श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का संक्षिप्त जीवन परिचय–
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन।।
श्री गुरु तेग बहादुर जी का संपूर्ण जीवन त्याग, तपस्या, बलिदान और वैराग्य से अभिभूत था। उस कठिन समय में समाज के स्वाभिमान और आध्यात्मिक चेतना के विकास के लिये आपने वैरागमयी दार्शनिक वाणी की रचना कर, जीवन के सत्य और यथार्थ का चित्रण किया। प्रथम पातशाही श्री गुरु नानक देव साहिब जी ने अपनी चार उदासी यात्राओं में 36000 मील की यात्रा की थी और इन यात्राओं के माध्यम से जगत का कल्याण किया था। इसके पश्चात नौवीं पातशाही ‘सृष्टि की चादर, श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने जगत कल्याण के लिए सबसे अधिक भ्रमण किया था। गुरबाणी में अंकित है-
जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरुसो थानु सुहावा राम राजै॥
(अंग क्रमांक 450)
अर्थात जिस-जिस स्थान पर सतगुरु जी के चरण पड़े वह स्थान अकाल पुरख की कृपा से ‘सुहावा’ अर्थात स्वर्ग के समान है।
चौथी पातशाही श्री गुरु रामदास साहिब जी ने अपने मुखारविंद से उच्चारित वाणी में सिख गुरुओं के प्रकाश पर्व के लिए अंकित किया है-
सा धरती भई हरिआवली जिथै मेरा सतगुरुबैठा आइ॥
से जंत भए हरििीआवले जिनी मेरा सतिगुरुदेखिआ जाइ॥
धनु धंनु पिता धन धंनु कुलु धनु धनु सु जननी जिनि गुरुजणिआ माइ॥
(अंग क्रमांक 310)
अर्थात वह माता धन्य है, वह पिता धन्य है जिसने गुरु को जन्म दिया और वह स्वर्णिम समय 5 बैसाख सन् 1678 का दिवस था। (1 अप्रैल सन् 1621 दिन रविवार) अमृत वेले (ब्रह्म मुहूर्त) के इस सौभाग्य भरे समय में नौवीं पातशाही श्री गुरु तेग बहादुर जी का प्रकाश (आविर्भाव) हुआ था।
प्रकट भए गुरुतेग बहादुर सकल सृष्टि पर ढापी चादर॥
गुरु पातशाह जी के प्रकाश पर जब पिता 6वीं पातशाही श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने युग रक्षक, बाल तेग बहादुर को अपनी गोदी में उठाया और नतमस्तक होकर पास ही खड़े हुए भाई बिधि चँद से कहा था यह बालक अलौकिक होगा, भविष्य में यह बालक दिन के रक्षक होंगे और बड़े-बड़े संकटों का नाश कर देंगे। यह निर्भय बालक दुश्मनों को जड़ से उखाड़ के रख देंगे। जिसे इस तरह से अंकित किया गया है-
दिन रथ संकट हरि॥ एह निरभै जर तुरक उखेरी॥
सर्व कला समर्थ श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी का नामकरण कर श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने स्वयं तेग बहादुर नाम रखा था। तेग बहादुर शब्द फारसी भाषा से प्रेरित है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी की वाणी में अंकित है–
जा तुधु भावै तेज वगावहि सिर मुंडी कटि जावहि॥
(अंग क्रमांक 145)
तेग का अर्थ होता है कृपाण या खड़ग।
देग तेग जग में दो चलें॥
