छाँव और भाई कृपाल जी का आत्मीय सहारा स्वयं के शीश पर होने के कारण इस प्रसव के कठिन समय को भी सहजता से बिताया था और नवजात बाल गोविंद राय की सेवा-सुश्रुषा कर, अपनी माँ होने का कर्तव्य निभाया था। उस समय श्री गुरु तेग बहादुर साहिब ढाका में थे। इस सौभाग्य जोड़े ने अपने इकलौते पुत्र के जन्म की खुशी साथ रहकर नहीं मनाई थी, अपितु हमारे बच्चों के भविष्य की खुशियों के लिये महान त्याग किया था, उल्लेखनीय है कि पाँच वर्षों के बाद गुरु पातशाह जी ने अपने इकलौते पुत्र का दीदार किया था। निश्चित ही गुरु पातशाह जी की पूर्व की यात्राएँ धरती के भार को कम करने वाली यात्राएँ साबित हुई थीं। माता गुजर कौर जी अपने साहिबज़ादे बाल गोविंद राय की बहुआयामी शख़्शियत और संस्कार, शिक्षा-दीक्षा के संबंध में अत्यंत सुचेत और सतर्क रहती थीं। आप जी ने अपने साहिबज़ादे बाल गोविंद राय जी को इतना परिपक्व किया था कि वह छोटी उम्र में ही बड़े-बड़े कारनामे कर गए थे।

जब सन् 1673 ई. को श्री गुरु तेग बहादुर साहिब शहादत देने दिल्ली को प्रस्थान कर रहे थे तो आप जी ने बड़ी संजीदगी से पीछे से परिवार को सँभालने के उत्तरदायित्व को परिवार की रीढ़ बनकर, स्वीकार किया एवं आप जी ने गुरु पातशाह जी को इस महान शहादत के लिए प्रेरित भी किया। निश्चित ही जगत् माता गुजरी जी का जीवन विश्व की समस्त महिलाओं के लिए एक अनुकरणीय आदर्श उदाहरण है। जब भाई जैता जी ने कपड़े में लपेटे हुए गुर पातशाह जी का शीश दशमेश पिता की गोद में रखा होगा तो उस समय उस सुहागन की अवस्था को समझने का प्रयास करें, जिसके पति का शीश आज पुत्र की गोद में समक्ष है, कितना अडोल जिगर है जगत माता तेरा? उपस्थित सभी संगतों ने शीश को नमन किया और इस जगत माता ने अपने सुहाग के शीश के दर्शन अपने पुत्र की गोदी में किये तो भावनावश उपस्थित संगतों को प्रणाम कर, वचन किये, हे सतगुरु! तेरा जीवन निभ गया है, अब कृपा करना की मेरा भी निभ जाये। विचार-मनन करने योग्य इतिहास है कि उस समय कैसी कठिन परिस्थितियाँ थीं? पति शहीद हो गये, 9 वर्ष के साहिबज़ादे बाल गोविंद राय को गुरु गद्दी पर आसीन करना, गृह कलह के कारण धीरमल्ली और मीणियों के घोर विरोध का सामना करना। उधर मुग़ल फ़़ौज खालसा राज को समूल नष्ट करना चाहती थी। नियुक्त किये हुए मसंदों के द्वारा ‘दसवंद’ (किरत कमाई का दसवाँ हिस्सा) देने में आनाकानी करना और सारे हिंदुस्तान में फैली सिखी की रक्षा करने की जवाबदारी, साथ ही श्री गुरु गोविंद राय जी की शिक्षा-दीक्षा में भी पूर्ण योगदान देना और माता नानकी जी के समक्ष पुत्र के स्थान पर खड़ा होकर उन्हें धीरज देकर (अरदास) प्रार्थना करनी कि मेरे पति इस सांसारिक यात्रा को निभा गये हैं, बस मेरी भी यात्रा उस अकाल पुरख (प्रभु – परमेश्वर) के बहाने में निभ जाये. . . . .

