अमर शहीद भाई मती दास, भाई सती दास
अमर शहीद भाई मती दास और भाई सती दास के इतिहास को परिपेक्ष्य करे तो ज्ञात होता है की, ऐतिहासिक स्त्रोतों के अनुसार महाराजा दाहिर सेन के वंशज श्री गौतम दास जी थे, गौतम दास जी’ श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ के समकालीन थे| जब गौतम दास जी ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ के सानिध्य में आए तो उन्होंने अपने आप को सिख धर्म की सेवा में समर्पित कर दिया था, ‘श्री गुरु अर्जुन देव साहिब जी’ ने आप जी को सिख धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए करियाला नामक स्थान पर भेजा था, यह स्थान जिला चकवाल पाकिस्तान में स्थित है| इस जिले में सनातन धर्म का प्रसिद्ध शिव जी का कटासराज नामक मंदिर समीप ही स्थित है| इसी स्थान पर श्री गौतम दास जी ने निवास कर सिख धर्म के बूटे को प्रफुल्लित किया था| अमर शहीद भाई मती दास जी और भाई सती दास जी के परिवार के सदस्यों ने लगभग 450 वर्षों तक इस करियाला नामक स्थान पर निवास किया था एवं यह संपूर्ण परिवार इस स्थान पर चढ़दी कला (खुशहाल एवं संपन्न) परिवारों में से एक माना जाता था|
यह छिब्बर परिवार जाति से मोहयाल ब्राह्मण परिवार है (इस परिवार को आम संगत “भाई जी का परिवार” कहकर संबोधित करती है), मोहयाल ब्राह्मण परिवार के पैतृक गांव के रूप में इस करियाला ग्राम को निरूपित किया जाता है| वर्तमान समय में इस करियाला ग्राम को मोहयाल ब्राह्मण परिवारों का जेरूसलम भी कह कर संबोधित किया जाता है| भाई मती दास जी का शूरवीर योद्धाओं का परिवार मौहियाल ब्राह्मणों की ढाल था कारण इस स्थान के पश्चिम में अफगानी शासकों का राज था एवं पूर्व में मुगल शासक शासन करते थे|
राजवंश के कुल दीपक भाई गौतम दास जी के सुपुत्र भाई पराग जी थे, भाई परागा जी ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ की सेना के महान सेनापति थे, सेनापति भाई परागा जी ने ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ के नेतृत्व में सन् 1628 ई. और सन् 1635 ई. के युद्धों में बड़ी शूरवीरता से हिस्सा लेकर अपनी अद्भुत बहादुरी का परिचय दिया था और इस युद्ध में मुगल बादशाह जहांगीर सेना के विरुद्ध लड़ते हुए अभूतपूर्व युद्ध कौशल का परिचय देकर गुरु पातशाह जी से शाबाशी भी पाई थी|
सन् 1635 ई. की करतारपुर की ज़ंग में ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ ने 14 वर्ष की आयु में अपने तेग नामक शस्त्र से जौहर दिखाकर दुश्मन के दांत खट्टे कर, बेमिसाल विजय प्राप्त की थी| इस युद्ध में एक सैन्य टुकड़ी का नेतृत्व भाई परागा जी ने किया था|
अपने दूसरे युद्ध में भाई परागा जी में अभूतपूर्व वीरता का प्रदर्शन कर भारी तादाद में मुगल सेना को नुकसान पहुंचाया था| इस युद्ध में आपकी दाहिनी बांह कट गई थी, पश्चात युद्ध के मैदान में दुश्मन से भाई परागा जी ने डटकर मुकाबला कर अपनी विजय को सुनिश्चित किया था| ऐसे शुरवीर सिखों के सम्मान में गुरु ‘श्री ग्रंथ साहिब जी’ की वाणी में अंकित है-
जउ तउ प्रेम खेलण का चाउ||
सिरु धरि तली गली मेरी आउ||
इतु मारगि पैरु धरीजै||
सिरु दीजै काणि न कीजै||
(अंग क्रमांक 1412)
भाई परागा जी की शूरवीरता और की गई सेवाओं से ‘श्री गुरु हरगोविंद साहिब जी’ अत्यंत प्रसन्न हुए थे और उपहार स्वरूप गुरु पातशाह जी ने भाई परागा जी को एक अति उत्तम नस्ल का घोड़ा ₹ 500 रोख एवं अपनी स्वयं की कृपाण भेंट स्वरूप प्रदान की थी| साथ ही गुरु पातशाह जी ने वचन दिए थे कि आप जी अपने पैतृक ग्राम करियाला में निवास कर सिख धर्म का प्रचार प्रसार करें|
भाई परागा जी के सुपुत्र लक्खी दास जी ने भी अपने पिता जी के पद चिन्हों पर चलते हुए सिख धर्म का प्रचार-प्रसार किया था| भाई लक्खी दास जी के सुपुत्र भाई हीरानंद जी ने भी अपना जीवन ‘गुरु पंथ खालसा’ की सेवा में समर्पित किया था| भाई लक्खी दास जी एवं उनके सुपुत्र भाई हीरानंद जी ‘श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी’ एवं ‘श्री गुरु हर राय साहिब जी’ की सेवा में समर्पित रहे थे|