अर्थात आप तेग के साथ-साथ अत्यंत बहादुर भी होंगे। बचपन में आपको पूरे परिवार से बहुत लाड़ प्यार मिला था और आपको आप की बड़ी बहन बीबी वीरो जी बहुत ही प्यार करती थी। आश्चर्य की बात है कि गुरु जी ने बाल अवस्था में कभी भी रो कर दूध नहीं मांगा था। बाल तेग बहादुर ने अपनी बाल लीलाओं से सभी का मन मोह लिया था। एक दिन आप खेलते-खेलते श्री गुरु हरगोबिंद जी की गोद में जाकर बैठ गए और गुरु जी के पीरी वाले गातरे (कृपाण को संजो कर रखने वाले कपड़े से बने हुए पट्टे को गातरा शब्द से संबोधित किया जाता है) को कस कर पकड़ लिया था। जब गुरुजी ने बाल तेग बहादुर से गातरा छुड़ाने का प्रयत्न किया तो आप ने उसे और कस कर पकड़ लिया था। उस समय श्री गुरु हरगोबिंद जी ने भाव-विभोर होकर कहा था कि पुत्र जी अभी समय नहीं आया है, जब समय आएगा तो आपको तेग चलना भी पड़ेगी और खाना भी पड़ेगी।
एकांत प्रिय बाल तेग बहादुर जी जब बड़े भ्राता भाई गुरदित्ता जी के परिणय बंधन में शामिल हुए तो उस समय आप ने अपने सुंदर वस्त्र और आभूषण एक गरीब बालक को उतार कर दे दिए थे। गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने अपनी समस्त शिक्षा-दीक्षा रामदास में बाबा बुड्ढा जी से ग्रहण की थी। आप को गुरमुखी, संस्कृत, फारसी भाषा का उत्तम ज्ञान था। 6 वर्ष तक आप ने बाबा बुड्ढा जी से शिक्षा ग्रहण कर गुरबाणी को कंठस्थ किया था। भाई गुरदास जी ने भी आपको शिक्षा प्रदान की थी। बाल तेग बहादुर ने भाई गुरदास जी से ब्रजभाषा के अतिरिक्त अन्य कई भाषाओं का भी ज्ञान प्राप्त किया था। साथ ही आपने शस्त्र विद्या और घुड़सवारी की भी शिक्षा भाई गुरदास जी के निरीक्षण में सिखी थी। आपको भाई गुरदास जी ने शस्त्र कला और युद्ध कला में भी निपुण किया था। आप ने गुरुघर के रबाबी भाई बाबक जी से उत्तम गुरमत संगीत का ज्ञान प्राप्त किया था। श्री गुरुतेग बहादुर जी को मृदंग बजाने में महारत हासिल थी। साथ ही आप ने गुरमत संगीत के 30 रागों का गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया था एवं गुरमत संगीत के 31 वें राग, राग जै-जै वंती का आप ने अविष्कार भी किया था। आप ने गुरबाणी के 116 शबद् 15 रागों में रचित किये है।
बाल तेग बहादुर की बाल्यावस्था में ही उनके भ्राता बाबा अटल जी अकाल चलाना (स्वर्गवास) कर गए थे। उसी समय में आपकी दादी जी माता गंगा जी का भी अकाल चलाना (स्वर्गवास) कर गई थी। जब आप 8 वर्ष की आयु के थे तो 13 जनवरी सन् 1629 ई. को श्री गुरु नानक देव साहिब जी के पुत्र बाबा श्री चँद जी भी ज्योति-ज्योत समा गये थे। बाबा श्री चँद जी जो कि सारी उम्र बाल्यावस्था में रहे जिनकी आयु 100 वर्ष से भी अधिक थी और आप का बाल तेग बहादुर जी से अत्यंत निकट का स्नेह था। बाल तेग बहादुर जी भी बाबा श्री चँद जी का अत्यंत आदर-सत्कार करते थे। जब बाल तेग बहादुर जी की आयु 10 वर्ष की थी तो 17 नवंबर सन 1631ई. में बाबा बुड्ढा जी अकाल चलाना (स्वर्गवास) कर गये थे। बाबा बुड्ढा जी का सिख इतिहास में अत्यंत मान-सम्मान था। आप दरबार साहिब अमृतसर के प्रथम हेड ग्रंथि मनोनीत किए गए थे। इन सभी दुखी प्रसंगों के कारण त्याग और वैराग्य की मूरत बाबा तेग बहादुर जी की विस्मय बोध युक्त जीवन यात्रा वैराग से अभिभूत थी। गुरुजी ने अपनी रचित वाणियों को अत्यंत वैराग भाव से रचित किया था। आप की वैरागमयी बाणी इस तरह से अंकित है-
