भाई मोतीराम जी मेहरा की अमर शहीदी
ऐसा कहा जाता है कि जिस बाग का माली बेईमान हो जाए उसके फूल भी नहीं और फल भी नहीं! जो बकरी शेर की गुफा में प्रवेश कर जाए, उसकी हड्डी भी नहीं और खाल भी नहीं! वैसे ही जो कौम अपनी विरासत अपना इतिहास भूल जाए, वह आज भी नहीं और कल भी नहीं! इतिहास कौम का आईना होता है। जिस कौम में से रक्त की लाली ही समाप्त हो जाये, निश्चित रूप से वह कौम दुनिया के नक्शे से नेस्तनाबूद हो जाती है।
प्रत्येक वर्ष दिसंबर के अंतिम सप्ताह में हम सभी सरबंस दानी श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब के परिवार के इतिहास को सारगर्भित करते हुए, अश्रुपूरित नयनों से श्रद्धांजलि के पुष्पों को अर्पित कर उनकी महान शहादत को हृदय में सँजोकर रखते हैं। हम सभी इन साहिबज़ादों की शहीदी के साथ-साथ भाई टोडरमल के त्याग को भी याद कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, परंतु अपने पूरे जीवन की अर्जित पूरी कमाई और पूरे परिवार को शहीद करवाकर साहिबज़ादों को ठंडे बुर्ज़़ की क़ैद में दूध का लंगर (दुग्ध पान) छकाने वाले भाई मोतीराम के सम्पूर्ण विस्तृत इतिहास से क्या हम परिचित हैं? इस अध्याय में अमर शहीद भाई मोतीराम जी के इतिहास को विस्तार से लिखकर संगत/(पाठकों) के सम्मुख प्रस्तुत किया जा रहा है। हम सभी जानते हैं कि सन् 1704 ई. (नौ पौष) 24 दिसंबर को श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब का पूरा परिवार सरसा नदी के तट पर नदी में बाढ़ आने के कारण बिछड़ गया था और (10 पौष) 25 दिसंबर को गुरु जी का रसोइया गंगू ने शिकायत कर माता गुजरी जी और छोटे साहिबज़ादों को गिरफ़्तार करवा दिया था और उसी दिन साहिबज़ादों को कोतवाली मोरिंडा में रखा गया था। (11 पौष) 26 दिसंबर को साहिबज़ादों को हथकड़ी लगाकर बैलगाड़ी में बैठाकर सरहिंद नामक स्थान पर लाया गया था। इस नगर में प्रवेश करने से पहले एक पीपल के वृक्ष के नीचे साहिबज़ादों को बैठाया गया था। सुचानंद नामक व्यक्ति को इनकी शिनाख़्त के लिए उस पीपल के पेड़ वाले स्थान पर भेजा गया था। इसे इतिहास में इस तरह से अंकित किया गया है–
सुचानंद तब देखन आयो, तब माता जी मन सुख पायो॥
सुचानंद की जब माता गुजरी से मुलाकात हुई तो माता गुजरी अत्यंत प्रसन्न हुई थी कि अपना कोई परिचित मिलने आया है। ज़रूर इस कै़द से हमें आज़ाद करवा देगा। परंतु सच जानना, यही सुचानंद अपनी बेटियों का रिश्ता बड़े साहिबज़ादों से करना चाहता था। इस कारण वह गुरु घर से वैर रखता था।
सुचानंद की तसल्ली होने के पश्चात् दोनों छोटे साहिबज़ादों को माता गुजरी से अलग कर दिया था एवं माता गुजरी जी को ठंडे बुर्ज़़ में क़ैद करने के लिये भेज दिया गया था। दोनों साहिबज़ादों ने जब सूबा सरहिंद की कचहरी में बेख़ौफ होकर प्रवेश किया था और निडर होकर फतेह बुलाई थी।
वाहिगुरु जी का खालसा, वाहिगुरु जी की फतेह!
