गुरु का महान सेवादार दीवान टोडरमल
श्री गुरु नानक देव जी की नौवीं ज्योत श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जब लोक-कल्याण हेतु संपूर्ण देश की यात्रा कर रहे थे तो उस समय गुरु पातशाह जी अपने समस्त सेवादारों और जत्थे समेत सूबा पंजाब के ग्राम काकड़ा की धरती को अपने पवित्र चरणों से चिन्हित कर, इस ग्राम में कुछ समय तक नीम के वृक्ष के नीचे आप जी ने निवास किया था। जब इसी ग्राम में निवास करने वाले इस जगह के मालिक को ज्ञात हुआ कि गुरु पातशाह जी ने उनकी जगह पर डेरा डाला हुआ था और उस स्थान से अपने धर्म प्रचार-प्रसार के अभियान को समाप्त कर पुन: भविष्य की यात्राओं के लिये प्रस्थान कर रहे हैं तो उस जगह का मालिक सहपरिवार गुरु पातशाह जी की सेवा में उपस्थित हुआ एवं इस परिवार ने संपूर्ण तन-मन-धन से गुरु पातशाह जी के प्रस्थान करते समय सेवाएँ की थी। इन सेवाओं से गुरु पातशाह जी अभिभूत हुये और अत्यंत प्रसन्न होकर उन्होंने उस जगह के मालिक से वचन कर कहा कि यदि आपकी कुछ अभिलाषाएँ हैं तो आप मुझसे माँग सकते हैं। उस जगह के मालिक ने हाथ जोड़कर निवेदन किया कि गुरु पातशाह जी, जो सेवाएँ हमें आपके चरणों में अर्पित करनी थीं, वह हम कर नहींं पाए हैं, निश्चित ही आपके चरण चिन्हों ने हमारे इस ग्राम काकड़ा की धरती को पवित्र कर दिया है। आप जी हमेशा मुझ पर और मेरे परिवार पर कृपा बनाये रखें, गुरु पातशाह जी ने उस सेवादार को गले से लगाकर, स्नेह से अपना हाथ उसके शीश पर रख दिया था। जिसे गुरुवाणी में इस तरह अंकित किया गया है–
सेवक कउ सेवा बनि आई॥
हुकमु बूझि परम पदु पाई॥
(अंग क्रमांक 292)
अर्थात् सेवक को सेवा करना ही शोभा देता है, प्रभु-परमेश्वर के हुक्म का पालन कर के वह परम पद (मोक्ष) को प्राप्त कर लेता है।
उस समय में गुरु पातशाह जी ने वचन किये कि हमने आपसे जो सेवा लेनी है वह अत्यंत महान और कठिन है, हम स्वयं आप से और आपके परिवार से भविष्य में यह सेवा प्राप्त कर लेंगे और आशीर्वाद वचन कर कहा कि आज से आपके ऊपर उस अकाल पुरख (प्रभु-परमेश्वर) की ऐसी कृपा होगी कि आपको जीवन में किसी भी वस्तु की कोई कमी नहीं होगी। आपका परिवार सदा चढ़दी कला में रहकर, समय आने पर ऐसी सेवा कर जायेगा कि उस सेवा का कोई सानी नहीं होगा। आज से आप पर धन-दौलत, नौकर-चाकर, काम-धंधा, व्यवसाय और सभी तरह की भौतिक सुविधाओं की अपार कृपा होगी। आप इस प्राप्त धन-दौलत को सँभाल कर, सहज कर, रखें ताकि समय आने पर आप इस प्राप्त धन-दौलत से गुरु घर की सेवाएँ निभा सकों। गुरु पातशाह जी ने इस सेवादार के शीश पर हाथ रखकर, पुन: वचन किये कि भविष्य में हमने आपसे बहुत ही कठिन और बहुत महान सेवा लेनी है, इसलिए आप जी जीवन में दृढ़ निश्चय रहकर, अडिग रहना। संगत जी सच जानना. . . . . सन् 1665 ई. में गुरु पातशाह जी ने ग्राम काकड़ा में उपरोक्त वचन उद्बोधित किये थे और सन् 1704 ई. में लगभग 39 वर्षों के पश्चात इस महान सिख सेवादार की सेवा ‘गुरु पंथ खालसा’ के सम्मुख आई। निश्चित ही यह सेवादार वह ही था, जिसका नाम दीवान टोडरमल था।