चिंता ता की कीजिए जो अनहोनी होइ।
इहु मारगु संसार को नानक थिरु नहीं कोइ।
(अंग क्रमांक 1429)
श्री गुरु तेग बहादुर जी का परिणय बंधन (आनंद कारज) 11 वर्ष की आयु में बाबा लालचंद जी की सुपुत्री बीबी गुजरी जी “गुरु के महल” के साथ संपन्न हुआ था, (बीबी गुजरी जी को सिख संगत सम्मान पूर्वक माता गुजरी जी के नाम से भी संबोधित करती है)। श्री गुरु तेग बहादुर जी ने 14 वर्ष की आयु में करतारपुर के युद्ध में मुगल सेनाओं के विरुद्ध लड़ते हुए अद्भुत युद्ध कौशल का परिचय दिया था। आप ने अपने नाम तेग बहादुर जी के विशेषण अनुसार तेग के धनी के रूप में अर्थात तेग बहादुर के रूप में प्रस्थापित हो चुके थे।
11 अगस्त सन् 1664 ई. को आप को नौवें गुरु के रूप में गुरता गद्दी पर विराजमान किया गया था। गुरता गद्दी के समय में उठे हुए विवाद को आप के परम भक्त मख़्खन शाह लुबाना ने गुरता गद्दी पर आपके हक के लिए संगत को सबूत प्रदान किया था। वर्षों की एकांत साधना और समर्पित भक्ति के कारण गुरु पातशाह जी मोह-माया से निर्लिप्त होकर एक बैरागी का जीवन व्यतीत कर रहे थे, गुरु पद के प्रति भी आप का रंच मात्र मोह नही था परंतु बार-बार निवेदन करने पर, गुरु-परंपरा की महान विरासत का दायित्व ग्रहण करने के लिये आप ने सहमति दर्शायी थी।
22 नवंबर सन् 1664 ई. को आप ने बाबा-बकाला नामक स्थान से लोक-कल्याण हेतु एवं धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु अपनी धार्मिक यात्राओं को प्रारंभ किया था। आप ने देश के विभिन्न प्रांतों की यात्रा की थी। विशेष रूप से सूबा पंजाब और हरियाणा में आप ने यात्राएँ कर सिखी के बूटे को प्रफुल्लित किया था। आप ने बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड होते हुए आसाम तक की यात्रा की थी। साथ ही साथ आप उड़ीसा, दिल्ली, हरियाणा के मार्ग से होते हुए पुनः पंजाब में पधारे थे। गुरु जी द्वारा आयोजित यात्राएँ धर्म प्रचार-प्रसार के लिए तो थी ही अपितु आप ने इन यात्राओं के माध्यम से अनेक आध्यात्मिक’ सामाजिक, आर्थिक उन्नयन और मानव जाति के कल्याण के लिए रचनात्मक कार्यों को अंजाम दिया था। आप ने इन यात्राओं के माध्यम से अंधविश्वास, रूढ़ियों की आलोचना कर नए आदर्शों को प्रस्तावित किया था। आप ने इन यात्राओं के माध्यम से अनेक रोगियों को रोग से मुक्त किया था। आप भी उत्तम वैद्य और आयुर्वेद चिकित्सक थे। जहाँ-जहाँ भी आप गये उन स्थानों पर लोक-कल्याण हेतु धर्मशालाएं बनाई। कई कुएँ खुदवाकर स्वच्छ पीने के पानी का इंतजाम किया था। आप ने अपने जीवन में अनेक परोपकार के कार्य किए थे। आप उत्तम वास्तु शिल्पकार थे, आप ने 19 जून सन् 1665 ई. को ग्राम सहोटा के समीप ऊंचे टीले पर मोहरी गड्ड (नींव का पत्थर) रखकर चक नानकी (श्री आनंदपुर साहिब जी) नगर का निर्माण किया था। उस समय में इस नगर की रचना अपने आप में वास्तुशिल्प का अनोखा अविष्कार थी।