कचहरी का समय समाप्त होने के पश्चात् साहिबज़ादों को भी ठंडे बुर्ज़ में क़ैद कर दिया गया था। हुकूमत का आदेश था कि इनके तन के लिए ना कपड़े दिए जाएँ और किसी भी प्रकार के भोजन-पानी की कोई व्यवस्था न की जाये और उनको भूखा रखा जाए। इस स्थान पर तैनात फ़ौज के लिए भोजन बनाने वाले मोतीराम जी मेहरा को जब यह ज्ञात हुआ तो वो अपने घर पर भोजन ग्रहण नहीं कर सके। अपनी स्वयं की माँ से वार्तालाप करते हुए कहा कि माता जी श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब के साहिबज़ादों को ठंडे बुर्ज़ में क़ैद करके रखा हुआ है। इस दुखद घटना के कारण मैं कैसे भोजन कर सकता हूँ? मैं रोटी गले से निगल ही नहीं सकता हूँ? कारण मेरे गुरु के लाल छोटे साहिबज़ादे और गुरु जी की माता, माता गुजरी उस ठंडे बुर्ज़ पर भूखी बैठी है। साथ ही वज़ीर खान का हुक्म है कि यदि इस परिवार की किसी ने मदद की तो उसे कोल्हू की चक्की में डालकर पीस दिया जाएगा।
भाई मोती राम मेहरा जी की माता जी ने वचन किए कि बेटा जीवन में यह सेवा दुबारा नहींं मिलेगी। कोई बात नहींं, भले ही सजा के रूप में हमें कोल्हू की चक्की में पीस कर प्राण दंड दिया जाये। परंतु तुम माता गुजर कौर और साहिबज़ादों को भोजन अवश्य ग्रहण करवाओ। मोती राम मेहरा जी ने घर में प्रशादे (रोटी) और गर्म दूध को तैयार किया एवं ठंडे बुर्ज़ की ओर रवाना हो गए। परंतु महल के अंदर सिपाहियों ने प्रवेश देने से साफ इनकार कर दिया। मोतीराम जी ने अपने घर के सभी ज़ेवर और मूल्यवान गहने इन सिपाहियों को रिश्वत में दिए, तब कहीं जाकर महल में प्रवेश की इज़ाजत मिली थी। भाई मोती राम मेहरा ने बुर्ज़ में प्रवेश कर माता जी के सम्मुख नतमस्तक होकर निवेदन किया कि माता जी मैं आप ही का बेटा हूँ। पाँच प्यारों में से एक भाई हिम्मत सिंह जी रिश्ते में मेरे चाचा जी लगते हैं और सरदार हरा सिंह जी मेरे पिताजी हैं और वो खंडे-बाटे की पाहुल का अमृत पान कर (अमृत छककर) गुरु जी के साथ श्री आनंदपुर साहिब में ही सेवा में समर्पित हैं। केवल मैंने ही अभी तक खंडे – बाटे का अमृत (अमृत पान की विधि) नहींं छका है परंतु फिर भी मुझे आपकी सेवा करने का अवसर प्राप्त हुआ है। माता जी आप से निवेदन है कि इन बच्चों को जल्द ही गर्म दुग्ध पान करवाएँ, जिसे इतिहास में ऐसे अंकित किया गया है–
पिथ कै प्रेम मोती सौ केरा॥
माता जी कहै भलै हुए तेरा॥
अर्थात मोती राम तेरा भला हो और लगातार तीन दिनों तक भाई मोतीराम मेहरा जी साहिबज़ादों को ठंडे बुर्ज़ में दुग्ध पान करवाते रहे थे। इसे इतिहास में ऐसे अंकित किया गया है–
धन मोती जीन पुन कमाईआ।
गुरु लालां ताई दूधं पिलाईआ॥
26 दिसंबर सन् 1704 ई. को छोटे साहिबज़ादों की शहादत हुई थी। इस महान शहादत को इतिहास में इस तरह से अंकित किया गया है–
नीच गंगू को भगत इक पम्मा।
अर्थात् चुगलखोर गंगू के भाई पम्मा की ओर से वज़ीर खान को शिकायत की गई थी कि भाई टोडरमल के साथ इस मोती राम मेहरा ने गुरु परिवार का साथ निभाया था। लकड़ी की टाल से चंदन की लकड़ियाँ खरीद कर लेकर आने में भी इसका योगदान था। वज़ीर खान के हुक्म अनुसार भाई मोती राम मेहरा के पूरे परिवार को मुश्कें बाँधकर दरबार में हाज़िर किया गया था। मोती राम मेहरा को वज़ीर खान के समक्ष पेश किया गया। वज़ीर खान ने मोती राम मेहरा से पूछा कि तुझे मौत से डर नहीं लगता है क्या? तुम्हें यह पता नहीं है क्या? मेरा हुक्म है जो भी गुरु परिवार की मदद करेगा, उन्हें कोल्हू की चक्की में पीस कर मौत की सज़ा दी जाएगी। मोती राम मेहरा ने हँसकर उत्तर दिया कि मुझे पता था और मुझे तेरी सज़ा भी मंजूर है, जिसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है–
मरने ते क्या डरपना जब हाथि सिध उरा लीन॥
मैं जानता था कि दूध की कीमत का मूल्य मुझे अपने परिवार की शहीदी देकर चुकाना पड़ेगा, परंतु मैं डरता नहींं हूँ। कारण मेरे पिता सरदार हरा सिंह ने भी श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब के साथ युद्ध करते हुए मैदान-ए-ज़ंग में शहीदी का जाम पिया है।