जब ‘श्री गुरु हर कृष्ण साहिब जी’ गुरु गद्दी पर विराजमान हुए तो भाई हीरा नंद जी के भ्राता भाई दरगाह मल जी गुरु दरबार के दीवान के रूप में मनोनीत हुए थे| भाई दरगाह मल जी और उनके साथियों समेत दिल्ली से बाबा बकाला साहिब नामक स्थान पर गुरता गद्दी की समस्त सामग्री (नारियल, तिलक,कलगी और चावल इत्यादि) लेकर आए थे एवं भविष्य के गुरु को गुरु गद्दी पर विराजमान करने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य भाई दरगाह मल जी को सौंपा गया था| जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’, ‘श्री गुरु नानक देव साहिब जी’ की 9 वीं ज्योत के रूप में गुरता गद्दी पर विराजमान हुए तो उस समय में भी भाई दरगाह मल जी गुरु दरबार के दीवान थे|
वयोवृद्ध भाई दरगाह मल जी ने गुरु घर की भविष्य की सेवाओं के लिए अपने सगे भाई हीरानंद जी के सुपुत्र अमर शहीद भाई मती दास जी और भाई सती दास जी को समर्पित किया था| ऐतिहासिक तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि आयु में भाई मती दास जी, भाई सती दास जी से बड़े थे| भाई मती दास जी को गुरु दरबार का दीवान भी मनोनीत किया गया था एवं भाई सती दास जी फारसी, अरबी, उर्दू एवं ब्रजभाषा के विद्वान थे| आप जी ने गुरु पातशाह जी के मुखारविंद से उच्चारित वाणीयों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद भी किया था साथ ही गुरबाणी को तुरंत लिख कर सुरक्षित भी आप जी करते थे| भाई सती दास जी उत्तम दुभाषीये थे एवं गुरबाणी को सरल और आम भाषा में लिखकर संगत को पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य भी आप भी करते थे| इस सरल आम भाषा ने ही भविष्य में हिंदी और उर्दू भाषा का रूप धारण किया था|
जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को दिल्ली के चांदनी चौक में क्रूर यातनाएं देकर शहीद किया गया था तो उस समय की समस्त आंखों देखी घटनाओं का विवरण भी भाई सती दास जी ने स्वयं अंकित किया था| इस पूरे महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक साहित्य को औरंगजेब के सिपाहियों ने आप से जबरदस्ती लेकर नष्ट कर दिया था| ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ जब अपनी धर्म प्रचार-प्रसार की यात्रा के लिये देशाटन किया था तो अमर शहीद भाई मती दास जी और भाई सती दास जी ने गुरु पातशाह जी के सानिध्य में रहकर अपनी उत्तम सेवाएं प्रदान की थी| ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ दोनों ही भाइयों का अत्यंत लाड करते थे| उस समय में गुरु पातशाह जी ने स्वयं दोनों भाइयों के शीश पर दस्तार सजा के सम्मान प्रकट किया था|
9 नवंबर सन् 1675 ई. को अमर शहीद भाई मती दास जी को भी इस्लाम ना कबूल करने के कारण बांधकर शरीर के बीच से आरे से चीर कर दो टुकड़े कर दिए थे कारण जब ‘श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी’ को एक ऐसे पिंजरे में कैद किया गया था जिस में कोई भी व्यक्ति ना ठीक से खड़ा हो सकता था और ना ही ठीक से लेट सकता था और ना ही ठीक से बैठ सकता था साथ ही इस पिंजरे नुमा ज़ंगले में जगह-जगह नुकिले चाकू बांध के रखे हुए थे| जब गुरु पातशाह जी इस असहनीय दर्द को सहन कर, उस अकाल पुरख का बहाना मान कर, शुक्र मना रहे थे तो गुरु पातशाह जी की इस अवस्था को देखकर भाई मती दास जी अत्यंत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने गुरु पातशाह जी से हुकुम मांग कर कहा था कि यदि आप आदेश करें तो मैं अपनी आध्यात्मिक शक्तियों के जोर पर इस मुगल सल्तनत की दिल्ली से लेकर लाहौर तक, ईट से ईट बजा सकता हूं| जब इस घटना की चुगली उस समय में तैनात मुगल सैनिकों ने क़ाजी से की तो क़ाजी ने आदेश दिया था कि भाई मती दास जी की जुबान के दो टुकड़े कर दिए जाएं और इसी आदेश को पालन करने हेतु अमर शहीद भाई मती दास जी को लकड़ी की चौखट में बांधकर आरे से उनके दो टुकड़े कर दिये गये थे|