उस समय के समकालीन हुक्मरान (सन् 1658 ई. से सन् 1707 ई. तक) जुल्मी बादशाह औरंगजेब की हठधर्मिता थी कि उसे अपने धर्म के अतिरिक्त किसी दूसरे धर्म का वजूद मंजूर नहीं था। औरंगजेब ने सभी आम जनता को इस्लाम धर्म स्वीकार करने का सख्त आदेश दे दिया था। उस समय के आदेशानुसार इस्लाम स्वीकार करो या मृत्यु को गले लगा लो, इस आदेश का जोर-जुल्म से पालन किया जा रहा था। जबरदस्ती तलवार की धार पर लोगों को इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जा रहा था। इससे अन्य धर्म के लोगों का जीवन अत्यंत कठिन हो गया था। उस समय औरंगजेब के अत्याचार से पूरे देश में त्राहि-त्राहि मच गई थी। उस समय कश्मीर के ब्राह्मणों ने पंडित कृपाराम जी के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल के रूप में गुरुजी से मिलकर जुल्मी औरंगजेब से बचाने के लिए गुहार लगाई थी। उस समय गुरु जी ने वचन किए कि यदि कोई महापुरुष शहादत देगा तो हिंदू धर्म को बचाया जा सकता है। निकट खड़े बाल गोविंद राय जी ने उस समय केवल 9 वर्ष 6 महीने की आयु की अवस्था में अपने पिता श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी को वचन किए थे कि पिता जी इस समय आप से बड़ा महापुरुष कौन हो सकता है? गुरु जी ने कश्मीरी पंडितों के माध्यम से उस समय के हुक्मरान औरंगजेब को सूचना भिजवाई थी कि यदि श्री गुरु तेग बहादुर जी ने इस्लाम कबूल कर लिया तो हम सभी भी अपना धर्म परिवर्तन कर लेंगे।
जुल्मी औरंगजेब ने गुरुजी की गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए थे। परंतु गुरु जी स्वयं अपने चुनिंदा सेवादार साथियों सहित दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए थे। गुरु पातशाह जी और उनके साथी भाई सती दास जी, भाई मती दास जी एवं भाई दयाला जी को मुगल सैनिकों ने गिरफ्तार कर अनेक प्रकार की शारीरिक यातनाएं दी थी। 9 नवंबर सन् 1675 ई. को दिल्ली के चाँदनी चौक में भाई सती दास जी ने जब इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इंकार कर दिया तो उन्हें रुई में लपेट कर ज़िन्दा जलाया गया था। भाई सती दास जी ने जुल्म के खिलाफ लड़ते हुए हँसते-हँसते शहादत का जाम पिया था। 10 नवंबर सन् 1675 ई. को इसी तरह भाई मती दास जी को भी इस्लाम ना कबूल करने के कारण बांधकर शरीर के बीच से आरे से चीर कर दो टुकड़े कर दिए थे। भाई मती दास ने हँसते-हँसते शहादत का जाम पिया था। अपनी अंतिम सांस तक आप जपु जी साहिब जी का पाठ करते रहे थे। 10 नवंबर सन् 1675 ई. को जुल्मी मुगल सेना ने भाई दयाला जी को एक बड़े बर्तन में पानी डालकर उबालकर शहीद कर दिया था। भाई भाई मती दास जी, भाई सती दास जी के सगे बड़े भाई थे। यह दोनों भाई और साथ ही भाई दयाला जी गुरुजी के परम-श्रद्धालु और हमेशा साथ में रहने वाले अत्यंत प्रिय निकटवर्ती साथी थे। आप ने अपने सिखों को शिक्षाएँ देकर वचन किये थे–
भै काहू कउ देत नहि नहि भै मानत आन।। (अंग क्रमांक 1427)
भाई मती दास जी और भाई सती दास जी के परदादा भाई परागा जी 6 वें गुरु हरगोबिंद साहिब जी के प्रमुख सेनापति थे और उन्होंने मुगलों से युद्ध कर मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति भी दी थी।