सिख ऐतिहासिक स्रोतों का गहराई से अध्ययन करें तो ज्ञात होता है कि इतिहास में दो टोडरमल हुये हैं, एक शहंशाह अकबर का अत्यंत काबिल वज़ीर था और दूसरा दीवान टोडरमल गुरु पातशाह जी का श्रद्धालु और अनन्य भक्त था। उस समय में सूबा सरहिंद का वह सबसे अमीर व्यक्ति एवं व्यापारी था। सूबा सरहिंद का वह एकमात्र हिंदू राजा था, जिन्हें उस समय राय बहादुर की उपाधि से भी मनोनीत किया गया था। प्रारंभ में दीवान टोडरमल जी के पास 100 घुड़सवार और 200 पैदल सैनिक हुआ करते थे, समयानुसार सन् 1648 ई. में यह फ़ौज बढ़ते-बढ़ते दो हज़ार घुड़सवार और चार हज़ार पैदल सैनिकों तक पहुँच गई थी। कारण उस समय में सरहिंद, देपालपुर, सुल्तानपुर और जालंधर सूबा दीवान टोडरमल के अधीन हुआ करते थे एवं इनकी सालाना कमाई लगभग 50 लाख रुपये हुआ करती थी। भले ही आप जी नौकरी मुग़ल सल्तनत की करते थे, परंतु आप जी का गहरा लगाव व श्रद्धा गुरु घर से थी। पटियाला राज्य के गजट के अनुसार उनका पैतृक ग्राम काकड़ा पटियाला से भवानी गढ़ जाते समय भवानी गढ़ की सड़क के समीप भवानीगढ़ संगरूर रोड पर स्थित है। कारोबार के सिलसिले में दीवान टोडरमल अपने पैतृक ग्राम काकड़ा से सरहिंद में स्थानांतरित हो गये थे। उस समय में उनकी अमीरी, शानो-शौकत और व्यावसायिक गतिविधियों के कारण दीवान टोडरमल की सत्ता के गलियारों में विशेष पहुँच हुआ करती थी। दीवान टोडरमल का निवास जहाज नुमा जहाजी हवेली में हुआ करता था, जो अपनी शानो-शौकत और रुतबे के कारण सूबा सरहिंद में अपना विशेष स्थान रखती थी। उनकी यह ‘जहाजी हवेली’ वज़ीर खान के महल के समीप ही स्थित हुआ करती थी। वर्तमान समय में इस जहाजी हवेली के अवशेषों को फतेहगढ़ साहिब नामक स्थान पर रेलवे लाइन के पीछे मकबरों की और जाने वाले रास्ते में देखा जा सकता है।
जब छोटे साहिबज़ादों और जगत् माता गुजरी जी को शहीद कर दिया गया तो पूरे सूबे में किसी की हिम्मत नहींं हुई कि वह इन रूहानी देहों का संस्कार कर सके। नवाब वज़ीर खान भी यही चाहता था कि इन रूहानी देहों का संस्कार गुरमत मर्यादा अनुसार ना होकर इन देहों को क्षत-विक्षप्त कर वह अपने हृदय में जल रही क्रोधाग्नि को बुझाना चाहता था। वज़ीर खान ने हुक्म जारी किया था कि इन रूहानी देहों का संस्कार किसी भी श्मशान घाट में नहींं किया जा सकता है और उसने साहिबज़ादों की रूहानी देहों को हंसला नदी के किनारे ज़ंगल में फिकवा दिया था, वज़ीर खान की मंशा यही थी कि रूहानी देह नदी के पानी से बाहर रहे ताकि ज़ंगली जानवर एवं माँस नोचने वाले पक्षी इन देहों का भक्षण कर सकें। कारण वज़ीर खान नहीं चाहता की इन रूहानी देहों का संस्कार सरहिंद में हो। ऐसे कठिन और विकट समय में जब दीवान टोडरमल ने अपने रुतबे व प्रभाव के जोर पर वज़ीर खान से इन देहों के संस्कार के लिये मानवता के आधार पर याचना की थी और उसके लिये चार गज (लगभग 36 स्क्वायर फीट) जगह माँगी थी। कारण वह जानते थे कि नवाब वज़ीर खान आले दर्ज़ का लालची इंसान है। उस पर गद्दार सुच्चानंद ने ही वज़ीर खान को सुझाव दिया था की सेठ टोडरमल के पास अत्यंत माया और धन-संपत्ति है और इसको मद्देनज़र रखकर ही शर्त रखी गई थी कि जो 4 गज की जगह संस्कार के लिए दी जानी है, उस संपूर्ण जगह पर खड़ी सोने की मोहरें रखकर उस जगह को खरीदा जा सकता है। उस समय में सोने की मोहरों का नाप करीब सवा इंच और वज़न 10 ग्राम होता था, इस लगभग 6 बाय 6 फुट की, दुनिया की सबसे महंगी ज़मीन को खरीदने के लिये 78000 सोने की मोहरे अर्थात 780 किलो विशुद्ध 24 कैरेट के सोने की आवश्यकता थी। यदि वर्तमान समय सन् 2023 ई. में 24 कैरेट सोने के भाव को हम 55 हज़ार रुपये 10 ग्राम के मानें तो इन 78 हज़ार, 24 कैरेट स्वर्ण मोहरों का का भाव लगभग 429 करोड़ रुपये होता है और इस हिसाब से उस जगह का एक स्क्वायर फुट का भाव लगभग 12 करोड़ रुपये होता है।