वज़ीर खान के द्वारा पूरे परिवार को कोल्हू में पीसकर मौत की सज़ा का ऐलान किया गया। परंतु एक शर्त रखी गई कि यदि तुम अपना धर्म बदल लो तो तुम्हें माफ़ कर दिया जाएगा। इस पूरे परिवार ने धर्म परिवर्तन से इंकार कर दिया था। मोती राम मेहरा से कहा गया कि तेरे बेटे को तेरी आँखों के सामने कोल्हू की चक्की में पीस दिया जाएगा। क्या कभी तुमने कोल्हू की चक्की से तिलों के तेल को निकलते हुए देखा है? मोतीराम ने अटल इरादों से उत्तर दिया था कि तेरी आँखों के सामने 7 और 9 वर्ष की आयु के साहिबज़ादे शहीदी दे सकते हैं तो क्या 7 साल का मेरा बेटा शहीदी देने के लिए पीछे रहेगा? इसको भी तुम आजमा कर देख लो! परंतु हमारी सिखी अडौल है, हम अपनी सिखी पर अडिग हैं। उस समय 7 वर्ष के मोतीराम मेहरा के बेटे नारायण को कोल्हू की चक्की में पिसने के लिए चक्की में प्रथम उसके पैरों को रखा गया और मोती राम मेहरा की आँखों के सम्मुख कोल्हू के पहियों को चलाना प्रारंभ किया था। जब इस पुत्र नारायण को कोल्हू की चक्की में पिसा जा रहा था तो उपस्थित लोगों की चीखें निकल रही थीं। परंतु धन्य है गुरु का सिख मोती राम मेहरा जो अपने मुँह से वाहिगुरु-वाहिगुरु शब्द का उच्चारण कर प्रभु के इस भाणे को मीठा मानकर स्वीकार कर रहा था। इस छोटे बालक को कोल्हू की चक्की में ऐसे पीस दिया गया, जैसे गन्ने को चरखी में डालकर उसका रस निकाला जाता है। खून के फव्वारे उड़कर मोती राम मेहरा के चेहरे पर पड़े थे, परंतु सिखी सिदक का धनी, अपनी सिखी पर अडिग होकर मोती राम मेहरा धन्य वाहिगुरु-धन्य वाहिगुरु का उच्चारण लगातार कर रहा था। अपने बेटे नारायण की शहीदी के पश्चात मोती राम मेहरा की माता जी, माता लधों जी को भी इसी तरह बर्बरता से मोतीराम की आँखों के सम्मुख कोल्हू की चक्की में पीस कर शहीद किया गया था। मोती राम मेहरा की पत्नी बीबी भोई जी को भी इसी प्रकार से मोती राम मेहरा की आँखों के सम्मुख बर्बरता से शहीद किया गया था। इस प्रकार पूरा परिवार कोल्हू की चक्की में पीस कर शहीद कर दिया गया था। अंत में मोती राम मेहरा का समय भी आ चुका था। मोती राम मेहरा को पुनः लालच दिया गया कि तेरा सारा परिवार कोल्हू की चक्की में पीस कर बर्बरता से शहीद कर दिया गया है। यदि तुम अभी भी धर्म परिवर्तन की शर्त को मान लोगे तो तुम्हें रिहा कर दिया जाएगा। उस समय मोती राम मेहरा ने जो उत्तर दिया उसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है–
सिर जावे ता जावे मेरा सिखी सिदक ना जावे॥
अमर शहीद भाई मोती राम मेहरा को भी अंत में कोल्हू की चक्की में पीस कर शहीद किया गया था।
इस दुनिया में रहती दुनिया तक दूध रुपये 50, रुपये 100, रुपये 500 या ज़्यादा से ज़्यादा रुपये एक लाख लीटर तक बिक जाएगा परंतु दूध के 3 घडो़ं की कीमत के एवज में पूरे परिवार को ही कोल्हू की चक्की के बीच पीस दिया गया था। इससे महँगा दुनिया का कोई दूध नहीं हो सकता है। इस दूध की कोई कीमत का आकलन नहीं किया जा सकता है। यहाँ पर सिखी का बचपन, जवानी और बुढ़ापा भी कोल्हू की चक्की में पीसा गया था। ऐसी बर्बरतापूर्वक और भयानक मौत दी गई। परंतु धन्य है मोती राम मेहरा और उसका परिवार! शहादत दे दी, परंतु सिखी सिदक को दाग़ नहीं लगने दिया था। इसे इतिहास में इस तरह अंकित किया गया है–
धन् मोती जिन पुन कमाईआ॥
गुरु लालां ताही दूध पिलाया॥
भाई मोती राम मेहरा पिता सरदार हरा सिंह जी, माता लधों जी, पुत्र नारायण जी एवं पत्नी बीबी भोई जी ग्राम संगतपुर सोढ़ीयां सरहंद के निवासी थे।
इतिहासकार भाई किशन जी ने इतिहास में अंकित किया है–
मोतीराम संगत पुरवासी, राम को नाम जब पुन कमासी।
हिम्मत सिंह तित चाचू जानो,पाँच पिअरन महि परधानों॥
अर्थात हिम्मत सिंह जी पाँच प्यारों में से एक थे।
27 मार्च सन् 1985 ई. में भाई मोतीराम जी मेहरा की स्मृति में इस स्थान पर एक भव्य भवन का निर्माण किया गया है। भविष्य में गुरु जी कृपा करें तो ठंडे बुर्ज़ के निकट ही मोती राम मेहरा जी की स्मृति में कोई स्थान बने। ताकि दूर-दराज से जो संगत ठंडे बुर्ज़ पर दर्शनों के लिये आती है वो भी इस स्थान का दर्शन कर सकें।