11 नवंबर सन् 1675 ई. को श्री गुरु तेग बहादुर जी के समक्ष समय के हुक्मरानों ने तीन शर्तों को रखा था। कोई करामात दिखाओ, या इस्लाम धर्म को कबूल कर लो और यदि दोनों शर्तों को मानने को तैयार नहीं हो तो मृत्यु के लिए तैयार हो जाओ। ऐसे कठिन समय में पूरे देश की आँखें गुरु जी के फैसले पर टिकी हुई थी। गुरु जी ने इंसानियत की जमीर को ज़िन्दा रखने के लिए स्वयं की शहादत का फैसला लिया था। सर्व कला संपूर्ण श्री गुरु तेग बहादुर जी अपनी आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा चाहे जो करामात दिखा सकते थे परंतु इंसानियत को जुल्म के खिलाफ आवाज उठाने का संदेश देने के लिए आपके द्वारा लिया गया फैसला इस पूरे मुल्क की तकदीर बदलने वाला था। विश्व के इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण मौजूद नहीं है कि किसी दूसरे के धर्म को बचाने हेतु स्वयं की शहादत को अर्पित कर देना। आप के द्वारा इंसानियत के जमीर को नंगा होता हुआ देखा नहीं गया था। इसलिए अपनी शहादत की चादर से आप ने इंसानियत के जमीर को ढककर इंसानियत अस्मत को बे-आबरु होने से बचा लिया था। जिसे एक कवि ने इस तरह से शब्दांकित किया है–
तेग बहादुर के चलत भयो जगत में शोक॥
है है है सब जग भयो जै जै जै सुर लोक॥
श्री गुरु तेग बहादुर जी की शहीदी से पूरे जगत में शोक की लहर फैल गई थी और दुनिया में हाहाकार मच गया था परंतु धरती तो धरती स्वर्ग लोक में भी गुरु पातशाह जी की शहादत की जय जयकार गूंज उठी थी।
उस समय गुरु पातशाह जी के परम भक्त भाई लक्खी शाह बंजारे ने गुरुजी के धड़ का संस्कार अपने घर में आग लगाकर किया था। वर्तमान समय में इस स्थान पर श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की स्मृति में गुरुद्वारा रकाबगंज की विलोभनीय इमारत दिल्ली में सुशोभित है। भाई जैता जी ने मुगल सैनिकों की आँख में धूल झोंक कर गुरुजी के शीश को लेकर श्री आनंदपुर साहिब की ओर प्रयाण किया था। उस समय श्री गुरु गोविंद सिंह साहिब जी ने भाई जैता जी को रंगरेटा, गुरु का बेटा’ की उपाधि से सुशोभित कर सम्मान किया था।
इस दुनिया में गुरु साहिब के दर्शाए मार्ग पर चलकर ही अमन और शांति कायम हो सकती है। सत्ता का गुरूर और जोर-जुल्म से आज तक कोई विजय प्राप्त नहीं कर सका है। अंत में इंसानियत के जमीर के रक्षक श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की पावन-पुनीत-पवित्र शहादत को समर्पित चँद पंक्तियां-
तिमिर घना, तमा गहराई, पर सत्य का दीप बुझा है क्या?
धर्म की ध्वजा, आकाश सम, तूफानों से झुका है क्या?
शहीद की पुकार में, है जग का उजियारा छुपा है क्या?
ज्ञान के सूरज को तमस ने कभी निगला है क्या?
श्री गुरु तेग बहादुर जी का साहस है इतिहास का गान,
जहां धर्म के रक्षक बनें, वहीं जीवन का बलिदान।
मिट गए मिटाने वाले, जब गुरुओं का ज्ञान जगा,
शमशीरों से सत्य रुका, ऐसा कभी हुआ है क्या?
नमन तुम्हें, हे त्याग के युगधरा, सत्य के प्रहरी महान,
श्री तेग बहादुर जी, तुम हो मानवता के अभिमान।
श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी की शहादत को सादर नमन!