वज़ीर खान से सौदा तय होने के बाद दीवान टोडरमल ने अत्ते वाली नामक स्थान पर आकर चौधरी अत्ते से मुलाकात कर और संस्कार वाली जगह को रेखांकित किया, उस रेखांकित स्थान पर दीवान टोडरमल और उसके भाई नागरमल ने मिलकर अपनी सभी पारिवारिक संपत्ति, धन-दौलत, हीरे-जवाहरात, ज़मीन-जायदाद, खेती-बाड़ी और ‘जहाजी हवेली’ को अत्यंत कम समय में, औने-पौने दामों में बेचकर 78 हज़ार, 24 कैरेट की 10 ग्राम की एक, ऐसी सोने की मुहरों को तत्काल इकट्ठा किया था। सोचने वाली बात यह है कि . . . . इतने कम समय में इतने ज़्यादा सोने की मोहरें एकत्र करना, वह भी अपना सब कुछ लुटा कर! कैसे किया होगा इस कठिन लोहे के चने चबाने वाले कार्य को दीवान टोडरमल ने? संगत जी, सच जानना. . . . गुरु की बख़्शीश के बिना ऐसी महान और कठिन सेवा निभाना असंभव है। हे दीवान टोडरमल! इस देश की मिट्टी कैसे तेरे कर्ज़ को चुकायेगी? निश्चित ही जब तक इस जहान में सूरज-चाँद रहेगा, तब तक दीवान टोडरमल का नाम ‘गुरु पंथ खालसा’ में अमर रहेगा. . . . .|
जब 78 हज़ार मोहरें वज़ीर खान को प्राप्त हो गई तो टोडरमल और उसके भाई नागरमल, दीवान टोडर मल की पत्नी, भक्त मोती राम मेहरा की माता लधों जी, मोती राम मेहरा की पत्नी बीबी भोई जी और टोडरमल के बच्चों ने मिलकर जगत् माता गुजरी और छोटे साहिबज़ादों की रूहानी देहों को पूर्ण गुरमत मर्यादा अनुसार चंदन की लकड़ी की एक चिता सजाकर इन देहों को अग्नि भेंट किया था। इस इतिहास को जानकर प्रत्येक व्यक्ति सोचने पर विवश होता है कि. . . . कैसे कठिन और विषम परिस्थितियों में इन सभी सेवादारों ने मिलकर जगत् माता गुजरी और छोटे साहिबज़ादों का संस्कार किया होगा? उस समय में दीवान टोडर मल और उसके परिवार ने वैराग में आकर अत्यंत विलाप किया था। सृष्टि के रचयिता का यह कैसा खेल है? जब साहिबज़ादों का जन्म हुआ तो उस समय संपूर्ण सिख जगत् में खुशियों की लहर थी, जश्न का माहौल था और आज केवल 5 से 7 सेवादारों ने अत्यंत विषम परिस्थितियों में उस अकाल पुरख (प्रभु-परमेश्वर) की रज़ा (भाणा) को मानकर इन साहिबज़ादों और जगत् माता गुजरी जी का संस्कार किया था। इस चिता वाले स्थान पर ही इन रूहानी देहों की अस्थियों को ज़मीन में दफना कर, इस स्थान पर दीवान टोडरमल ने एक थड़ा (तख़्त) का निर्माण कर दिया था। वर्तमान समय में यह स्थान फतेहगढ़ साहिब (गुरुद्वारा ज्योति स्वरूप साहिब) में स्थित है। दीवान टोडरमल की सेवाओं के लिये गुरुवाणी में अंकित है–
मनु बेचै सतिगुर कै पासि ॥ तिसु सेवक के कारज रासि ॥
सेवा करत होइ निहकामी ॥ तिस कउ होत परापति सुआमी ॥
अपनी क्रिपा जिसु आपि करेइ ॥ नानक सो सेवकु गुर की मति लेइ॥
(अंग क्रमांक 286)
अर्थात् जो अपना मन सतगुरु के समक्ष रख देता है, उस सेवक के समस्त कार्य सँवर जाते हैं। जो सेवक निष्काम भावना से गुरु की सेवा करते हैं, वह प्रभु-परमेश्वर को पा लेता है। हे नानक! जिस पर गुरु जी स्वयं कृपा करते हैं, वह सेवक गुरु की दात प्राप्त करता है।
त्याग,समर्पण और निष्ठा के प्रतीक दीवान टोडरमल ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर के श्री गुरु तेग बहादुर साहिब से जो महान सेवा करने का वचन सन् 1665 ई. में किया था उसे पूर्ण किया था। ‘राजा से रंक’ होकर अपने वचनों को निभाने वाले इस महान सेवादार दीवान टोडरमल को शतशः नमन!