विशेष ध्यान देने योग्य है कि जब दशमेश पिता ने सन् 1690 ई. में खंडे-बाटे की पाहुल छका कर (अमृतपान की विधि) खालसा सज़ाया और उस महा जनसमूह में 80 हज़ार खालसे शामिल हुए थे। उस समय में श्री आनंदपुर साहिब के आयोजन की सभी महत्वपूर्ण जवाबदेही माता गुजरी जी के कंधों पर थी, साथ ही खालसा सज़ाने की प्रक्रिया के पूर्व लगभग 5 वर्षों तक दशमेश पिता जी ने माता गुजरी से गहन विचार-मंथन किया था। अर्थात, खालसा सजाने की अभिभूत प्रक्रिया में माता गुजरी जी का महत्वपूर्ण मार्गदर्शन था। निश्चित ही आप जी बेहतरीन सलाहकार और कुशल रणनीतिकार थी।

जब समय ने करवट बदली तो दिसंबर (पौष) महीने की ठंडी, पिछली रात को अचानक श्री आनंदपुर साहिब का किला छोड़ना पड़ा और बाढ़ के तूफानी जल प्रवाह में सरसा नदी को पार करते समय अपने पारिवारिक सदस्यों से बिछड़ना अत्यंत दुखदायी था। जीवन के हर अगले कदम पर कष्टों के पहाड़ खड़े थे। ऐसे कठिन समय में भी आप जी ने अडिग और अडोल रहकर, दृढ़ता से छोटे साहिबज़ादों को गुरु इतिहास और गुरुवाणी को सुनाकर इतना परिपक्व कर दिया था कि छोटे साहिबज़ादे हँसते-हँसते शहादत का जाम पी गये थे।

जब ठंडे बुर्ज़़ पर माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादे को क़ैद किया गया था, कैसा भयानक समय था? जब दशमेश पिता जी माछीवाडे़ के ज़ंगलों में ज़मीन पर पत्थर की ओट लगाकर विश्राम कर रहे थे तो ठंडे बुर्ज़़ की ज़मीन पर बैठकर जगत् माता अपने जिगर के टुकड़े को गुरुघर के शहीदों की परंपराओं से परिपक्व करवा रही थी, यद्यपि वह साहिबज़ादों के संस्कारों से बेफिक्र थी, परंतु उन्होंने अपनी जवाबदारी से मुँह नहीं मोड़ा था। उस वक्त की कल्पना करो कि जब इकलौते बेटे बाल गोविंद राय को पास खड़ा कर, एक सुहागन के रूप में उन्होंने अपने पति (सुहाग) श्री गुरु तेग बहादुर साहिब को शहीदी के लिए प्रोत्साहित किया था और आज 82 वर्ष की दादी माँ ठंडे बुर्ज़़ पर अपने दोनों पौत्र (साहिबज़ादों) को शहीदी के लिए कलगी सजा कर, उस अकाल पुरख (प्रभु-परमेश्वर) का शुकराना अदा कर, विदाई दे रही थी। वह जानती थी कि पति पुन: नहीं आए और इन पोतों ने भी पुन: मुड़कर नहीं आना है। यदि उस जगत् माता के अंतरमन की स्थिति का पूर्वावलोकन करें तो ज्ञात होता है कि इन महान शहीदियों ने हिंदुस्तान की गुलामी की जंजीरों को काट के रख दिया था। सच जानना. . . . . हिंदुस्तान की तवारीख में यह इतिहास ग़वाही भरता है कि, है जगत् माता गुजरी जी! तेरी कुर्बानियों का इस देश की मिट्टी और ‘गुरु पंथ खालसा’ कैसे कर्ज़ चुकायेगा? छोटे साहिबज़ादों की अडिग और अडोल शहीदी ने संसार के अंतरमन को झिंझोड़ कर रख दिया और इस समाचार को पाकर भी उस जगत् माता गुजरी जी ने साहिबज़ादों द्वारा निभाई हुई शहादत का अपने विशाल हृदय से शुकराना अदा किया। साथ ही इस जगत् माता ने स्वयं भी ‘शहीदी’ प्राप्त कर ‘गुरु पंथ खालसा’ के प्रति अपने फर्ज़ को निभा गई थी। ऐसी महान जगत् माता के लिये श्री गुरु ग्रंथ साहिब का फ़रमान है–

धनु जननी जिनि जाइआ धंनु पिता परधानु॥
सतगुरु सेवि सुखु पाइआ विचहु गइआ गुमानु॥
(अंग क्रमांक 32)

निश्चित ही जगत् माता गुजरी जी का 72 वर्षों का गुरु घर में व्यतीत जीवन संपूर्ण विश्व की बहुओं, बेटियों, बहनों, पत्नियों, माँओं और दादियों के लिये एक सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।

जगत् माता गुजरी जी को सादर नमन!


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