अमर शहीद भाई मती दास जी को शहीद करने से पहले उन्हें पुन: इस्लाम धर्म स्वीकार करने का लालच दिया गया था| उस समय अमर शहीद भाई मती दास जी ने उन जल्लादों से कहा था कि यदि मैं इस्लाम धर्म स्वीकार कर लो तो क्या मेरी मृत्यु नहीं होगी? इस पर जल्लादों ने कहा था कि यह कैसे संभव है? मृत्यु तो प्रत्येक व्यक्ति की होती है तो उन्होंने हंस कर उत्तर दिया था कि मृत्यु का आलिंगन करना है तो मैं अपने धर्म में रहकर ही मृत्यु को गले लगाएंगे| उस समय काजी की और से अमर शहीद भाई मती दास जी को पुन: लालच देकर कहा गया कि यदि आपने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया तो आपको जमीन-जायदाद दी जायेगी, हूरों के टोले भेंट स्वरूप दिये जायेगे एवं सबसे कीमती वस्तुएं आपके कदमों तले होगी, उस कठिन समय में भाई मती दास जी ने दृढ़ता से उत्तर देकर कहा था की मुझे से इस्लाम कबूल करवाना पत्थर में से दूध निकालने के जैसा होगा, इस उत्तर को सुनकर वातावरण निशब्द: हो गया था| जब अमर शहीद भाई मती दास जी को शहीद किया जा रहा था तो उनसे पूछा गया कि आप की अंतिम इच्छा क्या है? तो उन्होंने कहा था कि मेरा चेहरा / मुख गुरु पातशाह जी के सम्मुख कर दिया जाए| जब अमर शहीद भाई मती दास जी के शरीर के दो टुकड़े कर दिए गए तो भी उनके शरीर से उनके द्वारा उच्चारित जपु जी साहिब के पाठ की आवाज सुनाई पड़ रही थी| जब भाई मती दास जी के शीश पर आरा चलाया गया तो उन्होंने एकाग्र होकर जपु जी साहिब का पाठ प्रारंभ कर दिया था और जब आरे से काट कर उनके शरीर के दो टुकड़े हो गए थे तो उसके पश्चात भी उनके शरीर से जपु जी साहिब के पाठ की आवाज आ रही थी, तात्पर्य यह है कि अमर शहीद भाई मती दास जी का आध्यात्मिक बल इतना अधिक था कि उन्होंने जब तक जपु जी साहिब का पाठ पूरा नहीं कर लिया तब तक उन्होंने अपने प्राण नहीं छोड़े थे
आध्यात्मिक की इस सर्वोच्च अवस्था को ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी’ में इस तरह अंकित किया गया है-
गुरमुखि रोमि रोमि हरि धिआवै||
नानक गुरमुखि साचि समावै||
(अंग क्रमांक 941)
अर्थात् जो गुरमुख पुरुष होता हैं वह रोम-रोम से ईश्वर का ध्यान करता रहता है, हे नानक! इस प्रकार गुरमुख परम सत्य में ही विलीन हो जाता है| इससे यह सिद्ध होता कि एक आम इंसान का तो केवल मुख और जुबान ही बोलती है परंतु गुरमुख इंसान के शरीर पर स्थित करोड़ों रोम-रोम उस अकाल पुरख के नाम मे विलीन होकर बोलते हैं| शरीर के दो टुकड़े होने के पश्चात भी सर्वोच्च ध्यान की अवस्था में अमर शहीद भाई मती दास जी के शरीर का रोम-रोम जपु जी साहिब का पाठ कर रहा था और पाठ साहिब संपूर्ण होने के पश्चात ही अमर शहीद भाई मती दास जी ने अपने प्राणों का त्याग किया था| अमर शहीद भाई मती दास ने हंसते-हंसते शहादत का जाम पिया था। आप जी अपनी अंतिम सांस तक आप जपु जी साहिब जी का पाठ करते रहे थे। 10 नवंबर सन् 1675 ई. को दिल्ली के चांदनी चौक में अमर शहीद भाई सती दास जी ने जब इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इंकार कर दिया तो उन्हें रुई में लपेट कर जिंदा जलाया गया था। अमर शहीद भाई सती दास जी ने जुल्म के खिलाफ लड़ते हुए हंसते-हंसते शहादत का जाम पिया था।
अमर शहीद भाई मती दास और भाई सती दास की महान शहादत को सादर नमन!
लेख के उपरोक्त इतिहास की सभी महत्वपूर्ण जानकारी भाई मती दास और भाई सती दास के वंशज सरदार चरणजीत सिंघ जी छिब्बर (बिलासपुर उत्तर प्रदेश निवासी) से प्राप्त की गई है| इस परिवार के पास गुरु साहिब के हुक्मनामे और ऐतिहासिक दस्तावेज संगत के दर्शनों के लिए उपलब्ध है| अधिक जानकारी के लिए सरदार चरणजीत सिंघ छिब्बर (मो.9917076143) से संपर्क कर सकते है|